Monday, June 22, 2009

ठेले पर डेटोनेटर

दसवीं क्लास में पढ़ा था। ठेले पर हिमालय। धर्मवीर भारती ने बड़े ही रोचक ढंग से शुरूआत की थी। शीर्षक पढ़कर लगा था कि कि हंसते-हंसते पेट में बल पड़ जाएंगे, लेकिन उम्मीदों से अलग हिमालय की बर्फ में शांति की खोज लिए लेखक कौसानी जा पहुंचा। पहले पैराग्राफ ने बांध कर रखा लेकिन फिर मन ने कहा कि टाइम बरबाद करने का कोई फायदा नहीं। ये भी हो सकता है कि उम्र के अल्हड़पन और उमड़ते लड़कपन ने किताब से ज्यादा ध्यान कहीं और ही लगा रखा हो। उसकी शुरूआत कुछ यूं होती तो ज्यादा रोचक होता। ठेले पर बर्फ की सिलें लादे ठेलावान चला आ रहा था। देखकर लगा कि ठेले पर हिमालय है। ठंडा, चिकना, सफेद, चमकता और गर्म चाय की तरह भाप छोड़ता बर्फ। भाप देख यूं लगता था कि ठेले पर किसी ने भाप इंजन बांध दिया हो और ठेलावान डिब्बे की तरह इस भापठेला इंजन के साथ खिंचा जा रहा हो।

ये तो हुई बात धर्मवीर भारती के बोझिल से अध्याय की जिसे पढ़ते-पढ़ते बोरियत खुद ही किताब बंद कर देती थी हम तो बस उसके कहे मुताबिक हाथों को जुंबिश दे दिया करते थे। अब एक और घटना उभरी है कोलकाता शहर से जो धर्मवीर भारती के इस अध्याय के एक किरदार से मेल खाती है। वो किरदार है ठेला, लेकिन इस किरदार के साथ आंखों को सकून देने वाली बर्फ नहीं है इस बार। इस पर है बम का डेटोनेटर। “ठेले पर डेटोनेटर”। माओवादी धर्मवीर भारती के ठेले पर डेटोनेटर लादकर मोक्ष का सामान ले जा रहे थे। बात सोच के घोडे़ दौड़ाने की है। सामान वही है। धर्मवीर भारती के किरदारों से मिलता हुआ। वहां ठेला और बर्फ था। यहां ठेला और डेटोनेटर। ठेला वही है। ठेले का बोझा बदल गया, लेकिन कई चीजें समान हैं। बर्फ पहले ही धुआं छोड़ रहा था और डेटोनेटर बाद में पूरे माहौल को धुआं-धुआं करने के लिए ठेले पर लाद दिया गया था।

मेरे नज़रिए से बर्फ की भाप से ठेला भापइंजन लगता था और डेटोनेटर तो इसे उड़ानचिड़ी या फाइटर जेट ही बना डालता। न ठेला बचता न डेटोनेटर। यूं तो डेटोनेटर भी बर्फ से रिलेट होता है। ये कारगुजारी पाकिस्तानी ज़मीन से स्पोंसर्ड होती है। ‘धमाके के प्रायोजक तहरीक ए तालिबान कॉस्पोंसर्ड हिजबुल मुजाहिदीन एंड जमात उद दावा, थाम दें ज़िंदगी’, ही होते। हिमालय से हिम। हिम पार से आया डेटोनेटर। ठेला शाश्वत है तब से आज तक। इस्तेमाल का तरीका विकसित हुआ है। आज हिमालय टप-टप यानी सीएनजी वाली टेम्पो में धुआं छोड़ता हुआ जाता है। ठेला खुद को उपेक्षित महसूस करता है। प्रसिद्ध साहित्यकार को एक अध्याय की सोच देने वाले ठेले का उपेक्षाबोध खत्म करने के लिए डेटोनेटर लगाकर फाइटरजेट बनाने की कोशिश की गई है।

हिमालय से बर्फ खिसककर आम लोगों की पहुंच से दूर पहुंच रही है। ठेला वहीं खड़ा है। अब इतना खास किरदार क्या मेरे जैसे किराएदारों के चिथड़े ही ढोता रहेगा। भई जलवा है। कुछ तो खास काम मिलना चाहिए। जनता यूं भी दुखी है। ठेले पर बर्फ देखकर आंखों को ठंडक मिलती थी तो अब सीधे आत्मा को ठंडक देने के लिए डेटोनेटर लेकर निकला है।

5 comments:

Unknown said...

अब इसमें बेचारे ठेले की क्या गलती... जब उसे ढोने को और कुछ ना मिला और
उसके मालिक के हाथों को कोई और काम ना मिला तो वो तो बेचारा बम ही ढोयेगा.... आतंकवाद को ख़तम करने की पहली शर्त यही है... हर भूखे को रोटी... हर हाथ को रोज़गार...
खैर ठेले पर हिमालय की अछि याद दिलाई आपने...

डॉ .अनुराग said...

हम भी उसी निबंध की याद में आये थे ... ऐसे डेटोनेटर ..अब सुना है ऑर्डर पे भी बनाए जाते है..सुना है लेटेस्ट ठेले लाल गढ़ में देखे गए है

Udan Tashtari said...

सही है..अब काहे का ठेले पर हिमालय!

Unknown said...

पहले 'ठेले पर हिमालय' हुआ करता था और अब 'ठेले पर डेटोनटर'आपने एक लेखक की रचना और आज की हकीकत को बड़े ही नपे तुले अंदाज में पिरोया है। लेकिन दो अलग समय की घटनाओं को शब्दों का हार पहनाने में कुछ ज्यादा की फूल जोड़ दिए.....

Brajdeep Singh said...

mujhe yaad aata hain vo time,jab humclass main hindi kepapermain thalepar himalaya ka ssandarbh answer diya karte the
auraaj aaj humthalepar detonator par comment de rahe hain
sach main timekafi jaldi jaldi badal raha hain