Wednesday, June 24, 2009

गीली-गीली छू का अर्थशास्त्र

गीली गीली छू, और रात कट गई। जादू नहीं है। पसीने ने पूरी रात को गीला बना दिया है। चीकट बिस्तर की चादर यूं बदन को चिपट गई जैसे रसखान के दोहों में मिलन के लिए सदियों से तड़प रही थी। लगता है सीली सीली विरहा की रात का जलना वाले गाने का आइडिया भी ऐसी ही किसी गीली रात से फूटा होगा। गीली रात, रात नहीं विचार है कि धैर्य की परीक्षा है। कौनसा सूरमा है जिसने अखाड़े में इतना पसीना बहाया हो जितना आराम करने में मैंने बहा दिया। पंखा छत पर थाली की तरह नाच रहा था, लेकिन हवा थी कि हवा हो गई थी। न पंखे के ऊपर जाले हिलते दिख रहे थे और न नीचे मेरे शरीर का एक बाल। पिछली रात तीन किलो वज़न खोकर सुबह देखी है।

ऊपर से बिजली बोर्ड की मेहरबानियों ने कसरत में भरपूर सहयोग दिया। थाली की तरह नाचता पंखा जब ठहरा तब मानो तीनों पंखुड़ियां दांत फाड़ कर मुझे खिझा रही थी। शवासन में पसीना तो सरकारी अमले की कृपादृष्टि से ही आ सकता है। जब कसरत से हरारत होने लगी तो मोबाइल का आखिरी रुपया कुर्बान करने का मन बना लिया। बिजली बोर्ड के दफ्तर का फोन मिलाया। कॉलर ट्यून जय गणेश देवा के साथ उनकी नींद का भी श्रीगणेश हो चुका था। संदेश था कि भगवान भजन करो और उनकी तरहा लंबी तान के सो जाओ।

मैक्डोनाल्ड जाकर बर्गर जैसे हो चुके लोगों को सलाह है एरोबिक्स और योग में हाड़ तोड़ने का कोई फायदा नहीं। घर के एसी और कूलर बंद करके सो जाएं। रही बात पंखे की तो बिजली बोर्ड उसे खुद बंद कर देगा। लेटे लिटाए पतले हो जाएंगे। जिम और जीम विरोधाभासी हैं। खूब जीमने के बाद भी जिम जाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। जिम में लोहे से लडा़ई लड़ने से बेहतर है कि बिस्तर पर लेटकर पतला हो लिया जाए। भई आखिरकार पसीना ही तो बहाना है। क्यों पैसे देकर पसीना बहाया जाए। पसीना बहता है तो आमदनी होती है, लेकिन यहां तो उलट है पसीना अपना बहाओ और जेब भरे जिम वाले की। तो बिस्तर पर लेटो और मुफ्त पसीना बहाकर अपनी खून पसीने की कमाई बचाओ। बिजली बोर्ड कितना लूटता है। आजमा कर देखो बिल कम आएगा और वज़न भी कम हो जाएगा। आइडिया पसंद आया हो तो कंसलटेशन फीस हमारे पते पर भेज दीजिए।

Monday, June 22, 2009

ठेले पर डेटोनेटर

दसवीं क्लास में पढ़ा था। ठेले पर हिमालय। धर्मवीर भारती ने बड़े ही रोचक ढंग से शुरूआत की थी। शीर्षक पढ़कर लगा था कि कि हंसते-हंसते पेट में बल पड़ जाएंगे, लेकिन उम्मीदों से अलग हिमालय की बर्फ में शांति की खोज लिए लेखक कौसानी जा पहुंचा। पहले पैराग्राफ ने बांध कर रखा लेकिन फिर मन ने कहा कि टाइम बरबाद करने का कोई फायदा नहीं। ये भी हो सकता है कि उम्र के अल्हड़पन और उमड़ते लड़कपन ने किताब से ज्यादा ध्यान कहीं और ही लगा रखा हो। उसकी शुरूआत कुछ यूं होती तो ज्यादा रोचक होता। ठेले पर बर्फ की सिलें लादे ठेलावान चला आ रहा था। देखकर लगा कि ठेले पर हिमालय है। ठंडा, चिकना, सफेद, चमकता और गर्म चाय की तरह भाप छोड़ता बर्फ। भाप देख यूं लगता था कि ठेले पर किसी ने भाप इंजन बांध दिया हो और ठेलावान डिब्बे की तरह इस भापठेला इंजन के साथ खिंचा जा रहा हो।

ये तो हुई बात धर्मवीर भारती के बोझिल से अध्याय की जिसे पढ़ते-पढ़ते बोरियत खुद ही किताब बंद कर देती थी हम तो बस उसके कहे मुताबिक हाथों को जुंबिश दे दिया करते थे। अब एक और घटना उभरी है कोलकाता शहर से जो धर्मवीर भारती के इस अध्याय के एक किरदार से मेल खाती है। वो किरदार है ठेला, लेकिन इस किरदार के साथ आंखों को सकून देने वाली बर्फ नहीं है इस बार। इस पर है बम का डेटोनेटर। “ठेले पर डेटोनेटर”। माओवादी धर्मवीर भारती के ठेले पर डेटोनेटर लादकर मोक्ष का सामान ले जा रहे थे। बात सोच के घोडे़ दौड़ाने की है। सामान वही है। धर्मवीर भारती के किरदारों से मिलता हुआ। वहां ठेला और बर्फ था। यहां ठेला और डेटोनेटर। ठेला वही है। ठेले का बोझा बदल गया, लेकिन कई चीजें समान हैं। बर्फ पहले ही धुआं छोड़ रहा था और डेटोनेटर बाद में पूरे माहौल को धुआं-धुआं करने के लिए ठेले पर लाद दिया गया था।

मेरे नज़रिए से बर्फ की भाप से ठेला भापइंजन लगता था और डेटोनेटर तो इसे उड़ानचिड़ी या फाइटर जेट ही बना डालता। न ठेला बचता न डेटोनेटर। यूं तो डेटोनेटर भी बर्फ से रिलेट होता है। ये कारगुजारी पाकिस्तानी ज़मीन से स्पोंसर्ड होती है। ‘धमाके के प्रायोजक तहरीक ए तालिबान कॉस्पोंसर्ड हिजबुल मुजाहिदीन एंड जमात उद दावा, थाम दें ज़िंदगी’, ही होते। हिमालय से हिम। हिम पार से आया डेटोनेटर। ठेला शाश्वत है तब से आज तक। इस्तेमाल का तरीका विकसित हुआ है। आज हिमालय टप-टप यानी सीएनजी वाली टेम्पो में धुआं छोड़ता हुआ जाता है। ठेला खुद को उपेक्षित महसूस करता है। प्रसिद्ध साहित्यकार को एक अध्याय की सोच देने वाले ठेले का उपेक्षाबोध खत्म करने के लिए डेटोनेटर लगाकर फाइटरजेट बनाने की कोशिश की गई है।

हिमालय से बर्फ खिसककर आम लोगों की पहुंच से दूर पहुंच रही है। ठेला वहीं खड़ा है। अब इतना खास किरदार क्या मेरे जैसे किराएदारों के चिथड़े ही ढोता रहेगा। भई जलवा है। कुछ तो खास काम मिलना चाहिए। जनता यूं भी दुखी है। ठेले पर बर्फ देखकर आंखों को ठंडक मिलती थी तो अब सीधे आत्मा को ठंडक देने के लिए डेटोनेटर लेकर निकला है।

Thursday, June 18, 2009

केवट की मौत से उजागर हुए पाठ

तीन दिन ठांय ठूंई हुई। चित्रकूट की दीवारों पर गोलियों से फाइन आर्ट बना दी यूपी पुलिस ने। स्पाइडर मैन की तरह छतें फांदता हुआ घनश्याम केवट पुलिस की टोपी के नीचे से तिड़ी हो लिया। चित्रकूट राम का अस्थाई निवास पता रहा है और यहीं घनश्याम केवट ने पुलिस के खिलाफ मोर्चा लिया। जनाबों केवट ने राम को पार किया था तो राम ने आज केवट को पार कर दिया, लेकिन गारंटी अपने बिरसे तक की थी। अहसान बराबर। अब केवट जाने या यूपी पुलिस। गंगा पार कराने के बाद तो केवट भी साथ नहीं हो लिया था।


ऐसा नहीं है कि राम साक्षात चले आए उसे पार कराने को। अक्ल की गोली दी थी। सो पुलिस की टांग के नीचे से निकल लिया। ये तो वैसा ही हुआ कि प्लेट में पड़ा मुर्गा उड़ान भर के निकल ले। पुलिस फैड़-फैड़ करती रही। तीन दिन तक अकेला केवट पुलिस के पैरों में रस्से बांधे रहा। अकेला पांच सौ पर भारी। सरकारी शूटर आंख मीचे राइफल की टिप पर देखते हुए गोली चलाते रहे। किधर गई किसी को नहीं पता। पांच-सात साल में एकाध बार तो गोली चलाने का मौका मिलता है। गोली चलने से राइफल का झटका सहन करें या निशाना लगाएं। शाबाश सरकारी निशानेबाजों।

हालांकि पुलिस ने आखिरकार उसे घेरकर मार ही लिया, लेकिन डकैत शिरोमणी केवट तो डकैत समाज में मिसाल बना गया। अब डकैत काली के बाद उसकी पूजा करेंगे। फिल्म डायरेक्टर नोट कर लें। भविष्य में डकैतों पर फिल्म बनाते हुए इस सीन को जरूर लगाएं। नहीं तो डकैत समाज विरोध प्रदर्शन पर उतारू हो जाएगा। अभिव्यक्ति हमारे उदार लोकतंत्र में सबका अधिकार है।

देसी और चुनावी चारण रचनाकारों के लिए अब डकैत समाज से भी बुलावे आने की संभावना है। उनके लिए संदेश है कि केवट की आमदनी वाली शहीदी पर भी कुछ कागज काले कर डालें। मुखड़ा मैं दिए देता हूं। “चित्रकूट में केवट ने जब, लिया था अपना डेरा जमाय। रामचंद्र संकट की घड़ी मदद देन को खुद चल आए। यूपी पुलिस को डकैत शिरोमणी ने, जमकर नाकों चने चबाए।” आगे खुद लिखो यार, सारा केवट पुराण नहीं लिख सकता, केवल ‘आइडियेटर’ की भूमिका ही निभा रहा हूं। ऐसे शब्दों से केवट को महिमामंडित करके लूटने वालों को लूटा जा सकता है।

यूपी पुलिस निराश न हो। मौके उनके लिए भी कम नहीं हैं। पुलिस भी अपने टीम वर्क को बेमिसाल करार देकर जलसा मना सकती है। इस बार यूपी पुलिस को पांच सौ गैलंटरी अवार्ड मिलने की प्रबल संभावना है। छब्बीस जनवरी को तमाम तमगे यूपी पुलिस को मिल सकते हैं। इसे कहते हैं ठोस रणनीति। केवट को मारने के लिए गांव को घेरकर रखा। उसे इधर-उधर गोलियां दागकर हैरान करते रहे। यहां पुलिस ने आबादी वाला इलाका होने के नाते पूरी सावधानी बरती और आखिरकार हैरान परेशान केवट को भागना पड़ा। भागने के लिए नाकेबंदी में छेद छोड़ा गया। यही तो रणनीति थी। इसी वजह से तो तीन दिन जंग लगी राइफलें साफ की गईं। खुले में घेरा। सकून से मारा। थका-थका कर ठोका। ऐसा अनोखा टीम वर्क अगर धोनी के लड़ाके कर जाते तो भोथरी याददाश्त का भारतीय प्रशंसक मुंह फाड़कर नहीं रोता। कुल मिलाकर तीन दिन चली मुठभेड़ से भाट-चौपाल गायन, और टीम इंडिया के लिए कई पाठ तैयार हुए हैं, तो यूपी पुलिस का शानदार टीम वर्क और रणनीति उभर कर आई है।

Sunday, June 14, 2009

हार की कसक से ढहता भगवा दुर्ग

लोकसभा चुनाव के पहले लाल कृष्ण आडवाणी की रणनीतिकार टीम को प्रचार के आधुनिक तौर तरीके से पूरा यकीन था कि आडवाणी पी एम इन वेटिंग नहीं रहेंगे। सच में हुआ भी यही। आडवाणी अब इस दौड़ में शामिल नहीं हैं। हालांकि नतीजे उल्टे आए पर सार वही निकला की आडवाणी अब पीएम इन वेटिंग नहीं हैं। नतीजों से बौखलाई पार्टी की ज़मीन हिल गई। हराऊ चिंतन शुरू हुआ। नेताओं ने दिमाग की खुजली के बाद ज़ुबानी खुजली भी मिटाई। लग रहा था कि अब पार्टी का नेतृत्व नए सिरे जनाधार खड़ा करने में जुट जाएगा। संघ सरसंचालक भागवत ने भी इन नेताओं की अगुआई पर्दे के पीछे से करने का मन बना लिया था, लेकिन एक बार फिर पार्टी की ज़मीन हिल गई और सारी कार्ययोजना छिटककर नेताओं के हाथों से निकल गई। यशवंत सिन्हा ने खुले आम अपने इस्तीफे का बम फोड़ दिया। भाजपा मुख्यालय से लेकर पार्टी का हर नेता इस खुले विद्रोह से सकते में है। यशवंत ने पार्टी नीतियों की मुखालफत भी तब की जब पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह कह रहे थे कि मीडिया में मुंह खोलने वाला नेता खुद अपनी शामत बुलाएगा।

चुनाव के बाद बीजेपी इस बात पर गौर करती रही कि हार का ठीकरा किसके सिर फोड़ा जाए। सभाएं हुईं, समीक्षाएं चलीं और नतीजे निकले की आडवाणी को बतौर प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट करना ही सबसे बड़ी खामी थी, इसके बाद पार्टी की प्रचार टीम ने कोढ़ में खुजली का काम किया। समीक्षा में कुछ खुलासे करने थे सो, तय किया गया कि सांगठनिक कमजोरी के चलते बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा। आडवाणी के कंधों से हार का बोझ हल्का करने के लिए प्रो आडवाणी खेमा पूरी योजना तैयार कर चुका था। गैर प्रबंधन और अंतर्विरोधों से भरी पार्टी में इस बात से कई नेता उखड़े पड़े थे, मन में झंझावात था और चिंगारी इस्तीफा बम बनकर फूट पड़ी। सिन्हा समेत कई नेता इस बात से काफी नाराज थे कि आडवाणी की टीम ने हराऊ रणनीति तैयार कर पार्टी को सत्ता से दूर रखा लेकिन इस बात को न तो आडवाणी की टीम मानने को तैयार थी और न खुद एक्स पीएम इन वेटिंग।

हार की कसक बुरी लगती है। कहां तो भाजपाई कुर्सी और मंत्रालयों की आस लगाए बैठे थे और इधर हार के बाद कुर्सी की छोड़ो बेंच और मूढ़े को भी तरस रहे हैं। टीस उठना लाजिमी है। इस विरोध के पीछे भले ही यशवंत पार्टी के तंत्र से खफा हों लेकिन विद्रोह के बीज हार और उसके बाद की उपेक्षा से ही उभरे हैं। अरुण जेटली का राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष बनना सिन्हा को हजम नहीं हो रहा साथ लोकसभा में भी उन्हें बैक बेंचर बनाया गया है। इन सारी बौखलाहटों को नैतिक मुलम्मा चढ़ाते हुए सिन्हा ने कहा है कि हार की पार्टी के पादधिकारियों और संसदीय दल के नेताओं को हार की जिम्मेदारी लेते हुए अपने पदों से इस्तीफा दे देना चाहिए। इस इस्तीफे के हथकंडे में बीजेपी का अंतर्कलह उभर रहा है। अगर बड़े पैमाने पर इस्तीफे बाजी चली तो सभी नेता अपने लिए पार्टी पदों पर संभावनाएं तलाशने में जुट जाएंगे।

कुल मिलाकर बीजेपी के नेताओं के केकड़ा हालात उभरकर सामने आ गए हैं। सब एक दूसरे को ठेलकर ऊपर जाने की जुगत लडा़ रहे हैं। पार्टी में उभरी धड़ेबाजी ने पार्टी का सिर-धड़ अलग करने की ठान ली है। सोचने वाली बात है कि वाजपेयी काल में जो दल कई पार्टियों के गठबंधन को लेकर बढ़ रहा था वो इस वक्त अपने ही नेताओं को एक लीक पर चलाने में असमर्थ नज़र आ रहा है। ये आडवाणी की नेतृत्व क्षमता पर भी बड़ा सवालिया निशान लगाता है। जो नेता अपने घर की कलह को चारदीवारी के भीतर ठंडा नहीं कर सकता है वो अगर प्रधानमंत्री बनता तो देश भर में सुलगते मुद्दों को विदेशी दखल से कैसे बचाता ? आडवाणी के बतौर पीएम इन वेटिंग बनने से पार्टी पहले ही खेमों में बंट गई थी हार के बाद की कसक ने इन खेमों को और भी मजबूत कर दिया है।

वह उन्माद और अटल बिहारी वाजपेयी का नेतृत्व था जो बीजेपी को दिल्ली दरबार की सैर करा लाया। अब तो दिल्ली दूर ही लगती है। दरअसल बीजेपी अपनी मूल प्रतिज्ञा और लक्ष्यों के बीच भटक रही है। भटकती राह पर सफलता मिले भी तो कैसे। मुद्दा था हिंदुत्व, लक्ष्य है सत्ता। एक ऐसे देश में जहां मिश्रित धर्म हों जहां ज्यादातर लोग मिलजुलकर सदभावना के साथ रहते हों वहां कब तक जनता धोखा खाकर बीजेपी को दिल्ली की गद्दी पर आसीन करती रहेगी। एक बार जनता के बीच खोया विश्वास मुश्किल से ही हासिल होगा। फिलाहल तो बीजेपी के हालात पतले हैं और यही कहा जा सकता है कि बीजेपी मूल प्रतिज्ञा और लक्ष्यों के बीच फंसकर रह गई है।