Thursday, May 14, 2009

......अब इंतजार बदहाली का

लोकतंत्र का महापर्व बीत गया। चुन लिए हमने अपने ही हाथों पांच साल तक लूटने वाले चोर। चोर वोट की अमानत को अपने कब्जे में लेने के बाद साहूकार बन गए हैं। सांसत में फंसी सांस को चैन दे रहे हैं। आराम कर रहे हैं। जनता की चिरौरी करके थक चुके अपनी थकान उतार रहे हैं। कुछ ऐसे भी हैं जिनके चेहरे पर मायूसी ऐसी चिपटी है जैसे जलेबी पर मक्खी। तुफैल बने फिर रहे कार्यकर्ता अब नेताओं के टेल लैम्प यानी पूंछ भी नहीं बन सकते। काम खत्म हुआ और कार्यकर्ताओं की हैसियत भी औकात में बदलकर दो कौड़ी की भी नहीं बची। इन कार्यकर्ताओं के लिए चुनाव बहार की मौसम की तरह हैं। रोटी पानी से लेकर दारू दक्कड़ का काम प्रचार के दौरान संवरता रहा। अब इन गधों को कौन घास डाले। जनता भी पप्पू न बनने के चक्कर में चल पड़ी बूथ की ओर। बूथ न हुआ 1857 की दिल्ली हुई। बदलाव की बात करते हैं वोट के जरिए। वोट देते हैं जाति के नाम पर।
सरकार ने भारत भाग्य विधाता कहने वाले हरचरना को कौनसा साटन का पजामा पहना दिया। हाल वही है कि जनता जुलाहे की लौन्डिया है और जुलाहे की लौन्डिया जोड़े को तरसी है और तरसती रहेगी। चुनाव के भोंपू पर जो हमारे होने का दावा कर रहे थे अब जरा उनसे बात करके देखिए। बातें यू लगेंगी जैसे मुंह पिटवा रहे हों। वादे किए थे चुनाव में जैसे माचिस की तीली की नोक पर तेंदुआ खड़ा कर देंगे। तपती धूप में अंडे की तरह सिकें हैं नेता। अब पांच साल तक आलपिन की नोक से आमलेट खाएंगे। एक और दिन इंतजार कर लो फिर जनता की बदकिस्मती का फैसला हो जाएगा। पता चल जाएगा कि संसद को गांव की तुगलकी चौपाल बनाने के लिए कौन-कौनसी गली के छंटे हुए पहुंच रहे हैं। संसद में जुबानजोरी से लेकर जूतम पैजार का कार्यक्रम इनकी ही बदौलत परवान चढ़ेगा। फिर होगा वादों पर गौर करने का सिलसिला। उनकी पूर्ति के लिए रकम की मांग और एमपीलैड बढ़ाने का हल्ला। वादे फिर अगले चुनाव के लिए रख छोड़े जाएंगे और जेब में नोटों की तह मोटी होती जाएगी। भाई काले खजाने पर तो तलवार टंगी है इसलिए स्विस तो भूल जाओ। अब किसी मटके में बंद करके घर के आस-पास ही नोट गाड़ दिए जाएंगे।
एक महीने जनता की बारी थी। खूब अकड़ी। नेताओं को मंच से दौड़ाया। अब नेताओं की बारी है। अपने घर में रहो घर फुंकता हुआ निहारो और तमाशा देखो। ऐसी मार मारेंगे कि आवाज़ भी न हो और जनता पहले से ज्यादा बदहाल हो जाए। दावे थे कि आएगी सरकार आपके द्वार। अब ले लो न सरकार आएगी और न उसके नुमाइंदे। भूल जाओ। कल तक साहब बने फिर रहे थे। एक वोट पर कुलांचे मार रहे थे। अब क्या है हरचरना की झोली में जिससे नेता डरेंगे। अब मिलने का नाम भी मत लेना नेता जी से। हो चुकी नमाज़ मुसल्ला उठाइये, फिर मिलेंगे अगले चुनावी महापर्व में।

4 comments:

संगीता पुरी said...

अच्‍छा कहा .. एक महीने काम .. फिर पांच वर्षों तक आराम ।

Urmi said...

पहले तो मैं आपका तहे दिल से शुक्रियादा करना चाहती हूँ कि आपको मेरी शायरी पसंद आई! मेरे दुसरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है!
मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत बढ़िया लिखा है आपने!

Priyanka Singh Mann said...

बहुत अच्छा लिखा आपने ..कई बार कक्षा मैं राजनीती शास्त्र पढाते हुई दुविधा में फँस जाती थी जब बच्चे कहते की क्या फायदा है यह सब पढने का ? क्या यह वाकई ही होता है ? शिक्षक होने के नाते भरसक प्रयतन होता था की कुछ ऐसा न कहूँ जिस से उनका प्रजातंत्र में विश्वास न रहे पर मन ही मन जानती थी की वो मासूम सवाल वाकई ही सच्चाई भरे होते थे ...

Meenakshi Kandwal said...

मेरे ब्लॉग पर अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए शुक्रिया। आपकी टिप्पणी पर भी अपने कुछ विचार रखे हैं। समय मिले तो देखिएगा।
दमदार और ज़मीनी शब्दों ने आपके लेख को काफ़ी प्रभावशाली बनाया है। नेताओं और सरकार पर जबर्दस्त प्रहार किया है। सच ही है कौन सत्ता में आए, कहां फर्क पड़ रहा है... देश तो बेहाल ही है।