Monday, May 4, 2009

कांग्रेस के बदलते समीकरण

सत्ता का सेमिफाइनल यानी चौथे चरण का मतदान नज़दीक आते-आते राजनीतिक गहमागहमी तेज़ होती जा रही है। चुनाव से पहले एनडीए की दरारें उभर कर आईं थीं तो चुनाव के दौरान यूपीए भी दरकता दिखाई दे रहा है। यूपीए को मजबूती देने वाले कई दल चुनाव के दौरान छिटककर उससे दूर हो गए हैं। पवार जैसा पावर बूस्टर हो या लालू-पासवान जैसे बहुमत के समीकरण। सभी प्रधानमंत्री की कुर्सी का सपना लिए अपनी-अपनी अलहदा खिचड़ी पकाने में लगे हैं। कांग्रेसी पाला कमजोर देखकर सोनिया और राहुल गांधी का चिंता वाज़िब है। सोनिया गांधी ने चुनाव के पहले भी और अब भी बतौर यूपीए प्रधानमंत्री केवल मनमोहन सिंह का ही नाम उठाया है।

सोनिया गांधी के अलावा युवराज राहुल ने भी डॉक्टर सिंह के नाम पर ही मुहर लगाने की अपील की है, लेकिन यूपीए के हिस्सेदारों को इस बार सत्ता में हिस्सा नहीं पीएम की कुर्सी चाहिए। इसलिए लालू-मुलायम-पासवान एक साथ यूपी-बिहार में चुनावी जंग लड़ रहे हैं तो शरद पवार के बारे में कुछ भी साफ नहीं है। पवार चुनाव के बाद किस करवट खिसक जाएं कहा नहीं जा सकता। पवार हालांकि हमेशा से यूपीए के साथ रहने का दावा करते रहे हैं, लेकिन तीसरे मोर्चे से अंदरूनी तौर पर करीबी बढ़ाते रहे हैं। भारतीय राजनीति में शायद पहली बार इस तरह का गठबंधन जन्म ले रहा है। कबीरपंथी न होने के बावजूद पवार एकदम न्यूट्रल गेम खेल रहे हैं। न इधर के न उधर के। अवसरवाद की राजनीति पहले से ही हमारे राजनीतिक पटल पर नेताओं को बनाती बिगाड़ती रही है। इस बार एक नया फैक्टर उभरकर आया है, ‘बहुगठजोड़वाद’।

पवार के साथ ही लालू-पासवान और मुलायम दिल्ली दरबार की गद्दी के रास्ते उत्तर प्रदेश और बिहार में सोशल इंजिनियरिंग करके अपने हक में ज्यादा से ज्यादा सीटें लेने की जुगत भिड़ा रहे हैं। हालांकि नीतीश का (EBCs) अति पिछड़ों की हिमायत का फॉर्मूला इनकी दाल नहीं गलने दे रहा है। फिर भई ये तिकड़ी पुरजोर कोशिश कर रही है कि इनमें से कोई पीएम बन जाए। कहने के लिए ये सभी यूपीए के साथ अब भी मजबूती से जुड़े हैं लेकिन पीएम के नाम पर यूपीए में सहमति नहीं है। इनका कहना है कि चुनाव के बाद यूपीए के सभी हिस्सेदार मिलकर पीएम का नाम तय कर लेंगे।

कांग्रेस मनमोहन सिंह के नाम पर अटल है। इस सारी उथल-पुथल को कांग्रेस चुनाव बाद के संकट के तौर पर भांप रही है। इसलिए कांग्रेस के संकटमोचक और रणनीतिकार प्रणब मुखर्जी ने कहा है 23 मई तक यूपीए का कार्यकाल है। फिलवक्त यूपीए के घटकों को स्थाई तौर पर इसका हिस्सेदार माना जा सकता है। प्रणव दा के बयान में गहरा राजनीतिक तजुर्बा बोल रहा है। मुखर्जी ने इस बात का इशारा दे दिया है कि 23 मई के बाद कांग्रेस कोई बड़ी खबर दे सकती है। कांग्रेस रणनीति की हवाओं में समीकरणों के बदलने की झलक मिल रही है और कांग्रेस ने नए साथियों की तलाश तेज़ कर दी है। इस लिहाज़ से देखा जाए तो कांग्रेस ने लेफ्ट के लिए दरवाज़े खुले छोड़ रखे हैं। चुनाव के बाद की राजनीति सत्ता के लक्ष्यों पर केंद्रित होगी और इस समय के मतभेद भुलाए जाने के लिए वाज़िब वज़ह भी। लक्ष्यों की पूर्ति के लिए अगर वाम-कांग्रेस एक साथ आ जाएं और तीसरे मोर्चे की बलि एक और बार चढ़ जाए तो कोई हैरत की बात नहीं होगी। क्योंकि वर्तमान मतभेद भी लक्ष्यों की ज़मीन पर पनप रहे हैं और चुनाव के बाद लक्ष्य पूर्ति के लिए मतभेद सौहार्द में बदल सकते हैं।

3 comments:

अविनाश वाचस्पति said...

सभी समीकरण
और बदले चरण
छाप दिखेगी
चंद दिनों में

www.जीवन के अनुभव said...

सत्ता कि कुर्सी पर कौन बैठेगा ये तो आने वाला समय ही बताएगा। अब देखना ये है कि बहुगठजोड़बाद की रणनीति कितनी सफल होती है।
मेरे ब्लाॅग पर आने के लिए धन्यबाद। अभी आप मेरी मदद कर सकते है क्योंकि इस महिने के अन्त तक मुझे अपना अपना शोध कार्य पूरा करना है। और आपने सही पहचाना मैं आपकी सहपाठी मोनिका मेम की ही छात्रा हूँ अब तो उनकी शादी हो गई है और वे अपने ससुराल में है।

Urmi said...

शानदार लिखा है आपने! जब कि मुझे राजनीती में कोई दिलचस्पी नही है पर आपका पोस्ट पड़कर बेहद अच्छा लगा!