Sunday, November 30, 2008

आतंकवाद और हम

मुंबई आतंकवाद की घटना के बाद फिर से सुरक्षा का सवाल सुलगने लगा है। घटना भले ही मुंबई में घटी हो पर लोकतंत्र पर हुए इस हमले से पूरा भारत आहत है। हर गली नुक्कड़ में बहस जारी है, आमो-खास परेशान है। लोगों में भरे गुस्से का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे सभी इस आतंकवादी हिंसा का जवाब हिंसा से ही देना चाहते हैं। इंटरेक्टिव मीडिया में अपने विचार रख रहे लोगों में कोई आतंकियों पर चप्पल बरसाना चाहता है तो कोई पाक अधिकृत कश्मीर में भारतीय तंत्र को हमले की सलाह दे रहा है। इस पूरे प्रकरण में एक बात दीगर है कि कोई भी नेताओं के समर्थन में बिल्कुल नहीं है। सब नेताओं पर भरपूर बरस रहे हैं। आधुनिकता के इस दौर में एक बात तो साफ है कि मायानगरी मुंबई की जिंदगी तो कुछ पल के लिए भी नहीं ठहर सकती। ये ठीक वैसी ही प्रक्रिया है कि एक बीमार बालक बुखार से आराम मिलते ही खेलने के लिए उठ खड़ा हो, और बड़ा ही लाजि़मी है कि ज़िंदगी अपनी ऱफ्तार से चलती रहे। क्योंकि आम गतिविधियों पर लगाम लगाना ही बुजदिलों का मकसद है।
अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भारत के प्रति संवेदनाओं के साथ ही भारत के सुरक्षा तंत्र पर भी सवाल उठने लगे हैं। अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति अपने चुनाव प्रचार के दौरान पाकिस्तान में घुसकर आतंकवादियों पर हमले की पैरवी कर चुके हैं। शायद यही वज़ह है कि अमेरिका को ईष्ट मानने वाला तबका भी इस बात का समर्थन कर रहा है और भारत को भी यही सलाह दे रहा है। सोचने वाली बात यह है कि लोकतंत्र के मूल्यों को उठाकर ताक पर नहीं रखा जा सकता। उदारता और सहिष्णुता की जिस नीति ने हमें पूरी दुनिया की संवेदनाओं के साथ ही सम्मान भी दिलाया है उनकी तिलांजली देना क्या उचित है? यहां गुस्से की नहीं वरन एक समग्र बहस की ज़रूरत है। अपने तंत्र और अपनी राजनीति में सुधारों का वक्त है। पिछले महीने हुई राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में आतंकवाद के खिलाफ कोई ठोस नीति नहीं बन सकी है। इसकी वज़ह रही लोकतंत्र की संघीय प्रणाली में राज्यों को स्वायत्तता देना। जिस भावना को संविधान में निरपेक्ष भाव से रखा गया था उसे राज्यों ने निजी अधिकार क्षेत्र मान लिया है। जिसकी वज़ह से एक फेडरल एजेंसी (संघीय एजंसी) के कल्याणकारी विचार ने दम तोड़ दिया। सबसे हैरत की बात तो इस दौरान यह रही कि इस बैठक में आतंकवाद को चरमपंथ शब्द से संबोधित किया गया। इस मुद्दे पर जितना उदासीन केंद्र दिखा उतनी ही राज्यों ने भी लापरवाही बरती। इस साल को याद रखने के लिए आतंकवाद ही काफी है। दक्षिण से लेकर उत्तर तक पूर्व से लेकर पश्चिम तक पूरे भारत में लोग आतंकवाद के शिकार बने। जनता रेज़गारी की मौत मरती रही और हर घटना के बाद नेताओं की घोषणा, अनुदान राशि और दौरों का दौर चलता रहा। नेता भाषण से लोगों के आंसू पोंछने की नाकामयाब कोशिशें करते रहे और आतंकवादी अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आए। अवसरवादिता की राजनीति होती रही। दोनों दल यानि सत्ता और प्रतिपक्ष ब्लेम गेम खेलते रहे। ऐसा ही मुंबई हमले में भी हुआ। मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने हमले के अगले ही दिन आतंकवाद को मुद्दा बनाकर विज्ञापन प्रकाशित करा दिया। कांग्रेस इस वार से घबराई और अगले ही दिन इसके खंडन के तौर पर जनता की देशभक्ति से भरी भावनाओं के साथ खिलवाड़ शुरू कर दिया। इस विज्ञापन में शहीदों के लिए आदर कम और भाजपा के विज्ञापन से प्रभावित लोगों का ब्रेन वॉश करने की उत्कट इच्छा जाहिर हो रही थी। वरना कंधार के शहीदों से विज्ञापन के शुरूआत करने की कोई खास ज़रूरत नहीं थी।
दूसरी तरफ हर हमले के बाद हमारी सुरक्षा एजेंसियां कहती रहीं कि हमने पहले ही राज्य सरकार को आगाह किया था, लेकिन सूचना से सरकार कोई फायदा नहीं उठा सकी। इससे साफ ज़ाहिर होता है कि हमारे सुरक्षा और राजनीतिक तंत्र में कोई खास तालमेल नहीं है। यह वक्त है अपने तंत्र को टटोलने का और दुनिया भर को दिखा देने का कि हम ‘बनाना रिपब्लिक’ नहीं हैं। अपने लोकतांत्रिक मूल्यों पर चलकर आतंकवाद को मात दे सकते हैं। सुरक्षा के इस खदबदाते सवाल पर चिंतन खत्म नहीं होने वाला इसलिए आपके सुधी विचार भी आमंत्रित हैं। सामाजिक मीडिया का दायित्व निभा रहे ब्लॉग जगत से ही शायद कुछ कारगर उपाय निकल खड़े हों जो इन सवालों का सर कुचलने का माद्दा रखते हों।

Monday, November 17, 2008

'वो' बिस्तर से उठने नहीं देती

'वो' कहती है, थोड़ा और ठहरो। ऐसे ही चले जाओगे, मुझे अधूरा छोड़कर? सारी रात तो दी है तुम्हें, करवटों, शिकन और सकून भरी रात अब और क्या चाहिए? भोर हो गई अब जाने दो और भी तो जरूरी काम हैं ज़िंदगी में। ऐसे ज़ुमलों से उसे बहलाने की कोशिश करता हूं, लेकिन 'वो' मानती ही नहीं। कई बार तो अजब उलझन में डाल देती है। कहती है मुझसे भी ज़रूरी है कुछ काम। तुम तो कहते हो ज़िंदगी में मुझसे ज़रूरी कुछ और है ही नहीं। तुम ज़िंदगी का ईंधन हो। अब कहां गए सारे दावे। चुप्पी लगा के फिर से उसके आगोश में चला जाता हूं। उसकी खुमारी ही कुछ ऐसी है कि दफ्तर लेट पहुंचकर शर्मिंदगी झेलने में कोई खास दिक्कत नहीं होती, लेकिन मंदी के असर ने इस खुमारी को ढीला करना शुरू कर दिया है। 'पिंक स्लिप' यानी छंटनी के डर ने उससे लगाव को ज़रा डिगा दिया है। फिर भी उसके आगोश की पकड़ ढीली करने का मन नहीं चाहता। दलीलें देकर भी देख चुका उसे लेकिन कहती है कि रूठ गई तो मनाने से मानूंगी, जिस ज़िंदगी को मेरे साथ रंगीन करते हो, मेरे साथ गुजारने के सपने देखते हो, वो नरक बन जाएगी। पागल हो जाओगे मेरे बिना। सच ही तो कहती है। ऐसा कहते ही मन फिर से अकर्मण्य हो जाता है और 'वो' फिर मेरा हाथ पकड़कर बिस्तर पर गिरा देती है। मैं हमेशा कहता हूं कि इतना स्टेमिना नहीं बचा कि तुम्हें और वक्त दे सकूं। इंसान हूं कमर दर्द करने लगी है, अब तो बख्श दो। 'वो' कहती है कि नादान हो भोर ही तो सही वक्त है। आ जाओ, सारी दुनिया को भूलकर मेरे पहलू में, और मेरी आंखों को चूमकर मुझे फिर अपने साथ लेटा लेती है। आज वो मेरे साथ नहीं है। इसलिए परेशान हूं। रात गए इंटरनेट पर ब्लॉगिया रहा हूं। सच में, वो है ही इतनी खूबसूरत कि मन करता है कि अपनी आंखों पर उसकी पलकें झुकाकर उसके साथ लेटा रहूं। 'वो' और मैं एक हो जाएं। आज उसे बुलाया नहीं आई। सौ बहाने बनाए, हर तरह से रिझाया नहीं मानी। पता नहीं क्यों नाराज़ है मेरी 'वो' यानी मेरी नींद मुझसे।