Sunday, November 29, 2009

झूठमेव जयते !

समाज बदल रहा है, प्रगति और आधुनिकता के रास्ते पर तेज़ सफर शुरू कर चुका है। सच से पर्दा उठ गया है। धर्मशास्त्रों ने तमाम फंसाए रखा। हजारों साल तक झांसे में रखा। अब प्रगतिशील दुनिया समझदार हो गई है। सब जान चुके हैं कि झूठ बराबर सांच नहीं और सांच बराबर पाप। आधुनिक समाज में सच बोलना दुर्गति का मुख्य कारक है। अब झूठ ही परम सत्य है। सत्यमेव जयते को अब झूठमेव जयते कर देना चाहिए। वैसे असत्यमेव जयते भी कर सकते हैं लेकिन उसके अपने खतरे हैं। कोई दकियानूस आवेश में असत्य का ‘अ’ उड़ा सकता है। इसलिए झूठमेव जयते ही मुफीद है। अपनी आने वाली पीढ़ी के साथ खिलवाड़ की कोई जगह नहीं छोड़नी चाहिए प्रगतिशील समाज को। क्योंकि हमारे देश में इतिहास तोड़ मरोड़ कर पेश करने की परंपरा है। पहले झूठों को नंग कहा जाता था और कहा जाता था कि नंग बड़े परमेसर से, लेकिन यहां सच के मुंह पर झूठों ने ऐसा करारा तमाचा मारा कि सच चारों खाने चित है। अब सच बोलने वाले नंग हैं और सच वाले नंग परमेसर से बड़े तो छोड़िए, परमेश्वर भी उन्हें पसंद नहीं करता। जब झूठ वाले नंग थे तो नंगईमेव जयते कहा जाता था। अब सच वाले नंग हैं तो नंगई के जयते वाले गुण ने भी सच वालों का साथ छोड़ दिया है। अब नंगे भी सच वाले और हारें भी सच वाले। हाल तो इनकी किस्मत होती ही नहीं और अगर है भी तो बस हर जगह, हर मोर्चे, मौके पर हारने के लिए ही लिखी गई है। शायद परमेश्वर ने बिना स्याही के कलम से इनकी किस्मत लिखी है। ये दुनिया में फिसड्डी बने रहने के लिए आए हैं। इनका केवल एक ही सदुपयोग है कि झूठ बोलकर हर मोर्चे पर फतह हासिल करने वाले नीचे इन्हें देखकर सीने को गुब्बारा बना सकें। सच दकियानूसी विचार है। यह दिमाग को, इंसान को, विचार को, सफलता को, किस्मत को जंग की तरह खा जाता है। मैं दकियानूस इंसान, कल तक सच की पूंछ पकड़कर चल रहा था। अब समझ गया हूं कि सच बोलने का मतलब अपनी तकदीर को नाराज कर देना है। कोई अब सच ना तो सुनना पसंद करता है और ना ही बोलना, और जो बोलता है वो मेरी तरह जेब और दिल दलिद्दर होता है। मैं सच बोलकर हर मोर्चे पर हारा हूं। बचपन में मास्साब से सच बोला तो स्कूल में पिटा, सच कहकर नौकरी खोई, दिल का हाल सच बताकर छोकरी भी खोई यारों। अगर झूठ के रस में बातें पांगकर फ्लर्ट करता तो शायद साथ होती। आज तो इश्क की मुश्कें भी झूठ से ही कसी जा सकती हैं। झूठ चाशनी है और हर किसी को रस चाहिए, ये गूढ़ रहस्य देर से समझ आया है। मुझे लगता है अब झूठ बोलना शुरू कर दूं, लेकिन रह-रहकर मां-बाबूजी की याद आ जाती है। उनकी गर्म हथेली में मेरी उंगली और वो कहावत कि झूठ बोलना पाप है। पिताजी को खुद की ईमानदारी का दंभ और उनके चेहरे का ओज हर बार झूठ से अलग धकेल देता है। लगता है मेरे खून में सच की बीमारी है। ये नहीं जाएगी। मुझे हर मोर्चे पर फिसड्डी ही रहना है। झूठ वालों फूलो फलो। चलते-चलते वसीम बरेलवी का शेर अर्ज़ है।
झूठ वाले कहीं से कहीं बढ़ गए,
और मैं था कि सच बोलता रह गया।

Friday, November 13, 2009

उफ्फ! ये जो है ज़िंदगी

एक झुका हुआ सिर फुटपाथ पर निढाल
चेहरे पर निराशा और हाल-बेहाल
सिगरेट से ऊर्जा का कश खींचता
अपनी निराशा को सींचता
सुलगती सिगरेट के अंगारे में
उम्मीद तलाश रहा था
उड़ते धुंए को ज़िदगी का ‘प्रोपेलर’ समझ रहा था
फिर, बुझते अंगारे में मंद पड़ी उम्मीद को
जूते तले कुचल दिया
सिर उठाकर माहौल का जायज़ा लिया
‘आज’ भी रात के आगोश में समा गया
‘रोज़ाना उम्मीद’ का दिया बुझा गया
बस कुछ वादे, आश्वासन और लताड़ आज का हासिल है
चढ़ती सीढ़ियों में उम्मीद भरी थी
उतरती में निराशा
नौकरी इतनी मुश्किल है ?
सवेरे भूख का नाश्ता करके चला था
अब फ़ाके़ से पेट भरकर सो जाएगा
कल फिर यही सब
मांगना एक अदद नौकरी
बिना किसी गॉडफॉदर के
मिलेगी क्या ?
उफ्फ! ये जो है ज़िंदगी !

Tuesday, November 10, 2009

दर्द में डूबी हिंदी

मैं हिंदी हूं। मेरे नाम पर, हिंदी हैं हम वतन हैं, हिंदोस्तां हमारा रचा गया। काल के कपाल पर मैंने इतिहास और साहित्य रचा। अपने शब्दों से कवि पैदा किए। मेरे भीतर हिन्दुस्तान की संस्कृति समाई है। मैंने लोगों के भीतर हिन्दुस्तान को आज़ाद कराने का जज़्बा भरा। मेरे नाम पर हिन्दुस्तानी दम भरते हैं। मेरी ज़मीन से उठे लोग, मॉरीशस के प्रधानमंत्री से लेकर अमेरिकी राज्य के गवर्नर तक बने। मैंने हिन्दुस्तानियों का सीना गर्व से फुलाया। ‘जय हो’, का डंका पूरी दुनिया में बजाया। विदेशी धरती पर तो अपनी पहचान बनाने में मैंने कामयाबी हासिल कर ली, लेकिन अपनी ही ज़मीन पर मेरे ही लोग मुझे बेगानों की नज़र से देखते हैं। तीन सौ साल अंग्रेजी के बोझ तले दबे होने के बावज़ूद मैंने अपना वजूद बनाए रखा। मैंने तिरस्कार झेला है। फिर भी मेरी चमक बरकरार है। दूसरों ने ठुकराया तो अपनों ने दिलों में सजाया। नेहरू के ज़माने में संविधान में तो बस गई लेकिन लोगों के दिलों में मेरी जगह खत्म हो गई। अब मेरे अपने ही मुझे गाली देते हैं। जिस हिन्दुस्तान की नींव मेरे ऊपर रखी गई थी, उसी धरती पर मेरे अपने मुझे सौतेली समझ रहे हैं। ये दर्द सीने में सुलगता है। मैं अपनों में अकेली हूं। मेरे बच्चे ही मेरी चिंदी-चिंदी करने पर तुले हैं। मेरे ही नाम पर ओछी सियासत कर रहे हैं। ये दर्द सालता है। मैं दर्द में डूबी हिंदी हूं।

Sunday, November 8, 2009

गधा चिंतन

एक बड़ी संज़ीदा ख़बर पढ़ी। गधे ख़त्म हो रहे हैं। कमजोर और बोझ ढोकर अपंग हो चुके गधों को अब यूथेन्सिया का इंजेक्शन देकर मारा जा रहा है। अब कुछ दिनों बाद शायद किसी गली नुकक्ड़ पर लतियाने के लिए खड़े न मिलें ! ऐसा हुआ तो कई कहावतें मर जाएंगी। गधा हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है। गधा खीझ और खु़शी दोनों की वज़ह बनता है। मसलन कोई आपको गधा नाम से पुकारे तो खीझ और विरोधी को पुकारे तो खु़शी। गधा हमारे अलग-अलग तरह के भावों को असरदार तरीके से उजागर करने का आसानी से उपलब्ध माध्यम है। गधे में हास्य है, ईर्ष्या है, उपहास है, सांकेतिक बुद्धिहीनता है, आंखफाड़ू आश्चर्य है, तो बदकिस्मती का ‘जिम्मेदार’ भी। गधा पुराना होते हुए भी उतना ही नया है जितनी ललित कला। समझ से परे और अबूझ। कौन जाने कब कौनसा रूप धारण कर ले। गलियों में सीपों-सीपों करते गधे हमारे समाज का अभिन्न हिस्सा हैं। ये प्रण की प्रेरणा हैं। अडिग हैं अटल हैं, खड़े हुए तो चट्टान और बिगड़ गए तो तूफान। गधे से हमारे समाज को कई तरह की प्रेरणाएं मिलती हैं। गधा एकाग्रता, आंदोलन, बंद, हड़ताल, जाम, अफसरशाही का उदाहरण है। अगर शोध किया जाए तो समाज की कई कार्रवाई, रीतियां और कार्यशैली गधे में समाई हैं। लगता है गधा आदि है। उसने समाज को जीना सिखाया है या फिर उत्सुक मानव मन ने उसके व्यक्तित्व के कई पहलुओं को अंगीकार किया है। जिसे जो सुटेबल लगा ले लिया। उसका महत्व सामाजिक, मुहावरे, शिक्षा और राजनीतिक मोर्चों पर बड़ा अहम है।

हमारे बचपन में मास्साब को हर बालक में गधे की छवि जान पड़ती थी। इसलिए वो बिना कोई देर किए सब गधों को क्लासरूम से निकालकर स्कूल के आंगन में घास छीलने पर लगा देते थे, और सांझ ढले एक मोटी गठरी अपनी भैंसिया के लिए ले जाया करते थे। सब गधे, गधाभाव से अटल होकर तपती दोपहर में प्रणपूर्वक गधे की सी तन्मयता से घास छीलने का काम करते थे। जैसे गर्मी में अपने पीछे की सूखी घास देखकर गधा इस भ्रम में मोटा होता है कि आज उसने इतना खा लिया, वैसे ही इन गधों की सेहत भी घास के ही रहमोकरम पर थी। घास छिली तो जान बची, नहीं छिली तो हाड़ तुड़े। दर्जे़ में बैठते ही मास्साब कहते गधे के बच्चों सुनाओ पहाड़ा। क्या बजाते थे पकड़कर, मुक्का कमर में और वाइब्रेशन पेट के साथ ही पूरे कमरे में गूंज जाता था। विद्यार्थी से घसियारे ही भले।

गधों की दलभावना से हमारी राजनीति ने बहुत बड़ी सीख ली है। एक गधे के पीछे सैकड़ो गधे। जिधर एक चला उधर सब चले। यही तो राजनीति की धमनियों में रची-बसी मानसिकता है। एक वरिष्ठ गधे के पीछे सैकड़ों चमचे गधे, उनके पीछे टेल लैंप गधे। उन टेल लैंप्स के अलग पुछल्ले, पुछल्लों के अलग दुमछल्ले और दुमछल्लों के बाद आए किराए के गधे। जो गधा जमावड़ा रैलियों में जाकर सीपों-सीपों करते हैं। गधे की निजी प्रोटोकॉल है। वैसे ही नेताओं की भी प्रोटोकॉल है। सड़क पर खड़े होने के बाद गधे को वीवीआईपी सम्मान देते हुए रिक्शा से लेकर बस तक दाएं-बाएं से निकल जाती हैं। वैसे ही जब नेता निकलते हैं तो सड़कें जाम हो जाती हैं। राजनीति ने गधे से दलभावना, आंदोलन, बंद, हड़ताल, तोड़-फोड़, धरना, अनशन, चिंतन, बैठक, जाम पूर्ण रैलियां, लीडरशिप, प्रोटोकॉल जैसे अहम दृष्टिकोण लिए हैं, लेकिन आज आदि गधे के अंत के लिए राजनीति ही जिम्मेदार है। गधों के पतन की रिपोर्ट कहती है कि खराब सड़कों और बेहिसाब बोझे ने इनकी हड्डियों की ताकत निचोड़ ली है। खराब सड़कें इनके ही अनुयायियों की देन हैं। नेता जी सड़कों का पैसा हजम कर गए और गुरू को दक्षिणा में मौत का धीमा ज़हर दे गए। इसलिए गधे अब संन्यास ले रहे हैं। मैं हैरत में हूं। गधों से राजनीति सबसे पहले सबक सीखती है। अपने घरवालों के दुत्कारे जाने और विरोध जताने के बावजूद जिसने राजनीति से संन्यास नहीं लिया वह गधों को संन्यास लेते देखकर तुरंत इस फॉर्मूले पर अमल कर रहा है। एक वरिष्ठ नेता ने अपने संन्यास और पद त्याग के संकेत दे दिए हैं। ये शोध कहता है कि गधा राजनीति का अप्रत्यक्ष शुभांकर (मैस्कट) है। राजनीति में बाकी के लाचार गधों से पूछ लो अमल करेंगे या यूथेन्सिया का इंजेक्शन लेंगे ?

Wednesday, November 4, 2009

ब्रांड आतंकवाद

एक ब्रांड आंतकी से टकराव हो गया। हमारी मुलाकात तो पुरानी है लेकिन मुझे ब्रांड की चोट नई-नई लगी है। मेरी तंगहाली के चंद आखिरी रुपयों की क्लासिक रेग्युलर सिगरेट होठों में भींचे, ब्रांड आतंकी मुझे ब्रांड का मर्म समझा रहा है। हम तो यही पीते हैं। इसका स्वाद ही कुछ और है इसीलिए महंगी है। आखिर ब्रांड की कीमत होती है। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि इस सिगरेट में कश मारने से क्या रोग़न ए बादाम फेफड़ों में जाता है ? धुंआ निकालना है किसी भी कंपनी की सिगरेट में दमफूंक करो निकल जाएगा, लेकिन वो मेरी मूढ़मति पर हैरत में था। वो कहता है, कि तुम सोशल स्टेटस नहीं समझते हो। ठेलों पर खाते हो सस्ती सिगरेट का धुआं उड़ाते हो। सस्ती सिगरेट का नाम लेकर वो मुझपर हिकारत भरी नज़र ऐसे डालता है मानो ग्लोबल वार्मिंग के लिए मैं और मेरी सस्ती सिगरेट जिम्मेदार हैं। मैं उसे समझाने की कोशिश करता हूं, वो मेरे होठों पर ब्रांडेड चुप्पी लगाने की कोशिश कर रहा है।

उसने बताया कि तुम आदमी सड़क के, लेकिन दुनिया ब्रांड से चलती है। ‘आदिदास’ का जूता पहने पैर को उठाकर जांघ पर चढ़ा लिया। नाम भले आदि ‘दास’ हो, लेकिन उसे पहनकर वो स्वयं को विक्रमादित्य के सिंहासन पर आरूढ़ समझ रहा है। आदिदास तरफ इशारा करके बोला जानते हो, फटीचर हो तुम। क्या पहचान है तुम्हारी ? U LAY MAN! वह मुझे समझा रहा है ब्रांड से आदमी की इज्ज़त में इज़ाफा होता है। ब्रांड के जाल में मुझे फंसाने की कोशिश करते हुए आदिदास नाम का जूते की आड़ में ब्रांड आतंकवाद से मेरी सादगी को कत्ल कर रहा है। मैं छटपटा रहा हूं, जिसे खरीदने की औकात नहीं उसे पहनूं कैसे ? वह कह रहा है कि तुम्हारे लिए बी ग्रेडेड ब्रांड का विकल्प खुला है। किसी कस्टम शॉप में जाकर धंस जाओ। हज़ार से नीचे-नीचे ब्रांड मिल जाएगा और तुम्हारी नाक बच जाएगी। अगर उसे भी पहन नहीं सकते तो इससे पिटकर ही अपना सम्मान हासिल करो। ब्रांडेड जूते से पिटना भी मेरे लिए सम्मान की बात हो सकती है मैंने कभी नहीं सोचा था। आधा घंटा ब्रांड बांचन के बाद निष्कर्ष निकला कि ब्रांड आदमी की पहचान बनाता है।

मैं हैरत में हूं, लेखनी से पहचान बनाने की कोशिश में जुटा हूं और इसने आदिदास, प्यूमा, ‘नाई-की’ का जूता पहनकर ही खुद को श्रेष्ठतम मानव श्रंखला में लाकर खड़ा कर दिया है। ब्रांड के दीवानों का दीवानापन न पूछिए। इनकी अपनी एक मात्र पहचान ब्रांड है। नाइकी, लिवाइस, पेपे जीन्स, वुडलैंड, एडिडास, रीबॉक, रेबैन से इनका आत्मगौरव जुड़ा है। इनका कोई दोस्त ब्रांडेड जीन्स, शर्ट, चश्मे ले आए तो इनके मुशाएरा-ए-चौक में उसका ही चर्चा होता है। दो दिन तक उसी को गौरव दीप बनाकर पूजते हैं। भविष्य में ब्रांड आतंकी सरकार से मांग कर सकते हैं कि अपने बाप के नाम की जगह ये ब्रांड का नाम मेंशन करेंगे। इसके लिए सरकार विशेष अधिसूचना जारी करे, या फिर मौलिक अधिकारों की सूची में इज़ाफा कर प्रावधान हो कि कोई भी स्वयं को ब्रांड पुत्र घोषित कर सकता है। कुल मिलाकर चौक पर आधा घंटे चले गाल बजाओ कार्यक्रम में ब्रांड आतंकवाद के मंच पर विचार हार जाता है। उसे न बोलने का अवसर मिलता है न ही उसे ब्रांड आतंकी समझना चाहता है। ब्रांड, विचार को पीछे धकेलने की साजिश है ! बताइये मैं क्या करूं ?

Tuesday, November 3, 2009

सपनों का, 'स्टेयरकेस'

संघर्ष,
ज़िंदगी की आपाधापी के बीच
जीने की जद्दोज़हद और किलस के बीच
लाचारी में जब इच्छाओं का दम घोंटना पड़े
जब अभाव खाली आंतों में गुड़क-गुड़क बोले
जब बोझिल मन किसी नाबदान की पुलिया पर बैठा दे
जब एक प्याला चाय दिन भर की भूख सुड़क ले
आंखों से बहते कीचड़ के साथ जब सपने बहने लगें
मन नाउम्मीदी के नाले में बहता दूर निकल जाए
फिर कहीं से एक उम्मीद बंधे
मेरे हिस्से का चांद टूटकर टपकेगा
गड्डमड्ड अंधेरे में पड़े मन को उम्मीद की सीढ़ी मिले
आपाधापी के बीच सकून की एक टिमकनी दिखे
जब आंखों के कीचड़ के साथ बहे सपने वापस लौट आएं
तब सारे अभाव संघर्ष बन जाते हैं।
आपाधापी बनती है संघर्ष
संघर्ष, मन रखने को देखे गए सपनों का आधार
ज़िदगी का रास्ता तय करने का जीवट
पनीले सपनों, रूमानी ख्यालों का ताना-बाना
सकून ढूंढने की सहज वृत्ति से पनपता है संघर्ष
कुछ नहीं एक भरम है
रोज़ जीते, रोज़ मरते इंसान की ज़िंदगी में
सपनों का 'स्टेयरकेस' है संघर्ष

Monday, November 2, 2009

...और बदल गईं चिट्ठियां

रात नींद नहीं आई तो कुछ लिखने बैठ गया। एक अजीब सा अहसास आजकल घेरकर रखता है। सोचा उसे कागज पर आकार दे दूं। एक चिट्ठी लिखने उठ बैठा। फिर ये सब चिट्ठियां याद आ गईं। दिमाग विचार मथता रहा और नतीजा ये निकला।

चिट्ठियां भी अब कारोबारी हो गईं
कॉरपोरेट तल्खियों की ब्योपारी हो गईं

आजकल यूं ही दरवाज़े पर पड़ी मिल जाती है
किसी में सूदखोर बैंक का नोटिस
कोई फोन बिल थमा जाती है
अब चिट्ठी में डर कैद है
क्या जाने लिफाफा घिसते ही
कौनसे नोटिस का जिन्न बाहर आएगा ?
जेब का सारा पैसा निगल जाएगा !
अब चिट्ठियां भटक जाती हैं
गलत पते पर डरावने मज़मून की चिट्ठी नज़र आती है
अब पोस्टल एड्रेस भी ‘मोबाइल’ हो गए हैं
मौसम का तरह बदल जाते हैं
हरकारे भी चिट्ठी फेंककर वापिस लौट जाते हैं
पहले चिट्ठी सौंपी जाती थी
खबर अच्छी हो तो बख्शीश दी जाती थी
प्यार की चिट्ठी हजारों कागज़ शहीद करके लिखी जाती थी
कटी पतंग सी, महबूबा पर गिरा दी जाती थी
तब चिट्ठी उम्मीद, उतावलापन छोड़ जाती थी
अब ‘कम्युनिकेशन मोड्स’ में गायब भावनाएं सारी हो गईं
चिट्ठी उम्मीद नहीं, आशंका हमारी हो गई
कॉरपोरेट तल्खियों की ब्योपारी हो गई