Monday, December 14, 2009
कचरा क्रांति !
दिन बीते बरस बीते, काल कलि ही रहा लेकिन शासन करने की ज़ारशाही और राजशाही जैसी पद्धतियां बदलने लगीं। नेपाल और भूटान जैसे देशों ने जनता का उल्लू काटने के लिए जनतंत्र लागू कर दिया, लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में एक शहर में एक सेक्टर के एक छोटे से कोने में जारशाही, नाज़ीवादी शासन के अवशेष कुछ दिमागों के कोनों में सड़ते रह गए। यहां एक राजा और राजकुमारी ने एक 200 गज के प्लाट में अपना ‘ग्लोब’ बसा लिया। ये इनका अपना आभासी जगत था। यहां इनका शासन चलता, इनकी प्रभुसत्ता। इस कोने में लोकतंत्र, संविधान, अधिकार, प्रदर्शन, योग्यता और ‘अभिव्यक्ति’ सब चुटकुला समझे जाते हैं। ज्ञान आधारित रोजगार की अर्थव्यवस्था में भी यहां नाज़ीवादी नियम ज़िंदा हैं। उन्नति के लिए ‘मेरिटोक्रेटिक सिस्टम’ नहीं केवल एक ही तंत्र काम करता है, राजकुमारी का वरदहस्त। इसी से सब सिद्ध हो सकता है। थोड़ा बहुत ‘जेंडरोक्रेटिक सिस्टम’ भी काम करता है। योग्यताएं इस प्लाट में पानी भरती हैं। शासन व्यवस्था ने अहलकार, सूबेदार, हवलदार और भी कई तरह के दार तैनात कर रखे हैं। गुप्तचर अमला इजराइल की खुफिया एजेंसी ‘मोसाद’ से भी उम्दा, जिसमें कई तरह के परजीवी (INSECTS) खूनखेंचू किलनी की तरह जनता का रक्तपान कर अपनी आजीविका कमा रहे हैं।
शासन के दीवाने ख़ास की रपटों के मुताबिक सब दुरुस्त चल रहा है। जनता मालपुए झाड़ रही है और राजा, राजकुमारी के गुण गाते धन-धान्य से पूर्ण, शासन का धन्यवाद कर रही है। योग्यता की जितनी परख इनके सूबेदारों और अलंबरदारों को है उसके मुताबिक सबको पर्याप्त दिया जा रहा है। ‘दारों’ की काग़ज़ी और गैरकाग़ज़ी रपटों ने शासन की आंख पर सुख-शांति का चश्मा बांध दिया था, लेकिन एक लावा कहीं धधक रहा था। जिस चमकदार राज्य पर शासक चमकते थे उसे चमकाने वाले अंदर अंदर ही अंदर लावा की तरह धधक रहे थे। अधिकारों को तरस रहे थे।
कहते हैं इतिहास खुद को दोहराता है। लुई सत्रहवें की तरह इन्हें भी यही भ्रांति थी कि भगवान ने इन्हें शासन करने के लिए भेजा है। सलाम बजाने वाले अदब से झुके रहेंगे और क्रांति नहीं होगी, लेकिन हद दर्ज़े के शोषण ने धैर्य को डिगा दिया और इतिहास एक बार फिर दोहराया जाने लगा। अद्भुत क्रांति फूट पड़ी। लुई को सत्ता से उखाड़ फेंका गया था लेकिन यहां सत्ता पर बेइज्ज़ती का घातक वार किया गया। कहते हैं जूता मारक मिसाइल है। निशाने पर लगे तो भी बेइज्ज़ती, चूके तो भी मिशन कंप्लीट, लेकिन यहां जूते से भी घातक मिसाइल छोड़ी गई थी। कचरा मिसाइल। कचरा क्रांति ऐसी फूटी कि चकाचक चमकने वाले फ्लोर पर गाढ़ा कीचड़ सना कचरा पड़ा था, और असंतुष्टों ने एक कुत्ते का शव सप्रेम भेंट किया था। इनको डांटने, हड़काने वाले अलंबरदार अपने-अपने दरबार छोड़ भागे। सबके चेहरों पर डर और आशंकाएं तैर रही थीं। क्रांति ने शासन का कचरा कर दिया था। जनता की आवाज़ ख़ुदा का नक्कारा। जनता के आक्रोश के आगे सरकार को घुटने टेकने पड़ते हैं। बदनामी के हज़ार पैर होते हैं। फैल गई। इज्ज़त शासन की चारदीवारी में थी, रुसवाई दूर तक गई।
क्रांति अधिकारों के लिए होती है। इस क्रांति ने भी अधिकारों की लड़ाई जीत ली। शासन अब भी भ्रम में है। रुसवाई उन तक नहीं पहुंची। काले शीशों में कैद वो एश्वर्य के चटखारे मारते धन पशु की तरह मस्त हैं। रपटें दुरुस्त हैं। शासन फल फूल रहा है। जनता अब भी मालपुए झाड़ रही है। खेत को बाड़ खा रही है। अलंबरदारों की टुकड़ी मौज उड़ा रही है। यही है राजतंत्र का चेहरा जिसे बरबादी की भनक तक नहीं लगती।
Tuesday, December 8, 2009
चिट्ठी की बरसी
मुझे चिट्ठी का केवल इतना महत्व पता है कि गांधी की हो तो महंगी और महत्वपूर्ण होती है। चिट्ठी कुछ दिनों में विलुप्त होने वाली है। डायनासोर युग पढ़ाने वाली किताबों में अब चिट्ठियों को शामिल किया जाना चाहिए। मैंने शायद दस साल पहले किसी रिश्तेदार की चिट्ठी देखी होगी। उसके बाद से अंतर्देशीय और पोस्टकार्ड विलुप्तप्राय हो गए लगते हैं। सरकार ने शायद इनके छापेख़ाने भी बंद कर दिए हों, और अगर चल रहे हैं तो बेवकूफी ही है। ग्लोबल वार्मिंग के इस दौर में क्यों पेपर और इंक बर्बाद करनी। उसके ऊपर से छापेख़ाने के सरकारी लोगों को मुफ्त की पगार बांटकर क्यों जनता के पैसे को तबाह किया जाना। भारत से गिद्धों की प्रजाति के बाद विलुप्त होने वाली दूसरी चीज़ चिट्ठी ही है। यूं तो मुझ फक्कड़ की औलाद पालने को कोई तैयार नहीं होनी, लेकिन अगर हो गई तो मुझे डर है कि मेरे बच्चे मुझसे पूछेंगे, ‘डैड वॉट द हैल इज़ चिट्ठी’? फिर क्या दिखाकर समझाऊंगा कि चिट्ठी इसे कहते हैं। अब तो बस बैंक के नोटिस और बीमा पॉलिसी की ख़बरें ही लोगों के दरवाज़े पर पड़ी मिलती हैं। मेरे दरवाज़े पर वो भी नहीं आते। इस लिए L फॉर Letter को तस्वीर के साथ किताब में शामिल किया जाना चाहिए। या फिर किसी आधुनिक रामचंद्र शुक्ल को तस्वीरों के साथ चिट्ठी पर निबंध पेलना चाहिए।
पहले चिट्ठी में भावनाएं कैद होकर सफर करती जाती थीं, अब चिट्ठी मर रही है। ईमेल से e-मोशन्स भेजे जा रहे हैं। पुराने ज़माने में बॉलीवुड जब बॉलीवुड नहीं था तो चिट्ठी ने इश्क, मौहब्बत के पैगाम पहुंचाए। शायरों के तमाम काम की चीज़ थी। ख़त लिख दे सांवरिया के नाम बाबू, लिक्खे जो ख़त तुझे, चिट्ठी आई है, जैसे गाने चिट्ठी की कोख से ही फूटे। अब चिट्ठी वहां भी मर गई, बाल बिगाड़कर बाज़ार में ‘डूड’ आता है। ‘चिक’ को प्रोपोज़ल मारकर निकल लेता है और फोन पर गुंटरगूं शुरू। सब इंस्टेंट है, लेकिन इंस्टेंट लाइफ में वेलेंटाइन डे, मदर्स डे, फादर्स डे, चॉकलेट डे, रोज़ डे, और भी कई डे मनाए जाते हैं तो फिर चिट्ठी डे भी मनाओ यार। कोई हमारे नाम भी एक रूमानी खत लिख दे तो दिल बल्लियों उछले। खैर चिट्ठी की बरसी पर इस रुदाली की उंगलियां अब रोते रोते अब दर्द करने लगीं। आपको रोना हो तो रो लीजिए।
Sunday, November 29, 2009
झूठमेव जयते !
झूठ वाले कहीं से कहीं बढ़ गए,
और मैं था कि सच बोलता रह गया।
Friday, November 13, 2009
उफ्फ! ये जो है ज़िंदगी
चेहरे पर निराशा और हाल-बेहाल
सिगरेट से ऊर्जा का कश खींचता
अपनी निराशा को सींचता
सुलगती सिगरेट के अंगारे में
उम्मीद तलाश रहा था
उड़ते धुंए को ज़िदगी का ‘प्रोपेलर’ समझ रहा था
फिर, बुझते अंगारे में मंद पड़ी उम्मीद को
जूते तले कुचल दिया
सिर उठाकर माहौल का जायज़ा लिया
‘आज’ भी रात के आगोश में समा गया
‘रोज़ाना उम्मीद’ का दिया बुझा गया
बस कुछ वादे, आश्वासन और लताड़ आज का हासिल है
चढ़ती सीढ़ियों में उम्मीद भरी थी
उतरती में निराशा
नौकरी इतनी मुश्किल है ?
सवेरे भूख का नाश्ता करके चला था
अब फ़ाके़ से पेट भरकर सो जाएगा
कल फिर यही सब
मांगना एक अदद नौकरी
बिना किसी गॉडफॉदर के
मिलेगी क्या ?
उफ्फ! ये जो है ज़िंदगी !
Tuesday, November 10, 2009
दर्द में डूबी हिंदी
Sunday, November 8, 2009
गधा चिंतन
हमारे बचपन में मास्साब को हर बालक में गधे की छवि जान पड़ती थी। इसलिए वो बिना कोई देर किए सब गधों को क्लासरूम से निकालकर स्कूल के आंगन में घास छीलने पर लगा देते थे, और सांझ ढले एक मोटी गठरी अपनी भैंसिया के लिए ले जाया करते थे। सब गधे, गधाभाव से अटल होकर तपती दोपहर में प्रणपूर्वक गधे की सी तन्मयता से घास छीलने का काम करते थे। जैसे गर्मी में अपने पीछे की सूखी घास देखकर गधा इस भ्रम में मोटा होता है कि आज उसने इतना खा लिया, वैसे ही इन गधों की सेहत भी घास के ही रहमोकरम पर थी। घास छिली तो जान बची, नहीं छिली तो हाड़ तुड़े। दर्जे़ में बैठते ही मास्साब कहते गधे के बच्चों सुनाओ पहाड़ा। क्या बजाते थे पकड़कर, मुक्का कमर में और वाइब्रेशन पेट के साथ ही पूरे कमरे में गूंज जाता था। विद्यार्थी से घसियारे ही भले।
गधों की दलभावना से हमारी राजनीति ने बहुत बड़ी सीख ली है। एक गधे के पीछे सैकड़ो गधे। जिधर एक चला उधर सब चले। यही तो राजनीति की धमनियों में रची-बसी मानसिकता है। एक वरिष्ठ गधे के पीछे सैकड़ों चमचे गधे, उनके पीछे टेल लैंप गधे। उन टेल लैंप्स के अलग पुछल्ले, पुछल्लों के अलग दुमछल्ले और दुमछल्लों के बाद आए किराए के गधे। जो गधा जमावड़ा रैलियों में जाकर सीपों-सीपों करते हैं। गधे की निजी प्रोटोकॉल है। वैसे ही नेताओं की भी प्रोटोकॉल है। सड़क पर खड़े होने के बाद गधे को वीवीआईपी सम्मान देते हुए रिक्शा से लेकर बस तक दाएं-बाएं से निकल जाती हैं। वैसे ही जब नेता निकलते हैं तो सड़कें जाम हो जाती हैं। राजनीति ने गधे से दलभावना, आंदोलन, बंद, हड़ताल, तोड़-फोड़, धरना, अनशन, चिंतन, बैठक, जाम पूर्ण रैलियां, लीडरशिप, प्रोटोकॉल जैसे अहम दृष्टिकोण लिए हैं, लेकिन आज आदि गधे के अंत के लिए राजनीति ही जिम्मेदार है। गधों के पतन की रिपोर्ट कहती है कि खराब सड़कों और बेहिसाब बोझे ने इनकी हड्डियों की ताकत निचोड़ ली है। खराब सड़कें इनके ही अनुयायियों की देन हैं। नेता जी सड़कों का पैसा हजम कर गए और गुरू को दक्षिणा में मौत का धीमा ज़हर दे गए। इसलिए गधे अब संन्यास ले रहे हैं। मैं हैरत में हूं। गधों से राजनीति सबसे पहले सबक सीखती है। अपने घरवालों के दुत्कारे जाने और विरोध जताने के बावजूद जिसने राजनीति से संन्यास नहीं लिया वह गधों को संन्यास लेते देखकर तुरंत इस फॉर्मूले पर अमल कर रहा है। एक वरिष्ठ नेता ने अपने संन्यास और पद त्याग के संकेत दे दिए हैं। ये शोध कहता है कि गधा राजनीति का अप्रत्यक्ष शुभांकर (मैस्कट) है। राजनीति में बाकी के लाचार गधों से पूछ लो अमल करेंगे या यूथेन्सिया का इंजेक्शन लेंगे ?
Wednesday, November 4, 2009
ब्रांड आतंकवाद
उसने बताया कि तुम आदमी सड़क के, लेकिन दुनिया ब्रांड से चलती है। ‘आदिदास’ का जूता पहने पैर को उठाकर जांघ पर चढ़ा लिया। नाम भले आदि ‘दास’ हो, लेकिन उसे पहनकर वो स्वयं को विक्रमादित्य के सिंहासन पर आरूढ़ समझ रहा है। आदिदास तरफ इशारा करके बोला जानते हो, फटीचर हो तुम। क्या पहचान है तुम्हारी ? U LAY MAN! वह मुझे समझा रहा है ब्रांड से आदमी की इज्ज़त में इज़ाफा होता है। ब्रांड के जाल में मुझे फंसाने की कोशिश करते हुए आदिदास नाम का जूते की आड़ में ब्रांड आतंकवाद से मेरी सादगी को कत्ल कर रहा है। मैं छटपटा रहा हूं, जिसे खरीदने की औकात नहीं उसे पहनूं कैसे ? वह कह रहा है कि तुम्हारे लिए बी ग्रेडेड ब्रांड का विकल्प खुला है। किसी कस्टम शॉप में जाकर धंस जाओ। हज़ार से नीचे-नीचे ब्रांड मिल जाएगा और तुम्हारी नाक बच जाएगी। अगर उसे भी पहन नहीं सकते तो इससे पिटकर ही अपना सम्मान हासिल करो। ब्रांडेड जूते से पिटना भी मेरे लिए सम्मान की बात हो सकती है मैंने कभी नहीं सोचा था। आधा घंटा ब्रांड बांचन के बाद निष्कर्ष निकला कि ब्रांड आदमी की पहचान बनाता है।
मैं हैरत में हूं, लेखनी से पहचान बनाने की कोशिश में जुटा हूं और इसने आदिदास, प्यूमा, ‘नाई-की’ का जूता पहनकर ही खुद को श्रेष्ठतम मानव श्रंखला में लाकर खड़ा कर दिया है। ब्रांड के दीवानों का दीवानापन न पूछिए। इनकी अपनी एक मात्र पहचान ब्रांड है। नाइकी, लिवाइस, पेपे जीन्स, वुडलैंड, एडिडास, रीबॉक, रेबैन से इनका आत्मगौरव जुड़ा है। इनका कोई दोस्त ब्रांडेड जीन्स, शर्ट, चश्मे ले आए तो इनके मुशाएरा-ए-चौक में उसका ही चर्चा होता है। दो दिन तक उसी को गौरव दीप बनाकर पूजते हैं। भविष्य में ब्रांड आतंकी सरकार से मांग कर सकते हैं कि अपने बाप के नाम की जगह ये ब्रांड का नाम मेंशन करेंगे। इसके लिए सरकार विशेष अधिसूचना जारी करे, या फिर मौलिक अधिकारों की सूची में इज़ाफा कर प्रावधान हो कि कोई भी स्वयं को ब्रांड पुत्र घोषित कर सकता है। कुल मिलाकर चौक पर आधा घंटे चले गाल बजाओ कार्यक्रम में ब्रांड आतंकवाद के मंच पर विचार हार जाता है। उसे न बोलने का अवसर मिलता है न ही उसे ब्रांड आतंकी समझना चाहता है। ब्रांड, विचार को पीछे धकेलने की साजिश है ! बताइये मैं क्या करूं ?
Tuesday, November 3, 2009
सपनों का, 'स्टेयरकेस'
ज़िंदगी की आपाधापी के बीच
जीने की जद्दोज़हद और किलस के बीच
लाचारी में जब इच्छाओं का दम घोंटना पड़े
जब अभाव खाली आंतों में गुड़क-गुड़क बोले
जब बोझिल मन किसी नाबदान की पुलिया पर बैठा दे
जब एक प्याला चाय दिन भर की भूख सुड़क ले
आंखों से बहते कीचड़ के साथ जब सपने बहने लगें
मन नाउम्मीदी के नाले में बहता दूर निकल जाए
फिर कहीं से एक उम्मीद बंधे
मेरे हिस्से का चांद टूटकर टपकेगा
गड्डमड्ड अंधेरे में पड़े मन को उम्मीद की सीढ़ी मिले
आपाधापी के बीच सकून की एक टिमकनी दिखे
जब आंखों के कीचड़ के साथ बहे सपने वापस लौट आएं
तब सारे अभाव संघर्ष बन जाते हैं।
आपाधापी बनती है संघर्ष
संघर्ष, मन रखने को देखे गए सपनों का आधार
ज़िदगी का रास्ता तय करने का जीवट
पनीले सपनों, रूमानी ख्यालों का ताना-बाना
सकून ढूंढने की सहज वृत्ति से पनपता है संघर्ष
कुछ नहीं एक भरम है
रोज़ जीते, रोज़ मरते इंसान की ज़िंदगी में
सपनों का 'स्टेयरकेस' है संघर्ष
Monday, November 2, 2009
...और बदल गईं चिट्ठियां
चिट्ठियां भी अब कारोबारी हो गईं
कॉरपोरेट तल्खियों की ब्योपारी हो गईं
आजकल यूं ही दरवाज़े पर पड़ी मिल जाती है
किसी में सूदखोर बैंक का नोटिस
कोई फोन बिल थमा जाती है
अब चिट्ठी में डर कैद है
क्या जाने लिफाफा घिसते ही
कौनसे नोटिस का जिन्न बाहर आएगा ?
जेब का सारा पैसा निगल जाएगा !
अब चिट्ठियां भटक जाती हैं
गलत पते पर डरावने मज़मून की चिट्ठी नज़र आती है
अब पोस्टल एड्रेस भी ‘मोबाइल’ हो गए हैं
मौसम का तरह बदल जाते हैं
हरकारे भी चिट्ठी फेंककर वापिस लौट जाते हैं
पहले चिट्ठी सौंपी जाती थी
खबर अच्छी हो तो बख्शीश दी जाती थी
प्यार की चिट्ठी हजारों कागज़ शहीद करके लिखी जाती थी
कटी पतंग सी, महबूबा पर गिरा दी जाती थी
तब चिट्ठी उम्मीद, उतावलापन छोड़ जाती थी
अब ‘कम्युनिकेशन मोड्स’ में गायब भावनाएं सारी हो गईं
चिट्ठी उम्मीद नहीं, आशंका हमारी हो गई
कॉरपोरेट तल्खियों की ब्योपारी हो गई
Saturday, October 24, 2009
ओबामा के लंबे पैर, छोटा व्हाइट हाउस
हमारे मुल्क के उदारवादी और अमेरिकी को इष्ट मानने वाले लोग भले ही इसे अनुकंपा के चश्मे से देखें, लेकिन यहां भी साम्राज्य की नीति ही झलकती है। ओबामा की नज़र सस्ती मैन पावर पर है। बाजार की लिक्विडिटी और हमारी बढ़ती परचेजिंग पावर पर है। अमेरिका के बाज़ार रो रहे हैं। उन्हें खरीददार चाहिएं। हमारे यहां तमाम हैं।
लेकिन ये महंगे पड़ सकते हैं। ओबामा साहब उतने पांव पसारिये जितना व्हाइट हाउस होय। भारत के करोड़ों लोग दो जून की रोटी को तरस रहे हैं। करो़डों रोज़ भूखे सोते हैं। एक दिन में व्हाइट हाउस के कनस्तर उल्टे हो जाएंगे। बीवी पाक कला के अहम औजार बेलन को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू कर देगी। इतनी जनता व्हाइट हाउस और ओवल ऑफिस में समा जाएगी कि अपने राशन के लिए माइग्रेशन को मजबूर हो जाओगे। यूं भी वियतनाम और खाड़ी युद्ध से ही वामपंथियों समेत अमेरिकाविरोधी सिंड्रोम के लोग व्हाइट हाउस को अपने सुलभ शौचालय के तौर पर इस्तेमाल करने का सपना सजाए बैठे हैं। कहीं यूं न हो कि दुनिया के दारोगा का ऑफिस दो रुपये के सिक्के में झाड़ा फिरने के काम आए।
Wednesday, October 21, 2009
ब्लू फिल्म का संस्मरण
जीभ के सहारे दाढ़ के पीछे फंसी पान की फुजली को खींचकर गाल में सेट करते हुए चित्तरकार बोले, इन्हीं लफड़ों में उलझकर रह जाना। कुछ दिमाग को आराम भी दो, वरना किसी दिन ब्रेन हैमोरेज से मारे जाओगे। माज़रा यूं है कि पीवीआर में ब्लू फिल्म लगी है। भई छोटे पर्दे पर बहुत बार देखी अब मौका है कि बड़े पर्दे पर भी टीप दी जाए। क्या कहते हो ? मैंने समझाने के लिए जैसे ही होंठ फड़फड़ाए तो बोले ना मत कहना। दलीलें और तक़रीरें करके सोने के बहाने ढूंढते हो। यार आज तो मान जाओ। ये मौके बार-बार नहीं आते। जानते हैं तुम पत्तरकार हो, पहले तुम्हारी खातिर पत्तल सजानी पड़ती है फिर कारज करने को राजी होते हो। चलो थियेटर में तुम्हारी टिकिट हम ले लेंगे। मैं चित्तरकार की अक्ल पर हंसा और कपड़े पहनने लगा।
चित्तरकार से दोस्ती भी पान बैठक गपाष्टक में हो गई थी। उन्हें जब पता लगा कि हम एक छोटे से अखबार के ख़बरनवीस हैं तो मिजाज़न पत्तरकार पुकारने लगे। उन्हें चित्तरकार पुकारने के पीछे हमारी रिसर्च है। सारे मोहल्ले के कोने, सड़कें, दीवारें और पार्क उनके पान प्रेम से रंगे हैं। पीक के पिकासो हैं। बिना पेंट ब्रुश के ऐसी-ऐसी अजीब और रहस्यमयी फाइन आर्ट की आकृतियां दीवारों पर उकेर देते हैं कि आर्ट रिव्यूअर्स के होश फाख्ता कर दें। कम्युनिस्ट पार्टियों के बड़े काम आ सकते हैं, जहां बैठे वहीं अपने चारों तरफ लाल दुर्ग की रेखाएं खींच देते हैं। कहते हैं पान वाणी पर संयम रखने का सबसे उम्दा माध्यम, लेकिन चित्तरकार पान साहित्य की इस गर्वोक्ति के भी चीथड़े कर चुके हैं। वो पान खाकर भी बोलते हैं रहते हैं और पीक का निर्झर बहता रहता है।
दड़बे से निकलकर हम साइकिल रिक्शा तलाशने लगे जो हमें ढो कर पीवीआर पर पटक दे। रिक्शा मिला तो चित्तरकार की ज़ुबान शुरू। ज्यादा पैसे बताते हो हरामखोर, रिक्शा में एसी लगा है या फिर एविएशन टरबाईन फ्यूल से चलती है। खैर, रिक्शा में सवार हुए तो किसी की AUDI-6 कार देखकर चित्तरकार कम्युनिस्ट हो गए। उसकी महिला सगी संबंधियों के लिए अपने दैहिक प्रेम की अभिव्यक्ति करके बोले सबकी कारें घरों में बंद करा दी जाएं। सब या तो पैदल चलें या फिर हमारी तरह रिक्शा पर। मैं बोला साइकल भी बेहतर विकल्प है। सारी उम्र मेहनत की बात करना, पढ़ना लिखना सीखो ए मेहनत करने वालों कहकर उन्होंने मुझे चुप करा दिया। फिर बात पहुंची ब्लू फिल्म पर, चित्तरकार ने जमकर अंग्रेजों को कोसा। गोरे हमारे मंदिरों की काम क्रीड़ा, काम कला सब चुराकर पर्दे पर उकेर रहे हैं। मूर्त रूप दे रहे हैं। काम किसी का नाम किसी का। अब हमारे देसी कलाकारों ने उस कला को जीवंत किया है तो भला हम उन्हें सराहने थियेटर तक भी नहीं जा सकते। बात मौज़ूं थी।
टिकट खिड़की पहुंचते पहुंचते फिर साम्यवाद ने आकर चित्तरकार को घेर लिया। व्यक्तिनिष्ठ भाव से बोले भई, एकलटिकटीय प्रणाली लागू करो। मैं समझ गया और डेढ़ सौ रुपये उनके हाथ पर धर दिए। अपना-अपना टिकट लेकर ऑडी की तरफ बढ़े तो चित्तरकार सड़क पार कर पान की दुकान पर लपके। मैं हैरत में कि जहां लिखा हो “Eatables are not allowed” ज़नाब वहां पान नोश फरमाएंगे। इन्हें ले जाने कौन देगा ? पीक के पिकासो लौटे तो मैंने बोर्ड की तरफ उंगली करके आगाह किया, जवाब आया अरे यार Eatables are not but chewable are allowed. मैंने सोचा इनकी बेइज़्ज़ती होने वाली है। Frisking में धरे ही जाएंगे, लेकिन हैरत की बात गार्ड्स को बाजीगर की तरह धोखा देकर चित्तरकार ऑडिटोरियम में दाखिल हो गए। बाद में पता चला की जूतों में पान का वज़न ढो लाए थे।
होठों के किनारों से सिसकारी मारकर पान की पीक खींचते हुए चित्तरकार बोले, आज पता लगेगा कि बॉलीवुड ने हमारी सबसे पुरानी और सामंती कामकला के निर्देशन में कितनी महारत हासिल की है। फिल्म शुरू हुई तो ज़नाब मछलियों की क्रील प्रजाति से लेकर Giant turtle तक के नाम गिनाकर डिस्कवरी ज्ञान बघारने में मशगूल हो गए। जैसे ही किरदार पर्दे पर नमूदार हुए चित्तरकार उतावले होने लगे, लेकिन कुछ ब्लू होने की आहट भी नहीं मिल रही थी। उधर संजय दत्त लारा दत्ता के साथ डूबते सूरज के सामने आत्मिक प्रेम की अभिव्यक्ति कर रहे थे तो इधर चित्तरकार उसके दैहिक स्तर पर मूर्त हो जाने की उम्मीद। काफी देर तक उम्मीदों के खिलाफ काम होते रहे तो चित्तरकार पान की पीक को सेफ कोने में डिपोज़िट करके बोले भई इससे तो बेहतर डिस्कवरी चैनल ही देख लेते। अब मेरी हंसी छूट पड़ी। उन्होंने मुझे कभी न माफ करने वाली नज़रों से देखा, शिकायत की, तुम सब जानते थे और मुझे नहीं बताया। मैंने कहा भाईसाहब आपने बोलने का मौके तो दिया होता। अब चित्तरकार चुपाचाप बाकी बचे पान घुलाने में मशगूल हो गए। ऑडिटोरियम का एक्जिट गेट खुला। रात घिर गई थी। तेज़ कदमों से सीढ़ियां उतरते हुए बेहयाई के साथ चित्तरकार ने खिड़की के शीशे पर एक और फाइन आर्ट उकेर दी। थूकने के बाद बोले खाक ब्लू है, साले बॉलीवुड वालों को ब्लू का मतलब ही नहीं मालूम और फिर हॉलीवुड की तारीफों के कसीदे काढ़ने लगे।
Saturday, October 17, 2009
ग्लोबल दीवाली की साजिश
लेकिन इधर भारतीय संस्कृति के भाजपाई चरवाहों को इस बात से रोष हो सकता है। निखालिस भारतीय त्योहार को विदेशों में मनाए जाने से इनकी किराए की भावनाएं आहत हो सकती हैं। सड़क जाम कर ये भावनात्मक ठेस का इज़हार कर सकते हैं। ओबामा और ब्राउन को धमकियां दे सकते हैं। उतना ही बड़ा हंगामा कर सकते हैं जितना बड़ा वेलेंटाइन डे पर करते हैं। जब ये वेलेंटाइन को अंगीकार नहीं कर सकते तो फिर ओबामा ने दीवाली क्यों मनाई ? ये साजिश हो सकती है। ओबामा को जब से नोबेल मिला है। शांति का दिखावा कर रहे हैं। दीवाली मनाने के पीछे भी प्रोपागैंडा है। ओबामा चाहते हैं कि वेलेंटाइन इंडिया हर शोहदा और बुड्ढा मनाए। भारतीय संस्कृति के खिलाफ साजिश नहीं चलेगी। लगे रहो इंडिनय विहिप एवं शाखाएं मोरल पुलिस।
Tuesday, August 25, 2009
रचनात्मकता का खौफ
आतंक और मौत के परकाले हमारे काम से थरथर कांप रहे हैं। उन्हें डर है कि पिछले बासठ साल से बड़े बड़े मीडिया हाउस जो काम नहीं करा पाए उसे हम चुटकियों में करवा लेंगे। पाकिस्तान को न तो हमारे राजनयिक ही मना पाए और न हमारे लोमड़ से चालाक नेता। भारत सरकार को भले ही हमसे उम्मीद न हो लेकिन भगोड़ों को डर है कि हम असंभव को संभव कर देंगे। उन्हें लगता है कि हमारी रचनात्मकता के आगे पाकिस्तान नतमस्तक हो जाएगा और भारत के साथ प्रत्यर्पण संधि कर लेगा। उसके बाद उनकी खैर नहीं। जिस मिट्टी में लोटकर वे शरण ले रहे हैं उसी सरज़मीन से उन्हें भगा दिया जाएगा और भारत के हवाले कर दिया जाएगा।
उन्हें ये भी लगता है कि रचनात्मकता की आड़ में हम भय का माहौल तैयार कर रहे हैं। जो उनके कोकीन के नशे में डूबे दिमाग में भी घर कर चुका है। अपने घूरा उसके घर करने का पाकिस्तान का सिद्धांत इन्होंने भी अपनाया। क्योंकि पाकिस्तान भी मुशर्रफ नाम के कूड़े को ब्रिटेन भेज चुका है। यही रास्ता इन्होंने भी अपनाया और अपना डर हमारे संस्थान के एक सम्मानीय अधिकारी के दिमाग में फोन के ज़रिए ट्रांसफर कर दिया। हड़कंप तो नहीं मचा लेकिन हलचल ज़रूर हुई। कुछ राष्ट्रीय अखबारों ने खबर को छापा भी। पुलिस जांच हुई, कुत्ते सूंघते हुए चले आए। हर आदमी उनको इमानदार मशीन की तरह समझकर कोने में खिसक रहा था। किसके मन क्या संशय था पता नहीं। पुलिस की कवायद समझ नहीं आई। टाइगर मेनन फोन दुबई से करते हैं और पुलिस बिल्डिंग में बम तलाशने आ जाती है।
मीडिया हाउस का मामला। पुलिस ने तहरीर ले ली और बिल्डिंग के बाहर एक पीसीआर वैन नाम की गाड़ी तैनात कर दी। जिसमें कुछ 52 साल तक के फुर्तीले अफसर तैनात हैं। मेनन के गुंडों का मुकाबला करने के लिए थ्री नॉट थ्री की एक खटके वाली रायफल उनके लटकते कंधे से पेट से सहारे झूल रही है। चाय वाले की बेंच को तोड़ते हुए सरकारी पहरेदार पूरी मुस्तैदी के साथ पैर पसारे और सिर पर गमछा रखे गर्मी को मात देने की कोशिश कर रहे हैं। उनके वॉकी पर नेपथ्य से चार्ली-चार्ली की आवाज़ फूटती है। चार्ली की पुकार सुनकर चरनदास दिखने वाला एक चार्ली भर्राई आवाज़ में खों खों के साथ कुछ जवाब देता है। उधर से कप्तान साहब के नाम पर एक संदेश हवा में तैरा दिया जाता है। जिसे सुनकर भी चरनदास चार्ली की तरह फुर्तीला या मुस्तैद नहीं दिखता है।
बातचीत होती है, सब एक कार्रवाई भर है भाईसाहब। कुछ नहीं होने वाला हमें और गर्मी में मार डाला। उसे माले मुफ्त दिले बेरहम वाले काम करने में मज़ा आता है और आज उनसे दूर है। उगाही का साधन छिन जाने से हमारी रचनात्मकता को एक भद्दी सी गाली देकर वो नाली में थूक देता है, लेकिन सवाल बरकरार है। क्या हम इतने रचनात्मक हैं कि पाकिस्तान में बैठे भगोड़ों और आतंकियों को आतंकित करे दें ?
Sunday, August 16, 2009
एडजस्टेबल गणेश
दिमाग में ये भी आता था कि भाई गणेश का भार चूहा आखिर कैसे सहन कर लेता है? ये आज भी हमारे लिए रहस्यमयी सवाल है। एक-दो बार प्रयोगधर्मी बालमन से प्रयोग की कोशिश की लेकिन ज़िंदा चूहा पकड़ने में कामयाबी हासिल नहीं हुई। या तो चूहा फिदायीन था या फिर हमारे पकड़ने में कोई कोर-कसर रह गई, ये भी हो सकता है कि हमारे चूहा गिरफ्तारी उपकरण उपयुक्त न रहे हों।
आज कल देखता हूं कि गजानन को बहुत छोटे से ‘स्पेस’, में ‘एडजस्ट’, किया जा रहा है। शादी के कार्ड पर तो कई बार मैंने गणेश को अलग-अलग साइज़ और चीजों में एडजस्ट होते देखा। कभी पीपल के पत्ते में, कभी एक आड़ी-तिरछी रेखा में, कभी कार्ड पर उभरी हुई दो तीन सुनहरी पत्तियों में, लेकिन कल टीवी देखते हुए किसी चैनल पर एक सीरियल का प्रोमो देखा।
गणेश लीला, सीरियल का नाम। गणेश लीला भले ही हिंदी में प्रसारित हो नाम अंग्रेजी में टिपियाया गया था। LEELA के पहले L में तोड़मरोड़ कर गणेश को ठेल दिया गया था। लगता था कि सेहतमंद गणेश कई साल बात यूथोपिया के दौरे से कुपोषण का शिकार होकर लौटे हैं। बस कान और आंख के अलावा सब कुछ भुखमरी की भेट चढ़ गया है। आंखे बाहर निकल आई हैं कान सूखकर टपकने वाले हैं और बाकी सेहत सुतकर नदारद हो गई है। ऐसा लगता था कि कोई भालू शीत निद्रा से अपनी ‘फैट’ चाटकर जागा हो। या फिर मानसून की बेरूखी से भारत के किसी ऐसे प्रदेश से लौटा हो जिसमें सूखे ने लोगों को सुखा दिया।
गणेश भक्तों के लिए एडजस्ट करते आ रहे हैं, और भक्तों ने उन्हें किसी लोकल या एक्सप्रेस ट्रेन के पैसेंजर डिब्बे का यात्री समझ रखा है। जब देखो सिकुड़कर बैठने की सलाह देते हैं। भई कब तक सिकुड़ेंगे गणेश? अब क्या ट्रेन की पटरी की तरह सीधा कर दोगे? तुम तो जनता हो एडजस्ट करना फर्ज़ है, देवता को क्यों एडजस्ट करा रहे हो उस पर तो सूखे की मार नहीं पड़ी, या फिर इरादा फैशन के मुताबिक ढालकर ज़ीरो फिगर देने का है?
Sunday, July 26, 2009
न्यूज़रूम का समग्र शब्द
कबीर, रहीम, रसखान को पढ़ा। उनके अमर, अमिट और खड़ी बोली के साहित्य में भी ये शब्द कहीं नहीं है। हिंदी खड़ी बोली साहित्य के प्रथम रचियताओं और कवियों की अक्ल पर भी अचंभा होता है कि उनके दिमाग में इतना सारगर्भित शब्द क्यों नहीं आया, जो हमारे न्यूज़रूम के भदेस विद्वान ने प्रचलित कर दिया। समग्र शब्द है, “पेलो”।
पेलो शब्द व्यवस्था के साथ भी है और खिलाफ भी। कभी एनसीपी की तरह कांग्रेस के साथ खड़ा होता है ये शब्द तो कभी आरजेडी की तरह मुंह मोड़ लेता है। कभी उस तरह खबरों की गाड़ी को पटरी पर पेलने की कोशिश करता है जिस तरह मनमोहन सिंह अर्थव्यवस्था की गाड़ी को पटरी पर पेलने की कोशिश में हैं। कभी-कभी प्रचंड हो जाता है, उसी तरह तल्ख हो जाता है जैसे समाजवाद कांग्रेस के खिलाफ था। सब मिजाज़ के ऊपर है कि कौन किस लहज़े में इस शब्द को पेल रहा है। ख़बर आती है तो गहमागहमी के साथ किसी गले से फूट पड़ता है, ब्रेकिंग आई है पेलो। पहला बंद पेलो होता है और दूसरे बंद में पेलो का नारा एक साथ कई गलों से स्वतःस्फूर्त फूट पड़ता है। न्यूज़रूम पेलोमयी हो जाता है। बड़ी ख़बर है एक प्रोग्राम तो डिज़र्व करती है भई। तो फिर एक प्रोग्राम पेलो।
दोपहर का वक्त, ऑफिस में सुबह से मंदा हो चुका पुराना स्टाफ दरियाई घोड़े की तरह मुंह फाड़ कर उबासी लेने लगता है। दरकार होती है अगली शिफ्ट में आने वाले कारिंदों की। तब कोई ख़बर आ भी जाए तो उसी तरह नज़रअंदाज़ करने की कोशिश की जाती है जिस तरह सरकार शहरी विकास को देखकर ग्रामीण विकास की अनदेखी करती रही है। विकास हुआ है, सरकार यही कहती है देखो फलां शहर, क्या कर दिखाया हमने। यही तब होता जब मंदा स्टाफ ख़बर चलाने के नहीं बल्कि पेलने के मूड में होता है। सुबह से पिल चुकी ख़बरों पर अपनी पारखी नज़र की भूरि-भूरि प्रशंसा पेलकर ताज़ा ख़बर पेलने की कोशिश की जाती है। पेलो तब भी कहा जाता है लेकिन इस तरह नहीं। पहला बंद फोड़ने वाले की आवाज़ ऐसी हो जाती है जैसे किसी परिजन की मौत की ख़बर सुना रहा हो। ख़बर आई है। दूसरा बंद धीरे से एक उबासी के साथ फूटता है, पेलो परे यार।
भूख लगे तो पेट में खाना पेलो। किसी के साथ तू-तू मैं-मैं हो जाए तो उसे पेलो। कोई नई लड़की ऑफिस में आ जाए तो उसे पेलो। विजुअल नहीं है ग्राफिक्स पेलो। सिस्टम हैंग है आईटी को फोन पेलो। आउटपुट में कमी दिखे पीसीआर को पेलो। ख़बर मे देर हो इनपुट को पेलो। हर बात में पिल पड़ो। पेलो में तरक्की है। जो पेलो को निर्झर इस्तेमाल करते हैं वो पेलो किंग की निगाह में कर्मठ होते हैं। बिना काम के व्यस्त रहना एक कला है। पेलो से ही इस कला का उदगम होता है। हर मौके पर फिट, चुस्ती और दुरुस्त रहने का फॉर्मूला है पेलो। लाइफबॉय या रिवाइटल को इस शब्द का कॉपी राइट हमारे भदेस विद्वान से खरीद कर विज्ञापन में पेल देना चाहिए।
सरकार को इस शब्द से कुछ सीख लेनी चाहिए। नीति, विदेशनीति, सुरक्षानीति, अर्थनीति, वाणिज्यनीति, स्वास्थ्यनीति सब में पेलो का इस्तेमाल होना चाहिए। फिर देश जरूर तरक्की की राह पर पिल पड़ेगा।
Tuesday, July 7, 2009
नियोक्ता से अपील!
पहले भी अंडरएस्टिमेशन का शिकार रहे और आज भी हैं। कंपनी ने एक साल के भीतर गधे की तरह जिम्मदारियों के बोझ तले दबा दिया। देख रहे हैं कि दूसरे गधे पंजीरी खा रहे हैं और हमें कंपनी गधा बनाकर भी अंडरएस्टिमेट कर रही है। प्रभो अब तो मान जाओ। कब तक सब्ज़ी के साथ मुफ्त मिलने वाले धनिए की तरह इस्तेमाल करते रहोगे। अब तो धनिया भी 15 रुपये पाव मिल रहा है। एक पव्वे की कीमत ही बढ़ा दो। शुभचिंतक सलाहें देते हैं, मोती पहनो, फलां पीपल पर जल चढ़ा आओ। हम तो इन दोनों ही मामलों में होशियार नहीं हैं, न भगवान को मना पा रहे हैं और न मैनेजमेंट के इंसान को। मानक हिंदी में कहें तो निरे सेक्युलर और टीटीएम (ताबड़तोड़ तेल मालिश) रहित हैं और यही सबसे बड़ी ख़ामी है।
कल प्रणब बाबू ने बजट जारी किया। इनकम टैक्स में छूट है। कृषि निवेश में इज़ाफा, कई छोटी-छोटी खुशख़बरी हैं। क्या करेंगे हम इन खुशख़बरियों का। हमारे लिए तो ये ऐसी ही हैं जैसे किसी औघड़ को कोई शादी की चमक-दमक के बारे में बताए। भाड़ में जाए इनकम टैक्स स्लैब जब इनकम ही नहीं। दो दिन से बजट की ख़बरे टिपिया रहे हैं। कोई हमारे दिल से पूछे। हम तो बजट की किसी कैटेगरी में फिट नहीं बैठते। न बीपीएल हैं न एपीएल। कोई राशनकार्ड ही नहीं बनवा पाए आजतक।
कभी-कभी अपनी क्षमताओं पर शक होता है। किसी काबिल होते तो सरकारी नौकरी नहीं करते? अब प्राइवेट मिली तो उसमें भी ऐसे मरे जा रहे हैं जैसे मुद्रा स्फीति के गिरते आंकड़ों के बीच आम ग्राहक। फिर लगता है कि अगर बेकारे होते तो कंपनी जिम्मेदारी भरा काम क्यों देती। प्रभो हमारी आपसे अपील है कि हमारा बोझ के बढ़ाने के साथ ही जेब में कुछ वज़न बढ़ा दो। कब तक घर से पैसे लेकर गुज़ारा करें। पड़ोसी ताने देने लगे हैं कि पढ़ाई-लिखाई बेकार गई। चौपाल और संन्यास में श्रद्धा रखने वाले हमसे बेहतर नज़र आते हैं। क्या संन्यास की राह पकड़ ली जाए ?
Wednesday, June 24, 2009
गीली-गीली छू का अर्थशास्त्र
ऊपर से बिजली बोर्ड की मेहरबानियों ने कसरत में भरपूर सहयोग दिया। थाली की तरह नाचता पंखा जब ठहरा तब मानो तीनों पंखुड़ियां दांत फाड़ कर मुझे खिझा रही थी। शवासन में पसीना तो सरकारी अमले की कृपादृष्टि से ही आ सकता है। जब कसरत से हरारत होने लगी तो मोबाइल का आखिरी रुपया कुर्बान करने का मन बना लिया। बिजली बोर्ड के दफ्तर का फोन मिलाया। कॉलर ट्यून जय गणेश देवा के साथ उनकी नींद का भी श्रीगणेश हो चुका था। संदेश था कि भगवान भजन करो और उनकी तरहा लंबी तान के सो जाओ।
मैक्डोनाल्ड जाकर बर्गर जैसे हो चुके लोगों को सलाह है एरोबिक्स और योग में हाड़ तोड़ने का कोई फायदा नहीं। घर के एसी और कूलर बंद करके सो जाएं। रही बात पंखे की तो बिजली बोर्ड उसे खुद बंद कर देगा। लेटे लिटाए पतले हो जाएंगे। जिम और जीम विरोधाभासी हैं। खूब जीमने के बाद भी जिम जाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। जिम में लोहे से लडा़ई लड़ने से बेहतर है कि बिस्तर पर लेटकर पतला हो लिया जाए। भई आखिरकार पसीना ही तो बहाना है। क्यों पैसे देकर पसीना बहाया जाए। पसीना बहता है तो आमदनी होती है, लेकिन यहां तो उलट है पसीना अपना बहाओ और जेब भरे जिम वाले की। तो बिस्तर पर लेटो और मुफ्त पसीना बहाकर अपनी खून पसीने की कमाई बचाओ। बिजली बोर्ड कितना लूटता है। आजमा कर देखो बिल कम आएगा और वज़न भी कम हो जाएगा। आइडिया पसंद आया हो तो कंसलटेशन फीस हमारे पते पर भेज दीजिए।
Monday, June 22, 2009
ठेले पर डेटोनेटर
ये तो हुई बात धर्मवीर भारती के बोझिल से अध्याय की जिसे पढ़ते-पढ़ते बोरियत खुद ही किताब बंद कर देती थी हम तो बस उसके कहे मुताबिक हाथों को जुंबिश दे दिया करते थे। अब एक और घटना उभरी है कोलकाता शहर से जो धर्मवीर भारती के इस अध्याय के एक किरदार से मेल खाती है। वो किरदार है ठेला, लेकिन इस किरदार के साथ आंखों को सकून देने वाली बर्फ नहीं है इस बार। इस पर है बम का डेटोनेटर। “ठेले पर डेटोनेटर”। माओवादी धर्मवीर भारती के ठेले पर डेटोनेटर लादकर मोक्ष का सामान ले जा रहे थे। बात सोच के घोडे़ दौड़ाने की है। सामान वही है। धर्मवीर भारती के किरदारों से मिलता हुआ। वहां ठेला और बर्फ था। यहां ठेला और डेटोनेटर। ठेला वही है। ठेले का बोझा बदल गया, लेकिन कई चीजें समान हैं। बर्फ पहले ही धुआं छोड़ रहा था और डेटोनेटर बाद में पूरे माहौल को धुआं-धुआं करने के लिए ठेले पर लाद दिया गया था।
मेरे नज़रिए से बर्फ की भाप से ठेला भापइंजन लगता था और डेटोनेटर तो इसे उड़ानचिड़ी या फाइटर जेट ही बना डालता। न ठेला बचता न डेटोनेटर। यूं तो डेटोनेटर भी बर्फ से रिलेट होता है। ये कारगुजारी पाकिस्तानी ज़मीन से स्पोंसर्ड होती है। ‘धमाके के प्रायोजक तहरीक ए तालिबान कॉस्पोंसर्ड हिजबुल मुजाहिदीन एंड जमात उद दावा, थाम दें ज़िंदगी’, ही होते। हिमालय से हिम। हिम पार से आया डेटोनेटर। ठेला शाश्वत है तब से आज तक। इस्तेमाल का तरीका विकसित हुआ है। आज हिमालय टप-टप यानी सीएनजी वाली टेम्पो में धुआं छोड़ता हुआ जाता है। ठेला खुद को उपेक्षित महसूस करता है। प्रसिद्ध साहित्यकार को एक अध्याय की सोच देने वाले ठेले का उपेक्षाबोध खत्म करने के लिए डेटोनेटर लगाकर फाइटरजेट बनाने की कोशिश की गई है।
हिमालय से बर्फ खिसककर आम लोगों की पहुंच से दूर पहुंच रही है। ठेला वहीं खड़ा है। अब इतना खास किरदार क्या मेरे जैसे किराएदारों के चिथड़े ही ढोता रहेगा। भई जलवा है। कुछ तो खास काम मिलना चाहिए। जनता यूं भी दुखी है। ठेले पर बर्फ देखकर आंखों को ठंडक मिलती थी तो अब सीधे आत्मा को ठंडक देने के लिए डेटोनेटर लेकर निकला है।
Thursday, June 18, 2009
केवट की मौत से उजागर हुए पाठ
ऐसा नहीं है कि राम साक्षात चले आए उसे पार कराने को। अक्ल की गोली दी थी। सो पुलिस की टांग के नीचे से निकल लिया। ये तो वैसा ही हुआ कि प्लेट में पड़ा मुर्गा उड़ान भर के निकल ले। पुलिस फैड़-फैड़ करती रही। तीन दिन तक अकेला केवट पुलिस के पैरों में रस्से बांधे रहा। अकेला पांच सौ पर भारी। सरकारी शूटर आंख मीचे राइफल की टिप पर देखते हुए गोली चलाते रहे। किधर गई किसी को नहीं पता। पांच-सात साल में एकाध बार तो गोली चलाने का मौका मिलता है। गोली चलने से राइफल का झटका सहन करें या निशाना लगाएं। शाबाश सरकारी निशानेबाजों।
हालांकि पुलिस ने आखिरकार उसे घेरकर मार ही लिया, लेकिन डकैत शिरोमणी केवट तो डकैत समाज में मिसाल बना गया। अब डकैत काली के बाद उसकी पूजा करेंगे। फिल्म डायरेक्टर नोट कर लें। भविष्य में डकैतों पर फिल्म बनाते हुए इस सीन को जरूर लगाएं। नहीं तो डकैत समाज विरोध प्रदर्शन पर उतारू हो जाएगा। अभिव्यक्ति हमारे उदार लोकतंत्र में सबका अधिकार है।
देसी और चुनावी चारण रचनाकारों के लिए अब डकैत समाज से भी बुलावे आने की संभावना है। उनके लिए संदेश है कि केवट की आमदनी वाली शहीदी पर भी कुछ कागज काले कर डालें। मुखड़ा मैं दिए देता हूं। “चित्रकूट में केवट ने जब, लिया था अपना डेरा जमाय। रामचंद्र संकट की घड़ी मदद देन को खुद चल आए। यूपी पुलिस को डकैत शिरोमणी ने, जमकर नाकों चने चबाए।” आगे खुद लिखो यार, सारा केवट पुराण नहीं लिख सकता, केवल ‘आइडियेटर’ की भूमिका ही निभा रहा हूं। ऐसे शब्दों से केवट को महिमामंडित करके लूटने वालों को लूटा जा सकता है।
यूपी पुलिस निराश न हो। मौके उनके लिए भी कम नहीं हैं। पुलिस भी अपने टीम वर्क को बेमिसाल करार देकर जलसा मना सकती है। इस बार यूपी पुलिस को पांच सौ गैलंटरी अवार्ड मिलने की प्रबल संभावना है। छब्बीस जनवरी को तमाम तमगे यूपी पुलिस को मिल सकते हैं। इसे कहते हैं ठोस रणनीति। केवट को मारने के लिए गांव को घेरकर रखा। उसे इधर-उधर गोलियां दागकर हैरान करते रहे। यहां पुलिस ने आबादी वाला इलाका होने के नाते पूरी सावधानी बरती और आखिरकार हैरान परेशान केवट को भागना पड़ा। भागने के लिए नाकेबंदी में छेद छोड़ा गया। यही तो रणनीति थी। इसी वजह से तो तीन दिन जंग लगी राइफलें साफ की गईं। खुले में घेरा। सकून से मारा। थका-थका कर ठोका। ऐसा अनोखा टीम वर्क अगर धोनी के लड़ाके कर जाते तो भोथरी याददाश्त का भारतीय प्रशंसक मुंह फाड़कर नहीं रोता। कुल मिलाकर तीन दिन चली मुठभेड़ से भाट-चौपाल गायन, और टीम इंडिया के लिए कई पाठ तैयार हुए हैं, तो यूपी पुलिस का शानदार टीम वर्क और रणनीति उभर कर आई है।
Sunday, June 14, 2009
हार की कसक से ढहता भगवा दुर्ग
चुनाव के बाद बीजेपी इस बात पर गौर करती रही कि हार का ठीकरा किसके सिर फोड़ा जाए। सभाएं हुईं, समीक्षाएं चलीं और नतीजे निकले की आडवाणी को बतौर प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट करना ही सबसे बड़ी खामी थी, इसके बाद पार्टी की प्रचार टीम ने कोढ़ में खुजली का काम किया। समीक्षा में कुछ खुलासे करने थे सो, तय किया गया कि सांगठनिक कमजोरी के चलते बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा। आडवाणी के कंधों से हार का बोझ हल्का करने के लिए प्रो आडवाणी खेमा पूरी योजना तैयार कर चुका था। गैर प्रबंधन और अंतर्विरोधों से भरी पार्टी में इस बात से कई नेता उखड़े पड़े थे, मन में झंझावात था और चिंगारी इस्तीफा बम बनकर फूट पड़ी। सिन्हा समेत कई नेता इस बात से काफी नाराज थे कि आडवाणी की टीम ने हराऊ रणनीति तैयार कर पार्टी को सत्ता से दूर रखा लेकिन इस बात को न तो आडवाणी की टीम मानने को तैयार थी और न खुद एक्स पीएम इन वेटिंग।
हार की कसक बुरी लगती है। कहां तो भाजपाई कुर्सी और मंत्रालयों की आस लगाए बैठे थे और इधर हार के बाद कुर्सी की छोड़ो बेंच और मूढ़े को भी तरस रहे हैं। टीस उठना लाजिमी है। इस विरोध के पीछे भले ही यशवंत पार्टी के तंत्र से खफा हों लेकिन विद्रोह के बीज हार और उसके बाद की उपेक्षा से ही उभरे हैं। अरुण जेटली का राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष बनना सिन्हा को हजम नहीं हो रहा साथ लोकसभा में भी उन्हें बैक बेंचर बनाया गया है। इन सारी बौखलाहटों को नैतिक मुलम्मा चढ़ाते हुए सिन्हा ने कहा है कि हार की पार्टी के पादधिकारियों और संसदीय दल के नेताओं को हार की जिम्मेदारी लेते हुए अपने पदों से इस्तीफा दे देना चाहिए। इस इस्तीफे के हथकंडे में बीजेपी का अंतर्कलह उभर रहा है। अगर बड़े पैमाने पर इस्तीफे बाजी चली तो सभी नेता अपने लिए पार्टी पदों पर संभावनाएं तलाशने में जुट जाएंगे।
कुल मिलाकर बीजेपी के नेताओं के केकड़ा हालात उभरकर सामने आ गए हैं। सब एक दूसरे को ठेलकर ऊपर जाने की जुगत लडा़ रहे हैं। पार्टी में उभरी धड़ेबाजी ने पार्टी का सिर-धड़ अलग करने की ठान ली है। सोचने वाली बात है कि वाजपेयी काल में जो दल कई पार्टियों के गठबंधन को लेकर बढ़ रहा था वो इस वक्त अपने ही नेताओं को एक लीक पर चलाने में असमर्थ नज़र आ रहा है। ये आडवाणी की नेतृत्व क्षमता पर भी बड़ा सवालिया निशान लगाता है। जो नेता अपने घर की कलह को चारदीवारी के भीतर ठंडा नहीं कर सकता है वो अगर प्रधानमंत्री बनता तो देश भर में सुलगते मुद्दों को विदेशी दखल से कैसे बचाता ? आडवाणी के बतौर पीएम इन वेटिंग बनने से पार्टी पहले ही खेमों में बंट गई थी हार के बाद की कसक ने इन खेमों को और भी मजबूत कर दिया है।
वह उन्माद और अटल बिहारी वाजपेयी का नेतृत्व था जो बीजेपी को दिल्ली दरबार की सैर करा लाया। अब तो दिल्ली दूर ही लगती है। दरअसल बीजेपी अपनी मूल प्रतिज्ञा और लक्ष्यों के बीच भटक रही है। भटकती राह पर सफलता मिले भी तो कैसे। मुद्दा था हिंदुत्व, लक्ष्य है सत्ता। एक ऐसे देश में जहां मिश्रित धर्म हों जहां ज्यादातर लोग मिलजुलकर सदभावना के साथ रहते हों वहां कब तक जनता धोखा खाकर बीजेपी को दिल्ली की गद्दी पर आसीन करती रहेगी। एक बार जनता के बीच खोया विश्वास मुश्किल से ही हासिल होगा। फिलाहल तो बीजेपी के हालात पतले हैं और यही कहा जा सकता है कि बीजेपी मूल प्रतिज्ञा और लक्ष्यों के बीच फंसकर रह गई है।
Saturday, May 30, 2009
बढ़ा मंत्रिमंडल, घटी हिस्सेदारी
उम्मीद थी कि मतदाता प्रतिशत, जातिगत समीकरणों और राज्यवार जीत के क्रम और रुझान के आधार पर मंत्रिमंडल का गठन किया जाएगा। लेकिन इस बार भी हिंदी पट्टी को गोबर पट्टी मानकर अनदेखा कर दिया गया। लेकिन कांग्रेस को दोबारा सिर पर चढ़ाने वाला यूपी निराश ही रहा। यूपी को अनदेखा करने से लगता है कांग्रेस अपने दलित और मुस्लिम मतदाता की वापसी को उसकी मजबूरी समझकर मान बैठी है कि उनके पास विकल्प नहीं बचे हैं। इस बार जातियों के जंजाल में फंसी यूपी की जनता ने जातिगत दड़बों से बाहर निकलकर मतदान किया था। राहुल की आंखों में उम्मीदों की फूटती किरण देखी थीं। उम्मीद की थी मंडल और कमंडल की राजनीति में फंसे सूबे को राहुल किसी नए आयाम तक ले जाएंगे, लेकिन मंडल और कमंडल छोड़ने के बेहतर नतीजे सामने नहीं आए। युवराज राहुल ने यूपी और बिहार में कांग्रेस में नई जान फूंकने का बीड़ा उठाया है। मंत्रमंडल में भागीदारी के लिहाज से तो कांग्रेस को यूपी बिहार में नई जमीन तलाशने में मुश्किल ही होगी। कैबिनेट गठन से पहले ये बात भी उभरी कि राहुल के मंत्रिमंडल में शामिल होने से इंकार के बाद सोनिया जी ने कहा कि राहुल नहीं तो यूपी से कोई नहीं। यूपी को केवल राज्य मंत्रियों से ही गुजारा करने के लिए छोड़ दिया गया।
चुनाव के नतीजे देखकर लगा था कि इस बार कांग्रेस अपने मंत्रिमंडल के साथ न्याय कर पाएगी। इस बार कांग्रेस के ऊपर यूपीए के हिस्सेदारों के हुआं हुआं का ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। अब मंत्रिमंडल देखकर तो यही लगता है कि इस बार फिर कांग्रेस गंठबंधन धर्म के बोझ की गठिया तले दब गई। इस बार घोर परिवारवादी करुणानिधि की वजह से गठन को टालना पड़ा। सहयोगियों की जिद के आगे झुकने की कांग्रेसी प्रवृत्ति पिछले पांच साल में कुछ मजबूत हो गई लगतीह है। वैसे सुझाव है कि करुणानिधि को एक अलग मंत्रालय दिया जाना चाहिए था। परिवार कल्याण मंत्रालय। अपने परिवार की तरह शायद देश भर के परिवारों का कल्याण भी कर देते। पिछली बार जहां गैर कांग्रेसी 23 मंत्री टीम मनमोहन का हिस्सा बने थे इस बार भी ज्यादा नहीं घटे। उनकी संख्या इस बार केवल 4 घटकर 19 हो गई। मंत्रिमंडल पिछली सरकार में भी 79 ही था और इस बार भी इतने सिपहसालार दिल्ली दरबार के फरमानों और योजनाओं को जनता तक पहुंचाने के लिए नियुक्त कर दिए गए हैं।
कुछ विश्लेषक इस बार मंत्रिमंडल को जोश और अनुभव का मिश्रण बता रहे हैं। ठीक है कुछ युवा और उच्च शिक्षित सांसदों के लिए साउथ ब्लॉक रास्ते खोल दिए गए हैं, लेकिन इनमें से कौन ऐसा है जो जमीन और जनता के बीच से उठकर देश की सबसे बड़ी चौपाल तक पहुंचा हो। इन युवा प्रतिभाओं में रजवाड़े हैं, राजनीतिक पृष्ठभूमि के परिवारों के युवा हैं जो अपनी बपौती को बढ़ाने के लिए बाप की साख पर चुनाव जीत आए हैं। पारिवारिक दायरे से एक भी बाहर नहीं है।
खैर काफी जद्दोजहद के बाद मनमोहन सिंह ने अपने मंत्री तय कर दिए, लेकिन तमाम कसरत और हरारत के बाद डॉक्टर साहब संतुलन बनाने में कामयाब नहीं हो सके। हालांकि मंत्रालय काबिलियत के हिसाब से बांटे गए लेकिन बात सही हिस्सेदारी की है। अब बस सरकार से उम्मीद विकास की करनी चाहिए। जनता चुनाव के बाद उम्मीद ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकती। टेक बैक पॉलिसी अमेरिका में है हमारे यहां नहीं। अमेरिका से एक और बात याद आई कि ओबामा पंद्रह मंत्रियों से काम चला रहे हैं और लोग खुश हैं और हमारी सरकार ?
Thursday, May 14, 2009
......अब इंतजार बदहाली का
सरकार ने भारत भाग्य विधाता कहने वाले हरचरना को कौनसा साटन का पजामा पहना दिया। हाल वही है कि जनता जुलाहे की लौन्डिया है और जुलाहे की लौन्डिया जोड़े को तरसी है और तरसती रहेगी। चुनाव के भोंपू पर जो हमारे होने का दावा कर रहे थे अब जरा उनसे बात करके देखिए। बातें यू लगेंगी जैसे मुंह पिटवा रहे हों। वादे किए थे चुनाव में जैसे माचिस की तीली की नोक पर तेंदुआ खड़ा कर देंगे। तपती धूप में अंडे की तरह सिकें हैं नेता। अब पांच साल तक आलपिन की नोक से आमलेट खाएंगे। एक और दिन इंतजार कर लो फिर जनता की बदकिस्मती का फैसला हो जाएगा। पता चल जाएगा कि संसद को गांव की तुगलकी चौपाल बनाने के लिए कौन-कौनसी गली के छंटे हुए पहुंच रहे हैं। संसद में जुबानजोरी से लेकर जूतम पैजार का कार्यक्रम इनकी ही बदौलत परवान चढ़ेगा। फिर होगा वादों पर गौर करने का सिलसिला। उनकी पूर्ति के लिए रकम की मांग और एमपीलैड बढ़ाने का हल्ला। वादे फिर अगले चुनाव के लिए रख छोड़े जाएंगे और जेब में नोटों की तह मोटी होती जाएगी। भाई काले खजाने पर तो तलवार टंगी है इसलिए स्विस तो भूल जाओ। अब किसी मटके में बंद करके घर के आस-पास ही नोट गाड़ दिए जाएंगे।
एक महीने जनता की बारी थी। खूब अकड़ी। नेताओं को मंच से दौड़ाया। अब नेताओं की बारी है। अपने घर में रहो घर फुंकता हुआ निहारो और तमाशा देखो। ऐसी मार मारेंगे कि आवाज़ भी न हो और जनता पहले से ज्यादा बदहाल हो जाए। दावे थे कि आएगी सरकार आपके द्वार। अब ले लो न सरकार आएगी और न उसके नुमाइंदे। भूल जाओ। कल तक साहब बने फिर रहे थे। एक वोट पर कुलांचे मार रहे थे। अब क्या है हरचरना की झोली में जिससे नेता डरेंगे। अब मिलने का नाम भी मत लेना नेता जी से। हो चुकी नमाज़ मुसल्ला उठाइये, फिर मिलेंगे अगले चुनावी महापर्व में।
Monday, May 4, 2009
कांग्रेस के बदलते समीकरण
सोनिया गांधी के अलावा युवराज राहुल ने भी डॉक्टर सिंह के नाम पर ही मुहर लगाने की अपील की है, लेकिन यूपीए के हिस्सेदारों को इस बार सत्ता में हिस्सा नहीं पीएम की कुर्सी चाहिए। इसलिए लालू-मुलायम-पासवान एक साथ यूपी-बिहार में चुनावी जंग लड़ रहे हैं तो शरद पवार के बारे में कुछ भी साफ नहीं है। पवार चुनाव के बाद किस करवट खिसक जाएं कहा नहीं जा सकता। पवार हालांकि हमेशा से यूपीए के साथ रहने का दावा करते रहे हैं, लेकिन तीसरे मोर्चे से अंदरूनी तौर पर करीबी बढ़ाते रहे हैं। भारतीय राजनीति में शायद पहली बार इस तरह का गठबंधन जन्म ले रहा है। कबीरपंथी न होने के बावजूद पवार एकदम न्यूट्रल गेम खेल रहे हैं। न इधर के न उधर के। अवसरवाद की राजनीति पहले से ही हमारे राजनीतिक पटल पर नेताओं को बनाती बिगाड़ती रही है। इस बार एक नया फैक्टर उभरकर आया है, ‘बहुगठजोड़वाद’।
पवार के साथ ही लालू-पासवान और मुलायम दिल्ली दरबार की गद्दी के रास्ते उत्तर प्रदेश और बिहार में सोशल इंजिनियरिंग करके अपने हक में ज्यादा से ज्यादा सीटें लेने की जुगत भिड़ा रहे हैं। हालांकि नीतीश का (EBCs) अति पिछड़ों की हिमायत का फॉर्मूला इनकी दाल नहीं गलने दे रहा है। फिर भई ये तिकड़ी पुरजोर कोशिश कर रही है कि इनमें से कोई पीएम बन जाए। कहने के लिए ये सभी यूपीए के साथ अब भी मजबूती से जुड़े हैं लेकिन पीएम के नाम पर यूपीए में सहमति नहीं है। इनका कहना है कि चुनाव के बाद यूपीए के सभी हिस्सेदार मिलकर पीएम का नाम तय कर लेंगे।
कांग्रेस मनमोहन सिंह के नाम पर अटल है। इस सारी उथल-पुथल को कांग्रेस चुनाव बाद के संकट के तौर पर भांप रही है। इसलिए कांग्रेस के संकटमोचक और रणनीतिकार प्रणब मुखर्जी ने कहा है 23 मई तक यूपीए का कार्यकाल है। फिलवक्त यूपीए के घटकों को स्थाई तौर पर इसका हिस्सेदार माना जा सकता है। प्रणव दा के बयान में गहरा राजनीतिक तजुर्बा बोल रहा है। मुखर्जी ने इस बात का इशारा दे दिया है कि 23 मई के बाद कांग्रेस कोई बड़ी खबर दे सकती है। कांग्रेस रणनीति की हवाओं में समीकरणों के बदलने की झलक मिल रही है और कांग्रेस ने नए साथियों की तलाश तेज़ कर दी है। इस लिहाज़ से देखा जाए तो कांग्रेस ने लेफ्ट के लिए दरवाज़े खुले छोड़ रखे हैं। चुनाव के बाद की राजनीति सत्ता के लक्ष्यों पर केंद्रित होगी और इस समय के मतभेद भुलाए जाने के लिए वाज़िब वज़ह भी। लक्ष्यों की पूर्ति के लिए अगर वाम-कांग्रेस एक साथ आ जाएं और तीसरे मोर्चे की बलि एक और बार चढ़ जाए तो कोई हैरत की बात नहीं होगी। क्योंकि वर्तमान मतभेद भी लक्ष्यों की ज़मीन पर पनप रहे हैं और चुनाव के बाद लक्ष्य पूर्ति के लिए मतभेद सौहार्द में बदल सकते हैं।
Friday, May 1, 2009
आईपीएल का कोठा
इस बार बड़ी आस थी आईपीएल से। सोचा था कि किसी की चिरौरी करके पास का जुगाड़ कर लेंगे और एकाध मैच हम भी अपनी निगाहों से पीट देंगे। ज़िंदगी में पहली बार लाइव मुजरा देखने को मिलेगा, लेकिन किस्मत ने साथ नहीं दिया। लोकतंत्र का पांचसाला जलसा इस जलसे पर हावी हो गया। पास का जुगाड़ तो हो ही जाता, बस पान गजरा और कुछ दस-दस के नोटों की गड्डी का इंतजाम बाकी था। वो भी हो ही जाता। एक दिन हम भी कुंवरसाहबों वाली ज़िंदगी जी लेते। सोचते कि पाकीज़ा, उमरावजान से लेकर गुलाल की माही गिल के ठुमके देख लिए। साउथ अफ्रीका जाने की औकात नहीं अपनी। जा सकते हैं अगर ब्लूलाइन दस रुपये में ले जाए। लेकिन ये हो नहीं सकता। आईपीएल वाले ही कोई ऐसी ट्रेन क्यों नहीं चलवा देते जो उनके प्रमोशन में सैट मैक्स पर सिडनी से मुंबई तक चलती थी।
मैच किसे देखना है जी। हम तो बस आईपीएल की चीयर लीडर्स को ताड़ने के लिए टीवी से थोड़ी बहुत देर के लिए चिपक जाते हैं। खिलाड़ियों की छोड़िए टीम तक के नाम याद नहीं हैं। बस आईपीएल इसीलिए देखते हैं कि कोई गेंद को पाले के पार कर दे और चमकती काली-सफेद लहराती, इठलाती और बल खाती उमरावजान एक और चुम्मा उछाल दे।
Monday, April 6, 2009
कुंवारेपन के किले की दरकती दीवार
खुद मां-पिताजी भी यही चाहते हैं। उन्हें दुल्हन की डोली में चारों धाम नज़र आ रहे हैं। ये नहीं जानते कि कुलवधु अब किलवधु भी हो सकती है। इस सुख के चक्कर में इनके चने-चबैने को भी खतरा हो सकता है। एकता कपूर को एक और सीरियल का प्लॉट मिल सकता है। सब मुझे ध्वस्त करना चाहते हैं। कुंवारेपन के किले पर लगातार कूटनीतिक हमले हो रहे हैं। समझाया जा रहा है। अब बिल्कुल सही उम्र है। शादी कर लो।
अरे उम्र और अल्हड़पन का अहसास मुझसे बेहतर कौन कर सकता है। मेरी उम्र तो शादी लायक तभी हो गई थी जब चौदह साल का था। मन हिलोरे मारता था। मोहल्ले की कई कामिनियों को देखकर कामदेव के तीर मन में गड़ते थे। वो तो वक्त का सर्जन बड़ा कारसाज है जो ज़ख्म भर दिए, वरना दिल में इतने छेद खुलते कि डॉक्टर आर के पांडा भी जान नहीं बचा सकते थे। सारा दिन सराकरी नल के चबूतरे पर काट देते थे। कोई मदमस्त, बेफिक्र सी पानी भरने आए और झुककर नल चलाए। वो क्या ज़वानी नहीं थी? एक झलक को तरसते थे। कहीं मिल जाए कोई नज़ारा। हैरानी से सुनते थे सबके तज़ुर्बे। मन ही मन कुढ़ते, साला कब एक मौका मिले और हम भी मिर्च मसाला लगाकर अपने एक्सपीरिएंस दोस्तों से शेयर करें। सबको जलते तवे पर बैठा दें। चौपाल के हीरो बन जाएं। अपने पुरुषत्व पर असली चौपाली मुहर लगवा लें और अपना सीना गुब्बारे की तरह फुलाकर रान बजाते फिरें। स्कूल छोड़कर भीड़ भरी बसों में सफर सुहाता था। क्या पता किसी हमारी जैसी प्यासी से गुटरगूं हो जाए। वो अलग बात थी कि साथियों को मौके मिलते रहे और हमें बस एक ही बात। ‘ढंग से खड़े हो जाओ ना’।
फिर ऐसे खिन्न हुए घड़ी-घड़ी बेइज़्जती से कि भीड़ भरी बसों का सफर ही छोड़ दिया। उसके बाद मोहल्ले की हर भाभी में संभावनाओं की तलाश लिए डोलते रहते थे। हमेशा ताक में कब भाभी चौके में बैठी हो और जाकर उसके पास बैठ जाएं। एक रोटी लेने के बहाने हाथ भी टच हो गया तो बरबाद वक्त की कीमत वसूल। गांव में इतना सौहार्द होता था कि पड़ोसी के घर में जाकर रोटी खा लो। कुदरत भी कमीनी है, बहुत परखा हमारा धैर्य। जब एक छुअन को तरसते थे, तब किसी ने ध्यान नहीं दिया।
अब इस लायक हुए कि अपना इंतज़ाम बिना ताम-झाम कर सकें तो पिताजी को कहावत याद आ रही है कि, ‘सयाना बाप पूत के पैदा होते ही घोड़ी का बंदोबस्त कर देता है’। उस उम्र में कभी ज़िक्र नहीं किया किसी ने जब सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी। अब कम्बख्त लड़की वाले मेरे भाव लगाने आ रहे हैं। हाल वैसा ही है जनाबों जैसे कसाई बछड़ा खरीदने से पहले दांत गिन रहा हो। दाम दे रहा हो। एवज़ में सामान दे रहा हो। ये लड़की वाले भी बीड़ीबाज की तरह होते हैं। लड़के देखते और रिजर्व करते जाते हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे बीड़ी पीने वाला बढ़िया बीड़ी पहले पीता है और थोड़ी कमतर को बंडल में वापस घुसेड़ देता है। अबे सुट्टा तो तुम्हीं कों मारना है बाद में।
बस हमें कोई शादी से कुछ और दिन बचा ले। कौनसा मुंह मेकअप कराके जाएं कि लड़की वाला दखते ही भाग जाए। मन प्रेमी बनना चाहता है अभी, पति नहीं। पति बनने लायक मैच्योर नहीं हुआ हूं। अभी कहां मिली है वो सपनों की शहज़ादी जो गोल बिस्तर पर लेटकर शहद से हमारा बदन चखे। आप कहेंगे फिल्मी है। वहीं से तो सीखा है। साला हीरो भी मुफ्त के मज़े करता है। ऊपर से डायरेक्टर को करोड़ दो करोड़ की चपत मारता है। अरे यारों ऐसे सीन के लिए डायरेक्टर को सौ दो सौ रुपये मैं अपनी जेब से अदा कर दूं। बस एक बार चांस तो दे दे।
शादी की इस आपाधापी और नुमाइश के बीच सोचता हूं। मनुष्य विवाहशील प्राणी है। विवाह के फेर में कितने ही विश्वामित्री मठ नष्ट हो गए। मैं तो फिर भी कामेंद्र कामुक बनने की जुगत में लगा रहता हूं। शादी तो करनी ही पड़ेगी। बस सोच रहा हूं कि कुछ और दिन कुंवारेपन का मज़ा उठा लूं। ज़िंदगी अपने ढंग से जी लूं। दोस्तों के साथ चौपाल पर मज़े करूं। फिर कहां मिलेगा ये सब। शादी के बाद तो ये हसरत ऐसी होगी जैसे पाकिस्तान से आतंक का सफाया करना। सारी पब्लिक को तोप के मुहाने पर बांध कर भी उड़ा दो तो भी कम्बख्त आतंकवाद नहीं मरेगा, और ज़नाबों बीवी से तो आतंकवादी भी डरते हैं। मैं तो अदना सा इंसान, मेरी क्या औकात।
Sunday, March 29, 2009
विद्यार्थियों भाड़ झोंको
Saturday, March 14, 2009
दिल्ली है मेरे यार, इश्क का कारोबार
शरम से शायरी कहीं डूब मरना चाहती है। अच्छा हुआ गालिब जिंदा नहीं हैं शायरी का पलीता देखने को। जिंदा बचे कुछ एहतराम लायक शायर मुंह बचाए फिरेंगे। बकौल शायर प्यार दिल से फूटता हो, यहां तो ईपी यानी ईयर फोन से फूटता है। पहले आंखों के रास्ते दिल में उतरता होगा, अब तो इंस्टेंट प्यार ने पुराने दकियानूसी रास्तों को बदल लिया है। कौन करे दिल तक लंबा सफर, खरामा-खरामा की बजाय अब तो कान से दिमाग की तरफ बढ़ जाता है प्यार। यही तो है कारोबार।
शायर कहता है वज़न बहुत होता है प्यार में, कहां है दिखाओ जरा। यहा् तो कई पट्ठे और चंद्रवदनियां ब्लूलाइन में कई प्यार का वजन ईपी के साथ ढोते रहते हैं। हम एक अदद अपना वजन लेकर ब्लूलाइन में कई बार चढ़ने में विफल हुए। प्यार को इन्होंने अपने साथ एडजस्ट करना सिखा दिया। पुरापाषाण काल के नाम को बदलकर उसकी इज्जत में इजाफा भी कर दिया। प्यार वैसे ही फ्रेंडशिप हो गया जैसे दफ्तरी Doc Boy और चपरासी Office Boy. क्या चोला बदला है जनाब। अरमानों के आंसूओं से जंग लगे प्यार पर फ्रेंडशिप का पॉलिश चढ़ा दिया। एकदम अनझेलेबल को सुटेबल बना लिया। इन्हें पता है कि दूसरे की पीठ खुजाने से अपनी खुजली नहीं मिटती। एक बार तो इन्हें देखकर भरम होता है। बैठे हैं, आस पास कोई नहीं, आसमान में निगाह गाड़े बोल रहे हैं, गोया किसी पारलौकिक शक्ति को आबे हयात का ऑर्डर दे रहे हों। बाद में पता चलता है कि ईपी से थोड़ा आधुनिक, ब्लू टूथ वाले हैं।
इस टेलीफोनिया प्यार में ये तो मालूम नहीं कि लगाव बढ़ता है, लेकिन खर्च जरूर बढ़ता है। इन ईपी वालों की अफोर्डिंग पावर बहुत होती है। मैं भी ठीक-ठीक कमा लेता हूं। फोन की छोड़िए पराठों का खर्च भी नहीं झेल पाता। एक दिन मत मारी गई और एक ईपी मैडम को रिंग दी। अरे फोन पर रिंग। उसने बिल और दिल एक साथ बैठा दिया। शायद कुछ बात बन जाती। पर हालात ऐसे हो गए कि अंगूठा खुद ही लाल बटन पर दब गया और टूं टूं टूं के साथ हमारी “फ्रेंडशिप” के आसार दिल की तरह बैठ गए।
Monday, March 9, 2009
'ड्राय डे' को ड्राय होली
Sunday, March 8, 2009
महिला दिवस या ढकोसला?
इस बार महिला सुरक्षा के दृष्टि से लोकसभा में विधेयक पेश किया गया The Protection of Women against Sexual Harassment At Work Place Bill,2007 कार्यस्थल पर होने वाले शोषण को रोकने के लिए इस विधेयक की भी लोकसभा ने अनदेखी ही की है। शोषण और तोषण का सिलसिला लगातार जारी है, लेकिन विधेयक विधायिका में ही पड़ा है। अदालतों तक पहुंचने में शायद अरसा लगे।
महिलाओं को सेहत के आधार पर देखने से साफ पता चलता है कि सुपर पावर बनने का दावा करने वाला हमारा देश पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका से महिला स्वास्थ्य में पीछे ही है। भारत में मातृ मृत्यु दर इन देशों के मुकाबले कहीं ज्यादा है। भारत में एक लाख प्रसव के दौरान 301 महिलाएं स्वास्थ्य व्यवस्था के अभाव में मर जाती हैं। जबकि पाकिस्तान में यह दर 276, नेपाल में 281 और श्रीलंका में 28 है। यूपीए सरकार ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में सकल घरेलू उत्पाद का तीन फीसदी हिस्सा स्वस्थ्य सुधार पर खर्च करने का वादा किया था, लेकिन वादा टूटने के लिए ही होता है और हुआ भी यही। आज तक जीडीपी का तीन फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च नहीं हो सका है।
कानूनी नजरिये से देखें तो हमारे देश में ग्रामीण महिलाओं की एक बड़ी आबादी अशिक्षा की चपेट में है और उन्हें अपने अधिकारों के बारे में जानकारी ही नहीं है, लेकिन शहरी और शिक्षित महिलाओं की बड़ी संख्या भी अपने अधिकारों को नहीं जानती। क्या वजह है? आज टीवी सीरियल में खोई शहरी आबादी की महिलाएं दिन में कितनी बार न्यूज चैनल लगाकर जानकारी हासिल करने की कोशिश करती हैं ? अपने अधिकारों के लिए कितनी सजगता से अखबार पढ़ती हैं ? महिलाओं की आत्मा टीवी सीरियलों में बसती है। बॉलीवुड से उनके सरोकार जुड़े हैं और ज्यादातर रुमानी खयालों की नगरी से निकलना नहीं चाहतीं। टीवी पर होती साजिश और शोषण उन्हें पसंद है उसके उपचार नहीं। अपने अधिकारों को जानने और स्वतंत्रता से जीने के लिए व्यवस्था के कील कांटे को जानने की जरूरत है। इसे जाने बिना अधिकार नहीं मिल सकते। ये नामुमकिन नहीं, बस दुष्यंत कुमार के शब्दों में एक पत्थर तबीयत से उछालना पड़ेगा।
जब भी महिला सुधारों की बात चलती है तो प्रभा खेतान की ‘स्त्री उपेक्षिता’ और कुर्तलएन हैदर की ‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो ही याद आती है’। कब हमारे देश के लिए ये शब्द अप्रासंगिक बनेंगे ?
Monday, March 2, 2009
घटती जमीन, घुटता किसान, संपत्ति का मौलिक अधिकार
स्वतंत्रता के बाद संविधान निर्मात्री सभा ने किसान हितार्थ औपनिवेशिक काल में किसान शोषण के आलोक में संविधान के अनुच्छेद 19 में मौलिक अधिकारों के वर्णन में संपत्ति के अधिकार का भी उल्लेख किया था। संसद की कार्यवाही में सत्तर के दशक से ही सवाल उठने लगे थे कि संपत्ति के मौलिक अधिकार को संविधान में संशोधन करके निकाल दिया जाए। संसद में इस संशोधन का आशय जमीदारों के कब्जे से जमीन के बड़े भू-भाग को निकालकर भूमिहीनों को देना था। 1978 को आशय पर सदन से बहुमत मिलने के बाद 44वें संविधान संशोधन को मूर्त रूप देते हुए संसद ने अनुच्छेद 19 (1) (f) को निकालकर अनुच्छेद 300 में संपत्ति के कानूनी अधिकार में डाल दिया। इस आशय पर आपातकाल का काला साया भी पड़ा और इसकी मूलभावना को सही तौर पर लागू न करके राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के चलते नेताओं ने अपने हित साधने शुरू कर दिए। किसानों और छोटे काश्तकारों को सरकारों ने कितनी जमीन दी इसके बारे में आम आदमी बेहतर तरीके से जानता है।
अब गैरसरकारी संस्थान गुड गवर्नेंस इंडिया फाउंडेशन के संजीव अग्रवाल ने इस अधिकार को फिर से संविधान में जो़ड़े जाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की है। वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने अदालत के सामने बहस करते हुए दलील दी है कि इस अधिकार को हटाने के आशय की पूर्ति हो चुकी है। इसलिए इस अधिकार को पुनः संविधान में जो़ड़ा जाना चाहिए।
दरअसल पुराने समय में जमीदारों से जमीन निकालना सरकार के लिए आसान नहीं था। अपने मौलिक अधिकार का इस्तेमाल करते हुए जमीदार सरकार को तक कोर्ट कचहरी घसीट ले जाते और कोर्ट से जमीन अधिग्रहण पर रोक लग जाती थी। उन दिनों वाकई जमीन अधिग्रहण टेढ़ी खार थी। लेकिन आज सरकारें जिस तरह से जमीन अधिग्रहण कर रही हैं। उसकी वजह से नंदीग्राम जैसे आक्रोश जनता में फूट रहे हैं। दिन लद गए जब किसानों के पास ज्यादा जमीने थीं। आज या तो हिस्सों में बट गईं या फिर किसी योजना की भेंट चढ़ गईं। हमारे यहां आज भी किसान की आजीविका खेती बाड़ी ही बनी है। सरकार की उदासीनता देखकर लगता नहीं कि खेती कभी उद्योग बन पाएगी। किसान की जिंदगी चलाने का एकमात्र जरिया खेती बाड़ी उससे सरकार विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) जैसी योजनाओं के नाम पर छीन रही है। आज जमीन के सूखे टुकड़ों पर खेती कर रहे किसान की हालत खस्ता है। सरकार खाद्यान्न के भीषण संकट के बाद भी नहीं चेत रही है। औद्योगिकरण के नाम पर छोटे काश्तकारों से भूमि छीनने के लिए सरकार ने सेज योजना का दुरूपयोग किया है।
चौदहवीं लोकसभा के अनिश्चितकाल स्थगन से पहले संसद में इस योजना के अंतर्गत होने वाले अधिग्रहण पर लगाम कसने के लिए संशोधन विधेयक भी लाया गया। यूं तो सदन ने इस विधेयक को ध्वनिमत से पारित कर दिया, लेकिन अब देखना है कि सेज कानून में इस बदलाव का जमीनी असर कितना कारगर होगा। धीरे-धीरे खेती योग्य जमीन कम होती जा रही है। औद्योगिकरण के नाम पर कंपनियों को दी जा रही जमीनों पर निश्चित समय सीमा के भीतर उद्योग नहीं लगाए जा रहे हैं। विश्व को हरित क्रांति का पाठ पढ़ा चुके देश के सामने ऐसा खाद्यान्न संकट उत्पन्न हुआ कि गरीब तबके को एक वक्त की रोटी मिलना मुहाल हो गई। सरकार नहीं चेती। अब वक्त है कि संपत्ति के मौलिक अधिकार को फिर से संविधान में जोड़ जाना चाहिए। इसके साथ खेती में सुधार के समेकित प्रयास भी किए जाने चाहिएं। तभी खेती योग्य जमीन बच सकेगी और देश खाद्यान्न जैसे संकट से सफलता पूर्वक बचने के साथ ही दुनिया भर को अनाज आपूर्ति करने में सक्षम बन सकेगा।
Wednesday, February 25, 2009
कांग्रेस नीत यूपीए की खुल गई पोल!
2007 में भारत निर्माण के अंतर्गत चल रही योजनाओं के लिए सरकार ने इक्यावन हजार करोड़ से ज्यादा राशि मंजूर की थी और इस राशि को स्वायत्त और गैरसरकारी संस्थाओं के खातों में स्थानान्तरित किया जा चुका था। कैग को दिए गए जवाब में संप्रग सरकार का कहना है कि योजना को जमीनी स्तर पर लागू करने वाली संस्थाओं ने असल में कितना रुपया खर्च किया है इस बारे में सरकार को कोई जानकारी नहीं है। कैग ने इस मामले में भ्रष्टाचार की गंध सूंघते हुए कहा है कि योजना लागू करने वाली इन संस्थाओं के खातों में दिया गया धन सरकारी खातों के दायरों से बाहर है। साथ ही यह राशि सरकारी चेक और बैलेंस के दायरे से भी बाहर हैं। कैग ने सरकार को लताड़ते हुए कहा है कि गैरसरकारी संस्थाओं को जारी किए गए रुपये में से न खर्च किए गए रुपये का ब्यौरा आसानी से नहीं पता लगाया जा सकता है। ऐसे हालात सरकार की लापरवाही से पैदा हुए हैं। संप्रग के आंक़ड़ों की बाजीगरी पर कैग ने कड़ा रुख अख्तियार करते हुए कहा है कि खातों में हेर-फेर के लिए सीधे पर तौर वित्त मंत्रायलय के खाता नियंत्रक महानिदेशक और व्यय सचिव को जिम्मेदार माना जाएगा और हर बात की जवाबदेही इनकी होगी। यह एक एतिहासिक फैसला है कैग ने पहली बार वित्त मंत्रालय को डाइरेक्ट पार्टी बनाया है।
कैग की रिपोर्ट ऐसे समय में आई है जब चुनाव आयोग कभी भी लोकसभा चुनाव के लिए तारीखों का एलान कर सकता है। चुनाव में आम आदमी के हित का राग अलापने वाली कांग्रेस की छवि को इस रिपोर्ट से लोकसभा चुनाव में धक्का लग सकता है, लेकिन मुझे यह मुमकिन नहीं लगता क्योंकि इस तरह की जानकारी आम आदमी के पास तक नहीं पहुंचती।
कैग ने आम आदमी के हित के बहाने सरकार की फिजूलखर्ची की तरफ भी इशारा किया है। कैग ने 2006 के आंकडो़ का हवाला देते हुए कहा है कि सामाजिक एवं ढांचागत विकास निधि (SIDF) का धन सरकार ने अन्य गैरजरूरी योजनाओं में बहा दिया। इस धन से विकलांगों के लिए रोजगार, ग्रामीण गरीब आबादी के लिए बीमा जैसे जनहित के काम होने थे जबकि सरकार ने इन योजनाओं के हिस्से के धन को कई सांस्कृतिक संस्थाओं को अनुदान देने के साथ ही प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 150वीं वर्षगांठ मनाने में खर्च कर दिया। 2007 में सरकार ने 6,500 करोड़ और 2008 में 6,000 हजार करोड़ रुपये सामाजिक एवं ढांचागत विकास के मद में जारी किए, लेकिन इन दोनों वर्षों में सरकार ने इस निधि का 3,000 हजार करोड़ रुपया गैरसरकारी संस्थाओं को अनुदान दे दिया और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में गैरजरूरी खर्च कर दिया। यहां एक बात सभी जानते हैं कि नौकरशाही में फैले भ्रष्टाचार को देखते हुए गैरसरकारी संस्थाओं को जनहित योजनाएं लागू करने के लिए सरकार ने साझीदार बनाया था। नब्बे के दशक में आई इन संस्थाओं ने शुरू शरू में जिम्मेदारी से काम किया लेकिन उसके बाद ये संस्थाएं भी भ्रष्टाचार की चपेट में आ गईं और साथ ही सरकार की जेबी संस्थाएं बन गईं। आज हमारे राजनेताओं के अपने खास लोग इन संस्थाओं को चला रहे हैं। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से लेकर संप्रग सरकार के मुख्य घटक और परिवहन मंत्री टी. आर. बालू पर भी संस्थाओं और अपने परिजनों को अनुचित लाभ पहुंचाने के आरोप लगे हैं। इससे पहले की सरकार पर भी ऐसे आरोप लगे हैं।
इसके अलावा सरकार ने “आम आदमी” यानी ग्रामीण आबादी को टेलीफोन सब्सिडी के लिए 20,000 करोड़ रुपये जारी किए, लेकिन इस राशि में से केवल 6,000 करोड़ रुपये ही इस मद में खर्च हो सके। बाकी के धन के बारे में सरकार कोई ब्यौरा उपलब्ध नहीं करा पाई है। 20,000 करोड़ रुपये की यह राशि सरकार ने 2003 से 08 तक सार्वभौम सेवा दायित्व निधि(Universal Service Obligation Fund) से इकट्ठा किए थे। बात साफ है कि बाकी बचे हुए धन से सरकार ने राजस्व घाटे की पूर्ति की है। खैर राजस्व घाटे की पूर्ति भी जरूरी है लेकिन इसके लिए आम आदमी को धोखे में रखने की कोई जरूरत नहीं है।
इन आंकड़ों को देखकर साफ पता चलता है कि सरकारें कैसे आम आदमी को बेवकूफ बनाकर अपना हित साधती रही हैं। आंकड़ों की बाजीगरी से नागरिकों को छला जा रहा है। कैग की रिपोर्ट हरेक वित्तीय वर्ष के बाद आती है और रद्दी की टोकरी में चली जाती है। उसे न सरकार तवज्जो देती है और न ही हम। आज हम अपने अधिकारों के लिए जागरुक हो रहे हैं। ज़रा सोचिए क्या हमारा अधिकार यह नहीं कि हम अपनी सरकार के खर्च के ब्यौरे को नजदीक से जानें और कैग रिपोर्ट को आधार बनाकर अपनी सरकार चुनने का फैसला करें?
Monday, February 23, 2009
जय हो! की जय
इक्यासिवें ऑस्कर अवॉर्ड्स में पहली बार भारतीयों ने धाक जमा दी। बेस्ट फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर ने इतिहास रचते हुए आठ ऑस्कर पर कब्जा किया। इसके अलावा उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर की बच्ची पर आधारित एक शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री फिल्म स्माइल पिंकी को भी बेस्ट शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री फिल्म के लिए एक ऑस्कर से नवाजा गया।
एक ऑस्कर की उम्मीद लिए हमारी कई फिल्में ऑस्कर दरवाजे से लौ़ट आईं, इसलिए मीर का एक शेर याद आता है। बारहा ये हुआ जाकर तिरे दरवाज़े तक, हम लौट आए हैं नाकाम दुआओं की तरहा, लेकिन सोमवार को सौ करोड़ लोगों की उम्मीदों को स्लमडॉग मिलिनेयर ने आखिरकार पूरा कर ही दिया। स्लमडॉग मिलिनेयर ने बेस्ट फिल्म का अवार्ड अपने नाम करके पूरी दुनिया में बॉलीवुड की धाक जमा दी। एक ऑस्कर के लिए तरस रहे भारत की झोली में आठ-आठ ऑस्कर डाल दिए। गोल्डन ग्लोब से जीत का सफरनामा शुरू करते हुए वाया बाफ्टा ऑस्कर में भी स्लमडॉग ने जय हो का झंडा बुलंद कर दिया।
सायमन बिफॉय के नाम बेस्ट अडॉप्टेड स्क्रीनप्ले के लिए पहले ऑस्कर का एलान होते ही स्लमडॉग ने भारत के फिल्म जगत में इतिहास की एक अमिट इबारत लिख दी। इसके बाद बेस्ट सिनेमेटॉग्राफी के लिए एंथनी डॉड मेंटल, बेस्ट साउंड मिक्सिंग के लिए रेसूल पोकुट्टी और स्लम डॉग मिलिनेयर की बेस्ट एडिटिंग के लिए क्रिस डिकेंस को भी ऑस्कर अवॉर्डस मिले, लेकिन अब भी हर भारतीय एक नाम सुनने को तरस रहा था और वो था ए आर रहमान। ये घड़ी भी जल्द ही आ गई। ए आर रहमान को ऑरिजिनल स्कोर के लिए बतौर सर्वश्रेष्ठ संगीतकार ऑस्कर से सम्मानित किया गया। जिस गीत जय हो ने भारत की जय का झंडा बुलंद किया उसके लिरिक्स के लिए गुलजार को बतौर सर्वश्रेष्ठ गीतकार ऑस्कर दिया गया। इस बार के लगभग सारे ऑस्कर उड़ा लेने के बाद बारी थी इस अज़ीमो शान फिल्म के निर्देशक डैनी बॉयल की, और बिना शक इस सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के नाम के साथ ऑस्कर विनर की मुहर लग गई। ऑस्कर की गिनती के लिहाज से देखें तो स्लमडॉग ने टाइटेनिक को भी पछाड़ दिया है।
इसके अलावा उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर के डिबही गांव की पिंकी ने भी इस खुशी में थोडी और मिठास घोल दी है। अपने कटे होंठ की वजह से उपहास का शिकार बनी इस बच्ची के संघर्ष और उसके होठों के इलाज पर आधारित कहानी स्माइल पिंकी को सर्वश्रेष्ठ शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री फिल्म के लिए ऑस्कर दिया गया।
ये केवल बॉलीवुड की ही नहीं बल्कि उन करोड़ों तरसती आंखों की जीत है जो ऑस्कर को अपनी धरती पर देखने के लिए तरसती रही हैं। आज लाखों नम आंखें जय हो का खम ठोक रही हैं। ए आर रहमान जैसे संगीतकार पर फख्र कर रही हैं। करोड़ों हाथ एक साथ मिलकर भारत की विजय पर ताल ठोक रहे हैं। हालांकि बॉलीवुड के किसी फनकार को अपना फन साबित करने के लिए ऑस्कर जैसी विदेशी सनद की ज़रूरत नहीं है, लेकिन अगर हमारी शोहरत में एक और सितारा जड़ जाए तो खुशी होना लाज़िमी है। मन कह रहा है कि रहमान आखिरकार तुमने कर दिखाया, रिंगा रिंगा रिंग को अंग्रेजों की खुशी का ही नहीं बल्कि स्लम की खुशी का संगीत बना दिया। जय हो की तान छेड़कर भारत की जय कर दी। तुम ऑस्कर में नामित होने के बाद पहले भारतीय हो जो ऑस्कर छीन लाए। सच है कि सोना आग में तपकर ही कुंदन बनता है, तो हम भी कहें जय हो।
Saturday, January 10, 2009
यार में रब दिखने के फायदे
बरसों की साधना के बाद भी ऋषि-मुनि ईश्वर के साक्षात दर्शन नहीं कर सके। इस गीत ने तो आशिक को ब्रह्मज्ञानी बना दिया। जब चाहे तब रब को देखे, वो भी लाइव। लाइव बात करे, और अगर उसका रब प्रकट न हो सकता हो तो उसके मोबाइल पर चौबीसों घंटे बतियाने की सुविधा है। वाह जी, मोबाइल वाला रब। जब चाहो एसएमएस से दुआ भेज दो। दुआ कबूल न होने पर रिमाइंडर भी भेजा जा सकता है। साधना, तपस्या में हड्डियां गलाने की क्या जरूरत। ओम, ओम करते बांबी बन जाने से बच गया ये आशिक। बैठे बिठाए जेनेटिकली मोडिफाइड भगवान तैयार कर लिया। शाबाश, आशिक और उसकी दूरअंदेशी को सलाम।
आशिक के पास वक्त होता है पैसा हो या नहीं। ऐसे हालात में अपने रब को प्रचारित किया जा सकता है। उसके आगे अगरबत्ती, लोबान, धूप, दीप करके। भूत प्रेत निवारण शक्तियों से लैस बताकर। रिद्धि-सिद्धि बरसाने वाली सोर्स बताकर। हमारी जनता तो हर मठ पर माथा रगड़ती है। आसानी से मान जाएगी। आमदनी का अंतहीन सिलसिला चल निकलेगा। आशिक भी इससे विलक्षणता को प्राप्त होगा। गौतम बुद्ध के गुण उसमें समा जाएंगे। अपने रब के प्रचार-प्रसार में लगे रहने से सदगति को प्राप्त होगा।
किसी भी मठ पर आया दान उसके पुरोहित का झोली में ही जाता है। बस मठ का ट्रस्ट न हो। यहां तो ट्रस्ट होने का सवाल ही नहीं। भगवान खुद ही अपने आशिक की आशिकी से खुश हैं। उसकी ये दुआ तो कबूल हो ही सकती है कि ट्रस्टियों की भीड़ में आमदनी के टुकड़े न किए जाएं। मंदी से लोटपोट बाजार में आमदनी किसे न सुहाएगी। इस आमदनी से रब को और भी खुश किया जा सकता है। ये चलायमान रब है जनाब। मॉल्स, सिनेमा, मेला, ठेला, रेहड़ी, गोलगप्पों पर मंडराने वाला रब। आशिक अपने रब का हाथ पकड़कर मॉल्स में डोलते हैं। उन्हें डर रहता है कि कहीं रब किसी महंगी जीन्स, गोगल्स या फिर किसी महंगे रेस्टोरेंट में न घुस जाए। इसलिए हाथ में हाथ डलकर या फिर गलबहियां करेक विंडो शॉपिंग करते हैं। या फिर एस्केलेटर की फुर्ती के सामने भुला दी गईं नाकारा सीढ़ियों पर बैठकर गप्पे मारते रहते हैं। इस आमदनी और मठ स्थापन के बाद इस तरह बैठकर कुछ नैतिक सीत्कारवादी लोगों को सुलगाने के बजाय खुलकर मॉल्स में डोला जा सकता है।
समाज का एक तबका आज भी इन आशिकों को पसंद नहीं करता, लेकिन मठ और मठाधीशों में तो इस तबके का अगाध विश्वास है। मठ स्थापन के बाद रब और उसके आशिक कैसे भी घूमें, कार में हो या बार में कोई रोक-टोक नहीं होने वाली। मोरल पुलिस को भी इनकी भक्ति में खलल डालने से पहले कई बार सोचना होगा। आशिकों को सरेआम गोली मार दिये जाने वाले जाटलैंड यानी मेरठ के खूंखार पंचों का विश्वास भी इस मठ में हो जाएगा। कम से कम आशिकों का खून तो बहने से बचेगा। क्राइम के चढ़ते ग्राफ पर भी लगाम लगेगी।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि गीत की इन लाइनों में गुप्त संदेश छिपा है बस समझने की जरूरत है। समझो आशिकों, और अगर आपको कोई और फायदा इन लाइनों से झांकता मिले तो मुझे जरूर बताना।