Wednesday, September 21, 2011

इज्ज़त का सामाजिक दर्शन

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और शादी के बाद ज़्यादा सामाजिक हो जाता है। मैं आज तक खुद को सामाजिक मानने को तैयार नहीं था लेकिन बीवी के आते ही मैं सामाजिक हो गया हूं। पहले अपनी धुन में लिखा करता था और आजकल ज़रूरत की ख़ातिर। बीवी के आने के बाद सामाजिकता ने थोड़ी आंखें भी खोली हैं। आज जाना है कि पत्रकारिता का जो कोर्स मैंने लाख रुपये में किया था वह ‘’लर्निंग फोर अर्निंग’’ था न कि ‘’लर्निंग फॉर बर्निंग’’। पहले ख्वामाख्वाह लिखता रहता था और अब सिर्फ नौकरी के लिए। कोशिश आज भी करता हूं लेकिन सामाजिकता आड़े आ जाती है। शायद यही वज़ह है कि ब्लॉग को समय नहीं दे पा रहा हूं।

आजकल उंगलियां पैसों की ख़ातिर की बोर्ड की सैर करती हैं। जरूरी ख़बरें, लेख और उसके बाद फिर से सामाजिकता। सामाजिकता पहले भी थी लेकिन इतनी नहीं। उस वक्त मैं ज्यादा सामाजिकता को उसी तरह अनदेखा करने का दुस्साहस करता था जिस तरह चीन भारत की सीमा को। कोशिश आज भी करता हूं कि इसे नज़रअंदाज़ करूं लेकिन यूपीए सरकार का सा माद्दा मेरे पास नहीं जो महंगाई को नज़रअंदाज़ करती आ रही है। महंगाई से तड़प रही जनता की चीख-पुकार के बावजूद सरकार इसे बढ़ाने पर आमादा है। एक सरकार है कि जनता की नहीं सुन रही और एक मैं हूं कि एक ‘’व्हिसल ब्लओर’’ मेरे कान फाड़े दे रहा है।

मैं एक बेहतरीन लेख लिखने पर सोच रहा हूं और व्हिसल ब्लोअर बीवी कहती है कि हेयर आयल ख़त्म हुए दो दिन हो गए। एक अलमंड आयल ले आना। मैं भन्नाता हूं, फिर ख़ुद को काबू में करता हूं। प्रकृति के फायदे समझाते हुए मैं गांव से आया सरसों का तेल सिर में डालने की सलाह देता हूं। लेकिन वह सामाजिकता का हवाला देकर इसे मेरी ही प्रेस्टीज से जोड़ देती है। पड़ोसी चिपचिपा सिर देखेंगे तो क्या कहेंगे ? मेहमान आएंगे तो सिर में लगाने को क्या दूंगी ? मैं मन ही मन कहता हूं कि अपना हेयर रिमूवर दे देना। तेल के मसले को इज्ज़त से जुड़ता देखकर मैं अवाक रह जाता हूं। इज्ज़त लुट जाने के बारे में मेरा ज्ञान उतना ही था जितना कि हिंदी फिल्मों में दिखाया जाता था। मैं बलात्कार को ही इज्ज़त लुटना मानता था लेकिन समाज तेल न होने को भी इज्ज़त लुटना मानता है यह मैंने आज ही जाना था। मैं हैरान हूं कि आज तक ऑफिस में बॉस को तेल लगाने से बचता रहा और अब मेरे जैसे क्रिएटिव आदमी को तेल लाना पड़ेगा।

बीवी इसके पीछे भी सामाजिकता का दर्शन शास्त्र जोड़ देती है। उसका तर्क है कि अमेरिका तेल के लिए लीबिया तक चला गया और तुम कल्लू किराना वाले की दुकान नहीं जा सकते। मैं उसके ग्लोबल सामाजिक ज्ञान से आहत होता हूं। मुझे यह आइडिया क्यों नहीं आया ?

मुझे समाज पर गुस्सा आता है। तेल लाने लायक पैसे तो मैं पहले भी कमाता था लेकिन पहले लोग इस तरह के सिम्बोलिज्म से मेरी आर्थिक हालत का अंदाज़ा लगाने की कोशिश नहीं करते थे। मैं नतीज़े पर पहुंचता हूं कि शादीशुदा इन्सान के लिए समाज की नज़रों में भद्दा फर्क आ जाता है। सामाजिकता किसी काम की नहीं है और यह क्रिएटिव लोगों को दुनियावी झंझटों में फंसाने की साजिश है। मुझे बीवी भी इसी साजिश में शामिल नज़र आती है। मेरा उससे लड़ने का दिल करता है। मैं फिर ख़ुद को काबू में करता हूं। इस सामाजिक दर्शन से न चाहते हुए भी प्रभावित होकर मैं पैन पेपर छोड़ तेल लेने निकल पड़ता हूं।

1 comment:

Unknown said...

good one madhukar...