Saturday, May 30, 2009

बढ़ा मंत्रिमंडल, घटी हिस्सेदारी

लो बन गई सरकार। सिपहसालारों ने काम काज-संभाल लिया। 1952 से तरक्की की राह पर चले देश को पांच साल तक अब ये रास्ता दिखाएंगे। घपलों घोटालों के रास्ते तरक्की की तरफ बढ़ता हमारे देश की बागडोर अब नए योद्धाओं के हाथ आ गई है। मनमोहन सिंह के सिपहसालारों में कुछ नए हैं तो कुछ पुराने भी और कुछ ऐसे भी जिनकी गद्दी जस की तस बरकरार है। जिनके मंत्रालयों में कोई बदलाव नहीं किया गया।

उम्मीद थी कि मतदाता प्रतिशत, जातिगत समीकरणों और राज्यवार जीत के क्रम और रुझान के आधार पर मंत्रिमंडल का गठन किया जाएगा। लेकिन इस बार भी हिंदी पट्टी को गोबर पट्टी मानकर अनदेखा कर दिया गया। लेकिन कांग्रेस को दोबारा सिर पर चढ़ाने वाला यूपी निराश ही रहा। यूपी को अनदेखा करने से लगता है कांग्रेस अपने दलित और मुस्लिम मतदाता की वापसी को उसकी मजबूरी समझकर मान बैठी है कि उनके पास विकल्प नहीं बचे हैं। इस बार जातियों के जंजाल में फंसी यूपी की जनता ने जातिगत दड़बों से बाहर निकलकर मतदान किया था। राहुल की आंखों में उम्मीदों की फूटती किरण देखी थीं। उम्मीद की थी मंडल और कमंडल की राजनीति में फंसे सूबे को राहुल किसी नए आयाम तक ले जाएंगे, लेकिन मंडल और कमंडल छोड़ने के बेहतर नतीजे सामने नहीं आए। युवराज राहुल ने यूपी और बिहार में कांग्रेस में नई जान फूंकने का बीड़ा उठाया है। मंत्रमंडल में भागीदारी के लिहाज से तो कांग्रेस को यूपी बिहार में नई जमीन तलाशने में मुश्किल ही होगी। कैबिनेट गठन से पहले ये बात भी उभरी कि राहुल के मंत्रिमंडल में शामिल होने से इंकार के बाद सोनिया जी ने कहा कि राहुल नहीं तो यूपी से कोई नहीं। यूपी को केवल राज्य मंत्रियों से ही गुजारा करने के लिए छोड़ दिया गया।

चुनाव के नतीजे देखकर लगा था कि इस बार कांग्रेस अपने मंत्रिमंडल के साथ न्याय कर पाएगी। इस बार कांग्रेस के ऊपर यूपीए के हिस्सेदारों के हुआं हुआं का ज्यादा असर नहीं पड़ेगा। अब मंत्रिमंडल देखकर तो यही लगता है कि इस बार फिर कांग्रेस गंठबंधन धर्म के बोझ की गठिया तले दब गई। इस बार घोर परिवारवादी करुणानिधि की वजह से गठन को टालना पड़ा। सहयोगियों की जिद के आगे झुकने की कांग्रेसी प्रवृत्ति पिछले पांच साल में कुछ मजबूत हो गई लगतीह है। वैसे सुझाव है कि करुणानिधि को एक अलग मंत्रालय दिया जाना चाहिए था। परिवार कल्याण मंत्रालय। अपने परिवार की तरह शायद देश भर के परिवारों का कल्याण भी कर देते। पिछली बार जहां गैर कांग्रेसी 23 मंत्री टीम मनमोहन का हिस्सा बने थे इस बार भी ज्यादा नहीं घटे। उनकी संख्या इस बार केवल 4 घटकर 19 हो गई। मंत्रिमंडल पिछली सरकार में भी 79 ही था और इस बार भी इतने सिपहसालार दिल्ली दरबार के फरमानों और योजनाओं को जनता तक पहुंचाने के लिए नियुक्त कर दिए गए हैं।

कुछ विश्लेषक इस बार मंत्रिमंडल को जोश और अनुभव का मिश्रण बता रहे हैं। ठीक है कुछ युवा और उच्च शिक्षित सांसदों के लिए साउथ ब्लॉक रास्ते खोल दिए गए हैं, लेकिन इनमें से कौन ऐसा है जो जमीन और जनता के बीच से उठकर देश की सबसे बड़ी चौपाल तक पहुंचा हो। इन युवा प्रतिभाओं में रजवाड़े हैं, राजनीतिक पृष्ठभूमि के परिवारों के युवा हैं जो अपनी बपौती को बढ़ाने के लिए बाप की साख पर चुनाव जीत आए हैं। पारिवारिक दायरे से एक भी बाहर नहीं है।

खैर काफी जद्दोजहद के बाद मनमोहन सिंह ने अपने मंत्री तय कर दिए, लेकिन तमाम कसरत और हरारत के बाद डॉक्टर साहब संतुलन बनाने में कामयाब नहीं हो सके। हालांकि मंत्रालय काबिलियत के हिसाब से बांटे गए लेकिन बात सही हिस्सेदारी की है। अब बस सरकार से उम्मीद विकास की करनी चाहिए। जनता चुनाव के बाद उम्मीद ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकती। टेक बैक पॉलिसी अमेरिका में है हमारे यहां नहीं। अमेरिका से एक और बात याद आई कि ओबामा पंद्रह मंत्रियों से काम चला रहे हैं और लोग खुश हैं और हमारी सरकार ?

Thursday, May 14, 2009

......अब इंतजार बदहाली का

लोकतंत्र का महापर्व बीत गया। चुन लिए हमने अपने ही हाथों पांच साल तक लूटने वाले चोर। चोर वोट की अमानत को अपने कब्जे में लेने के बाद साहूकार बन गए हैं। सांसत में फंसी सांस को चैन दे रहे हैं। आराम कर रहे हैं। जनता की चिरौरी करके थक चुके अपनी थकान उतार रहे हैं। कुछ ऐसे भी हैं जिनके चेहरे पर मायूसी ऐसी चिपटी है जैसे जलेबी पर मक्खी। तुफैल बने फिर रहे कार्यकर्ता अब नेताओं के टेल लैम्प यानी पूंछ भी नहीं बन सकते। काम खत्म हुआ और कार्यकर्ताओं की हैसियत भी औकात में बदलकर दो कौड़ी की भी नहीं बची। इन कार्यकर्ताओं के लिए चुनाव बहार की मौसम की तरह हैं। रोटी पानी से लेकर दारू दक्कड़ का काम प्रचार के दौरान संवरता रहा। अब इन गधों को कौन घास डाले। जनता भी पप्पू न बनने के चक्कर में चल पड़ी बूथ की ओर। बूथ न हुआ 1857 की दिल्ली हुई। बदलाव की बात करते हैं वोट के जरिए। वोट देते हैं जाति के नाम पर।
सरकार ने भारत भाग्य विधाता कहने वाले हरचरना को कौनसा साटन का पजामा पहना दिया। हाल वही है कि जनता जुलाहे की लौन्डिया है और जुलाहे की लौन्डिया जोड़े को तरसी है और तरसती रहेगी। चुनाव के भोंपू पर जो हमारे होने का दावा कर रहे थे अब जरा उनसे बात करके देखिए। बातें यू लगेंगी जैसे मुंह पिटवा रहे हों। वादे किए थे चुनाव में जैसे माचिस की तीली की नोक पर तेंदुआ खड़ा कर देंगे। तपती धूप में अंडे की तरह सिकें हैं नेता। अब पांच साल तक आलपिन की नोक से आमलेट खाएंगे। एक और दिन इंतजार कर लो फिर जनता की बदकिस्मती का फैसला हो जाएगा। पता चल जाएगा कि संसद को गांव की तुगलकी चौपाल बनाने के लिए कौन-कौनसी गली के छंटे हुए पहुंच रहे हैं। संसद में जुबानजोरी से लेकर जूतम पैजार का कार्यक्रम इनकी ही बदौलत परवान चढ़ेगा। फिर होगा वादों पर गौर करने का सिलसिला। उनकी पूर्ति के लिए रकम की मांग और एमपीलैड बढ़ाने का हल्ला। वादे फिर अगले चुनाव के लिए रख छोड़े जाएंगे और जेब में नोटों की तह मोटी होती जाएगी। भाई काले खजाने पर तो तलवार टंगी है इसलिए स्विस तो भूल जाओ। अब किसी मटके में बंद करके घर के आस-पास ही नोट गाड़ दिए जाएंगे।
एक महीने जनता की बारी थी। खूब अकड़ी। नेताओं को मंच से दौड़ाया। अब नेताओं की बारी है। अपने घर में रहो घर फुंकता हुआ निहारो और तमाशा देखो। ऐसी मार मारेंगे कि आवाज़ भी न हो और जनता पहले से ज्यादा बदहाल हो जाए। दावे थे कि आएगी सरकार आपके द्वार। अब ले लो न सरकार आएगी और न उसके नुमाइंदे। भूल जाओ। कल तक साहब बने फिर रहे थे। एक वोट पर कुलांचे मार रहे थे। अब क्या है हरचरना की झोली में जिससे नेता डरेंगे। अब मिलने का नाम भी मत लेना नेता जी से। हो चुकी नमाज़ मुसल्ला उठाइये, फिर मिलेंगे अगले चुनावी महापर्व में।

Monday, May 4, 2009

कांग्रेस के बदलते समीकरण

सत्ता का सेमिफाइनल यानी चौथे चरण का मतदान नज़दीक आते-आते राजनीतिक गहमागहमी तेज़ होती जा रही है। चुनाव से पहले एनडीए की दरारें उभर कर आईं थीं तो चुनाव के दौरान यूपीए भी दरकता दिखाई दे रहा है। यूपीए को मजबूती देने वाले कई दल चुनाव के दौरान छिटककर उससे दूर हो गए हैं। पवार जैसा पावर बूस्टर हो या लालू-पासवान जैसे बहुमत के समीकरण। सभी प्रधानमंत्री की कुर्सी का सपना लिए अपनी-अपनी अलहदा खिचड़ी पकाने में लगे हैं। कांग्रेसी पाला कमजोर देखकर सोनिया और राहुल गांधी का चिंता वाज़िब है। सोनिया गांधी ने चुनाव के पहले भी और अब भी बतौर यूपीए प्रधानमंत्री केवल मनमोहन सिंह का ही नाम उठाया है।

सोनिया गांधी के अलावा युवराज राहुल ने भी डॉक्टर सिंह के नाम पर ही मुहर लगाने की अपील की है, लेकिन यूपीए के हिस्सेदारों को इस बार सत्ता में हिस्सा नहीं पीएम की कुर्सी चाहिए। इसलिए लालू-मुलायम-पासवान एक साथ यूपी-बिहार में चुनावी जंग लड़ रहे हैं तो शरद पवार के बारे में कुछ भी साफ नहीं है। पवार चुनाव के बाद किस करवट खिसक जाएं कहा नहीं जा सकता। पवार हालांकि हमेशा से यूपीए के साथ रहने का दावा करते रहे हैं, लेकिन तीसरे मोर्चे से अंदरूनी तौर पर करीबी बढ़ाते रहे हैं। भारतीय राजनीति में शायद पहली बार इस तरह का गठबंधन जन्म ले रहा है। कबीरपंथी न होने के बावजूद पवार एकदम न्यूट्रल गेम खेल रहे हैं। न इधर के न उधर के। अवसरवाद की राजनीति पहले से ही हमारे राजनीतिक पटल पर नेताओं को बनाती बिगाड़ती रही है। इस बार एक नया फैक्टर उभरकर आया है, ‘बहुगठजोड़वाद’।

पवार के साथ ही लालू-पासवान और मुलायम दिल्ली दरबार की गद्दी के रास्ते उत्तर प्रदेश और बिहार में सोशल इंजिनियरिंग करके अपने हक में ज्यादा से ज्यादा सीटें लेने की जुगत भिड़ा रहे हैं। हालांकि नीतीश का (EBCs) अति पिछड़ों की हिमायत का फॉर्मूला इनकी दाल नहीं गलने दे रहा है। फिर भई ये तिकड़ी पुरजोर कोशिश कर रही है कि इनमें से कोई पीएम बन जाए। कहने के लिए ये सभी यूपीए के साथ अब भी मजबूती से जुड़े हैं लेकिन पीएम के नाम पर यूपीए में सहमति नहीं है। इनका कहना है कि चुनाव के बाद यूपीए के सभी हिस्सेदार मिलकर पीएम का नाम तय कर लेंगे।

कांग्रेस मनमोहन सिंह के नाम पर अटल है। इस सारी उथल-पुथल को कांग्रेस चुनाव बाद के संकट के तौर पर भांप रही है। इसलिए कांग्रेस के संकटमोचक और रणनीतिकार प्रणब मुखर्जी ने कहा है 23 मई तक यूपीए का कार्यकाल है। फिलवक्त यूपीए के घटकों को स्थाई तौर पर इसका हिस्सेदार माना जा सकता है। प्रणव दा के बयान में गहरा राजनीतिक तजुर्बा बोल रहा है। मुखर्जी ने इस बात का इशारा दे दिया है कि 23 मई के बाद कांग्रेस कोई बड़ी खबर दे सकती है। कांग्रेस रणनीति की हवाओं में समीकरणों के बदलने की झलक मिल रही है और कांग्रेस ने नए साथियों की तलाश तेज़ कर दी है। इस लिहाज़ से देखा जाए तो कांग्रेस ने लेफ्ट के लिए दरवाज़े खुले छोड़ रखे हैं। चुनाव के बाद की राजनीति सत्ता के लक्ष्यों पर केंद्रित होगी और इस समय के मतभेद भुलाए जाने के लिए वाज़िब वज़ह भी। लक्ष्यों की पूर्ति के लिए अगर वाम-कांग्रेस एक साथ आ जाएं और तीसरे मोर्चे की बलि एक और बार चढ़ जाए तो कोई हैरत की बात नहीं होगी। क्योंकि वर्तमान मतभेद भी लक्ष्यों की ज़मीन पर पनप रहे हैं और चुनाव के बाद लक्ष्य पूर्ति के लिए मतभेद सौहार्द में बदल सकते हैं।

Friday, May 1, 2009

आईपीएल का कोठा

आईपीएल का हल्ला मचा है। टी. वी. ने दुनिया सिर पर उठा रखी है। बहस बहादुरों का मेला लगा है। नए नए जुमले हंसती हसीना एंकर। कुछ रिटायर्ड क्रिकेट खिलाड़ियों के बुढ़ापे की लाठी है आईपीएल। कुछ चुक चुके बल्ला घुमा रहे हैं तो कुछ ऐसे जो ‘क्रिकेट देव सेलेक्टर्स’ को रिश्वत के चढ़ावे से भी नहीं मना पाए। खुद को बेचकर खिलाड़ी मुजरा कर रहे हैं और इस मुजरे से ज्यादा मज़ा उनके मुजरे में है जो हर चौके-छक्के पर कमरिया लचकाती हैं। गौर से देखिए आईपीएल की कायापलट हो गई है। पिछले साल के जलसे में खूब पिटे गेंदबाज़, हर चौके और छक्के पर खूब ठुमके देखे। इस बार ठुमके कम दिखाए जा रहे हैं। पता नहीं गेंदबाज पिट रहे हैं या नहीं लेकिन ठुमके इतने नहीं दिख रहे जो दिल को सकून दें। ऐसी तैसी चीयर लीडर्स का मज़ा खत्म करने वालों की। कंबख्तों ने कपड़े पहना-पहनाकर ऐसा हाल कर दिया जैसे बहनें हों उनकी।

इस बार बड़ी आस थी आईपीएल से। सोचा था कि किसी की चिरौरी करके पास का जुगाड़ कर लेंगे और एकाध मैच हम भी अपनी निगाहों से पीट देंगे। ज़िंदगी में पहली बार लाइव मुजरा देखने को मिलेगा, लेकिन किस्मत ने साथ नहीं दिया। लोकतंत्र का पांचसाला जलसा इस जलसे पर हावी हो गया। पास का जुगाड़ तो हो ही जाता, बस पान गजरा और कुछ दस-दस के नोटों की गड्डी का इंतजाम बाकी था। वो भी हो ही जाता। एक दिन हम भी कुंवरसाहबों वाली ज़िंदगी जी लेते। सोचते कि पाकीज़ा, उमरावजान से लेकर गुलाल की माही गिल के ठुमके देख लिए। साउथ अफ्रीका जाने की औकात नहीं अपनी। जा सकते हैं अगर ब्लूलाइन दस रुपये में ले जाए। लेकिन ये हो नहीं सकता। आईपीएल वाले ही कोई ऐसी ट्रेन क्यों नहीं चलवा देते जो उनके प्रमोशन में सैट मैक्स पर सिडनी से मुंबई तक चलती थी।

मैच किसे देखना है जी। हम तो बस आईपीएल की चीयर लीडर्स को ताड़ने के लिए टीवी से थोड़ी बहुत देर के लिए चिपक जाते हैं। खिलाड़ियों की छोड़िए टीम तक के नाम याद नहीं हैं। बस आईपीएल इसीलिए देखते हैं कि कोई गेंद को पाले के पार कर दे और चमकती काली-सफेद लहराती, इठलाती और बल खाती उमरावजान एक और चुम्मा उछाल दे।