Sunday, December 28, 2008

नया साल, खीसाफाड़ जश्न, सपने और शुभकामनाएं

दोस्तों,

बस थोड़ा और इंतजार, 'न्यू ईयर', दस्तक दे रहा होगा। यंगिस्तान नशे में झूमेगा। ताज और ऑबरॉय आतंकी हमलों को भूलकर मुंबईकर की अस्मिता और आतंक को मुंहतोड़ जवाब देने के नाम पर मुनाफे की जंग लड़ रहे होंगे। यही होता है बिजनेसमैन। त्रासदी को भी भुना लिया और जनता को 'हिम्मत और आतंकवाद को करारा जवाब,' नाम का झुनझुना पकड़ाकर सहानुभूति यानि सिम्पैथी भी लूट ली। वाह सिम्पैथी की सरलता और उसे लूटने के नए फंडे। बाजारों और यंगिस्तान के आकर्षण का केंद्र, मॉल्स पर न्यू ईयर की खुमारी चढ़ने लगी है। ग्रीटिंग्स गैलरियों में बदलाव नजर आ रहे हैं। बाजार ने नया रंग ओढ़ लिया है। त्योहारों का बाजारीकृत वर्जन' तैयार है। बाजार ही ने तो राम को रामा, कृष्ण को कृष्णा या अब कृष और बुद्ध को बुद्धा बना दिया है। ग्लोबल विलेज में कल्चरल फ्लो इतना एकतरफा है कि हमारे त्योहार आजतक पश्चिम में नहीं पहुंचे। बस हम ही उनके त्योहार पर केक काटते और बांटते चले आ रहे हैं।
इससे ये न समझा जाए कि मैं वैश्विकरण के खिलाफ हूं। बल्कि अगर कहा जाए तो ये भारतीय समाज का सकारात्मक नजरिया ही है कि हम हर किसी की खुशी में शामिल हो जाते हैं। क्रिसमस पर गुजरात के एक मंदिर में प्रभु यीशु के जन्म की झांकी प्रस्तुत कर वहां प्रार्थना सभा का आयोजन, मोदी के गुजरात में सेक्युलरिज्म का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। हमारा समाज तो है ही उत्सवधर्मी। हर किसी त्योहार में मनोरंजन का तड़का लगा ही लेता है, चाहे गणपति हो या फिर दुर्गा पूजा। कहीं डांडिया है, तो कहीं गरबा। फिर नया साल तो आता ही मस्ती की फुहारें लेकर है। आज अपने त्योहारों के विषय में भी सोचने की जरूरत है। कभी-कभी लगता है कि धार्मिक अनुष्ठान के बजाय हमारे त्योहार मौज मस्ती का एक मौका भर बनकर रह गए हैं। इसे क्या कहा जाए संस्कृति का डाइल्यूट होना या फिर उसका हल्का-फुल्का मनोरंजक हो जाना? जिसे हम लोगों ने अपने हिसाब से ढालकर हमारे व्यस्त जीवन के हिसाब से सहज बना लिया है।
हम बात कर रहे थे नए साल की। नए साल पर सड़कें लबालब और बार-पब डबाडब होंगे। कहीं रेन डांस तो कहीं स्टार वार। इनसे होगी शाम रंगीन। एक दूसरे को किस और विश करते जोड़े। जो इतर पड़े हैं पड़े रहें। इस शाम में जिसे शामिल होना हो खीसा भरकर पहुंचे, डिस्को। इस मौके पर कुछ शुभकामनाओं का इंतजार कर रहा होऊंगा। कुछ नए लक्ष्य तय करूंगा। कुछ सपने सजाऊंगा। उन्हें पूरा करने की कोशिश भी करूंगा। यानि कुल मिलाकर नया साल जश्न और सपनों की बारात लाने वाला है। भले ही पुराने साल के कुछ सपने अपनी मंजिल तलाश करते-करते दम तोड़ दें,या उन्हें कोई तोड़ दे, लेकिन नए तैयार हो जाएंगे। नया साल कुछ करे या न करे हमारी पलकों में सपने बुरक जाता है। इन्हीं सपनों का खैरमकदम करने का वक्त आ गया है , और इनके पूरा होने की फैशनेबल नहीं, सच्ची शुभकामनाएं आपके लिए भेज रहा हूं। कल शायद वक्त न मिले।

Friday, December 19, 2008

पाकिस्तान को मजबूत कर रहे हैं अंतुले

अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री अब्दुल रहमान अंतुले ने यह कहकर बवाल खड़ा कर दिया कि मुंबई हमलों में मारे गए एटीएस चीफ हेमंत करकरे की मौत की जांच होनी चाहिए, कि उन्हें आंतिकयों ने मारा या फिर उनकी हत्या किसी साजिश के तहत की गई। मुंबई हमलों के बाद पूरा देश इस मुद्दे पर एकजुट खड़ा है। इतना ही नहीं इस एक मुद्दे पर पक्ष और विपक्ष भी एक साथ नजर आ रहे हैं। सोई हुई राजनीति ने अंगड़ाई तोड़कर खुमारी छोड़ी है और आंतक से लड़ने की रानीतिक इच्छा शक्ति में नई जान पड़ती दिख रही है। इस मुद्दे पर अगर सारे देश से कोई इतर खड़ा है तो वो हैं अंतुले।

हालांकि अंतुले इससे पहले भी कई बार बेतुकी बयानबाजी कर चुके हैं, लेकिन इस बार बयान बहादुर अंतुले ने ऐसा अपच वाला बयान दिया है कि पूरे देश को हज़म नहीं हो रहा। उस पर ढिठाई ये कि अपनी गलती मानने को तैयार नहीं। हठधर्मिता ने अंतुले को इस्तीफा देने को मजबूर कर दिया। अंतुले के इस बयान ने करकरे की शहादत पर तो सवाल खड़े करने का काम कर ही दिया, साथ ही मुंबई हमलों की जांच कर रहीं भारतीय और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों की जांच को भी शक के दायरे में लाने का काम कर दिया। पलटबयानी में माहिर पाकिस्तान अंतुले के बयान को ढाल की तरह इस्तेमाल कर सकता है। पाकिस्तान सरकार इस बात से पहले से ही मुकर रही है कि कसाब और हमलों में मारे गए आतंकी पाकिस्तानी हैं, ऐसे में अंतुले का यह बयान घाघ पाकिस्तान को बढ़ावा ही देगा। पाकिस्तान राष्ट्राध्यक्ष इस मामले में क्लीन चिट के लिए पहले ही कई पैंतरे आजमा चुके हैं, लेकिन विश्व बिरादरी के बढ़ते दबाव से वह कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। ऐसे हालात में अंतुले के बयान को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रखकर पाक यह दावा कर सकता है कि मुंबई हमले भारत की घरेलू साजिश थी। इन हमलों में उनके अपने लोग ही शामिल थे और पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित कराने के लिए भारत अपने ही देश में खुद आतंकवादी हमलों को अंजाम देता आ रहा है। इससे भारत की नीतियों और उजली छवि को विश्व मंच पर धक्का लग सकता है।

इधर उबलती राजनीति और देश की नब्ज को टटोलकर कांग्रेस ने भी अपने इस कारिन्दे से पल्ला झाड़ लिया है। वक्त का तकाजा भी यही है। हालांकि अंतुले के इस्तीफे पर अभी यूपीए सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह विचार ही कर रहे हैं, लेकिन चिंता यह है कि कि अंतुले पर की गई कार्रवाई को भी पाकिस्तान अपने हित में भुना सकता है। पाकिस्तान कह सकता है कि सच सामने आने के डर से भारत ने अंतुले के खिलाफ कार्रवाई करके उसका मुंह बंद करने की कोशिश की है। इससे बेहतर तो यही हो कि अंतुले का इस्तीफा मंजूर ही न किया जाए। शायद हमारे दूरअंदेशी प्रधानमंत्री भी यही सोचकर चुप हैं।

सोचने का मुद्दा यह है कि जिस मामले पर अंतरराष्ट्रीय संवेदना हमारे साथ है, पूरी दुनिया ने पाकिस्तान को गलत मानकर उसे तुरंत ठोस कार्रवाई करने के लिए बाध्य किया है, उस मुद्दे पर अंतुले इतनी ढीली बयानबाजी क्यों कर गए। कहीं ये अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का हथकंडा तो नहीं? मुंबई हमलों में भी कहीं हिंदू आतंकवाद का भगवा रंग घोलने का कोशिश तो नहीं? मालेगांव धमाकों और इस घटना में अंतर है। मालेगांव ने जहां सारे देश को अचंभे में डाल दिया था, वहीं इस घटना ने पूरे देश और राजनीति को आतंक के खिलाफ लामबंद किया है। राजनेताओं ने जनता के तीखे तेवर देखकर बहुत कुछ सीखा है। अंतुले के इस बयान के पीछे एक वजह समझ आती है कि कांग्रेस में हाशिए पर खिसक चुके अंतुले शायद पार्टी का ध्यान अपनी तरफ खींचना चाहते थे। एक समुदाय विशेष को गुमराह करके अपना जनाधार तैयार करना चाहते थे।

खैर जो भी हो, अंतुले को अपनी लफ्फाजी पर लगाम लगानी चाहिए, वरना सही दिशा में जा रही जांच और पाक पर बढ़ रहा अंतरराष्ट्रीय दबाव दिशाहीन हो सकते हैं। जो कि भारत ही नहीं बल्कि समूची दुनिया के लिए खतरा है। अंतुले को एक बात और ध्यान रखनी चाहिए कि जनता अब राजनीति की नब्ज समझने लगी है। अगर जनता अर्श पर बैठा सकती है तो फिर मिनटों में ही फर्श पर भी फेंक सकती है।

Sunday, November 30, 2008

आतंकवाद और हम

मुंबई आतंकवाद की घटना के बाद फिर से सुरक्षा का सवाल सुलगने लगा है। घटना भले ही मुंबई में घटी हो पर लोकतंत्र पर हुए इस हमले से पूरा भारत आहत है। हर गली नुक्कड़ में बहस जारी है, आमो-खास परेशान है। लोगों में भरे गुस्से का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे सभी इस आतंकवादी हिंसा का जवाब हिंसा से ही देना चाहते हैं। इंटरेक्टिव मीडिया में अपने विचार रख रहे लोगों में कोई आतंकियों पर चप्पल बरसाना चाहता है तो कोई पाक अधिकृत कश्मीर में भारतीय तंत्र को हमले की सलाह दे रहा है। इस पूरे प्रकरण में एक बात दीगर है कि कोई भी नेताओं के समर्थन में बिल्कुल नहीं है। सब नेताओं पर भरपूर बरस रहे हैं। आधुनिकता के इस दौर में एक बात तो साफ है कि मायानगरी मुंबई की जिंदगी तो कुछ पल के लिए भी नहीं ठहर सकती। ये ठीक वैसी ही प्रक्रिया है कि एक बीमार बालक बुखार से आराम मिलते ही खेलने के लिए उठ खड़ा हो, और बड़ा ही लाजि़मी है कि ज़िंदगी अपनी ऱफ्तार से चलती रहे। क्योंकि आम गतिविधियों पर लगाम लगाना ही बुजदिलों का मकसद है।
अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भारत के प्रति संवेदनाओं के साथ ही भारत के सुरक्षा तंत्र पर भी सवाल उठने लगे हैं। अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति अपने चुनाव प्रचार के दौरान पाकिस्तान में घुसकर आतंकवादियों पर हमले की पैरवी कर चुके हैं। शायद यही वज़ह है कि अमेरिका को ईष्ट मानने वाला तबका भी इस बात का समर्थन कर रहा है और भारत को भी यही सलाह दे रहा है। सोचने वाली बात यह है कि लोकतंत्र के मूल्यों को उठाकर ताक पर नहीं रखा जा सकता। उदारता और सहिष्णुता की जिस नीति ने हमें पूरी दुनिया की संवेदनाओं के साथ ही सम्मान भी दिलाया है उनकी तिलांजली देना क्या उचित है? यहां गुस्से की नहीं वरन एक समग्र बहस की ज़रूरत है। अपने तंत्र और अपनी राजनीति में सुधारों का वक्त है। पिछले महीने हुई राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में आतंकवाद के खिलाफ कोई ठोस नीति नहीं बन सकी है। इसकी वज़ह रही लोकतंत्र की संघीय प्रणाली में राज्यों को स्वायत्तता देना। जिस भावना को संविधान में निरपेक्ष भाव से रखा गया था उसे राज्यों ने निजी अधिकार क्षेत्र मान लिया है। जिसकी वज़ह से एक फेडरल एजेंसी (संघीय एजंसी) के कल्याणकारी विचार ने दम तोड़ दिया। सबसे हैरत की बात तो इस दौरान यह रही कि इस बैठक में आतंकवाद को चरमपंथ शब्द से संबोधित किया गया। इस मुद्दे पर जितना उदासीन केंद्र दिखा उतनी ही राज्यों ने भी लापरवाही बरती। इस साल को याद रखने के लिए आतंकवाद ही काफी है। दक्षिण से लेकर उत्तर तक पूर्व से लेकर पश्चिम तक पूरे भारत में लोग आतंकवाद के शिकार बने। जनता रेज़गारी की मौत मरती रही और हर घटना के बाद नेताओं की घोषणा, अनुदान राशि और दौरों का दौर चलता रहा। नेता भाषण से लोगों के आंसू पोंछने की नाकामयाब कोशिशें करते रहे और आतंकवादी अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आए। अवसरवादिता की राजनीति होती रही। दोनों दल यानि सत्ता और प्रतिपक्ष ब्लेम गेम खेलते रहे। ऐसा ही मुंबई हमले में भी हुआ। मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने हमले के अगले ही दिन आतंकवाद को मुद्दा बनाकर विज्ञापन प्रकाशित करा दिया। कांग्रेस इस वार से घबराई और अगले ही दिन इसके खंडन के तौर पर जनता की देशभक्ति से भरी भावनाओं के साथ खिलवाड़ शुरू कर दिया। इस विज्ञापन में शहीदों के लिए आदर कम और भाजपा के विज्ञापन से प्रभावित लोगों का ब्रेन वॉश करने की उत्कट इच्छा जाहिर हो रही थी। वरना कंधार के शहीदों से विज्ञापन के शुरूआत करने की कोई खास ज़रूरत नहीं थी।
दूसरी तरफ हर हमले के बाद हमारी सुरक्षा एजेंसियां कहती रहीं कि हमने पहले ही राज्य सरकार को आगाह किया था, लेकिन सूचना से सरकार कोई फायदा नहीं उठा सकी। इससे साफ ज़ाहिर होता है कि हमारे सुरक्षा और राजनीतिक तंत्र में कोई खास तालमेल नहीं है। यह वक्त है अपने तंत्र को टटोलने का और दुनिया भर को दिखा देने का कि हम ‘बनाना रिपब्लिक’ नहीं हैं। अपने लोकतांत्रिक मूल्यों पर चलकर आतंकवाद को मात दे सकते हैं। सुरक्षा के इस खदबदाते सवाल पर चिंतन खत्म नहीं होने वाला इसलिए आपके सुधी विचार भी आमंत्रित हैं। सामाजिक मीडिया का दायित्व निभा रहे ब्लॉग जगत से ही शायद कुछ कारगर उपाय निकल खड़े हों जो इन सवालों का सर कुचलने का माद्दा रखते हों।

Monday, November 17, 2008

'वो' बिस्तर से उठने नहीं देती

'वो' कहती है, थोड़ा और ठहरो। ऐसे ही चले जाओगे, मुझे अधूरा छोड़कर? सारी रात तो दी है तुम्हें, करवटों, शिकन और सकून भरी रात अब और क्या चाहिए? भोर हो गई अब जाने दो और भी तो जरूरी काम हैं ज़िंदगी में। ऐसे ज़ुमलों से उसे बहलाने की कोशिश करता हूं, लेकिन 'वो' मानती ही नहीं। कई बार तो अजब उलझन में डाल देती है। कहती है मुझसे भी ज़रूरी है कुछ काम। तुम तो कहते हो ज़िंदगी में मुझसे ज़रूरी कुछ और है ही नहीं। तुम ज़िंदगी का ईंधन हो। अब कहां गए सारे दावे। चुप्पी लगा के फिर से उसके आगोश में चला जाता हूं। उसकी खुमारी ही कुछ ऐसी है कि दफ्तर लेट पहुंचकर शर्मिंदगी झेलने में कोई खास दिक्कत नहीं होती, लेकिन मंदी के असर ने इस खुमारी को ढीला करना शुरू कर दिया है। 'पिंक स्लिप' यानी छंटनी के डर ने उससे लगाव को ज़रा डिगा दिया है। फिर भी उसके आगोश की पकड़ ढीली करने का मन नहीं चाहता। दलीलें देकर भी देख चुका उसे लेकिन कहती है कि रूठ गई तो मनाने से मानूंगी, जिस ज़िंदगी को मेरे साथ रंगीन करते हो, मेरे साथ गुजारने के सपने देखते हो, वो नरक बन जाएगी। पागल हो जाओगे मेरे बिना। सच ही तो कहती है। ऐसा कहते ही मन फिर से अकर्मण्य हो जाता है और 'वो' फिर मेरा हाथ पकड़कर बिस्तर पर गिरा देती है। मैं हमेशा कहता हूं कि इतना स्टेमिना नहीं बचा कि तुम्हें और वक्त दे सकूं। इंसान हूं कमर दर्द करने लगी है, अब तो बख्श दो। 'वो' कहती है कि नादान हो भोर ही तो सही वक्त है। आ जाओ, सारी दुनिया को भूलकर मेरे पहलू में, और मेरी आंखों को चूमकर मुझे फिर अपने साथ लेटा लेती है। आज वो मेरे साथ नहीं है। इसलिए परेशान हूं। रात गए इंटरनेट पर ब्लॉगिया रहा हूं। सच में, वो है ही इतनी खूबसूरत कि मन करता है कि अपनी आंखों पर उसकी पलकें झुकाकर उसके साथ लेटा रहूं। 'वो' और मैं एक हो जाएं। आज उसे बुलाया नहीं आई। सौ बहाने बनाए, हर तरह से रिझाया नहीं मानी। पता नहीं क्यों नाराज़ है मेरी 'वो' यानी मेरी नींद मुझसे।

Wednesday, October 1, 2008

कहें, करार के लिए थैंक्यू बुश?

बतौर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का पहला कार्यकाल जिस करार के इर्द-गिर्द घूमता रहा है वह अब मूर्त रूप लेने जा रहा है। देश की परमाणविक ऊर्जा को बुनियादी फायदे के साथ ही मनमोहन की महत्वाकांक्षा और करार के प्रति प्रतिबद्धता भी इतिहास के पन्नों मे उकेर दी जाएगी। 34 सालों बाद रिवोक परमाणु तकनीक व्यापार का पासपोर्ट हाथ में आया है तो स्वाभाविक है कि भारत और अमेरिका दोनों देशों को प्रशासनिक अमले के प्रयासों को सराहा जा रहा है। ये अलग बात है कि विएना में आईएईए की बैठक में दुनिया के दरोगा का रुतबा ही करार को पार कर ले गया। सारी कसरत और हरारत में दीगर बात यह रही कि भारतीय राजनयिकों के प्रयास तो बेमानी ही रहे। विएना में ट्रॉइका से लेकर प्रतिनिधि सभा तक भारतीयों की एक न चली। केवल बुश और उनका प्रशासनिक अमला ही करार पर रार को खत्म कराने में कामयाब रहा। ऐसे हालात में प्रधानमंत्री को बुश का एहसानमंद तो होना ही था। हम तो एकमात्र पड़ोसी चीन की चिरौरी करके भी उसे नहीं मना पाए। हमारी सारी सरकारी कोशिशें दोयम दर्जे की ही साबित हुईं। ये अलग बात है कि हम इसे स्वीकार न करें और करार को विश्व मंच पर अपनी जिम्मेदाराना छवि की बदौलत मिली सौगात कहते रहें। करार में अब भी कुछ ऐसे तथ्य हैं जिन्हें भारत को नहीं मानना चाहिए। अमेरिका भारत को परमाणु प्रोसेसिंग का हक बिल्कुल नहीं देगा। करार के आलोचक और वरिष्ठ कानूनविद सीनेटर हॉवर्ड बर्मन ने इसी बात पर सहमत होकर करार पारित करने को हामी भरी है। इस मामले पर साउथ ब्लॉक में गुपचुप हड़कंप का माहौल है। कुछ भी हो, करार अमेरिका के ही प्रयासों से अमलीजामा पहने पर भारत का तो फायदा ही है। अमेरिका और फ्रांस के दौरे से वापस लौटे मनमोहन सिंह और देश के लिए बड़ी कामयाबी का मौका है। करार पर मुहर लगने के बाद अभी लंबे इंतजार के एक और दौर से गुजरना होगा। रिएक्टर हासिल करने के लिए निजी कंपनियों से एग्रीमेंट साइन करने के बाद ही कुछ हो सकेगा। करार के कील कांटे चाहे बिखरे पड़े हों, कितने ही लोच हों लेकिन भारतीय खेमे ने इसको ऐसे ही मान लिया है। हाइड एक्ट की फांस भरे इस रसगुल्ले को गटकने में थोड़ी दिक्कत तो होगी लेकिन परमाणु ऊर्जा के लाभ को अनदेखा नहीं किया जा सकता। यहां काबिले गौर यह है कि जिन जिम्मेदारी भरी नीतियों पर हम खम ठोंकते हैं वह नीतियां अमेरिकी टैग के साथ ही विश्व ने पहचानी हैं। ऐसे में तो इतना ही कहा जा सकता है कि भारतीय राजनेता तो बस करार पर आम सहमति बनाने का दिखावा भर कर रहे थे। सुदूर भविष्य में अगर सब ठीक चलता है तो मनमोहन सिंह का अंकल सैम के लिए एहसानमंद होना ज़ाया नहीं जाएगा और शायद एक दिन हम भी यही कहें, ‘थैंक्यू बुश’!

Monday, September 15, 2008

कोई राज को नाथो!

महाराष्ट्र में भाषा और क्षेत्रीयता के नाम पर हो रही बदमाशी के आगे आम आदमी की तो औकात ही क्या सरकार ने भी घुटने टेक दिए हैं। मराठी अस्मिता की दुकान खोलकर बैठे राज की भावना किसी के मुंह खोलने भर से ही आहत हो जाती हैं। इसे अमिताभ की मजबूरी कहें या समझदारी लेकिन फिलवक्त माफीनामे में ही भलाई है। बुद्धिजीवी घराने के मशहूर वारिस जानते हैं कि लुच्च बड़े परमेश्वर से। हैरत तो इस बात की है कि महाराष्ट्र सरकार भी राज की चिरौरी में लगी है और इस मुद्दे पर मुंह खोलने से कतरा रही है। इसकी वजह राजनीतिक मजबूरी ही कही जा सकती है। कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस, बाल ठाकरे के सामने सूबे में बौने नजर आते हैं। ऐसे में राज का मराठी हित में विषवमन दोनों पार्टियों को अपने हित में नजर आ रहा है। सोच है कि, बाल ठाकरे का जनाधार अगर दो हिस्सों में बंट जाए तो इनका वोट फीसदी खुद ही बढ़ जाएगा। लेकिन इतिहास से कांग्रेस ने सबक नहीं लिए। इसके पहले बाल ठाकरे को साम्यवादियों और समाजवादियों के खिलाफ इसी तरह उतारा गया था। सोच यही थी, लेकिन अंजाम सोच से इतर। बाल ठाकरे ऐसे उभरे कि कांग्रेस और उसकी पुछल्ला पार्टी सेना की पुछल्ला भर बनकर रह गईं। हालात वही हैं और महाराष्ट्र सरकार को इस बाबत पहल करनी होगी। आंखे मूंदने से काम नहीं चलेगा, सूबे में रह रहे लोगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकार की बनती है।
नैतिकता के नाम पर सीत्कार करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अब नहीं दिखते। अभी अगर कोई आतंकवादी मुठभेड़ में मारा जाए तो सारे मानवाधिकारवादी भेड़ों की तरह मिमियाने लगेंगे। इस घर में पल रहे आतंकवादी के खिलाफ बोलने में लगता है गले में बर्फ जम गई। कहां हैं जनहित याचिका दायर करके शोहरत बटोरने वाले? क्या राज के खिलाफ मुकदमे नहीं बनते। बनते हैं
देशद्रोह
राष्ट्रभाषा का अपमान
लोकप्रशांति भंग करना
सामाजिक वैमनस्य को बढ़ावा
महाराष्ट्र में जान-माल का नुकसान
ऐसे ही और भी मुकदमे उसके खिलाफ बनते हैं, पर कोई पहल तो करे। सरकार की तरह सब आंखें खोल कर तमाशा तो देख रहे हैं लेकिन पहल करने के नाम पर सब अंधे। अगर सरकार ऐसे ही चुप ही तो राज की तोप के मुहाने पर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी चढ़ सकते हैं। चलो हम भी देखें क्या होगा?कैसे होगा?

Wednesday, September 3, 2008

सब बंद, तो ज़ुबान बंद

वाम मोर्चे के बंद के आह्वान पर पश्चिम बंगाल में रफ्तार थम सी गई। हर तरफ बंद और सिर्फ बंद। इस बंद के बीच भी कुछ बंद नहीं हुआ, तो वह थी मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की जु़बान। बोले, यही गलती कर बैठे। जब बंद है तो जु़बान खोलने का क्या मतलब? सूबे में काडरों की पैरेलल सरकार ने सूबे के मुखिया की ज़ुबान ऐसी बंद की है कि अब तक चुप्पी साध रखी है। बंद का दबी ज़ुबान में विरोध करना भट्टाचार्य की संजी़दगी है। विकास के लिए गंभीर मुख्यमंत्री चाहते हैं कि राज्य में विदेशी और औद्योगिक निवेश में इज़ाफा हो, लेकिन कम्युनिस्टों के पूर्वाग्रहों के चलते ऐसा नहीं हो पा रहा है। चीन को अपना आदर्श मानने वाले कम्युनिस्ट शायद आंक नहीं पा रहे कि, चीन अपनी नीतियों में भारी रद्दोबदल करके कहां पहुंच गया है। सूबे पर प्रतिव्यक्ति 15000 रूपये का कर्ज है। विकास की सारी योजनाओं की कमर टूटी पड़ी है। किसान खेती बोकर भूख काटने को मजबूर हैं। परंपरागत उद्योंगों से कुछ नहीं होने वाला। बेहतर हो कि मार्क्वादी कम्यूनिस्ट पार्टी अपनी नीतियों का पुनर्वलोकन करे। नीतियों पर एक स्वस्थ बहस करके कोई सार्थक फैसला ले, वरना नैनो औद्योगिक निवेश की पहल और अंत दोनों हो सकती है। लकीर का फकीर बने रहने से कोई फायदा नहीं होने वाला।
पार्टी की झिड़की को घुट्टी समझकर पी गए भट्टाचार्य की चुप्पी को मौन माफी ही कहा जा सकता है। क्योंकि वह भी जानते हैं कि लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है। सनद है कि उन्हें भी निकाल कर फेंका जा सकता है। स्थिती वही है जो भारतीय सामाजिक व्यवस्था की होती जा रही है। जिस घर को जवानी भर खून पसीने से सींचा उस घर को छोड़कर बुढ़ापे में जाएं भी तो कहां। चुप्पी में ही बेहतरी देखी और अमल कर रहे हैं। काडरों की डांट ने साफ कर दिया कि मुखिया भले हो लेकिन कमान हमारे हाथ है। बुड्ढों की तरह अपनी खाट और दो जून का रोटी से साबका रखो। सामाजिक शोभा के लिए कुर्सी पर विराजे रहो बाकी हम कर रहे हैं। खैर काडर चाहे जितने भी सूरमा बनें लेकिन बुद्धदेव भी तज़ुर्बे की बोली बोल रहे हैं। तीन दशक से ज्यादा बंगाल की राजनीति कर चुके भट्टाचार्य की हड्डियां साम्यवादी नीतियों से रच गई हैं। नीतिगत भला बुरा समझते हुए ही उन्होंने बंद का विरोध जताया था। वह जानते हैं कि इस तरह की रीजनीति से बंगाल औद्योगिक स्तर पर पिछड़ता जा रहा है। बदलाव की जरूरत देखकर ही उन्होंने बंद के खिलाफ ज़ुबान खोली थी और यह समयानुकूल एवं तर्कसंगत भी था। कहते हैं कि बुजुर्गों की बात कभी-कभी मान लेनी चाहिए। अब फैसला काडरों के हाथ है मानें या न मानें।

Monday, September 1, 2008

कर्ज माफी योजना की खुरदरी सच्चाई

साठ हजार करोड़ की लोन माफी योजना लागू होने पर भी किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला बदस्तूर जारी है। सरकार की इतनी बड़ी योजना के बावजूद दीगर बीत यह है कि, किसानों को राहत क्यों नहीं मिल रही है ? क्या वजह है कि खेतीहर मजदूर आए दिन पेड़ों से लटका मिल रहा है ? इन सवालों के जवाब के लिए गांव की रवायत और खेती की अर्थव्यवस्था की पड़ताल करनी होगी।
सरकारी दावों के बावजूद साहूकार कानून को मुंह चिढ़ा रहे हैं। इनके चंगुल में फंसे किसान फिर उधार का बीज धरती में बो चुके हैं। ज्यों-ज्यों बीज बढ़ेगा त्यौं-त्यौं ब्याज।
नतीजतन पकने से पहले ही फसल साहूकार की। खेती योग्य साजो सामान से लेकर गृहस्थी का का भार ढोने तक कदम-कदम पर मझोले और सीमांत किसान इन्हीं साहूकारों के मोहताज हैं। गांव में यह सदियों पुरानी रवायत है। आर्थिक उदारवाद और विदेशी पूंजी निवेश के दौर में कर्ज गहना बन चुका है, लेकिन इन्हें न तो उदारवाद का ही पता है और न ही कर्ज लेने की तिकड़मी तकनीक का। इनके लिए तो कर्ज उस हंसुली की तरह है जिसे पहनने के बाद उतारने के लिए गर्दन कटानी ही पड़ती है।
2003 के एक सर्वेक्षण के मुताबिक 27 फीसदी किसान अभी भी साहूकारों से ही कर्ज लेते हैं। यह सरकारी आंकड़ों की बाजीगरी है असल में इससे कहीं ज्यादा किसानों की गर्दन इनके शिकंजे में फंसी है। एक सौ बीस अरब की आबादी वाले देश में तीन सौ करोड़ लोग खेती के सहारे ही जीवन-यापन करते हैं। सरकार ने इनकी सुविधा को ध्यान में रखकर लोन मुहैया कराने के लिए 31 राजकीय कॉ-आपरेटिव सोसायटियां, 355 जिला कॉ-आपरेटिव सोसायटियां और दस लाख पांच हजार निजी ऋण समितियां भी खड़ी कर रखी हैं। इनसे आसान किस्तों और कम ब्याज पर लोन दिया जाता है। कच्चे आंकड़े के हिसाब से इन्होंने लगभग 12 करोड़ लोगों को लोन दिए होंगे। बाकी के दो सौ अठानवे करोड़ तो साहूकारे के दलदल में ही धंसते हैं। आप सोच रहे होंगे कि संपन्न किसान क्यों कर्ज के बोझ में दबना चाहेगा ? इसकी हकीकत भी जानिए। सरकारी पैसे का फायदा संपन्न किसान और सोशल ऑपिनियन लीडर ही उठा रहे हैं। नौकरशाही की माई-बाप वाली छवि के चलते छोटे किसान बैंकों के बाहर से ही लौट जाते हैं और न ही इनके पास कर्ज के बदले गारंटी के लिए कुछ होता है। इस पर भी अगर जैसे-तैसे करके लोन मिल जाए तो पंद्रह फीसदी तो बैंक के कर्मचारी ही रख लेते हैं। यही सारी खामियां इन साधन संपन्न किसानों की मजबूती बन जाती हैं। सहकारी समिति जैसे संस्थान इनके जेबी होकर रह गए हैं। मजदूर के नाम फर्जी जमीन दिखाकर लोन के रूपयों से अपनी जेबें भर लेते हैं। समितियां भी खुश हैं, खाओ और खाने दो के सिद्धांत पर चलकर अपार सुख भोग रही हैं। सोसायटियों का कारोबार भी इन्हीं नेताओं के सहारे चलता है। यह ऑपिनियन लीडर दबंगई से किसानों की आफत किए रहते हैं। लोन माफी की योजनाओं से सोसायटियों का पैसा वापस आना इनके कारोबार में इजाफा ही करता है। लोन माफी के मसौदे तैयार कराकर ऊपर तक भी यही भिजवाते हैं। सोसायटियों का लोन देने का अंदाज जरा अलग है। रूपयों के बजाय खेती योग्य साधन मुहैया कराए जाते हैं। खाद, बीज, पंप आदि किसानों को बाजार भाव पर दिए जाते हैं जबकि सोसायटियां इन्हें पचास फीसदी दाम पर खरीदती हैं। देसी कंपनियों का माल तो कौड़ियों के दाम खरीदकर किसान को बाजार भाव में मढ़ दिया जाता है। फिर चाहे खेत में जाकर काम करने से पहले ही ठप्प पड़ जाए। यहां न सरकारी एगमार्क है और न ही आईएसआई। भाड़ में जाए जागो ग्राहक जागो।
कर्ज माफी की योजना को लेकर बैंक के एक कर्मचारी से बात हो रही थी। इनका कारोबार थोड़ा अलग है। कह रहे थे कि इस बार उगाही के लिए गांव-गांव भटकना नहीं पड़ा। सरकार भरपाई कर रही है और “बैड डैट” की जगह चमाचम बैलेंस शीट ने ले ली है।
कुल मिलाकर इस योजना का फायदा वही उठा रहे हैं जिन्हें कर्ज की कोई जरूरत नहीं या फिर इसकी आड़ में जिनका उद्योग बढ़ रहा है और जेबें मोटी हो रही हैं। तो फिर आत्हत्याएं कैसे रुकें ? कर्ज माफी योजना किसके लिए है ? इन सवालों का जवाब आप ढूंढिए।

Thursday, August 21, 2008

६४ के राजीव, मीडिया की मौज और थोथा दम भरते नेता

कल यानि २० अगस्त को अखबार के पन्ने पलटे, तो खबरों की जगह राजीव गांधी ने घेर रखी थी। वैसे उनका हक है। देश को कंप्यूटर के जरिये विकास का नुस्खा देने वाले नेता को इतना सम्मान तो मिलना ही चाहिए। देश की जनता में विश्वास जताकर राजनीति करने वाले करिश्माई व्यक्तित्व का जन्मदिन हर अखबार और खबरिया चैनल मना रहा था। बस सेलिब्रेशन का तरीका कारोबारी था। अखबार के फुल पेज से लेकर टीवी स्क्रीन पर राजीव छाए रहे। कहीं साथ में मंत्रालय टंगे थे तो कहीं बड़े और छुटभैये नेता अपनी राजनीति चमकाने की जुगत में मुस्कान बिखेर रहे थे। विकास की राजनीति करने वाले दूरअंदेशी नेता को याद करने की आड़ में कई नेताओं की अपने राजनीतिक बरतन मांजने की दूरअंदेशी झलक रही थी। समाचार जगत कांग्रेसमयी हो रहा था। हैरत की बात यह रही कि विज्ञापन की इस चूहा दौड़ में ज़्यादातर मीडिया संस्थान राजीव की राजनीतिक यात्रा पर चंद लाइनें भी लिखना भूल गए। विज्ञापनों में राजीव के भाषणों की महत्वपूर्ण पंक्तियां चस्पा कर दी गईं थीं। उन्हें पढ़कर दुख जरूर हुआ। वह शख्सियत, विकास जिसकी राजनीति का मूलमंत्र था, जो समतामूलक समाज का संवैधानिक दु:स्वप्न पूरा करने की कोशिश में जुटा था, जो देश को तरक्की की नई दिशा दे रहा था, आज हमारे साथ नहीं है। कहते हैं, बीती हुई बिसारी दे आगे की सुधि ले। बीती हुई तो बिसर क्या मिट ही गई, लेकिन आगे की सुध किसी ने नहीं ली। लोग मरते हैं विचार नहीं। यह अलग बात है कि विचारों पर अमल न हो। यही राजीव की सोच को साथ हो भी रहा है। यूं भी हमारी राजव्यवस्था संत मलूकदास की भक्त है। "अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए सबके दाता राम"। शासन व्यवस्था अजगर की तरह कुर्सी से चिपके रहकर बिना हिले-डुले सब हजम कर जाती है। प्रशासन तो पंछी की तरह है। हिलेगा- डुलेगा, बटोरेगा- सहेजेगा लेकिन अपने लिए।

राजनीतिक हल्कों में विज्ञापन देना रवायत हो गई है। एक ढेले से दो चिड़िया मारने का जुगाड़ है। एक तरफ जनता के बीच वोट बटोरने वाला खीसें निपोरता चेहरा पहुंच जाता है, तो आलाकमान की निगाह में भी चढ़ जाते हैं। श्रद्धांजलि के पर्दे में यही राजनीतिक ध्येय रहता है। राजीव गांधी के कोटेशंस के साथ विज्ञापन छपवाकर राजनीति को सही माने नहीं मिलते। खाली रग मुश्कें कसना, पुट्ठे पीटना छोड़कर उन विचारों को अमल में लाने की जरूरत है जो जन्मदिन और बरसी के मौकों पर विज्ञापन की सजावट मात्र बनकर रह गए हैं। नेताओं से अपील है कि जिसके साथ अपने फोटो टंगवाए हैं, जिसके विचारों से अपनी राजनीतिक हंडिया पर कलेवा चढ़ा रहे हो, उन्हें अमलीजामा पहनाओ। यही तुम्हारे तथाकथित आदर्श को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

Sunday, August 17, 2008

लाल किलाई भाषण में अछूते रहे अहम् मुद्दे.....

लाल किले की प्राचीर पर खड़े मनमोहन सिंह ने विकास का खाका खींच दिया। समाज के हर तबके के हालात सुधारने के लिए मनमोहन ने उन सारी योजनाओं को एक-एक कर गिना दिया जो कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार ने चार साल में चलाई हैं। नरेगा से लेकर किसानों की कर्ज माफी योजना तक प्रधानमंत्री का भाषण ऐसा लगा जैसे कांग्रेस चुनाव की तैयारियों में जुट गई है। हकीकत में यह सारी योजनाएं अजगर की तरह आराम परस्त नौकरशाही की फाइलों में ही लागू हुई हैं, लेकिन मनमोहन की नजर में विकास का पहिया इन्हीं से घूमता नजर आया। प्रधानमंत्री ने भाषण में चार साल में लागू हुईं सारी सरकारी योजनाएं गिनाईं हैं, लेकिन देश के महत्वपूर्ण मुद्दों को उनके भाषण में उतना वक्त नहीं मिला जितना मिलना चाहिए था। जमीन की सुलगती जन्नत यानि कश्मीर को मनोहन सिहं के भाषण में महज चंद मिनट ही मिले। कश्मीर के खराब हालात पर बोलते हुए सरकार के मुखिया उतने ही मजबूर नजर आए जितना कि उनका ऑल पार्टी डेलीगेशन। पहले की गईं बातें चाहे सच्चाई के पास हों या दूर लेकिन यहां हकीकत और उनकी बातें मेल खा रही थीं। असल में अब तक सरकार के पास कश्मीर मुद्दे का कोई हल नहीं है और भाषण में भी सरकार की मजबूरी साफ नजर आ रही थी। अपीलों के सिवाय और इस मामले पर किया ही क्या जा सकता था और यही किया हमारे प्रधानमंत्री ने। हां इस बहाने उन्होंने धर्म के नाम पर राजनीति करने वाली राजनीतिक पार्टियों को नरमी के साथ लताड़ जरूर भेजी। हाल ही में हुई आतंकवादी घटनाओं को भी इस भाषण में हाशिये पर ही रखा गया। इस एक मुद्दे पर मनमोहन ने इतना जरूर कबूल कर लिया कि देश के सुरक्षा तंत्र में खामियां हैं और उन्हें दूर करने की कोशिश सरकार जरूर करेगी। देश के छ: राज्यों के शासन और प्रशासन पर भारी नक्सलवाद को मनमोहन ने बिल्कुल ही भुला दिया। शायद गृहमंत्रालय की रपट आ गई है कि देश नक्सली हिंसा से मुक्त हो चुका है। सारे राज्य खुशहाल हैं और अब नक्सल विरोधी मुहिम चलाने की कोई जरूरत नहीं है।
हालांकि प्रधानमंत्री का व्याख्यान उम्मीद भरा था। ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री ने विकास और शांति से बेरुखी दिखाई हो। ये सही है कि सरकारी योजनाएं जिस रास्ते पर बढ़ रही हैं वो विकास की तरफ ही जाता है, लेकिन इस लंबे रास्ते से बेहतर तो यही है कि पहले मुंह फाड़े सामने खड़ी समस्याओं को सुलझाने की कोशिश कर ली जाए।

Tuesday, August 12, 2008

प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता की जरूरत

यूपीए सरकार के चार साल पूरे हो गए। डगर-मगर करते सरकार यहां तक पहुंच गई है। स्थायित्व पर संकट बनी लेफ्ट नाम की बाधा की मनमोहन ने लेफ्ट हैंड से ही छुट्टी कर दी। इन चार सालों में बहुत कुछ हुआ, मनमोहन ने अपनी छवि बदली, मैडम के साये से बाहर निकलकर स्वतंत्र निर्णय लिए, खुद को कुशल राजनेता भी साबित कर दिया। गठजोड़ बने-बिगड़े, और भी कई रद्दोबदल। लेकिन एक महत्वाकांक्षी योजना पर सरकार सोच-सोच कर कदम बढ़ाती रही। न्यूनतम साझा कार्यक्रम के अनुसार यूपीए सरकार के एजेंडे में शामिल था, 6 से 14 साल तक के बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराना। इस बाबत संसद में विधेयक प्रस्तुत भी किया गया। सभी पार्टियों ने इस का खुले दिल से पुरजोर समर्थन भी किया। वैसे वोट की खेती करने वाली ‘नेतागिरी सभ्यता’ ऐसे मुद्दों पर एकजुट हो ही जाती है। लेकिन यहां कटाक्ष से बेहतर मुद्दे पर बना रहना ही है। मानव संसाधन मंत्रालय ने उच्च शिक्षा में तो आरक्षण निर्धारित करने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। नामचीन कानूनविदों को सुप्रीम कोर्ट में जिरह के लिए उतार दिया। मंडल आयोग से इंदिरा साहनी तक पर पुनर्विचार करवा दिया। खटाई में पड़े मुद्दे को खींच कर कानून बना दिया, लेकिन टेबिल पर रखे अहम मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया। इस पर तुर्रा यह कि आरक्षण भी उनके लिए जो शैक्षणिक स्तर पर पिछड़े हैं। लेकिन इन पिछड़ों को अगड़ा करने के लिए प्राथमिक शिक्षा में कोई पहल नहीं। ऐसे में तो इस आरक्षण का लाभ भी गैरजरूरतमंद ही उठाएंगे। अब सरकार को कौन समझाए, पत्तों पर दवा छिड़कने से जड़ों के रोग नहीं जाते। बिल को सिलबिल करने में राज्यों की भी अहम भूमिका है। कोई भी राज्य केंद्र की योजनाओं के खर्च में हिस्सेदारी करने के नाम पर हाथ खड़े कर देता है। इस अनदेखी की वजह से सरकार से आस लगाए लोग नाउम्मीद हो जाते हैं।
सवाल है कि, संसद में पेश हो चुका एक बिल जिस पर किसी सदस्य को कोई आपत्ति नहीं, कानून क्यों नहीं बन गया ? सरकार क्यों इस पर उदासीन रवैया अपनाती रही। इसकी वजह क्या ये रही कि इस कानून से सबसे बड़ा नुकसान शिक्षा के दुकानदारों को होने वाला है। विधेयक में प्रस्ताव है, निजी स्कूलों में भी गरीब बच्चों के लिए स्थायी आरक्षण रहेगा। हजारों का एक एडमिशन देने वालों का मुफ्त में शिक्षा मुहैया कराने में दिवाला निकल जाएगा। दूसरी ओर राजनीतिक दलों को मोटा चंदा देने वाले यही लोग हैं। स्वार्थ के लिए कर्तव्यों का पुलिंदा बनाकर रद्दी में डाल दिया जाता है। अजीब बिडंबना है कि गरीब तबकों के वोट से गद्दी पर बैठी सरकारें अभिजात्य वर्ग के हाथों की कठपुतलियां बन जाती हैं। ऊपर मैं पहले ही इशारा कर चुका हूं कि कई रद्दोबदल हुए। सर्वहारा की पीपड़ी बजोने वाले ही बुर्जुवा बन बैठे। लेकिन एक और उलटफेर होता तो शायद यह विधेयक कानून बन गया होता। काश कांग्रेस बुर्जुवा पूंजीवादी न रहती। खैर अभी मौका है कि इस भूल को सुधार लिया जाए। संसद के वर्षाकालीन सत्र में विधेयक पारित करने की कोशिश की जानी चाहिए लेकिन इसके लिए मनमोहन की उसी प्रतिबद्धता की जरूरत होगी जो उन्होंने परमाणु करार में दिखाई है।

Sunday, August 10, 2008

दलों का दलदल

चुनाव आयोग को नित नई पार्टियों के आवेदन मिल रहे हैं। नई पार्टियों को पंजीकृत कराने के लिए आवेदनकर्ता भी बड़े बेकरार हैं। लोकतांत्रिक प्रणाली में यह सहज है, लेकिन लोकतंत्र की सेहत के लिए खराब भी। भारत में लोकतंत्र की मजबूती के साथ ही राजनीति में भ्रष्टाचार भी बहुत मजबूत हुआ है। राजनीति राष्ट्रहित के बजाय व्यावसायिक हित में तब्दील हो गई है। कुछ सालों का निवेश और पीढ़ी दर पीढ़ी का लाभ। हमारे राजनीतिज्ञों की कुनबापरस्ती इसकी एक बानगी है। बुढ़ा गए नेताओं ने अपने वारिसों की खेप तैयार करनी शुरू कर दी है। इस फेहरिस्त में उत्तर से दक्षिण तक के नेता शामिल हैं। अपने देश में ८६७ पंजीकृत राजनीतिक दल हैं। फिर भी राजनीति के नए कोणों के हिसाब से लगातार क्षेत्रीय दल सिर उठाते जा रहे हैं। राष्ट्रीय दल क्षेत्रीय पार्टियों के समर्थन पर सरकार खड़ी कर रहे हैं। छोटे दलों के पंजीकरण और क्षेत्रीय मुद्दों की राजनीति के साथ ही गठबंधन युग का सूत्रपात हो गया था। आज गठबंधन किसी भी सरकार के लिए संजीवनी बन गया है। कश्मीर में भड़की हिंसा भी इसी तरह की राजनीति का नतीजा है। अमरनाथ विवाद में तो सरकार देर से जागी। इस बीच भगवा ब्रिगेड ने धधकते स्वर्ग की धरती पर अपने वोट पकाने शुरू कर दिये। क्षेत्रीय राजनीति से उपजा यह 'बड़ा' नुकसान है। नए दलों के पंजीकरण के साथ ही क्षेत्रीय राजनीति की लिस्ट और लंबी हो जाएगी। यह नई पार्टियां केवल इसलिए भी बनाई जाती हैं कि काले धन को सफेद किया जा सके। पार्टियों को मिलने वाला चंदा टैक्स फ्री होता है, साथ ही इसका कोई प्रमाण उपलब्ध कराने की भी जरूरत नहीं। कई बार तो ये बड़े राजनीतिज्ञों की जेबी पार्टियां भी होती हैं। इस बात पर चुनाव आयोग ने भी चिंता जाहिर की है। आयोग की चिंता जायज़ भी है। पंजीकरण करने का अधिकार तो आयोग को पास है लेकिन रद्द करने का नहीं। एक रजिस्टर में जगह बनाने के बाद ये पार्टियां अमर हो जाती हैं। ऐसे हालात में नियम बनाना जरूरी है कि चार साल तक चुनाव न लड़ने वाली पार्टी की मान्यता रद्द मान ली जाए। चुनाव आयोग को भी अधिकार प्राप्त हो कि वह पार्टियों की मान्यता आसानी से रद्द कर सके।

Saturday, July 5, 2008

तीसरा मोर्चा : यत्र सर्वसंभव

तीसरा मोर्चा फिर खंड-खंड होने के कगार पर है। यूएनपीए दरक भी उसी की वजह से रहा है जो इसका अलख फूंकता फिर रहा था। मोर्चे के अगुआ मुलायम सिंह कांग्रेस के लिए कुछ ज़्यादा ही नरम हो गए हैं। उसी कांग्रेस के लिए जिससे उनके गिले शिकवे समर्थन वापसी तक जाकर थमे थे। हालांकि राजनीति पटल पर यह कोई नई घटना नहीं है। बहुजन समाज पार्टी से पींगें बढ़ाकर, जनाधार पर हो रही सेंधमारी ने वैसे भी कांग्रेस को वक्त रहते चेता दिया था। इसे कांग्रेस प्रबंधन तंत्र की मजबूरी कहें या होशियारी, सरकार बचाने और उत्तरप्रदेश में चुनावी जंग में जीत का सवाल हल करने के लिए इस गणित का सहारा तो देर सबेर लेना ही था। परमाणु करार पर चल रही राजनीति ने ने कई नए परिदृश्य बना दिये हैं। मायावती ने भी मौके फायदा उठाना चाहा। करार को मुस्लिम विरोधी कहकर उत्तरप्रदेश में सपा का वोट बैंक अपना करना चाहा और साथ ही कांग्रेस से अपनी अनदेखी का बदला भी लेने की ठानी। भारत रत्न कलाम साहब की करार पर पैरोकारी की दलील देते हुए सपा ने समर्थन की हिम्मत जुटा ली है। लेकिन कलाम साहब तो २००६ से कह रहे हैं कि करार राष्ट्रहित में है। तब कहां थी सपा ? सब झोली भरो अभियान में लगे हैं। मगजकदमी में दूर आ गये हैं, मुद्दा दूसरा है।
तीसरे मोर्चे का गठन घटक दलों की मजबूरी ही रहा है। अपने-अपने राज्य की भौगोलिक सीमाओं के दायरे में बंधे ये सभी दल, देश भर के चुनावी समर में भागीदार नहीं होते। लेकिन लक्ष्य तो एक ही है, सत्ता। केंद्र में सरकार बनाने का सपना पूरा हो या नहीं, भागीदार तो बन ही सकते हैं। यही वजह रही कि चंद्रबाबू नायडू राजग में शामिल रहे और कार्यकाल पूरा होने के बाद यूएनपीए का दामन थाम लिया। जयललिता भी इसी फेहरिस्त में शामिल हैं। राजनीति में जितना जरूरी ध्रुवीकरण है उतना ही जरूरी द्रवीकरण भी। द्रवित होना कोई राजनीतिज्ञों से सीखे, जहां गये वहीं के हो लिये। पानी की तरह किसी भी राजनीतिक बरतन का आकार ले लेते हैं। जैसे ही पुराने मुद्दों की वोट बटोरने लायक धार खत्म हो जाती है, नई जमीन की तलाश में दल और मोर्चों का गठन शुरू हो जाता है।
और यहां तो सारे ही या तो भगोड़े हैं या फिर राष्ट्रीय दलों से खिन्नाये दल। ना सबकी जरूरतें एक जैसी हैं और ना ही प्रतिबद्धता। अपनी-अपनी जरूरतों के हिसाब से सभी द्रवीकरण का इस्तेमाल कर रहे हैं। विचारधारा राजनेताओं की होती है राजनीतिज्ञ केवल अवसरवादिता और कुर्सी को ही पहचानते हैं। तीसरे मोर्चे की छोड़ो देश में राजनेताओं का अकाल है। इसलिए यह विखंडन तो होना ही था। अगर सारे घटक मौके के हिसाब से दो राष्ट्रीय मोर्चों में शामिल हों जाएं तो कोई हैरत की बात नहीं।

Sunday, June 29, 2008

हसिया हथौड़े के पूर्वाग्रहों की बलि चढ़ता राष्ट्रहित

सत्ता डोल रही है। वामदल और लाल हो रहे हैं। फिर भी परमाणु करार को लेकर मनमोहन सरकार वामदलों की खोदी खाई को लांघ कर अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी ( आईएईए) की गवर्निंग बॉडी में मसविदा पेश करने को बेकरार है। अगर परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर किये बिना ही भारत को एनएसजी से छूट मिल जाए तो ऐसे मौके पर बेकरारी जायज ही दिखती है। अपने देश में पासपोर्ट से पहले बीरबल की खिचड़ी पक जाती है, लेकिन परमाणु व्यापार का पासपोर्ट मिल रहा है वो भी बिना हील हुज्जत के। १९७१ में रिवोक हुआ पासपोर्ट फिर हाथ में आने वाला है और काडरों की त्यौरियां अमरीकी बैर के चलते चढ़ती जा रही हैं। विचार और व्यवहार में सभी राजनीतिक दल अलग हैं, यह बात देश के मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग पर भी लागू होती है। अगर ऐसा न होता तो नंदीग्राम फायरिंग में किसानों को जान न गंवानी पड़ती। समाजवाद के ऐतिहासिक नारे को छोड़ जब माकपा ने अर्थवाद का नंदीग्राम जुगाड़वाद बिठाने की कोशिश की तब विरोध की ज्वाला धधक उठी। आज देश की चिंता की चिता में जल रहे काडरों ने, तब दमनकारी नीति ही अपनाई थी। लोकतंत्र के साथ ही किसानों का गला भी घोंटा गया। तब क्या देश के लोकतंत्र में सर्वोपरि जनता की स्वतंत्रता पर प्रहार नहीं हुआ था। स्वतंत्र विदेश नीति की लफ्फाजी की आड़ में अमरीकी वैचारिक वैमनस्य साध रहे वामदलों ने नंदीग्राम में भी जनता के हितों से खिलवाड़ किया था और अब भी ऐसा ही कर रहे हैं। भला हो मनमोहन सिंह की दृढ़ता का, शायद उम्मीद की यही आखिरी किरण बाकी है इस मुद्दे पर।
जनवादी सोच के झंडाबरदार बनकर वामदल सरकार की समाजकल्याण नीतियों को अपनी पेशकश कहते रहे और संकटकाल में 'कांग्रेस सरकार' कहकर पल्ला झाड़ते रहे। सत्ता की मलाई चाटी लेकिन चाशनी के बाहर खड़े होकर। वामदलों की भूमिका वैसी ही रही जैसी कठपुतली के खेल में सूत्रधार की। खेल अच्छा तो सूत्रधार को ताली और, बुरा तो कठपुतली को गाली। सत्ता में रहकर विपक्ष की छतरी ओढ़े बैठे रहे। जैसे छलावा बनकर कांग्रेस को छलते रहे वैसे ही जनता को छल रहे हैं। लेफ्ट के रोल मॉडल लातिन अमरीका और चीन भी अब संयुक्त राष्ट्र से पींगें बढ़ाने लगे हैं। बेहतर भविष्य के लिए वर्तमान में उन्होंने भी इतिहास की पूंछ को छोड़ दिया है। वामदलों से कोई पूछे कि हसिया और हथौड़े के इतिहास से निकले पूर्वाग्रहों की खातिर राष्ट्रहित को बलि चढ़ाना क्या उचित है ?

Thursday, June 26, 2008

अलंबरदारों की मर्यादा और छीजती मानवता

नौकरी की तलाश में महीने भर का बेरोजगारी भत्ता ब्लूलाइन और डीटीसी के टिकटों में खप गया था। दाल-धपाल, आलू-प्याज तो थे। पेट्रोमेक्स की लाल पड़ती लौ से नए खर्च का अंदेशा लगाना आसान ही था। दुकानों पर लगे गुलाल की ढेरियां होली के करीब आने की गवाही दे रहीं थीं। कंगाली और त्यौहार ने पिताजी की देहरी याद दिला दी। घर जाने के लिए पहली वज़ह ज़्यादा जिम्मेदार थी। जब ज़िंदगी की बुनियादी ज़रूरत पूरी ना हो, तो होली के रंग हों या दीवाली के दिए, फीके ही लगते हैं। जैसै-तैसे गांव पहुंचा। रास्ते में बैठे ताऊ-चाचा हाल-चाल पूछने के साथ ही दालान पर बैठने की दावत देने लगे। गांव में तो सब रिश्तेदार ही होते हैं। दिल्ली के अजनबियों के बीच तिकड़मी रिश्ते सांठने से बोर मन को गांव की मिजाज़पुर्सी ने बड़ी तसल्ली दी। मुझे देखकर मां का मन पतंग बन गया। गले चिपटा लिया।मैं भी मां के आंचल में वैसे ही समा गया जैसे सुग्गा चिड़िया के पंखों में। आतुर प्रेम ने चरण स्पर्श की आदत को पीछे धकेल दिया। पिताजी ने भी संजीदा चेहरे से हाल-चाल पूछ लिए। सारे दर्द बांटना तो चाहता था, लेकिन समझदारी ने लफ्जों को गले में घोंट दिया। शाम को चांद रोशनी में नहाया गांव देखकर याद आया कि चांद तो दिल्ली में भी निकलता होगा। कभी दिखा ही नहीं। रसोई से गुड़ की छोटी ढेली उठा कर मुंह में डाल ली और घूमने निकल पड़ा।
दोस्त मिले दम-फूंक हुई। महफिल से जुमला आया, "दिल्ली के मज़े ले रहे हो।" झूठी हंसी के साथ दिल्ली के थोथे आधुनिक कल्चर पर आकर्षक लेक्चर दे डाला। लगा जैसे दिल्ली पर्यटन मंत्रालय का भांड हूं। अपने हाल बताकर फजीहत के अलावा कुछ हाथ नहीं आने वाला था। अभी कुछ और जुमले हवा में तैरे ही थे कि दलित बस्ती से रबिया दौड़ता हुआ आया। उखड़ी सांसों में एक बारगी पूरी बात कह गया। "भैय्या जी दिन्ना ने रतिया को जला दिया, सोमू लेकर जल्दी...." सूमो का इंजन खुला देखकर कहता-कहता रुक गया। सबने गांव के बाहरी कोने पर बसी बस्ती की दौड़ लगा दी।
रतिया गांव की रति पूर्ति का आसान ज़रिया थी। खेमा राजगीर था और ज़्यादातर बाहर ही रहता था। पर्दा तो उसकी आंखों पर भी न था लेकिन बमुश्किल बसी गृहस्थी उजाड़ना न चाहता था। बला की खूबसूरत थी वो। नितंबों तक लहलहाती केश राशि उसके अनिंध्य सौंदर्य को और भी दमका देती थी।
सवर्ण किसानों की अधपकी फसलें उसकी भैंस की चर में पड़ीं उसके रुतबे का बखान करती थीं। यूं तो गांव के अलंबरदार भी रात अंधेरे उसकी चौखट खटखटा दिया करते थे। पर दिन्ना और उसका मामला किसी से छुपा न था। मेरी इच्छाओं के तुष्टीकरण का रोल मॉडल थी वो, लेकिन सिर्फ मॉडल भर! मैं तो उसे समायोजन की उम्दा मिसाल समझता हूं। जिसने गांव भर के उत्पीड़न को अपना नसीब मानकर चेहरे पर हंसी सजा रखी थी। बदले में मिलता था घास-फूस। उपयोगिता और दरकार के नजरिये से देखें तो, उसके लिए घास-फूस भी उतनी ही ज़रूरी थी जितनी मेरे लिए नौकरी। दौड़ते-दौड़ते हांफनी चढ़ गई थी। आखिर बस्ती में पहुंच गया। उस दिन अहसास हुआ कि सिगरेट 'स्टेमिना' पी गई थी। रतिया चौबारे में कुऐं की मन के पास पड़ी कराह रही थी। जिसे ताड़ने से बुड्ढे भी बाज नहीं आते थे उसे देखकर दिल दहल गया। लंबे बाल सिकुड़ कर मसाईमारा के चरवाहों से हो गए थे। शरीर फूटते फफोंलों की रणभूमि बन गया था। नंगे बदन पर कई जगह कपड़ों की थेकली चिपकी थीं। चारों तरफ तमाशबीन खड़े थे। महिलाओं ने समीक्षा सभा जोड़कर लप्पाडुग्गी शुरू कर दी थी। उस पर जान छिड़कने वाले अलंबरदार उसे आखिरी सांसें गिनते देखने भी आए। गांव में हवा से बातें करने वाली कई गाड़ियां थीं, पर आफत मोल लेने का शौक किसी बेवकूफ को ही चर्राता है। रतिया की दस साल की बेटी चिल्ला रही थी, दिन्ना ने मेरी मां को जला दिया। बच्ची की आंखों में न आंसू थे न चेहरे पर घबराहट। यूं तो कई तमतमाये चेहरे अपने हाथों की खुजली मिटाना चाहते थे, लेकिन हरिजन एक्ट ने दिमाग खुजलाने पर मजबूर कर दिया। शाम साढ़े आठ बजे थाने में फोन कर दिया था। जिप्सी चल पड़ी थी। पांच किलोमीटर का सफर पुलिस के लिए ऐवरेस्ट की चढ़ाई जैसा दुर्गम हो गया था। माहौल फुसरफुसरित हो चुका था। टोलियां खड़ी थीं और रतिया नंगे बदन तड़प रही थी। वजह वही थी रोज़मर्रा की, 'दिन्ना का तुष्टीकरण।' त्यौहार पर खेमा के घर आने के डर से उसने विरोध किया और उसे लपटों में झोंक दिया गया। दिन्ना ने किरासिन डालकर तीली लगा दी। फुसरफुसर में एक बुढ़िया की बुलंद आवाज सुनाई दी। ' दिन्ना के मूतने में आज ही आग लग रई थी, कल कू कर लेत्ता, इसे ते कभी मना ना करै थी, आज रुक ई जात्ता।' आवाज से औरों को संबल मिला तो नई समीक्षा सुनने को मिली। 'रतिया के करम ई ऐसे थे, भोत समझाया ना समझी।' उधर रतिया छटपटा रही थी और इधर निंदा सभा अपने चरम पर थी। बारह बजे के बाद सूंघते-सांघते जनपद मुख्यालय से दो टीवी पत्रकार आ धमके। अच्छा मसाला मिल गया था। एक आधा घंटे की स्टोरी मिल जाती और उनकी भी जेब गरम। कैमरा के डिफरेंट एंगल और फ्रेम में रतिया कैद हो रही थी। भीड़ से पुछल्ला आया, कल आते तो मॉडलिंग करने लायक थी। अब रुकना मुहाल था। शर्ट उतारकर रतिया का बदन ढंक दिया। चक्की के पाट जैसै भारी कदमों से घर चल दिया। ऐवरेस्ट पार कर पुलिस भी ढाई बजे तक पहुंच गई। अगली सुबह दस बजे रतिया को डॉक्टरों के हवाले कर दिया गया। मरने से पहले के बयान में भी वो मौत देने वाले को ज़िदगी की सौगात दे गई। लेकिन मौके पर खड़े लोगों की गवाही के आधार पर दिन्ना के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी गई। गांव में होली के रंग तब भी बिखरे। लखनऊ सचिवालय से पुलिस पर दबाव था। इसलिए दिन्ना की गिरफ्तारी पर टल्ले की टाल बांध दी गई। इधर दिन्ना फरार हो लिए। पुलिस टाल बजाती रही। रतिया को फिर आग के हवाले कर दिया गया, लेकिन मुक्ति के लिए। दिन्ना आखिर गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन दमनकारी खाकी अचानक उदारमना हो गई थी। दिन्ना एक कुटिल मुस्कान के साथ जिप्सी की पिछली सीट पर बाबू साहेब जैसा सीना ताने बैठा जा रहा था।

Tuesday, June 24, 2008

शोषण का आनंद

मेज पर प्लेट आज किसी नये चेहरे ने लगाई। सुस्त अंदाज़, पूर्णत: व्यवसायिक मुस्कान। क्या लगाऊं साब? मेरी तरफ सवाल उछाल दिया। संक्षिप्त जवाब दिया, थोड़ी देर बाद राजमा और रोटी मेज पर लग गई। लेकिन एक सवाल बार-बार मन में उठ रहा था कि जाना पहचाना और अदब करने वाला 'मोतिया' कहां है ? यूं तो उसका सही नाम मोती है लेकिन सब मोतिया ही पुकारते हैं। दो-चार कौर खा लेने के बाद कोने में पेड़ों से छनकर आती रोशनी पर निगाह पड़ी। सोडियम लाइट की किरणों में वो काला धब्बा सा दिखने वाला मोती ही है। कर क्या रहा है ? जल्दी से रोटियां हलक से उतार कर मैं उसके सामने पहुंच गया। सरल मुस्कान बिखेरते हुए उठ कर बोला 'नमस्ते सर'। साक्षर था। हिंदी पढ़ता और लिख भी लेता था। उसे ज़ोर-ज़ोर से अखबार बांचते कई बार सुना था। कभी-कभी पूछ भी लेता था, बताईये ना सर क्या लिखा है ? उसकी जिज्ञासा के हिसाब से मैं भी जवाब दे देता था। आज उसे बरतन घिसते देख हैरत हो रही थी। मैं बोला क्यों रे मोतिया आज प्लेट लगाने तू नहीं आया। बात में सवाल का पुट था। जवाब आया, नया लड़का ढाबा मालिक का रिश्तेदार है। आज से बरतन ही मांजूंगा। देश की महान परम्परा यानि कुनबापरस्ती यहां भी एक काबिल को योग्यता स्तर से नीचे का काम करने को मजबूर कर दिया।
उस शाम मोतिया कहीं नज़र ही नहीं आया। मन नहीं माना तो पूछ ही लिया। उस्ताद मोतिया कहां है ? आज दोपहर को कुछ लोग आए थे कह रहे थे बालकों को मजदूरी नहीं करने देंगे। साथ ले गए। पता नहीं कहां होगा। मैं भी खड़ा सोचता रहा। मन चाहा कि उसे ढूंढने निकल पडूं। लेकिन अपनी ही कुछ परेशानियों ने पैरों में ज़ंजीर डाल दी। ऐसी कोई खास भी नहीं थीं लेकिन मन शायद भीरू हो गया था। इसलिये पैर उठे ही नहीं। बिस्तर में पड़े-पड़े मोतिया को ही सोच रहा था। न जाने कब आंख लग गई। अगले रोज़ उठा और फिर निकल पड़ा बेरोज़गारी की धूप सेंकने। दिन भर अखबारों के दफ्तरों की सीढ़ियों पर जूतों की ठक-ठक का आज भी कोई नतीजा नहीं निकला। आकर कपड़े खूंटी के हवाले कर दिये और मुंह-हाथ धोकर लेट गया। फिर मोतिया याद आ गया। तन ढांप कर ढाबे का रूख कर दिया। मोतिया बैठा उस्ताद की खैनी रगड़ रहा था। देख कर अजीब सी तसल्ली हुई। कहां था रे कल ? सर वो कह रहे थे कि तुम काम मत करो, हम तुम्हें पढ़ायेंगे। फिर तू आ क्यों गया ? सर स्कूल जाने लगा तो घर पैसे कैसे भेजूंगा। पेट की आग तो काम करने से ही बुझेगी। उसकी बात सुनकर लगा कि जैसे एक ही रात में वो कितना बड़ा हो गया हो। उसकी समझदारी आज देखी थी। बातों में संजीदगी झलक रही थी।
ख़्याल आया कि साउथ ब्लॉक में बैठकर बाल विकास की योजना बनाने वाले इस नजारे को देखें। अपनी छोटी सी आमदनी में सारे कुनबे का खर्च चलाने वाले इन बालकों को शिक्षा नहीं भर पेट रोटी की ज़रूरत है। सरकारी आंकड़ों में शोषण के शिकार इन बच्चों की शोषण ही जीवन रेखा है। ज्ञान आधारित रोजगार की व्यवस्था में और इनके लिए चारा भी क्या है! आज फिर मोतिया उसी अंधेरे कोने में बैठा काले चेहरे पर सफेद मुस्कान बनाये अपने काम में जुटा है। बरतनों को अपने दांतों जैसा बनाने की जुगत में।

Monday, June 23, 2008

धरती की प्यास

उत्तरप्रदेश के हमीरपुर में धरती के गर्भ से सौगातों के बजाय दरारें फूटने लगी हैं। तहसील सरीला के कई इलाकों में सैकड़ों मीटर लंबी दरारों ने सड़कों और मकानों को निगलने की मंशा ज़ाहिर कर दी है। इसी इलाके के कुपरा गांव के हालात कुछ ज़्यादा ही ख़राब हैं। मुंह खोलती धरती ने फसलों और मकानों से पेट भरना शुरू कर दिया है। बुंदेलखंड के इस इलाके में अरसे से इंद्र देव की कृपा नहीं हुई है। अपने तथाकथित कृषि प्रधान देश में फसलों की अच्छी पैदावार अब भी बरसात पर ही टिकी है। ऐसे में अंदाज़ लगाना मुश्किल नहीं है कि मुद्दत से सरकारी योजनाओं का इंतजार करते इस इलाके में फसली पैदावार कैसी होती होगी! ऊपर से बदनसीबी ये कि इलाके के लोग अभी भी सूखा ग्रस्त क्षेत्र के किसानों को मिलने वाले हजार रूपये के चेक का बस इंतजार ही कर रहे हैं। ऊपर से धरती ने भी उनकी फसलों को निगलना शुरू कर दिया है। उत्तरप्रदेश की राजनीति में धुरी कहा जाना वाला ये इलाका सरकार बनते ही सूबे के नक्शे में गौण हो जाता है। सरकारें इलाके के हिस्से आने वाले अनुदानों को आंकड़ों की बाजीगरी से हज़म कर जाती हैं।
ऐसा नहीं है कि ज़मीन में दरारें पहली बार पड़ी हों। पिछले साल भी इसी इलाके के जिगनी और खण्डेह गांव में ऐसा ही नज़ारा देखने को मिला था। सरकार तब भी चुप थी और आज भी चुपचाप तमाशा देख रही है। फिलहाल मुश्किल से घिरा, कुपरा गांव बेतवा नदी के किनारे पर बसा है। इस गांव के मकान, सड़कें और फसलें धरती में समाने लगे हैं। कुपरा के लोगों ने पलायन शुरू कर दिया है। भूगर्भ शास्त्रियों के मुताबिक ज़मीन से लगातार हो रहा जल दोहन इस के लिए ज़िम्मेदार है। धरती के फटते मुंह ने उसकी प्यास ज़ाहिर कर दी है। धरती की प्यास ने उसके चेहरे पर दरारनुमा तेरह सौ मीटर लंबा घाव बना दिया है। लेकिन ये भी हमारी ही देन है। भौतिक सुखों की बढ़ती इन्सानी भूख ने धरती पर घने अत्याचार कर दिए। अब बारी है धरती की।
वक्त की मांग है कि हम अपनी ज़रूरतों पर लगाम लगाऐं। धरती को धरती का ही बरताव लौटायें। कुपरा के लोगों को तो ज़गह मिल गई, अगर हमारा बरताव नहीं सुधरा तो एक दिन पलायन के लिए दुनिया छोटी पड़ जाएगी।

Sunday, June 22, 2008

मौसम का पलटवार

इसे मौसम की मेहरबानी ही कहेंगे कि बरसात ने मानसून शास्त्रियों की घोषणा के साथ-साथ दिल्ली की गर्मी पर पानी फेर दिया। कुछ भी हो लोगों को कपड़ों के भीतर बहते पसीने और बस में सफर के दौरान बगलों से उठते बदबूदार भभके से तो छुटकारा मिल ही गया। भले ही दो दिन को। लेकिन दो दिन बरसने के बाद बादलों ने फिर चुप्पी साध ली है। खैर दिल्ली के हालात चाहे जैसे हों, पूर्वी भारत में तो जैसे बादल फट ही पड़ा है। जल-थल एक हो गया है। लाखों लोग सरकार की चरमराई व्यवस्था के आसरे पेट पर पट्टी बांधे मदद के लिए आसमान ताक रहे हैं। समय से पहले बादलों की गरजन शायद कुछ कह रही है।
जेठ में सावन के आ जाने से "कच्चे नीम की निबोली सावन जल्दी अईयो रे" जैसे लोकगीत बेमानी हो गए हैं। ना लू चली, ना दसहरी महकी, तरबूज सड़कों के किनारे ग्राहकों की बाट जोहते रह गए और बादल आ धमके। ताऊ कहते थे "भरी दोपहरी आई जेठ, लाल्ला दालान में लेट"। अबकी शायद ताऊ भी किसी को नसीहत ना दे सके हों। गांव में, भरी दोपहर में खेलने निकले बालकों को इस बार शायद उनकी मां भी खोजने नहीं निकली हों। मां का सीख देने वाला डंडा भी कोने में खड़ा धूल फांकता रह गया। क्योंकि बादल वक्त के पहले घिर आए।
मानसून शास्त्रियों ने इसे अच्छा संकेत नहीं माना, आशंका जताई कि बादल लंबा इंटरवल भी कर सकते हैं जो किसानों के लिए शुभ संकेत नहीं होगा। धरती सोना तभी उगलेगी जब रुक-रुक कर पानी बरसता रहे। लेकिन आम आदमी तो फौरी लाभ के गणित से ही जुड़ा है। मानसून से पहले की बरसात ने रबी के लिए खेत तो तैयार कर ही दिया है। लेकिन अब इंद्र देव भी अचानक चुप हो गए। इससे किसान ही नहीं सरकार भी भारी संकट में पड़ जाएगी। बादलों की चुप्पी से यूपीए की गद्दी डोल जाएगी। सारे चुनाव जिताऊ मुद्दे महंगाई की आग में जल कर होम हो गए हैं। ऐसे में कांग्रेस को भी बादलों से बड़ी उम्मीदें हैं।
विशेषज्ञों की चिंता जायज़ ही थी। छः ऋतुओं के देश में, कुछ ऋतुएं आखिर कहां चली गईं ? कहीं मौसम के साथ हमारी बदसलूकी की वजह से ये विनाशकारी बदलाव तो नहीं हो रहे। मौसम भी इंसान की तरह ही रंग बदल रहा है। लगता है किसी ने हमारी बलसलूकी की चुगली मौसम से कर दी है और अब मौसम ने भी हम पर पलटवार शुरू कर दिया है।