Wednesday, March 24, 2010

सिंबोलिक कन्या जिमाई

चैत्र की अष्टमी और नवमी, दोनों दिन देख रहा हूं कि स्लमडॉग, मिलियनेयरों के घर में जाकर जीम रहे हैं। सोसायटी की महिलाओं ने पहले ही व्रत वाले दिन कन्याखोजी दस्तों का गठन कर दिया है। सब कन्या खोजते घूम रहे हैं। तलाश पूरी हो जाने पर पूरी सोसायटी का एक टाइम टेबल तय किया जा रहा है। फलां टाइम गुप्ता जी..अलां टाइम नौटियाल जी...अमुक टाइम बगीच साहब।

तो नवरात्रों में ‘बगीचों’ में गलीज़ दिखाई दे रहे हैं। ये वही गलीज़ हैं जिन्हें सोसायटी का गार्ड लतियाकर गेट से भगा देता है, लेकिन आज इनकी अगवानी के लिए साहब और मेमसाहब खड़े हैं। ये रैग पिकर्स आज देवी स्वरूप हो गए। मारामारी है साहब शहरों में, कन्याखोजी दस्ते दस दिन से हलकान दिखाई दे रहे थे। इन गलीज़ों को बुलाकर डायनिंग रूम में बैठाना भी इनकी मजबूरी थी। सोसायटी के एलीट लोगों की कन्याएं या तो रिज़र्व्ड थीं या फिर थी ही नहीं।

आज कन्या और लांगुर दोनों को जिमा कर कर्मकांड पूरे हुए। अब कल से फिर ये गलीज़ हो जाएंगे। इन्हीं में से कोई लांगुर आएगा...बोलेगा रद्दी पेपरेएएएए...तो मेमसाहब गार्ड से बोलकर लांगुर को बाहर फिंकवा देंगी। कोई देवी जब डोर बेल बजाकर रोटी मांगेगी तो उसे हड़का कर भगा देंगी।

आज लांगुरों के माथे रोली से पुते थे, सिर गोटेदार लाल चूनर से सजे थे। समाज के हाशिए पर पड़े काले कलूटे, नाक सुड़कते, चिथड़ों में लिपटे आज पूजनीय थे। याद रहेंगे इन्हें यह दिन। आमदनी भी हुई और जमकर हाइजीन भोजन भी खाया और वो भी बिसलेरी वाले पानी के साथ।

आज सुबह इन्हें देखा तो अपने बचपन के दिन याद आ गए। ग्रीष्म और शरद नवरात्रों पर हम भी बतौर लांगुर जाते थे। खूब जीमते, खाते और चरण पखवराते। उस दिन पूरे मोहल्ले को मेरी शरारतें बर्दाश्त थीं। पांच पैसे से पच्चीस पैसे दांत घिसाई में दिए जाते थे तब। खूब ख़रीज़ जेबों में भर लेते थे। पैसों के चक्कर में जगह-जगह बिन बुलाए ‘सलाही’ की तरह पहुंच जाते थे।

एक दिन पहले तैयारी की और, अष्टमी, नवमी का चिल्लर सीज़न कमाने के लिए मय थाली लोटा गांव के इब्ने बतूता बन गए। गांव में देवियों और लांगुरों के दो दिन मज़े में कटते थे। बाद में एक दूसरे से होड़ करते हुए चिल्लर की गिनती होती थी। एकस्ट्रा खाने की वज़ह से पेट में बादल गड़गड़ाने लगते थे। उसके बाद गांव की बीसियों देवियां और बीसियों लांगुर तालाब के किनारे हाजत की मुद्रा में लाइन बनाकर चिल्लर इकट्ठा करने की कीमत घुटनों के बीच हाथ फंसाए कांख कांखकर चुका रहे होते थे। सामुहिक हगास के बाद कुछ दुस्साहसी दूसरे स्पैल में थालियां उठाए नज़र आते थे।

ये पैसा कमाने की चाहत थी या फिर गांव में लड़कियों की कमी ये तब नहीं पता था, लेकिन होश संभालने के बाद पता लगा कि गांव में कितनी ही देवियां इस धरा धरती पर अष्टमी और नवमी जीमने के लिए अवतरित ही नहीं हो पाईं। शायद यही वज़ह थी कि देवियां मॉर्निंग दावत स्पैल के बाद तालाब का रुख करती थीं।

अब हालात और बिगड़े हैं। मां से बात हुई, कह रही थी कि पिताजी कन्याओं को ढूंढने गए हैं। गांव में भी ऐसी किल्लतों से दो चार होना पड़ रहा है। शहरों के तो हाल बुरे हैं। पड़ोसी भी हर महीने मोबाइल स्कीम की तरह बदल रहे हैं। स्थायी रिश्ते नहीं बनते। कन्या दुर्लभ हो रही हैं। इन नौ दिनों में जिन्हें हम पूजते हैं उन्हें जन्म से पहले ही अत्याचारों की आग में झोंक दिया जाता है।

महिला आरक्षण में दलितों, अल्पसंख्यकों नाम पर अंतरिम कोटे की मांग उठ रही है। इन लीडरान को पता है कि नारी की सामाजिक हालत कमोबेश दलित और अल्पसंख्यक ही है। फिर तेंतीस फीसदी का भला होने दें, क्यों आधी आबादी के हित में रोड़ा बन रहे हैं। भले काम में अड़ंगा डालकर विलंबनकारी संस्था की भूमिका छोड़ दें तो बेहतर। सेक्स रेशियो धड़ल्ले से गिर रहा है। इस रोकने में सरकारी योजनाएं भी धूल फांकती नज़र आ रही हैं।

आज का आईना कह रहा है कि कुछ और साल बाद जब आज की देवियां समाज की दबी कुचली नारी में तब्दील हो जाएंगी तो पूजने के लिए महज़ कुछ तस्वीरें ही बचेंगी। इसे कहेंगे सिंबोलिक कन्या जिमाई। फोटो को ही चटाओ खीर और हलवा। ऐसे ही प्रसन्न होगी काली और दुर्गा।

Friday, March 12, 2010

ओल्ड फैशन मोटापे का अपराधबोध !

होली पर पुराने कपड़ों की ज़रूरत पड़ी। यूं तो दुनिया हमें और हमारे पहनावे दोनों, को ही पुरातनपंथी समझती है, लेकिन कुछ कपड़े अभी भी हमारे लिए नए हैं। नए और पुराने दोनों तरह के कपड़े एक ही हैंगर पर टंगे हैं। भेद बस इतना है कि पुराने कपड़ों पर धूल की कुछ परतें जमा हैं। व्यक्तित्व में खोट ढूंढने वाले इसे मेरा आलस्य मान सकते हैं लेकिन धूल सने कपड़े इस बात का प्रमाण हैं कि पर्यावरण वाकई खराब होता जा रहा है, हवा में धूलकण टंगे हैं और पर्यावरण मंत्रालय महज़ बीटी बैंगन पर बवाल मचाए है।


जयराम रमेश की भावनाएं अगर इस बात से आहत हुई हों तो मुझे माफ़ करें। क्योंकि मंत्री महोदय बीटी बैंगन को ऐसे प्यार करते हैं जैसे देशभर के खेत उनकी जागीर हैं और देश भर के किसान सामंतियों की तरह बीटी बैंगन की फसल के आड़े आ रहे हैं। शायद इसीलिए उन्होंने बीटी बैंगन की फसल उगाने के लिए देश भर में आंदोलन छेड़ रखा है। रमेश जी आप नाराज़ न हों आपके एक काम की तारीफ भी कर रहा हूं। मैं जयराम रमेश से अपील करुंगा कि हवा से धूल खींचने वाली जो मशीन (रेसपिरा ला चित्ता) उन्होंने इटली से मंगाकर दिल्ली के राजीव चौक पर लगाई है उसे मेरे कमरे वाले इलाके में लगवा दें। वैसे भी राजीव चौक पर धूल उड़ती ही कहां है। माफ कीजिए भूल हो गई, सरकारी योजनाएं ग़ैरज़रूरी जगहों पर ही सफलता से चलती हैं।


खैर हैंगर पर टंगे-टंगे धूलसोख बन चुकी एक शर्ट मैंने खींचकर उतारी। बदन पर डाली तो ज़माने के तानों की तस्दीक हो गई। मुझे पिछले कुछ समय से मुझे ताने दिए जा रहे हैं कि मैं पत्रकार होने के बावजूद मोटाता जा रहा हूं। देश के मध्यप्रदेश से भले ही बुंदेलखंड काटकर उसे छोटा करने पर चर्चा हो रही हो, लेकिन मेरा मध्यप्रदेश बढ़ता जा रहा है। जब घर से आया था तो ज़ीरो फिगर था, लेकिन लोगों का मानना है कि राजधानी का सड़ांध मारता खारा पानी मेरे बदन को सूट कर गया है।


लोगों का मानना है कि मैं बहुत अच्छी रकम कमा रहा हूं या फिर ‘योजनाजीवी’ हो गया हूं। सरकार की तमाम योजनाओं में ‘इंप्लीमेंटेशन अथॉरिटीज़’ से मिलीभगत करके मोटा माल सूत रहा हूं। जिसका गुणात्मक असर मेरे बदन पर पड़ रहा है। उन्हें मैं कैसे बताऊं कि ऑफिस में मुझे सब्जी के साथ मिलने वाले मुफ़्त धनिए की तरह बेदर्दी से मरोड़कर इस्तेमाल किया जाता है, और मैं किसी भी तरह के प्राधिकरण या अधिकारी से नहीं मिलता। बल्कि मुझे मेरे ऑफिस के तमाम तथाकथित पत्रकारों की कथित ख़बरों में, ख़बरें कहां हैं ये ढूंढना पड़ता है। यदि 100 शब्दों पर शोध करने के बाद ख़बर मिल जाए तो उसे करीने से सजाना पड़ता है। इस प्रोफाइल को पेशेवर लोग कॉपी एडिटर कहते हैं। इसलिए मुझे लोग “सुराख़बाज़” (छिद्रान्वेषी) भी कहने लगे हैं।


लोगों के जलने-कुढ़ने से मुझे इतनी हैरानी नहीं जितनी कि मोटा होने से हो रही है। मेरा खाने का मेन्यू और जेब की औकात कुछ इस तरह है। सुबह ऑफिस के बाहर छप्पर के नीचे एक फैन यानी चायसोख्ते के साथ एक चाय चपासी जाती है। खर्च बराबर 5 रुपये। उसके बाद दोपहर को एक मित्र मेरी दीनता जानकर डब्ल्यूएचओ की तरह मेरे स्वास्थ्य का ख्याल रखता है और मुझे पोषाहार खिलाता है। दीनबंधु की कृपा, माने खर्च बराबर ज़ीरो। दड़बे में पहुंचने तक किराया भाड़ा और चाय चपास में 15 रुपये चित हो जाते हैं। इसके बाद दलिद्दर जेब कुछ खाने की इजाज़त नहीं देती। इस पर भी मैं हैरान हूं कि आखिर क्यों मोटाता जा रहा हूं।


मुझे लगने लगा है कि जनवादी सोच होने के बावजूद मैं जनद्रोही हूं। देश की आबादी का बड़ा हिस्सा भूखों है, पेट पसलियों से चिपका है और मैं मोटा होता जा रहा हूं। यकीन मानिए मैं उनके दर्द में मन से शरीक हूं, लेकिन तन कंबख्त साथ छोड़ रहा है। मुझे तन कलंकित करा रहा है। लोग मुझे देख, अभिजात या संपन्न बताते हैं। ये उसी तरह का आरोप है जिस तरह आईपीसीसी के चेयरमैन राजेंद्र पचौरी पर ‘अरमानी’ का सूट पहनने का आरोप लगा था। आजकल तो अभिजात लोग भी मोटापे से परहेज़ कर रहे हैं। इसके पीछे गरीबों से हमदर्दी नहीं बल्कि खूब कसरत हरारत करके वाइन और बटर चिकन पचाकर बवासीर से बचने की इच्छा काम करती है। मैं अभिजात न होने के बावजूद इन आरोपों में घुट रहा हूं।


लोग मुझे तिरछी नज़र से देखते हैं। उन्हें लगता है कि मैं यूपीए सरकार के प्रचार विभाग का कोई कर्मचारी हूं। जो ये दर्शा रहा है कि महंगाई नहीं है। यदि आपको संशय है तो मेरी सेहत पर निगाह डालिए। इस हष्ट-पुष्ट गोल होते बदन को देखिए। इसके बाद वित्त मंत्री के लिए आपके मन में भरा मैल निकल जाएगा।


उधर सरकारी आदमी मुझे इस नज़रिये से देखते हैं जैसे मैं कोई जमाखोर हूं जिसने अनाज और खाद्य सामग्रियों की जमाखोरी करके सेहत बनाई है। नित बढ़ती महंगाई उनके शक को और भी गहरा कर रही है। शायद वो ये भी योजना बना रहे हों कि वो मेरे किसी गोदाम पर छापा मारें। क्योंकि असली गोदाम के असली मालिक से घूस लेकर वो मेरे ऊपर जमाखोरी का आरोप मढ़ कागज़ों में मुझे मालिक दिखा सकते हैं।


मैं शरीर के बढ़ते आकार से बड़ा परेशान हूं। इसने मुझे सबकी निगाह में दोषी बना दिया है। समाज मुझे अभिजात पूंजीवादी समझता है। मैं सरकार का भी दोषी हूं जिसने समाज को ज़ीरो फिगर देने के लिए महंगाई बढ़ाई और मैं उसे महंगाई को धता-बताकर कद्दू की तरह मोटा होता जा रहा हूं। माफ करें प्रणब दादा, मैंने आपकी ‘वित्तीय कम स्वास्थ्य ज्यादा’ वाली नीति पर पानी फेर दिया। आजकल बढ़ता अपराधबोध मुझे घेरकर रक्खे है।

Thursday, March 4, 2010

राष्ट्रीय समस्याओं का प्रचारवादी समाधान, वाह आइडिया सर जी

8 फरवरी से अभिव्यक्ति के संदूक पर ताला लटका रखा था। क्योंकि कुछ लोगों के लिए विचार भी छिनैती और उठाईगीरी की चीज़ हैं। कहा जाता है कि विद्या बांटने से बढ़ती है, लेकिन किसी ने ये नहीं बताया कि बांटने से आर्थिक हानि भी होती है। यह तो अब अनुभव से पता लगा। किसी ने मेरा एक लेख टांप दिया और एक पत्रिका के पन्नों पर स्वनाम से अवतरित करा दिया। मेरी अक्ल चाट दी और 1200 रुपये की मलाई काट दी। मूढ़मति ऐसा कि आइडिया इंप्रोवाइज़ भी नहीं कर सका। अब क्या करूं लेख का तो कोई कॉपी राइट नहीं। बस उसी का राइट था जिसने राइट टाइम छपवा दिया।
वैसे भी मैंने अब अख़बारों में लेख भेजने बंद कर दिए। पहले पहल तमाम भेजे, लेकिन जुगाड़वाद रचनाशीलता पर हावी रहा और मेरा नाम एकाध बार ही संपादकीय पृष्ठ पर छप सका। शायद संपादकों को मेरी लेखनी मैन्युस्क्रिप्ट लगी हो, इसलिए पेपर के बजाय ‘पेपरदान’ में फेंक दी। (अखबारी दफ़्तरों में पेपरदान पान पीकने के काम भी आता है, और बड़ी सफाई से पान की लाली को किसी ‘बेकार लेख’ से ढक दिया जाता है) तो भाई क्यों पेपर बरबाद करके पर्यावरण का नुकसान किया जाए। अब यही डिजिटल डायरी विचार टांकने के काम आती है। अंदर का ज़िम्मेदार नागरिक अखबारों में लेख भेजने से रोक लेता है, लेकिन ये भी क्या कि चोरी के डर से कोई फसल ही न बोए। तो अब फिर से एक विचार फूटा है, बराय मेहरबानी ‘आइडिया सर जी’

यूं तो मुझ फटीचर को टीवी मयस्सर नहीं लेकिन एक रिश्तेदार के घर में लक्ज़रीयस और रिवोल्यूश्नरी एलसीडी टीवी का आनंद ले रहा था। 102 सेमी के स्क्रीन पर झूमते, गाते, इतराते, इठलाते नर नारी आ-जा रहे थे। मुझे समझ नहीं आया कि 70 एमएम के पर्दे को बड़ा पर्दा कहने के पीछे क्या तर्क है। मुझे तो 102 सेमी के स्क्रीन के सामने 70 एमएम को बड़ा पर्दा कहना कुतर्क ही लगता है। ये कौनसे गणितज्ञ की माप-जोख है पता नहीं। 70 एमएम बड़ा और 102 सेमी छोटा। 102 सेमी के छोटे पर्दे पर बीच-बीच में एडवरटाइज़मेंट उपभोक्तावाद को प्रमोट कर रहे थे। विज्ञापन जगत के लोग बड़े रचनाशील हैं। 40 सेकेंड के विज्ञापन में राष्ट्रीय समस्याओं पर ‘घंटों’ के सिम्पोज़ियम से ज्यादा विचार झोंक देते हैं।

आजकल दूसंचार कंपनी ‘आइडिया’ भारत में पेपर बचाने का अभियान छेड़े हुए है। पहले यही जातिवाद को खत्म करके संवैधानिक नियमों को सतही स्तर पर उतारने के प्रयासों में जुटी थी। यदि आप भी खुद में कहीं जिम्मेदार नागरिक खोज सकते हैं तो इस अभियान में कूद पड़िए और आइडिया का सिम खरदीकर पेपर बचाइये। ये अलग बात है कि जब आप सिम खरीदने पहुंचेंगे तो लाखों शब्दों की टर्म्स एंड कंडीशन्स से पुते सैकड़ों पेपर आपसे आपके होने का पेपरनुमा सबूत मांग रहे होंगे। आपको इसके सिम की कीमत बेवकूफाना वैचारिक मूरत एवं राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह समेत रिज़र्व बैंक के गवर्नर की लिखित गारंटी देकर चुकानी पड़ेगी। जो रिज़र्व बैंक और टकसाल की पेपर पर छापी गई गलती है और जिसे INR इंडियन नेशनल रुपीज़ कहा जाता है, लेकिन इसी कंपनी के सिम से आप स्वंय को जागरुक और जिम्मेदार भारतीय साबित कर सकते हैं।

यही कंपनी कुछ दिन पहले भोथरी याददाश्त के भारतीय नागरिक से उम्मीद कर रही थी कि वो अपने सभी मिलने वालों को नामों के बजाय इसकी कंपनी विशेष के मोबाइल नंबरों से पुकारे। इससे संविधान के जाति उन्मूलन की उद्देश्यपूर्ति हो सकेगी। टीवी के सिंहासन पर बैठकर भारत का सिंहावलोकन (Retrospection) कर रहे आइडिया सर जी को कोई बताता क्यों नहीं कि यहां के युवा इतनी तेज़ ज़िंदगी में कुलांचें मार रहे हैं, कि उन्हें दो दिन पुराने ब्वॉय फ्रेंड और गर्ल फ्रेंड के नाम याद रखना मुश्किल हो रहा है फिर कैसे इतने मोबाइल नंबर याद रखेंगे।
यहां नई पीढ़ी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का नाम बताने में असमर्थ है। ऐसे में उनसे यह उम्मीद रखना कि वे सैकडो़ मोबाइल नंबर याद रखें घोर आशावादिता है। वैसे भी जो नागरिक संविधान की प्रस्तावना को ही भूल चुका हो उसे उसके उद्देश्यों से क्या मतलब। यहां के नागरिक राष्ट्र के बजाय लोगों का समूह बनकर ही जीने में खुश हैं। यही राजनीतिज्ञ भी चाहते हैं वरना उनकी जातिवादी दुकानदारी बंद हो जाएगी और सत्ता के समीकरण गड़बड़ा जाएंगे, लेकिन आप इस पचड़े में मत पड़िए। बस इस कंपनी का मोबाइल सिम कार्ड खरीदकर अपने जागरुक नागरिक होने का सबूत दीजिए।

यूं तो भारतीय नागरिक होने के नाते मेरी भी यादादाश्त भोथरी हो सकती है, लेकिन राष्ट्रोत्थान में लगी एक कंपनी का शंखपुष्पी सिरप अगर असरदार है, तो मुझे याद है कि आइडिया सर जी ने 26/11 की पहली बरसी पर भी एक ऐसा ही प्रचार चलाया था। इस प्रचार के मुताबिक रात के कुछ घंटों में भारतीयों के बात करने से होने वाली आमदनी को कंपनी ने मुंबई हमले के पीड़ितों में बतौर अनुदान सहायता राशि बांटने का दावा किया था। इनकी तो मौज है। सरकार की तरह ये भी नागरिक को गुमराह कर रहे हैं। इन पर नज़र रखने के लिए कोई महालेखा परीक्षक (CAG) नहीं है क्या? लेकिन हो भी तो क्या हो सकता है आज कैग की भी औकात मुंशी से ज्यादा कहां बची है। कौन सुनता है उसकी ना जनता तक कैग रपट पहुंचती है और ना ही सरकार उसकी नसीहतों पर ध्यान देती है।
आइडिया सर जी गजब के हैं। ये तो पूंजीवाद, उदारवाद और जनवाद का जबरदस्त घालमेल हैं। सरकार में भी फिट और जनता में भी फिट। संविधान के नज़रिए से जनता बराबर सरकार और सरकार बराबर जनता में आइडिया सर जी फिट बैठते हैं। धन्य हो महाराज। इसी को बिजनेसमैन कहते हैं त्रासदी, खुशी, संविधान, राष्ट्र और देशभक्ति सबको कैश कर लिया। वैसे हाल ही में नोएडा में सील किए गए 108 अवैध मोबाइल टावरों में से कुछ आइडिया सर जी के भी थे। आप इस बात पर ध्यान मत दीजिए। क्योंकि कई बार चरित्रवान लोगों पर भी कानून तोड़ने के छिछले आरोप लगते रहते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी पर भी बाबरी कांड में शामिल होने के आरोप लगते रहते हैं, लेकिन नेता जनसेवा से कहां बाज़ आते हैं।

इसी तर्ज़ पर आइडिया सर जी तमाम राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान प्रचार के माध्यम से कर रहे हैं। अब आप बैठे-बैठे क्या सोच रहे हैं। क्या आपको अबतक ज़िम्मेदारीबोध नहीं हुआ। अपना सिमकार्ड तुरंत तोड़िए और आइडिया सर जी के कहे मुताबिक भारत के ज़िम्मेदार नगारिक बनिए।