Friday, August 13, 2010

लड़की ताड़ने की सामाजिक स्वीकृति


बहुत पहले इसी ब्लॉग पर अपने कुंवारेपन के किले की दरकती दीवार के बारे में लिख चुका हूं। सलाह के रूप में हो रहे कूटनीतिक हमलों ने मेरे कुंवारेपन के किले की बुनियाद को हिला कर रख दिया है। कूटनीतिज्ञ कामयाब हुए, या कहें कि मनुष्य विवाहशील प्राणी है इसलिए मैं भी विवाह के लिए तैयार हो गया हूं। रिश्तेदार ऐसे खुश हैं जैसे किसी बूढ़े की मय्यत के वक्त गांव के लोग इसलिए खुश होते हैं कि उन्हें गंगा में डुबकी लगाने का सुंदर और मुफ्त मौका हाथ लगा है। अंतिम यात्रा वाहन में एक-दूसरे से चिपककर बैठ जाना है और घाट पर मिलने वाली सस्ती कच्ची दारू निंघोंटकर त्यौरियां तनाए लौट आना है। हमारा सामाजिक ताना-बाना ऐसा बुना गया है कि नश्वर आदमी के सुख-दुख की साथी अनश्वर दारू जन्म-मरण, समारोह सबमें साथ देती है। इसीलिए बारात और अंतिम यात्रा में दो बातें समान हैं, एक मुफ्त बस यात्रा और दूसरी दारू की चुस्कियां। ख़ैर अभी बात बारात की तरफ बढ़ रही है।

मुझे कुछ ऐसे वरिष्ठों ने सलाह की घुट्टी पिलाई जो रोज़ाना कलह कर, शोर मचाकर, गालियों के रूप में मोहल्ले वालों को पत्नी के प्रति प्रेम जताकर गृहस्थी का “सुख” भोग रहे हैं। उन्होंने मुझे ऐसे ही नसीहतें दीं जैसे अमेरिका ने इज़रायल को मानवाधिकार संरक्षण की सलाह दी। अपने घर में गुआंटानामो का झमेला नहीं सुलझा, मानवाधिकारवादी चिल्ल-पों मचाए हैं, और इज़रायल को मानवाधिकार सिखाने चले हैं। यही हुआ मेरे साथ, शादी के फायदे, गृहस्थी के तथाकथित आराम की सलाहें और आने वाली अपना भाग्य साथ लाती है जैसी दलीलों के घेरे में मुझे फंसा लिया गया। क्योंकि बहुमत के आगे किसीकी नहीं चलती और वैसे भी मतांध को आप कैसे उन्मूलन का सिद्धांत या नए विचार समझा सकते हैं ?

लड़की वालों की आवाजाही से जुते हुए आंगन में फसल बोने के बजाय लड़की देखने की योजना बनाई जाने लगी। परिवार की एक समिति बनी और तय हुआ कि फलां तारीख को अमुक की कन्या को देखने के लिए कूच किया जाए। अब मुख्य समिति से कुछ उपसमितियां बन गईं और खरीद-फ़रोख्त पर चर्चा होने लगी। उपसमिति की एक महिला सदस्या ने इस आशय से अंगूठी खरीदने का प्रस्ताव रखा कि लड़की पसंद आने पर चट मंगनी पट ब्याह कर देंगे, लेकिन मुख्य समिति के समक्ष प्रतिवादी होने के नाते और मेरे क्रांतिकारी (परिवार की नज़र में उत्पाती) दिमाग का ख़्याल रखते हुए इस प्रस्ताव को समर्थन नहीं मिला। सारी योजना बन जाने के बाद ‘कूचाधिकार’, मुख्य समिति के अध्यक्ष ने सुरक्षित रख लिया।

दिखा-दिखाई का गुप-चुप खेल किसी ऐसे वास्तेदार के घर खेलना मुकर्रर हुआ जहां अमुक जी पहली बार सपरिवार आए थे। पर्दे के पीछे का मेज़बान भी हमारी ही तरह पहली बार अमुक जी के परिवार से रूबरू हो रहा था। हालांकि अमुक जी बार-बार उसे अपना खास बता रहे थे लेकिन उनके परिवार की अनजान भीड़ को देखकर मेरी तरह उसकी आंखों में तैर रही हैरानी उनके पुराने वास्ते की असलियत का बखान कर रही थी। मैं द्वार पर तोरण, अक्षत छिड़कने वाली कन्याएं जैसे भव्य टाइप स्वागत की उम्मीद लगाए बैठा था, लेकिन चुपचाप गैलरी के रास्ते सोफा पर पसरने के बाद दो प्रकार की नमकीन एक प्याली चाय और कुछ काजू-बादाम से स्वागत कार्यक्रम पूरा किया गया।

अचानक आकर रुकी एस एक्स फोर से एक इनन्सान कम और यमदूत ज्यादा नज़र आने वाला आदमी नमूदार हुआ। ढीली, लटकी, अधरानी जींस, और अपनी गर्दन जैसी मैली टी-शर्ट के में फंसे हुए उस थुल-थुल चपरासीनुमा इंसान को किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी (MNC) में मैनेजर की पदवी से सम्मानित करते हुए मुझसे लड़की का जीजा बताकर रूबरू कराया गया। रिश्तेदार MNC में भी गौरव तलाश लेते हैं, जबकि आज के दौर में कई धर्मादा संस्थाएं, पिज्जा और बर्गर खिलाने वाली कंपनियां भी MNCs हैं।

देखने से वो भले ही चपरासी या किसी मजमे का मसखरा लग रहा था लेकिन उसकी व्यावसायिक मुस्कान और बातों ने साबित कर दिया कि वो मैनेजर बनने के लिए ही पैदा हुआ है। मेरी आमदनी जानने के बाद उसने अपनी बेढब नाक को कांटे में फंसी मछली की तरह फड़फड़ाया और मुझे अपना कॉम्पिटीटर मान बैठा। हमारे यहां कहावत है कि साढ़ू की क्या सराहना और साली से क्या बैर! इसी कहावत को वह नाक के माध्यम से चरितार्थ कर रहा था। इसके बाद उसने अपनी कंपनी, उसकी काली कमाई, इनकैम टैक्स के छापों से बचाव में काम आने वाली चतुराई का सगर्व बखान शुरू कर दिया। मेरी इंटेलेक्चुअल प्रोपर्टी को वो अपनी मैटेरियलिस्टिक प्रोपर्टी के सामने प्रोपर्टी मानने को तैयार नहीं था।

वो मुझे काठ की कोठरी में बैठकर ऊल-जलूल लिखने वाला कातिब समझ रहा था और उसकी किसी बात में मुझे रस नहीं आ रहा था। मुझे कम बोलने की सख्त हिदायत की गई थी इसलिए उसकी बखिया उधेड़ने की तमन्ना हसरत ही रह गई। उसे देखकर मेरे दिमाग में बस यही ख्याल आ रहा था कि किसी का दामाद होने के लिए इन्सान होने की नहीं बल्कि जुगाड़ू, कमाऊ और धूर्त होने की ज़रूरत है। क्योंकि उसके बेईमानी के किस्सों को सुनकर अमुक जी भी उसे होनहार शब्द से नवाज़ रहे थे। पैसे के लिए बौराई दुनिया का वह धांसू नमूना था। मुझे उस लड़की पर भी हैरत हो रही थी जो उसके कुरूप और मक्कारी दोनों पर मोहित होकर शादी के लिए राज़ी हो गई थी। मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि इस शादी के पीछे की वज़ह केवल पैसा था, दोनों तरफ का पैसा। अमुक जी ने बेटी के लिए मोटा मंथली “चेक” ढूंढा था और चपरासीनुमा मैनेजर ने सुंदर कन्या के साथ मोटा दहेज। लड़की ने क्या खोया क्या पाया इसका जवाब अभी तक नहीं ढूंढ पाया हूं।

मुझे इस खेल के आखिरी राउंड का इंतज़ार था, वो भी अब शुरू हो चुका था। साड़ी में लिपटी एक मत्स्य कन्या, जगमग करती मेरे सामने के सोफा के एक कोने पर आ टिकी। उसका बैठना ऐसा लग रहा था जैसे जताना चाह रही हो कि वो इतनी स्लिम है और सोफा इतना बड़ा। बदन पर चमकता सोना अमुक जी (नायब तहसीलदार) की रोज़ाना मेज़ के नीचे से होने वाली चमकती आमदनी की तरह चमक रहा था। चाय के दूसरे दौर के साथ बातचीत शुरू हो गईं और हम दोनों को ऐसा महसूस कराने की कोशिश की जाने लगी कि सब बातों में मसरूफ हैं और हमारे पास एक दूसरे को सिर से पैर तक निहारने का मौका है।

असलियत जो भी हो मैं ये मौका बिल्कुल नहीं चूकना चाहता था और उसकी निगाहें भी कुछ यही जता रही थीं। मुझे इस मौके पर अपनी कच्ची जवानी के दिनों की याद आ गई। कभी घर में पता लग जाए कि हम किसी लड़की की पीछे आ-जा रहे हैं या किसी से चक्कर चलाने की फिराक में हैं तो ढोल की तरह पिटने का बंदोबस्त हो जाता था और आज अपने और लड़की के पिताजी के सामने लड़की ताड़ रहे हैं तो किसी कोई दिक्कत नहीं। हमारी कमअक्ली के दौर से यही माहौल होता तो आज घर में बच्चे खेल रहे होते। इतने झमेले में पड़ने की किसी को कोई ज़रूरत नहीं थी।

ख़ैर अब खेल का आखिरी राउंड भी पूरा होने के कगार पर था और सामाजिक बातें सांसारिकता की तरफ घूमने लगी थीं। बीच-बीच में चपरासीनुमा मैनेजर गाल बजाकर अपनी मक्कारी के महान कारनामे अभी भी सुना रहा था। मैं अंदर से घबराया, सकुचाया सा वहां से उठकर भाग जाना चाहता था, लेकिन माहौल का भारीपन मेरे पैरों में जंज़ीरों की तरह लिपट गया था। कैसे भी करके मैं इस खेल में हारकर बिना ट्रॉफी के खाली हाथ सिर झुकाए लौट जाना चाहता था।

चंद बनावटी खिलखिलाहटों के साथ दिखा-दिखाई का शिखर सम्मेलन समापन की ओर बढ़ने लगा। दोनों तरफ की मुख्य समितियां गंभीर मुद्रा में आ गईं और माहौल अदालत जैसा हो गया। लड़की वालों की मुख्य समिति बनावटी विनय के कठघरे में खड़ी होकर बंदोबस्त की खामियों के लिए माफी मांगने लगी और हमारे फैसले के इंतज़ार में हम पर आंखें गड़ाकर खड़ी हो गई। हमारी मुख्य समिति ने अब ज्यूरी का रोल अदा करना शुरू कर दिया था। एक ऐसी ज्यूरी जिसकी बातों में राजनीति की तरह आश्वासन घुले हुए थे।

मैं उहापोह में था। नायब तहसीलदार की खर्चीली बाला मेरी इंटेलेक्चुअल प्रोपर्टी की शुद्ध और अल्प कमाई के साथ आखिर कैसे तालमेल बैठाएगी? अब मेरी हालत पीड़ित की तरह हो गई थी। ज्यूरी के सामने लड़की वालों की जगह मैं अपीलेंट की तरह खड़ा हो गया। मैंने ज्यूरी से हाथ जोड़कर फैसला रिज़र्व रख लेने की अर्जी लगाई। उस वक्त मंज़ूर हुई अर्ज़ी पर आजतक फैसला रिज़र्व है। धन्य है भारतीय न्याय प्रणाली। आखिर कहीं तो तेरी रिवायत ने मेरी ज़िंदगी बचाई, लेकिन कब तक? काश यह भी इस जन्म के मुकदमे की तरह अगले जन्म तक चल सकता।