Saturday, April 17, 2010

दर्द भरे अहसास

दर्द मन के लिए तेज़ाब हो, लेकिन अहसासों के लिए खाद का काम करता है। दर्द जितना बढ़े अहसास उतने ही उमड़-घुमड़कर धुआं बन जाते हैं और ढांप लेते हैं सारा रूमानी ज़हान। दिल की बंज़र ज़मीन पर चंद जज़्बात अठखेलियां करते हैं। देते हैं बूता अकड़ अकड़कर। सक़ून की तलाश में हम उनका गला चाहकर भी नहीं घोट पाएंगे।

वो बेजान होकर भी हमसे कहीं कमतर नहीं हैं। ठुकराए और दबाए जाने पर भी लगातार प्रगति की होड़ में शरीक रहते हैं। कई बार लगता है कि इनकी हालत भी दलितों सी ही है। इन्हें भी उत्थान अभियान की ज़रूरत है। ठुकराए गए, और अपने ही आशियाने में सक़ून की चाह इन पर जब भारी पड़ी तो इन्हें दबाने की कोशिश की गई। इन पर दोहरे दमन का भी असर नहीं, बड़े ढीठ लगते हैं। हर बार सिर उठाकर खड़े हो जाते हैं।

तमाम व्यस्तताओं की बीच ये अपनी ओर ध्यान खींच ही लेते हैं। बेआवाज़ होकर भी मन के हर कोने में हल्ला मचाए रहते हैं। बस एक फुर्सत का लम्हा मिलते ही सिर पर सवार हो बोलने लगते हैं। इन्हें जवाब चाहिए। अपने अकेलेपन का। मेरे किए उस ज़ुर्म का जिसके बदले इन्हें नसीब हुई नफ़रत। क्या कहूं? कैसे समझाऊं कि ये उधार की ज़िंदगी जीने के लिए पैदा हुए हैं। मेरे दिल के किसी कोने में फूलों की तरह खिलने के बाद मुरझाकर मर जाना ही इनका नसीब है। ये किसी रस में घुलकर गुलकंद नहीं बनेंगे।