Saturday, December 8, 2012

ज़िंदगी प्रोमिसरी नोट है


1. पीछे छूटते शहर को सोचा है कभी। क्रेनों के आसमान से पटे फ्लैट्स मन से निकलते जाते हैं। धरती के कैनवास पर फैली हरियाली एक आशियाने की ख़्वाहिशों को डायल्यूट कर देती है। दुनियादारी छूटती जाती है। शहर ज़ेहन में ख्वाहिशें बोते हैं। हर ख़्वाहिश की ईएमआई है। हर ईएमआई कहती है मेक योर एफ़र्ट लार्ज।

2. ख़्वाहिशों के भूगोल पर फैले काम ख़त्म नहीं होते। ये करना है, वो करना है, ऐसा बनना है, वैसा बनना है। हर इबादत में एक्सटेंशन की मांग। थोड़ी और मोहलत विधाता। ज़िंदगी सामाजिकता निभाने का कर्ज़ा है। धूप-दीप हिलाकर रोज़ प्रोमिसरी नोट बढ़वाना है।

3. कहते हैं, आसमां से आगे जहां और भी हैं, लेकिन ये जहां ही जैसे आत्मा का चोगा है। यहीं पैदा होना, मरना और फिर यहीं चले आना। छोटी ख़्वाहिशें बड़ी ख़्वाहिशों का बाई प्रोडक्ट हैं। ज़िदंगी तालमेल की रस्सी पर सर्कस का करतब। अध्यात्म, आस्था और विश्वास जीने का टॉनिक। धार्मिक किताबें औसत आदमी की मानसिक बीमारियों का टिंचर है। जिस पर चढ़ा है ख़ुदा, भगवान, गॉड का अलग-अलग रंग।

4. धर्म सरल रेखा जैसी दिखने वाली विभाजन की आड़ी-तिरछी रेखा है। हम बंटे हैं गीता, क़ुरान और बाइबल के फॉलोअर्स में। अशरफ़ भाई* ने बताया था, क़ुरान आसमान से उतरी है। शायद ख़ुदा ने आसमान में प्रिंटिंग प्रेस लगाई है। जिसमें चित्रगुप्त हमारी तक़दीरें प्रिंट कराकर रखते हों शायद।  

5. वी आर अबाइड विद रूल्स ऑव अवर रिलीजन्स। बीवी कहती है मंगल में दारू-मीट को हाथ नहीं लगाना। धर्म और भगवान भी दिनों के लिहाज से आते हैं। कभी-कभी लगता है आध्यात्मिक हॉरर फिल्म के किरदारों से घिरा हूं। अशरफ़ भाई व्हिस्की नहीं पीते। हराम है। तन्हाइयों में सरगोशियों के साथ बीयर गटकते हैं। जबकि उस पर भी ख़ुदा का ऑर्डिनांस तो नहीं चस्पा है। फिर सड़क पर प्रचलित भारतीय शैली में हल्के होते हैं। मैं हमेशा कहता हूं। शेक वैल आफ्टर यूज़ अशरफ़ भाई। कपड़ों पर बूंद गिरी तो नापाक़ होने का खतरा है।      

*अशरफ़ भाई पैतृक शहर के घणे दोस्त हैं।

Thursday, February 23, 2012

यूं अचानक विदा हो गए आप

20 फरवरी 2012, सोमवार, शाम 4.30 बजे

जेब में पड़े मोबाइल की घंटी बजती है। साधना न्यूज़, मध्य प्रदेश से एक मित्र का फोन था। हैलो बोलते ही दूसरी तरफ से आवाज़ आई। शाह जी के बारे में कोई जानकारी है ? मैंने हैरानी से कहा, मतलब ? दोस्त ने बताया ख़बर आ रही है कि मध्य प्रदेश में सिहोर के पास उनका गंभीर एक्सीडेंट हुआ है। ज़रा कहीं से पता करो।

कितनी बेचैनी भरा था वो एक घंटा

एक घंटे तक कहीं से कोई पुष्ट जानकारी हासिल नहीं हो पा रही थी। अनिष्ट की आशंका से मन घबराया था। अपने वरिष्ठ मित्र मौर्या टीवी के दिल्ली ब्यूरो चीफ प्रमोद चतुर्वेदी को फोन मिलाया। अमूमन हैलो सुनने वाले कान में सीधे आवाज़ आई कि बुरी ख़बर है भाई। दिल बैठ सा गया। फिर रुंधी हुई आवाज़ शाह जी हमारे बीच नहीं रहे। मुंह से बस ओह निकला। कुछ कहने को नहीं था। कुछ समझ नहीं आ रहा था। सही जानकारी नहीं होने पर तमाम बेचैनियों ने दिमाग को घेर रखा था, लेकिन सही जानकारी ने बेचैनी और बढ़ा दी थी। फोन काट दिया था। पता नहीं क्यों आसमान की तरफ देखने लगा। स्ट्रीट लैंपों की रोशनी के बीच से साफ-साफ नहीं दिखा लेकिन एक शख़्सियत थी जो सामने दिखाई दे रही थी। एक दम शफ़्फ़ाफ़। दाढ़ी भरे चेहरे पर रवीन्द्र जी की जोशीली, चमकती आंखें। लग रहा था सामने हैं और यकायक अपने हिट ज़ुमले अबे साले से शुरुआत करते हुए मीठी-मीठी झाड़ लगाने लगेंगे।

2009, आज़ाद न्यूज़

हालात ऐसे बने कि अचानक एक प्रमोशन मिल गया। कॉपी राइटर से कॉपी एडिटर बना दिया गया। काम के बोझ में इज़ाफ़ा हुआ था वेतन में नहीं। ईमानदारी से अपना काम कर रहा था। मेहनत से कभी दिल नहीं चुराया। यारी-दोस्ती में शिफ्ट के बाद भी काम के लिए रुकता रहता था। उस वक्त कमलकांत गौरी जी आउटपुट हेड थे। हमेशा उन्हें मेरे काम से कोई न कोई शिकायत रहती थी। वो मुझे हमेशा कामचोर क़रार देते रहे। शाम को शिफ्ट ख़त्म होने से पहले मुझे उन्हें लिस्ट बनाकर रिपोर्ट करना होता था कि मैंने कितने पैकेज, एवी लिखे हैं और कितनी कॉपियां एडिट की हैं। 10 एवी, 5 पैकेज, 15 कॉपियां एडिट करने पर भी मुझे हमेशा यही सुनने को मिलता कि बस इतना ही किया। कुछ काम-वाम किया करो यार। यह कहते हुए गौरी जी के चेहरे के भाव मेरे लिए हिकारत से भरे होते। मेरी उनसे न ज़ाति दुश्मनी थी न पुरानी जानकारी। पता नहीं क्यों गौरी जी मुझसे ख़फ़ा रहते थे ? ये अलग बात थी कि कभी-कभी कॉपी लिखने वालों से और अपनी कॉपी में हैलिकॉप्टर को रनवे पर दौड़ाने वाले होनहारों से गौरी जी हमेशा संतुष्ट दिखे। कुछ ख़ास प्रोग्रैम्स के लिए कई बार गौरी जी ने मुझे चुना लेकिन मैं उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाया। शायद मेरी ही ख़ामी थी।

इन दिनों रवीन्द्र शाह जी के आज़ाद न्यूज़ आने की चर्चा न्यूज़ रूम में तरह-तरह के विचार पैदा कर रही थी। कोई उन्हें हरामी कहता कोई लड़कीबाज़। कोई अक्खड़ तो कोई बदतमीज़। मैं पूर्ववत अपने काम में लगा था। पहले कभी मुलाक़ात नहीं होने के चलते उनके व्यक्तित्व के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। आख़िर वो दिन भी आया जब रीवन्द्र जी ने इनपुट की कमान संभाली। उनके संपर्क में आने वाले हमारे पहले साथी थे मृत्युञ्जय कुमार। इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीति, वैश्विक घटनाक्रम पर इनकी गहरी पकड़ है। पहली ही मुलाक़ात में इन्होंने रवीन्द्र जी को प्रभावित किया। गौरी जी के समय में ये मित्र भी तटस्थता के शिकार रहे। इन्हें आउटपुट के लिए लायक नहीं समझा गया। क्योंकि ये ज्ञान अधिक बांटते थे और गौरी जी को ज्ञान से सख्त नफ़रत थी। भला हो कि सैम पित्रोदा को इस बात का पता नहीं लगा वरना नॉलिज कमीशन का चेयरमैन रहने पर उन्हें अफ़सोस होता। रवीन्द्र जी के आने के बाद चैनल की आंतरिक राजनीति में हलचल मची थी। कुछ समय गुज़रने के बाद रवीन्द्र जी ने आउटपुट की कमान संभाल ली।

जोशीली आवाज़

रवीन्द्र जी से पहली मुलाक़ात मृत्युञ्जय ने ही कराई थी। वेनेजुएला की भू नीति पर उनसे पहली चर्चा हुई थी। अपनी सतही जानकारी को और गहरा करके उनके केबिन से बाहर निकला था। उनकी शैली गज़ब की थी। आवाज़ में सम्मोहन था और तेवरों में जोश। उनके ड्रेसिंग सेंस का मैं शुरुआती दिनों में ही फ़ैन हो गया था लेकिन चंद मुलाक़तों ने उनके व्यक्तित्व का फ़ैन बना दिया। आउटपुट की कुर्सी संभालने के बाद रवीन्द्र जी ने पहला काम सबके ऑफ कैंसिल करने का किया। अब रोज़ सुबह ख़बरों की चीरफाड़ होती थी। सुबह एक मीटिंग बुलाकर रवीन्द्र जी पुरानी टीम को नए जोश से लबरेज़ करते। आम तौर पर हंसते रहने वाले रवीन्द्र जी सोचने की मुद्रा में दाढ़ी को सहलाते हुए बहुत गंभीर नज़र आते थे। मैं भी दाढ़ी रखता था और बाद में हमारी बढ़ती नज़दीकियों को देखते हुए लोगों ने कहना शुरू कर दिया था कि दाढ़ी-दाढ़ी को देखकर रंग बदल रही है।

वो पहली बार जब बरसे थे

डेस्क पर रखा फ़ोन बजा था। रवीन्द्र जी की आवाज़। नीचे रिसेप्शन पर आओ। मैं चला गया। टीवी देख रहे थे। बोले, ये विंडो में क्या लिखा है। मैंने पढ़ा। संघ का काम सक्रिय राजनीति नहीं। फिर पढ़ो। फिर वही दोहरा दिया। आंखें खोलो बरखुरदार। नींद में हो क्या। काम कहां लिखा है। आंखें खोलकर काम किया करो। रात को ज़्यादा दारू पी ली थी क्या जो डेस्क पर सोते रहते हो ? मैंने सॉरी बोला था। उन्होंने कहा था सावधानी बरतो ताकि सॉरी न बोलना पड़े। ठीक है सर।

कुछ दिनों बाद बेनज़ीर भुट्टो पर एक प्रोग्राम जाना था। एक साथी ने इमरान ख़ान से नज़दाकियों को लेकर उनके ऊपर एक पैकेज तैयार किया था। प्रोग्राम रन हो चुका था और पैकेज उसी प्रोग्राम में लगना था। खाली स्लग लिखकर मैंने पैकेज छोड़ दिया था। रवीन्द्र जी बराबर टीवी मॉनिटर करते थे। एक आपत्तिजनक लाइन जाने पर मेरी लंबी क्लास लगाई थी। लोग भले समझते हों कि नज़दीकियों के चलते मृत्युञ्जय और मेरी झाड़ नहीं पड़ती थी लेकिन गलती होने पर वो किसी को बख्शते नहीं थे। सबको यह भी शक था कि हम चैनल की गुटबंदी की ख़बरें उन तक पहुंचाते हैं लेकिन सच यह था कि उन्होंने कभी हमसे इस बारे में बात नहीं की। वो सारे घटनाक्रम को इग्नोर करते और हमेशा अपने काम में लगे रहते। एक बार कहा था उन्होंने, टीवी की दुनिया यही है। राजनीति चलती है। ताबड़तोड़ तेल मालिश भी, लेकिन इग्नोर करो। ज़्यादातर लोगों का बेसिक बिहेवियर यही होता है। धीरे-धीरे रवीन्द्र जी अब मेरे शाह सर होने लगे थे। न उन्हें लड़कीबाज़ी करते देखा था न बदतमीज़ी। काफ़ी लोग उनसे संतुष्ट दिखते थे, लेकिन गुटबंदी की ग्रंथी के शिकारों को कोई संतुष्ट नहीं कर सकता। सो यहां भी असंतुष्ट तो थे ही। हां, इतना ज़रूर था कि विरोधियों को एक मेज़ पर लाकर शाह सर संवाद क़ायम करने में सफ़ल रहे थे।

जब उनका नमकीन और बिस्किट चुराए थे

उनके मेज़ की दराज़ में हमेशा मिक्सचर नमकीन (जिसे मद्रासी भी कहते हैं) और बिस्किट रखे होते थे। 2010 आने वाला था। एक दशक के बड़े घटनाक्रमों पर उन्होंने प्रोग्राम की ज़िम्मेदारी दे रखी थी। रात के 11 बजे होंगे। काम से थक चुका था। शायद मोबाइल पर बात करते-करते उनके केबिन में घुस गया था। अचानक दराज़ खोली और नमकीन बिस्किट के डिब्बे निकाल लिए। जमकर खाया। हालांकि उन्होंने अपने हाथों कई बार खिलाया था लेकिन इस वक्त स्वाद दोगुना लग रहा था। शायद इसलिए कि खाने में सकुचाहट नहीं हो रही थी। डिब्बे लगभग खाली लग रहे थे। डर था कि कल सुबह पूछेंगे तो नहीं, लेकिन कोई सवाल नहीं किया न ही किसी और से कुछ सुनने को मिला। सोचा था इस चोरी को ज़रूर कन्फेस करूंगा लेकिन भूल गया। उनके हाथों का बना पोहा भी लजीज़ होता था। उन्होंने खिलाया था एक बार।

वो भावुक लम्हें

उन्होंने केबिन में बुलाया था। पहला सवाल था। कितने पैसे मिलते हैं तुम्हें यार ? मैंने कहा, 4000। ओह। ग़लत है। मैं बात करूंगा। तुम आराम से काम करो। पैसे की ज़रूरत हो तो बताना। मेरा दिल भर आया था। रोने का मन कर रहा था लेकिन किसी तरह ख़ुद को संभाल लिया। उनकी दरियादिली मैंने मृत्युञ्जय के लिए देखी थी। पता नहीं कितनी बार उसे पांच-पांच सौ रुपये दिये होंगे लेकिन वापस देते न मृत्युञ्जय को देखा न उसने कभी बताया। उन्होंने अपने द्वारा संपादित एक किताब दी थी पढ़ने को हरसूद 30 जून। जो पढ़कर मैंने उन्हें वापस कर दी थी। उन्होंने मुझे काम करने का स्पेस दिया था। सृजनशील उस व्यक्तित्व ने रचनाशीलता को हमेशा सराहा। जिस आत्मविश्वास को मैं गौरी जी की टीम में खोने के कगार पर था उन्होंने उसे पुख्ता तरीके से मेरे भीतर बहाल किया था। कई बार शिफ्ट खत्म होने के बाद फ़ोन करते थे। कहां हो यार ? सर बाहर निकला हूं अभी-अभी। ज़रा आओ और एक पैकेज लिख दो। मैं चाहता हूं तुम ही इसे लिखो। मधु कोड़ा पर लिखे एक व्यंग्यात्मक पैकेज पर उन्होंने मुझे 500 रुपये पुरस्कार राशि भी दिलाए थे। चापलूसी और जेंडरोक्रेटिक व्यवस्था के मकड़जाल में उलझे उस संस्थान में शाह सर पहले थे जिन्होंने मेरिटोक्रेटिक व्यवस्था की नींव रखी थी। उन्होंने मुझमे मेरी ख़ामियों के बावजूद भरोसा जताया था। हमेशा कुछ न कुछ नया सिखाते रहते थे।

26/11 की पहली बरसी पर चैनल की वीपी तानया वालिया ने बाइट दी थी कि ‘‘हम आंतकवाद के साथ हैं।‘’ उधर चैनल के ही एक एंकर ने प्रोग्राम के ऑपनिंग इंट्रो में दर्शकों को 26/11 की बरसी की मुबारकबाद भी दी थी। गुस्सा था, कहां काम कर रहे हैं यार! एक एसएमएस क्षणिका लिखकर शाह सर को भेजी थी। केबिन में बुलाया और मुझसे पढ़ने को कहा। कुछ यूं थी, एलीटों के देखिये कैसे-कैसे रंग, वीपी कहे आज़ाद की हम आंतकवाद के संग, वीपी आतंकवाद के संग एंकर विश करता बरसी, पत्रकार हो भैया या बेअक्ल गाय तुम जर्सी, बेअक्ल हुए बाक़लम इन्हें कोई देवे शुभाशीष, सुनकर इनकी बात पीट रहे मत्था ख़बरनवीस। मैंने पढ़ा तो ख़ूब ज़ोर से हंसे। वो हंसी आज कानों में गूंज रही है। बोले बढ़िया है यार, लिखा करो। हमारी मजबूरियां ही हैं कि हम ऐसे लोगों के साथ काम करते हैं। इन्हीं को हालात कहते और सामंजस्य सबसे बढ़िया औज़ार है।

9 अप्रैल 2010

उस दिन बतौर अफ़सर और कर्मचारी हमारी आख़िरी मुलाक़ात थी। मैंने उन्हें बताया कि दैनिक भास्कर जॉइन कर लिया है। उन्होंने हाथ आगे बढ़ाया, शुभकामनाएं दीं। गर्मजोशी से काम करने की सलाह दी। बोले मैंने बात कर ली थी। मई में तुम्हें 8000 वेतन मिलना तय हो गया था, लेकिन जाओ बेहतर संस्थान में काम करो और अपनी बेहतर दुनिया रचो। मैंने पैर छूकर आशीर्वाद लेना चाहा लेकिन रोक दिया। बोले आशीर्वाद हमेशा साथ रहेगा, इसकी कोई ज़रूत नहीं। फ़ोन करते रहना। इसके बाद आज़ाद में ही दो मुलाक़ातें और हुईं। बाद में शाह सर आउटलुक चले गए। अक्सर फ़ोन आता था। कभी-कभी कहते मेरी स्टोरी पढ़ी थी। प्रतिक्रिया जानते और कहते अबे साले, फ़ोन तो करते नहीं हो। मैं ही करता हूं। मैं हर बार कहता कि आगे से ऐसा नहीं होगा।

14 फ़रवरी 2012

दोपहर को फ़ोन आया था। लैंडलाइन नंबर था। मूड न होते हुए भी उठा लिया। उधर से शाह सर की आवाज़ आई। क्या हाल हैं भाई ? ठीक हूं सर। बिज़ी तो नहीं हो। नहीं-नहीं। बस ऑफिस से निकलने ही वाला था। कहां ? आज मैरिज ऐनिवर्सरी है। बस यूं ही कहीं घूमने। मुबारक हो भाई। सांसारिक जिम्मेदारियां सही से निभा रहे हो ना ? जी सर। अच्छा मृत्युञ्जय कहां है ? जागरण पोस्ट। सालों सही जगह लग गए तो भूल गए। फ़ोन ही नहीं करते हो। उससे कहना फ़ोन करेगा। सर अगली बार ऐसा नहीं होगा। मैं ही फ़ोन करूंगा। चलो ठीक है। वैसे एक अंग्रेजी रिपोर्टर की ज़रूरत है। ठीक है सर। तुम्हारी नज़र में कोई हो तो बताना। जी सर। चलो फिर बात करूंगा। मृत्युञ्जय से कहना मुझे फ़ोन करे। जी सर, प्रणाम। प्रणाम।

20 फ़रवरी 2012

रात को बिस्तर पर लेटे-लेटे शाह सर नज़र आ रहे हैं। कभी हंसते, कभी डांटते। कभी भौंहे ऊंची करके आश्चर्य जताते। कभी दाढ़ी सहलाते और नेपथ्य से आवाज़ अब भी आ रही है अबे साले। उनकी शिकायत दूर नहीं कर सका। अब कभी फ़ोन नहीं कर पाऊंगा। नियति को यह मंज़ूर नहीं था। बिस्किट चोरी का कन्फेशन, महज़ एक फ़ोन कॉल। कुछ भी तो नहीं कर पाया। मोबाइल हाथ में है। खारी आंखों से नंबर डिलीट कर रहा हूं। धुंधला सा दिखता है शाह सर। डिलीट कॉन्टेक्ट। ओके। शाह सर, अलविदा। हमारी दुनिया की फाइल से आपको ऊपर वाले ने डिलीट कर दिया। आप हमेशा याद आओगे।

Thursday, October 20, 2011

अजब इत्तेफाक हो तुम

फॉल विंटर की छोटी सी शाम दिन के रजिस्टर में अपनी हाजिरी लगा रही थी। दिन अपनी शिफ्ट खत्म कर चुका था और सूरज ड्यूटी पूरी कर पश्चिम में गोता लगा चुका था। सर्दी की शुरुआती ठुनक लिए कुदरत करीने से थी। सब तरतीब में, सिवा शहर के। आप चाहकर भी घड़ियों से होड़ करते शहरों को तरतीब में नहीं लगा सकते। घड़ी की सुइयों से लड़ते शहरों की आपाधापी सड़क पर ट्रैफिक बनकर बेतरतीब फैल जाती है। इसी आपाधापी के बीच वो अपनी बाइक पर धीरे-धीरे सरक रहा था। अक्टूबर की शाम ट्रैफिक पॉल्यूशन के बीच ठंड की आहट का अहसास करा रही थी। सामने रेड लाइट थी। थमने के लिए बाइक रेंग रही थी, लेकिन उससे पहले ही ठिठक गई। रेड लाइट से पहले एक रेड टी शर्ट की तरफ उसका ध्यान गया था।

चाल तो जानी-पहचानी है। बाल भी वैसे ही खुले। हां, हां वही तो है। बाइक थम गई थी। पीछे के कामकाजी लोगों ने घर पहुंचने की जल्दी में उसे निठल्ला और फुर्सतिया समझ हॉर्न बजाने शुरू कर दिये थे। वो डरा था, घबराया सा, हॉर्न की आवाज़ से नहीं बल्कि उसकी एक झलक से। बाइक फिर उन बेतरतीब लाइनों में चलने लगी। सिग्नल पर ठहर चेहरे से पसीना साफ किया। अचानक गर्मी बढ़ गई थी। ऐब शाम का नहीं नज़रों का था। सिग्नल पार कर सोचा कि एक कॉल कर ले लेकिन घबराहट हैंगओवर की तरह दिमाग में ठहर गई। बस ऐवईं एसएमएस टाइप किया और उस नंबर पर सेंड कर दिया जिस पर चाहते हुए भी एसएमएस करना नहीं छोड़ पाया था। अब वो भीड़ में तन्हा था। कोटर में बैठे उल्लू की तरह, दुनिया देखते, दुनिया के बीच तन्हा। जगजीत सिंह कान के पास गुनगुना रहे थे। आज फिर आपकी कमी सी है...। तुम क्यों चले गए जगजीत! अभी तो तमाम अहसासों को आवाज़ में पिरोना था। सोचते-सोचते यादों के पत्थर उलटने लगा।

बात उन दिनों की है जब उदारवाद के रास्तों ने वाया अमेरिका हमारे लिए NSG के दरवाज़े खोल दिए थे। ग्लोबल वॉर्मिंग दुनिया के लीडरों के माथे पर उतर आई थी और कोपेनहेगन की सर्द हवाओं में धरती ठंडी करने के लिए चर्चा हो रही थी। तमाम तरह के राजनीतिक और कूटनीतिक कयास ख़बरिया चैनलों के पर्दों पर तैर रहे थे। न्यूज़रूम बहसबाड़े बने थे और की-बोर्ड को फुर्सत नहीं थी। ख़बरें पढ़ना-लिखना उसका शौक था और बगल में दि हिंदू की एक कॉपी दबाए ऑफिस पहुंचता था। उसका नया-नया प्रमोशन हुआ था। कॉपी राइटर से कॉपी एडिटर बना दिया गया था। सीनियर्स का रूबाब था। कॉपी राइटर्स बचते थे उनसे और अधिकतर कॉपियां उसी के सामने आती थीं। सीनियर्स कहने लगे थे, क्या बात है, आजकल बहुत डिमांड में हो। वो हंसकर अनदेखा कर दिया करता।

शायद इत्तेफाक था कि उस दिन वो कॉपी चेक कराने उसकी डेस्क पर आ गई। कुर्ते में सजी, खुले बाल। उसके चेहरे पर रसखान के दोहे जीते थे। उद्धौ! मन न भये दस-बीस...। सोचने लगा, चेहरा है या रूमानियत समेटे ग़ज़लों के मुलायम हरुफ़। इतने करीब होने का पहला अहसास था वो। वो एक लौ जलती छोड़ गई थी उसके आस-पास कहीं। जिसकी नर्म आंच उसे बाद तक महसूस होती रही। एंटरटेनमेंट की गॉसिप कॉपी थी। सिनेमा तो पढ़ा था, लेकिन यह सिनेमा तो नहीं। कलावादी और समानांतर सिनेमा आंदोलन से अलग यह बाज़ार का सिनेमा था। नई आर्थिक नीतियों के आने के बाद जिसने शाहरुख़ ख़ान जैसे बेहूदा कलाकार को यूथ आइकन बनाया। सोचा, अब शायद टाइम्स ऑफ इंडिया का सप्लीमेंट भी पढ़ना पड़ेगा। अपनी बौद्धिक लीक से हटना उसका पहला झुकाव था।

मोहब्बत भले नाज़ुक चीज़ हो लेकिन बुद्धि को आराम से कुचल देती है। विमर्शों को निकालकर भावनाओं को लफ़्जों में उतार देती है। सिंगल कमरे में रूममेट के साथ दारू-दक्कड़ की महफ़िलों में अब बातों के रुख पलटने लगे थे। घर से बाहर रहने का पूरा फ़ायदा उठाते थे दोनों। अनलिमिटेड दारू और सिगरेट के लिए जिस एकांत की जरूरत होती है उसकी कमी उनके पास नहीं थी। कुलदीप नैयर, विमल जालान, गुहा, इंडियन कॉन्सटिट्यूशन, करंट अफ़ेयर्स अब कम आते थे ज़ुबान पर। अचानक मैला आंचल फिर से फैसिनेट करने लगा था। पाब्लो नेरूदा, रेणू और गुलज़ार एक नया मानस गढ़ रहे थे। दिन ब दिन रूमानियत बढ़ रही थी। हर चीज़ अपनी जगह करीने से लगती थी। किसी से कोई शिकायत नहीं थी। ऑफिस में घंटों का काम थकावट नहीं ऊर्जा देता था।

आप लाख छुपाना चाहें लेकिन नज़रें भेद दे ही देती हैं। उसके ख़ास साथियों ने आम सी एक बात को नये में अंदाज़ में पेश किया था। क्या माज़रा है, आजकल आपसे ही कॉपी चेक करा रही है? फ़िर गुलज़ार याद आ गए। बेवज़ह बातों पे ऐवईं ग़ौर करे...। छोटी-छोटी बातों से ही मोहब्बत के हैलुसिनेशन शुरू होते हैं। और उसके बीज पड़ चुके थे। हैलुसिनेशन के इन्हीं खेतों में उसके सपने पल रहे थे। वहम ज़िंदगी जीने के लिए बड़े काम की चीज़ हैं। इसी वहम के ज़रिये तो उसकी तकलीफ़ें ख़त्म हो गई थीं। कम वेतन, जीने के लिए संघर्ष, जहां-तहां अनुवाद का काम ढूंढकर गुज़ारे लायक पैसे जमा करना। फ़ाकामस्ती का मज़ा इसी वहम के सहारे तो चल रहा था।

प्रैक्टिकली यह एकदम बे-मेल जोड़ी थी। वो देहाती, फटीचर टाइप। एस्थेटिक प्यार पलकों पर उठाए घूम रहा था और वो एकदम शहराती। बोलने में नज़ाकत और अदा। दोनों एकदम ज़ुदा थे। सही में कहा जाए तो यह जो डूबा सो पार का प्रीकैप ही था। इन सब बातों को जानते हुए भी उसे कहीं उम्मीद थी कि शायद वो अपने सपने पूरे कर लेगा। दुनियावी आपाधापी में अपने हिस्से का चांद ढूंढ लेगा और फिर उसी चांद से साझा करेगा कुछ ऐसी बातें जिनसे रोशनी का नूर टपके।

प्यार में हिम्मत भी आ जाती है। शायद इसलिए कि बुद्धि तो पहले ही खत्म हो जाती है। सही कहा है कि अविद्या साहस की जननी है। उस देहाती ऐस्थेटिक ने हिम्मत दिखाई और अपने अहसासों का पुलिंदा उस पर उड़ेल दिया। उसने जो सोचा सब उसका उल्टा ही हुआ। उसे अहसासों के बोझ तले दबना मंज़ूर नहीं था। सारी पेरशानियां दुगनी हो गई थीं। ज़ेहन से दिल का सफ़र एक लम्हे में तय किया जा सकता है लेकिन दिल से ज़ेहन तक लौटने में उम्र लग जाती है। कभी-कभी वापसी मुमकिन ही नहीं होती। इसी वापसी की राह पर निकल तो पड़ा था लेकिन रास्ते जैसे कहीं जाते ही नहीं थे। वो अपने छोटे-छोटे पापों की लिस्ट खंगालने लगा था। पॉएटिक जस्टिस में उसे पहली बार यकीन हो रहा था। दुनिया अपनी रफ़्तार से चल रही थी।

रात को बिस्तर पर लेटा वो आज के इत्तेफाक के बारे में सोच रहा था। क्यों मिल गईं तुम। क्यों मेरी यादों के खंडहरों को पलट दिया। यादें बिकती क्यों नहीं। दिमाग कंप्यूटर की हार्ड डिस्क क्यों नहीं। क्या यही इत्तेफाक फिर होगा, लेकिन शुरुआत दोबारा नहीं होती। दोनों एक बार फिर से चाहकर भी अजनबी नहीं बन सकते। बहुत चुप-चुप हो, क्या बात है? यह बीवी की आवाज़ थी। वो उसकी उंगली में पड़ी अंगूठी को घुमाते हुए कन्फेशन की स्क्रिप्ट तैयार करने लगा। जो अब तक अधूरी है।

Wednesday, September 21, 2011

इज्ज़त का सामाजिक दर्शन

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और शादी के बाद ज़्यादा सामाजिक हो जाता है। मैं आज तक खुद को सामाजिक मानने को तैयार नहीं था लेकिन बीवी के आते ही मैं सामाजिक हो गया हूं। पहले अपनी धुन में लिखा करता था और आजकल ज़रूरत की ख़ातिर। बीवी के आने के बाद सामाजिकता ने थोड़ी आंखें भी खोली हैं। आज जाना है कि पत्रकारिता का जो कोर्स मैंने लाख रुपये में किया था वह ‘’लर्निंग फोर अर्निंग’’ था न कि ‘’लर्निंग फॉर बर्निंग’’। पहले ख्वामाख्वाह लिखता रहता था और अब सिर्फ नौकरी के लिए। कोशिश आज भी करता हूं लेकिन सामाजिकता आड़े आ जाती है। शायद यही वज़ह है कि ब्लॉग को समय नहीं दे पा रहा हूं।

आजकल उंगलियां पैसों की ख़ातिर की बोर्ड की सैर करती हैं। जरूरी ख़बरें, लेख और उसके बाद फिर से सामाजिकता। सामाजिकता पहले भी थी लेकिन इतनी नहीं। उस वक्त मैं ज्यादा सामाजिकता को उसी तरह अनदेखा करने का दुस्साहस करता था जिस तरह चीन भारत की सीमा को। कोशिश आज भी करता हूं कि इसे नज़रअंदाज़ करूं लेकिन यूपीए सरकार का सा माद्दा मेरे पास नहीं जो महंगाई को नज़रअंदाज़ करती आ रही है। महंगाई से तड़प रही जनता की चीख-पुकार के बावजूद सरकार इसे बढ़ाने पर आमादा है। एक सरकार है कि जनता की नहीं सुन रही और एक मैं हूं कि एक ‘’व्हिसल ब्लओर’’ मेरे कान फाड़े दे रहा है।

मैं एक बेहतरीन लेख लिखने पर सोच रहा हूं और व्हिसल ब्लोअर बीवी कहती है कि हेयर आयल ख़त्म हुए दो दिन हो गए। एक अलमंड आयल ले आना। मैं भन्नाता हूं, फिर ख़ुद को काबू में करता हूं। प्रकृति के फायदे समझाते हुए मैं गांव से आया सरसों का तेल सिर में डालने की सलाह देता हूं। लेकिन वह सामाजिकता का हवाला देकर इसे मेरी ही प्रेस्टीज से जोड़ देती है। पड़ोसी चिपचिपा सिर देखेंगे तो क्या कहेंगे ? मेहमान आएंगे तो सिर में लगाने को क्या दूंगी ? मैं मन ही मन कहता हूं कि अपना हेयर रिमूवर दे देना। तेल के मसले को इज्ज़त से जुड़ता देखकर मैं अवाक रह जाता हूं। इज्ज़त लुट जाने के बारे में मेरा ज्ञान उतना ही था जितना कि हिंदी फिल्मों में दिखाया जाता था। मैं बलात्कार को ही इज्ज़त लुटना मानता था लेकिन समाज तेल न होने को भी इज्ज़त लुटना मानता है यह मैंने आज ही जाना था। मैं हैरान हूं कि आज तक ऑफिस में बॉस को तेल लगाने से बचता रहा और अब मेरे जैसे क्रिएटिव आदमी को तेल लाना पड़ेगा।

बीवी इसके पीछे भी सामाजिकता का दर्शन शास्त्र जोड़ देती है। उसका तर्क है कि अमेरिका तेल के लिए लीबिया तक चला गया और तुम कल्लू किराना वाले की दुकान नहीं जा सकते। मैं उसके ग्लोबल सामाजिक ज्ञान से आहत होता हूं। मुझे यह आइडिया क्यों नहीं आया ?

मुझे समाज पर गुस्सा आता है। तेल लाने लायक पैसे तो मैं पहले भी कमाता था लेकिन पहले लोग इस तरह के सिम्बोलिज्म से मेरी आर्थिक हालत का अंदाज़ा लगाने की कोशिश नहीं करते थे। मैं नतीज़े पर पहुंचता हूं कि शादीशुदा इन्सान के लिए समाज की नज़रों में भद्दा फर्क आ जाता है। सामाजिकता किसी काम की नहीं है और यह क्रिएटिव लोगों को दुनियावी झंझटों में फंसाने की साजिश है। मुझे बीवी भी इसी साजिश में शामिल नज़र आती है। मेरा उससे लड़ने का दिल करता है। मैं फिर ख़ुद को काबू में करता हूं। इस सामाजिक दर्शन से न चाहते हुए भी प्रभावित होकर मैं पैन पेपर छोड़ तेल लेने निकल पड़ता हूं।

Wednesday, July 20, 2011

तुम्हें याद है !

तुम्हें याद है, मेरे सपनों का एक धागा,

जब तुम्हारी ज़िंदगी में उलझ गया था,

सपाट सी दो ज़िदगियां पेचीदगी भरी हो गई थीं,

तितलियों से चुराई तुम्हारी रंगत गुम थी,

और मेरी पलकों से नींद के तकिए लुढ़क गए थे,

तुम्हारी आंखें खाली कटोरे सी थीं,

एक खामोशी चीखती थी उनमें,

और मेरी आंखों में जैसे ओस हिलग गई थी,

उन बूदों में चमकती थीं सपनों की दरारें,

तुम्हारी हंसी रूखी थी सर्द हवा सी,

और मेरी हंसी कभी आंखों तक नहीं आती थी,

मन में गुबार था मैल नहीं,

प्यार की पुलटिस लगा गुस्सा था,

होठों पर तैरती थी ख्यालों की जुंबिश

पर माहौल के ताले ज़ुबां पर लटके थे

सुलझाने के फेर में और उलझती थीं हमारी ज़िंदगियां,

तुम्हें याद है, एक दिन तुमने उलझे धागे को तोड़ दिया,

तब से, सपनों का कचरा बीनता हूं,

तहें लगाता हूं मन की अंधेरी कोठरी में,

करीने से लगाने की ख़ातिर,

क्योंकि सपने डिस्पॉज़ नहीं होते,

लेकिन अपनी आंखों में देखना आज,

उलझन अभी भी बाकी है...