Tuesday, November 10, 2009

दर्द में डूबी हिंदी

मैं हिंदी हूं। मेरे नाम पर, हिंदी हैं हम वतन हैं, हिंदोस्तां हमारा रचा गया। काल के कपाल पर मैंने इतिहास और साहित्य रचा। अपने शब्दों से कवि पैदा किए। मेरे भीतर हिन्दुस्तान की संस्कृति समाई है। मैंने लोगों के भीतर हिन्दुस्तान को आज़ाद कराने का जज़्बा भरा। मेरे नाम पर हिन्दुस्तानी दम भरते हैं। मेरी ज़मीन से उठे लोग, मॉरीशस के प्रधानमंत्री से लेकर अमेरिकी राज्य के गवर्नर तक बने। मैंने हिन्दुस्तानियों का सीना गर्व से फुलाया। ‘जय हो’, का डंका पूरी दुनिया में बजाया। विदेशी धरती पर तो अपनी पहचान बनाने में मैंने कामयाबी हासिल कर ली, लेकिन अपनी ही ज़मीन पर मेरे ही लोग मुझे बेगानों की नज़र से देखते हैं। तीन सौ साल अंग्रेजी के बोझ तले दबे होने के बावज़ूद मैंने अपना वजूद बनाए रखा। मैंने तिरस्कार झेला है। फिर भी मेरी चमक बरकरार है। दूसरों ने ठुकराया तो अपनों ने दिलों में सजाया। नेहरू के ज़माने में संविधान में तो बस गई लेकिन लोगों के दिलों में मेरी जगह खत्म हो गई। अब मेरे अपने ही मुझे गाली देते हैं। जिस हिन्दुस्तान की नींव मेरे ऊपर रखी गई थी, उसी धरती पर मेरे अपने मुझे सौतेली समझ रहे हैं। ये दर्द सीने में सुलगता है। मैं अपनों में अकेली हूं। मेरे बच्चे ही मेरी चिंदी-चिंदी करने पर तुले हैं। मेरे ही नाम पर ओछी सियासत कर रहे हैं। ये दर्द सालता है। मैं दर्द में डूबी हिंदी हूं।

6 comments:

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

इस संवैधानिक आतंकवाद पर सारे राष्ट्रवादी मुँह पर टेप लगाकर बैठे हैं।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

अजित गुप्ता का कोना said...

देश का इससे बड़ा दुर्भाग्‍य नहीं हो सकता कि हम अपनी भाषा को तो अस्‍वीकार करें और अंग्रेजी को गले लगाएं। क्षुद्र राजनीति ने इस देश को तबाह कर दिया है। अब ता भारतीय सिनेमा को भी अपना स्‍थान बदल लेना चाहिए। या फिर हिम्‍मत के साथ सभी विधायकों को हिन्‍दी में शपथ लेनी चाहिए।

Unknown said...

हिंद रहे
हिंदी न जानी
अपनाई दूसरों
सभ्य रहे
सभ्यता न जानी
अपनाई दूसरों की
क्या स्वतंत्र हैं हम?
लगता है बहुत कम
क्या सोचेंगे पात्र हमारे ?
कुर्बान हुए जो देश के मारे
पन्नों को पलटना जरुरी है
इतिहास गवाही देगा
न मेरी, न तुम्हारी
गवाही उस हिंदी की
जो कोरे पन्नों में ही सही
लेकिन आज भी,सरफरोश है

फ़िरदौस ख़ान said...

अपने ही देश में हिन्दी की यह दुर्दशा...

Tara Chandra Kandpal said...

संविधान में १९६६ में हलके से फेर बदल के साथ, हिन्दी को रास्ट्रभाषा के तौर पे स्वीकार करने में आने वाली दिक्कतों को देखते हुए, कुछ सम्माननीय राजनेताओं ने हिन्दी को सर्वांगीण मान्य करने की दलील को दबे-छुपे ही सही, मगर घोंट दिया था| और हिन्दी एक सिसक के साथ दब गई, अब मानो या न मानो उत्तर भारतीय क्षेत्रों में भी हिन्दी कुछ दब से गई है| इस सिसकी का साथ भर देने के लिए आपका आभारी हूँ|

Brajdeep Singh said...

pahli baar hamare matlab ki baat likhi hain aapne
english ka to namo nishan mita dena chahiye ,hindustan se,rahi baat yahan ki alag language ki ,to agar hum hindi ko apni matra bhasha kehte hain aur hain bhi
to ye baat pure desh par laagu honi chahiye
aur sab jagah par hindi ko padhaqya jaana chahiye
phir kya hindi bhashi,aur kya madrashi,language same hogi,to phir,hindi bhashi aur marathi main antar kahan reh jayega
jai hindl