Thursday, October 20, 2011

अजब इत्तेफाक हो तुम

फॉल विंटर की छोटी सी शाम दिन के रजिस्टर में अपनी हाजिरी लगा रही थी। दिन अपनी शिफ्ट खत्म कर चुका था और सूरज ड्यूटी पूरी कर पश्चिम में गोता लगा चुका था। सर्दी की शुरुआती ठुनक लिए कुदरत करीने से थी। सब तरतीब में, सिवा शहर के। आप चाहकर भी घड़ियों से होड़ करते शहरों को तरतीब में नहीं लगा सकते। घड़ी की सुइयों से लड़ते शहरों की आपाधापी सड़क पर ट्रैफिक बनकर बेतरतीब फैल जाती है। इसी आपाधापी के बीच वो अपनी बाइक पर धीरे-धीरे सरक रहा था। अक्टूबर की शाम ट्रैफिक पॉल्यूशन के बीच ठंड की आहट का अहसास करा रही थी। सामने रेड लाइट थी। थमने के लिए बाइक रेंग रही थी, लेकिन उससे पहले ही ठिठक गई। रेड लाइट से पहले एक रेड टी शर्ट की तरफ उसका ध्यान गया था।

चाल तो जानी-पहचानी है। बाल भी वैसे ही खुले। हां, हां वही तो है। बाइक थम गई थी। पीछे के कामकाजी लोगों ने घर पहुंचने की जल्दी में उसे निठल्ला और फुर्सतिया समझ हॉर्न बजाने शुरू कर दिये थे। वो डरा था, घबराया सा, हॉर्न की आवाज़ से नहीं बल्कि उसकी एक झलक से। बाइक फिर उन बेतरतीब लाइनों में चलने लगी। सिग्नल पर ठहर चेहरे से पसीना साफ किया। अचानक गर्मी बढ़ गई थी। ऐब शाम का नहीं नज़रों का था। सिग्नल पार कर सोचा कि एक कॉल कर ले लेकिन घबराहट हैंगओवर की तरह दिमाग में ठहर गई। बस ऐवईं एसएमएस टाइप किया और उस नंबर पर सेंड कर दिया जिस पर चाहते हुए भी एसएमएस करना नहीं छोड़ पाया था। अब वो भीड़ में तन्हा था। कोटर में बैठे उल्लू की तरह, दुनिया देखते, दुनिया के बीच तन्हा। जगजीत सिंह कान के पास गुनगुना रहे थे। आज फिर आपकी कमी सी है...। तुम क्यों चले गए जगजीत! अभी तो तमाम अहसासों को आवाज़ में पिरोना था। सोचते-सोचते यादों के पत्थर उलटने लगा।

बात उन दिनों की है जब उदारवाद के रास्तों ने वाया अमेरिका हमारे लिए NSG के दरवाज़े खोल दिए थे। ग्लोबल वॉर्मिंग दुनिया के लीडरों के माथे पर उतर आई थी और कोपेनहेगन की सर्द हवाओं में धरती ठंडी करने के लिए चर्चा हो रही थी। तमाम तरह के राजनीतिक और कूटनीतिक कयास ख़बरिया चैनलों के पर्दों पर तैर रहे थे। न्यूज़रूम बहसबाड़े बने थे और की-बोर्ड को फुर्सत नहीं थी। ख़बरें पढ़ना-लिखना उसका शौक था और बगल में दि हिंदू की एक कॉपी दबाए ऑफिस पहुंचता था। उसका नया-नया प्रमोशन हुआ था। कॉपी राइटर से कॉपी एडिटर बना दिया गया था। सीनियर्स का रूबाब था। कॉपी राइटर्स बचते थे उनसे और अधिकतर कॉपियां उसी के सामने आती थीं। सीनियर्स कहने लगे थे, क्या बात है, आजकल बहुत डिमांड में हो। वो हंसकर अनदेखा कर दिया करता।

शायद इत्तेफाक था कि उस दिन वो कॉपी चेक कराने उसकी डेस्क पर आ गई। कुर्ते में सजी, खुले बाल। उसके चेहरे पर रसखान के दोहे जीते थे। उद्धौ! मन न भये दस-बीस...। सोचने लगा, चेहरा है या रूमानियत समेटे ग़ज़लों के मुलायम हरुफ़। इतने करीब होने का पहला अहसास था वो। वो एक लौ जलती छोड़ गई थी उसके आस-पास कहीं। जिसकी नर्म आंच उसे बाद तक महसूस होती रही। एंटरटेनमेंट की गॉसिप कॉपी थी। सिनेमा तो पढ़ा था, लेकिन यह सिनेमा तो नहीं। कलावादी और समानांतर सिनेमा आंदोलन से अलग यह बाज़ार का सिनेमा था। नई आर्थिक नीतियों के आने के बाद जिसने शाहरुख़ ख़ान जैसे बेहूदा कलाकार को यूथ आइकन बनाया। सोचा, अब शायद टाइम्स ऑफ इंडिया का सप्लीमेंट भी पढ़ना पड़ेगा। अपनी बौद्धिक लीक से हटना उसका पहला झुकाव था।

मोहब्बत भले नाज़ुक चीज़ हो लेकिन बुद्धि को आराम से कुचल देती है। विमर्शों को निकालकर भावनाओं को लफ़्जों में उतार देती है। सिंगल कमरे में रूममेट के साथ दारू-दक्कड़ की महफ़िलों में अब बातों के रुख पलटने लगे थे। घर से बाहर रहने का पूरा फ़ायदा उठाते थे दोनों। अनलिमिटेड दारू और सिगरेट के लिए जिस एकांत की जरूरत होती है उसकी कमी उनके पास नहीं थी। कुलदीप नैयर, विमल जालान, गुहा, इंडियन कॉन्सटिट्यूशन, करंट अफ़ेयर्स अब कम आते थे ज़ुबान पर। अचानक मैला आंचल फिर से फैसिनेट करने लगा था। पाब्लो नेरूदा, रेणू और गुलज़ार एक नया मानस गढ़ रहे थे। दिन ब दिन रूमानियत बढ़ रही थी। हर चीज़ अपनी जगह करीने से लगती थी। किसी से कोई शिकायत नहीं थी। ऑफिस में घंटों का काम थकावट नहीं ऊर्जा देता था।

आप लाख छुपाना चाहें लेकिन नज़रें भेद दे ही देती हैं। उसके ख़ास साथियों ने आम सी एक बात को नये में अंदाज़ में पेश किया था। क्या माज़रा है, आजकल आपसे ही कॉपी चेक करा रही है? फ़िर गुलज़ार याद आ गए। बेवज़ह बातों पे ऐवईं ग़ौर करे...। छोटी-छोटी बातों से ही मोहब्बत के हैलुसिनेशन शुरू होते हैं। और उसके बीज पड़ चुके थे। हैलुसिनेशन के इन्हीं खेतों में उसके सपने पल रहे थे। वहम ज़िंदगी जीने के लिए बड़े काम की चीज़ हैं। इसी वहम के ज़रिये तो उसकी तकलीफ़ें ख़त्म हो गई थीं। कम वेतन, जीने के लिए संघर्ष, जहां-तहां अनुवाद का काम ढूंढकर गुज़ारे लायक पैसे जमा करना। फ़ाकामस्ती का मज़ा इसी वहम के सहारे तो चल रहा था।

प्रैक्टिकली यह एकदम बे-मेल जोड़ी थी। वो देहाती, फटीचर टाइप। एस्थेटिक प्यार पलकों पर उठाए घूम रहा था और वो एकदम शहराती। बोलने में नज़ाकत और अदा। दोनों एकदम ज़ुदा थे। सही में कहा जाए तो यह जो डूबा सो पार का प्रीकैप ही था। इन सब बातों को जानते हुए भी उसे कहीं उम्मीद थी कि शायद वो अपने सपने पूरे कर लेगा। दुनियावी आपाधापी में अपने हिस्से का चांद ढूंढ लेगा और फिर उसी चांद से साझा करेगा कुछ ऐसी बातें जिनसे रोशनी का नूर टपके।

प्यार में हिम्मत भी आ जाती है। शायद इसलिए कि बुद्धि तो पहले ही खत्म हो जाती है। सही कहा है कि अविद्या साहस की जननी है। उस देहाती ऐस्थेटिक ने हिम्मत दिखाई और अपने अहसासों का पुलिंदा उस पर उड़ेल दिया। उसने जो सोचा सब उसका उल्टा ही हुआ। उसे अहसासों के बोझ तले दबना मंज़ूर नहीं था। सारी पेरशानियां दुगनी हो गई थीं। ज़ेहन से दिल का सफ़र एक लम्हे में तय किया जा सकता है लेकिन दिल से ज़ेहन तक लौटने में उम्र लग जाती है। कभी-कभी वापसी मुमकिन ही नहीं होती। इसी वापसी की राह पर निकल तो पड़ा था लेकिन रास्ते जैसे कहीं जाते ही नहीं थे। वो अपने छोटे-छोटे पापों की लिस्ट खंगालने लगा था। पॉएटिक जस्टिस में उसे पहली बार यकीन हो रहा था। दुनिया अपनी रफ़्तार से चल रही थी।

रात को बिस्तर पर लेटा वो आज के इत्तेफाक के बारे में सोच रहा था। क्यों मिल गईं तुम। क्यों मेरी यादों के खंडहरों को पलट दिया। यादें बिकती क्यों नहीं। दिमाग कंप्यूटर की हार्ड डिस्क क्यों नहीं। क्या यही इत्तेफाक फिर होगा, लेकिन शुरुआत दोबारा नहीं होती। दोनों एक बार फिर से चाहकर भी अजनबी नहीं बन सकते। बहुत चुप-चुप हो, क्या बात है? यह बीवी की आवाज़ थी। वो उसकी उंगली में पड़ी अंगूठी को घुमाते हुए कन्फेशन की स्क्रिप्ट तैयार करने लगा। जो अब तक अधूरी है।

Wednesday, September 21, 2011

इज्ज़त का सामाजिक दर्शन

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और शादी के बाद ज़्यादा सामाजिक हो जाता है। मैं आज तक खुद को सामाजिक मानने को तैयार नहीं था लेकिन बीवी के आते ही मैं सामाजिक हो गया हूं। पहले अपनी धुन में लिखा करता था और आजकल ज़रूरत की ख़ातिर। बीवी के आने के बाद सामाजिकता ने थोड़ी आंखें भी खोली हैं। आज जाना है कि पत्रकारिता का जो कोर्स मैंने लाख रुपये में किया था वह ‘’लर्निंग फोर अर्निंग’’ था न कि ‘’लर्निंग फॉर बर्निंग’’। पहले ख्वामाख्वाह लिखता रहता था और अब सिर्फ नौकरी के लिए। कोशिश आज भी करता हूं लेकिन सामाजिकता आड़े आ जाती है। शायद यही वज़ह है कि ब्लॉग को समय नहीं दे पा रहा हूं।

आजकल उंगलियां पैसों की ख़ातिर की बोर्ड की सैर करती हैं। जरूरी ख़बरें, लेख और उसके बाद फिर से सामाजिकता। सामाजिकता पहले भी थी लेकिन इतनी नहीं। उस वक्त मैं ज्यादा सामाजिकता को उसी तरह अनदेखा करने का दुस्साहस करता था जिस तरह चीन भारत की सीमा को। कोशिश आज भी करता हूं कि इसे नज़रअंदाज़ करूं लेकिन यूपीए सरकार का सा माद्दा मेरे पास नहीं जो महंगाई को नज़रअंदाज़ करती आ रही है। महंगाई से तड़प रही जनता की चीख-पुकार के बावजूद सरकार इसे बढ़ाने पर आमादा है। एक सरकार है कि जनता की नहीं सुन रही और एक मैं हूं कि एक ‘’व्हिसल ब्लओर’’ मेरे कान फाड़े दे रहा है।

मैं एक बेहतरीन लेख लिखने पर सोच रहा हूं और व्हिसल ब्लोअर बीवी कहती है कि हेयर आयल ख़त्म हुए दो दिन हो गए। एक अलमंड आयल ले आना। मैं भन्नाता हूं, फिर ख़ुद को काबू में करता हूं। प्रकृति के फायदे समझाते हुए मैं गांव से आया सरसों का तेल सिर में डालने की सलाह देता हूं। लेकिन वह सामाजिकता का हवाला देकर इसे मेरी ही प्रेस्टीज से जोड़ देती है। पड़ोसी चिपचिपा सिर देखेंगे तो क्या कहेंगे ? मेहमान आएंगे तो सिर में लगाने को क्या दूंगी ? मैं मन ही मन कहता हूं कि अपना हेयर रिमूवर दे देना। तेल के मसले को इज्ज़त से जुड़ता देखकर मैं अवाक रह जाता हूं। इज्ज़त लुट जाने के बारे में मेरा ज्ञान उतना ही था जितना कि हिंदी फिल्मों में दिखाया जाता था। मैं बलात्कार को ही इज्ज़त लुटना मानता था लेकिन समाज तेल न होने को भी इज्ज़त लुटना मानता है यह मैंने आज ही जाना था। मैं हैरान हूं कि आज तक ऑफिस में बॉस को तेल लगाने से बचता रहा और अब मेरे जैसे क्रिएटिव आदमी को तेल लाना पड़ेगा।

बीवी इसके पीछे भी सामाजिकता का दर्शन शास्त्र जोड़ देती है। उसका तर्क है कि अमेरिका तेल के लिए लीबिया तक चला गया और तुम कल्लू किराना वाले की दुकान नहीं जा सकते। मैं उसके ग्लोबल सामाजिक ज्ञान से आहत होता हूं। मुझे यह आइडिया क्यों नहीं आया ?

मुझे समाज पर गुस्सा आता है। तेल लाने लायक पैसे तो मैं पहले भी कमाता था लेकिन पहले लोग इस तरह के सिम्बोलिज्म से मेरी आर्थिक हालत का अंदाज़ा लगाने की कोशिश नहीं करते थे। मैं नतीज़े पर पहुंचता हूं कि शादीशुदा इन्सान के लिए समाज की नज़रों में भद्दा फर्क आ जाता है। सामाजिकता किसी काम की नहीं है और यह क्रिएटिव लोगों को दुनियावी झंझटों में फंसाने की साजिश है। मुझे बीवी भी इसी साजिश में शामिल नज़र आती है। मेरा उससे लड़ने का दिल करता है। मैं फिर ख़ुद को काबू में करता हूं। इस सामाजिक दर्शन से न चाहते हुए भी प्रभावित होकर मैं पैन पेपर छोड़ तेल लेने निकल पड़ता हूं।

Wednesday, July 20, 2011

तुम्हें याद है !

तुम्हें याद है, मेरे सपनों का एक धागा,

जब तुम्हारी ज़िंदगी में उलझ गया था,

सपाट सी दो ज़िदगियां पेचीदगी भरी हो गई थीं,

तितलियों से चुराई तुम्हारी रंगत गुम थी,

और मेरी पलकों से नींद के तकिए लुढ़क गए थे,

तुम्हारी आंखें खाली कटोरे सी थीं,

एक खामोशी चीखती थी उनमें,

और मेरी आंखों में जैसे ओस हिलग गई थी,

उन बूदों में चमकती थीं सपनों की दरारें,

तुम्हारी हंसी रूखी थी सर्द हवा सी,

और मेरी हंसी कभी आंखों तक नहीं आती थी,

मन में गुबार था मैल नहीं,

प्यार की पुलटिस लगा गुस्सा था,

होठों पर तैरती थी ख्यालों की जुंबिश

पर माहौल के ताले ज़ुबां पर लटके थे

सुलझाने के फेर में और उलझती थीं हमारी ज़िंदगियां,

तुम्हें याद है, एक दिन तुमने उलझे धागे को तोड़ दिया,

तब से, सपनों का कचरा बीनता हूं,

तहें लगाता हूं मन की अंधेरी कोठरी में,

करीने से लगाने की ख़ातिर,

क्योंकि सपने डिस्पॉज़ नहीं होते,

लेकिन अपनी आंखों में देखना आज,

उलझन अभी भी बाकी है...