Thursday, June 26, 2008

अलंबरदारों की मर्यादा और छीजती मानवता

नौकरी की तलाश में महीने भर का बेरोजगारी भत्ता ब्लूलाइन और डीटीसी के टिकटों में खप गया था। दाल-धपाल, आलू-प्याज तो थे। पेट्रोमेक्स की लाल पड़ती लौ से नए खर्च का अंदेशा लगाना आसान ही था। दुकानों पर लगे गुलाल की ढेरियां होली के करीब आने की गवाही दे रहीं थीं। कंगाली और त्यौहार ने पिताजी की देहरी याद दिला दी। घर जाने के लिए पहली वज़ह ज़्यादा जिम्मेदार थी। जब ज़िंदगी की बुनियादी ज़रूरत पूरी ना हो, तो होली के रंग हों या दीवाली के दिए, फीके ही लगते हैं। जैसै-तैसे गांव पहुंचा। रास्ते में बैठे ताऊ-चाचा हाल-चाल पूछने के साथ ही दालान पर बैठने की दावत देने लगे। गांव में तो सब रिश्तेदार ही होते हैं। दिल्ली के अजनबियों के बीच तिकड़मी रिश्ते सांठने से बोर मन को गांव की मिजाज़पुर्सी ने बड़ी तसल्ली दी। मुझे देखकर मां का मन पतंग बन गया। गले चिपटा लिया।मैं भी मां के आंचल में वैसे ही समा गया जैसे सुग्गा चिड़िया के पंखों में। आतुर प्रेम ने चरण स्पर्श की आदत को पीछे धकेल दिया। पिताजी ने भी संजीदा चेहरे से हाल-चाल पूछ लिए। सारे दर्द बांटना तो चाहता था, लेकिन समझदारी ने लफ्जों को गले में घोंट दिया। शाम को चांद रोशनी में नहाया गांव देखकर याद आया कि चांद तो दिल्ली में भी निकलता होगा। कभी दिखा ही नहीं। रसोई से गुड़ की छोटी ढेली उठा कर मुंह में डाल ली और घूमने निकल पड़ा।
दोस्त मिले दम-फूंक हुई। महफिल से जुमला आया, "दिल्ली के मज़े ले रहे हो।" झूठी हंसी के साथ दिल्ली के थोथे आधुनिक कल्चर पर आकर्षक लेक्चर दे डाला। लगा जैसे दिल्ली पर्यटन मंत्रालय का भांड हूं। अपने हाल बताकर फजीहत के अलावा कुछ हाथ नहीं आने वाला था। अभी कुछ और जुमले हवा में तैरे ही थे कि दलित बस्ती से रबिया दौड़ता हुआ आया। उखड़ी सांसों में एक बारगी पूरी बात कह गया। "भैय्या जी दिन्ना ने रतिया को जला दिया, सोमू लेकर जल्दी...." सूमो का इंजन खुला देखकर कहता-कहता रुक गया। सबने गांव के बाहरी कोने पर बसी बस्ती की दौड़ लगा दी।
रतिया गांव की रति पूर्ति का आसान ज़रिया थी। खेमा राजगीर था और ज़्यादातर बाहर ही रहता था। पर्दा तो उसकी आंखों पर भी न था लेकिन बमुश्किल बसी गृहस्थी उजाड़ना न चाहता था। बला की खूबसूरत थी वो। नितंबों तक लहलहाती केश राशि उसके अनिंध्य सौंदर्य को और भी दमका देती थी।
सवर्ण किसानों की अधपकी फसलें उसकी भैंस की चर में पड़ीं उसके रुतबे का बखान करती थीं। यूं तो गांव के अलंबरदार भी रात अंधेरे उसकी चौखट खटखटा दिया करते थे। पर दिन्ना और उसका मामला किसी से छुपा न था। मेरी इच्छाओं के तुष्टीकरण का रोल मॉडल थी वो, लेकिन सिर्फ मॉडल भर! मैं तो उसे समायोजन की उम्दा मिसाल समझता हूं। जिसने गांव भर के उत्पीड़न को अपना नसीब मानकर चेहरे पर हंसी सजा रखी थी। बदले में मिलता था घास-फूस। उपयोगिता और दरकार के नजरिये से देखें तो, उसके लिए घास-फूस भी उतनी ही ज़रूरी थी जितनी मेरे लिए नौकरी। दौड़ते-दौड़ते हांफनी चढ़ गई थी। आखिर बस्ती में पहुंच गया। उस दिन अहसास हुआ कि सिगरेट 'स्टेमिना' पी गई थी। रतिया चौबारे में कुऐं की मन के पास पड़ी कराह रही थी। जिसे ताड़ने से बुड्ढे भी बाज नहीं आते थे उसे देखकर दिल दहल गया। लंबे बाल सिकुड़ कर मसाईमारा के चरवाहों से हो गए थे। शरीर फूटते फफोंलों की रणभूमि बन गया था। नंगे बदन पर कई जगह कपड़ों की थेकली चिपकी थीं। चारों तरफ तमाशबीन खड़े थे। महिलाओं ने समीक्षा सभा जोड़कर लप्पाडुग्गी शुरू कर दी थी। उस पर जान छिड़कने वाले अलंबरदार उसे आखिरी सांसें गिनते देखने भी आए। गांव में हवा से बातें करने वाली कई गाड़ियां थीं, पर आफत मोल लेने का शौक किसी बेवकूफ को ही चर्राता है। रतिया की दस साल की बेटी चिल्ला रही थी, दिन्ना ने मेरी मां को जला दिया। बच्ची की आंखों में न आंसू थे न चेहरे पर घबराहट। यूं तो कई तमतमाये चेहरे अपने हाथों की खुजली मिटाना चाहते थे, लेकिन हरिजन एक्ट ने दिमाग खुजलाने पर मजबूर कर दिया। शाम साढ़े आठ बजे थाने में फोन कर दिया था। जिप्सी चल पड़ी थी। पांच किलोमीटर का सफर पुलिस के लिए ऐवरेस्ट की चढ़ाई जैसा दुर्गम हो गया था। माहौल फुसरफुसरित हो चुका था। टोलियां खड़ी थीं और रतिया नंगे बदन तड़प रही थी। वजह वही थी रोज़मर्रा की, 'दिन्ना का तुष्टीकरण।' त्यौहार पर खेमा के घर आने के डर से उसने विरोध किया और उसे लपटों में झोंक दिया गया। दिन्ना ने किरासिन डालकर तीली लगा दी। फुसरफुसर में एक बुढ़िया की बुलंद आवाज सुनाई दी। ' दिन्ना के मूतने में आज ही आग लग रई थी, कल कू कर लेत्ता, इसे ते कभी मना ना करै थी, आज रुक ई जात्ता।' आवाज से औरों को संबल मिला तो नई समीक्षा सुनने को मिली। 'रतिया के करम ई ऐसे थे, भोत समझाया ना समझी।' उधर रतिया छटपटा रही थी और इधर निंदा सभा अपने चरम पर थी। बारह बजे के बाद सूंघते-सांघते जनपद मुख्यालय से दो टीवी पत्रकार आ धमके। अच्छा मसाला मिल गया था। एक आधा घंटे की स्टोरी मिल जाती और उनकी भी जेब गरम। कैमरा के डिफरेंट एंगल और फ्रेम में रतिया कैद हो रही थी। भीड़ से पुछल्ला आया, कल आते तो मॉडलिंग करने लायक थी। अब रुकना मुहाल था। शर्ट उतारकर रतिया का बदन ढंक दिया। चक्की के पाट जैसै भारी कदमों से घर चल दिया। ऐवरेस्ट पार कर पुलिस भी ढाई बजे तक पहुंच गई। अगली सुबह दस बजे रतिया को डॉक्टरों के हवाले कर दिया गया। मरने से पहले के बयान में भी वो मौत देने वाले को ज़िदगी की सौगात दे गई। लेकिन मौके पर खड़े लोगों की गवाही के आधार पर दिन्ना के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी गई। गांव में होली के रंग तब भी बिखरे। लखनऊ सचिवालय से पुलिस पर दबाव था। इसलिए दिन्ना की गिरफ्तारी पर टल्ले की टाल बांध दी गई। इधर दिन्ना फरार हो लिए। पुलिस टाल बजाती रही। रतिया को फिर आग के हवाले कर दिया गया, लेकिन मुक्ति के लिए। दिन्ना आखिर गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन दमनकारी खाकी अचानक उदारमना हो गई थी। दिन्ना एक कुटिल मुस्कान के साथ जिप्सी की पिछली सीट पर बाबू साहेब जैसा सीना ताने बैठा जा रहा था।

1 comment:

मधुकर राजपूत said...

प्रोत्साहन के लिए कोटिश: धन्यवाद