Sunday, December 28, 2008

नया साल, खीसाफाड़ जश्न, सपने और शुभकामनाएं

दोस्तों,

बस थोड़ा और इंतजार, 'न्यू ईयर', दस्तक दे रहा होगा। यंगिस्तान नशे में झूमेगा। ताज और ऑबरॉय आतंकी हमलों को भूलकर मुंबईकर की अस्मिता और आतंक को मुंहतोड़ जवाब देने के नाम पर मुनाफे की जंग लड़ रहे होंगे। यही होता है बिजनेसमैन। त्रासदी को भी भुना लिया और जनता को 'हिम्मत और आतंकवाद को करारा जवाब,' नाम का झुनझुना पकड़ाकर सहानुभूति यानि सिम्पैथी भी लूट ली। वाह सिम्पैथी की सरलता और उसे लूटने के नए फंडे। बाजारों और यंगिस्तान के आकर्षण का केंद्र, मॉल्स पर न्यू ईयर की खुमारी चढ़ने लगी है। ग्रीटिंग्स गैलरियों में बदलाव नजर आ रहे हैं। बाजार ने नया रंग ओढ़ लिया है। त्योहारों का बाजारीकृत वर्जन' तैयार है। बाजार ही ने तो राम को रामा, कृष्ण को कृष्णा या अब कृष और बुद्ध को बुद्धा बना दिया है। ग्लोबल विलेज में कल्चरल फ्लो इतना एकतरफा है कि हमारे त्योहार आजतक पश्चिम में नहीं पहुंचे। बस हम ही उनके त्योहार पर केक काटते और बांटते चले आ रहे हैं।
इससे ये न समझा जाए कि मैं वैश्विकरण के खिलाफ हूं। बल्कि अगर कहा जाए तो ये भारतीय समाज का सकारात्मक नजरिया ही है कि हम हर किसी की खुशी में शामिल हो जाते हैं। क्रिसमस पर गुजरात के एक मंदिर में प्रभु यीशु के जन्म की झांकी प्रस्तुत कर वहां प्रार्थना सभा का आयोजन, मोदी के गुजरात में सेक्युलरिज्म का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। हमारा समाज तो है ही उत्सवधर्मी। हर किसी त्योहार में मनोरंजन का तड़का लगा ही लेता है, चाहे गणपति हो या फिर दुर्गा पूजा। कहीं डांडिया है, तो कहीं गरबा। फिर नया साल तो आता ही मस्ती की फुहारें लेकर है। आज अपने त्योहारों के विषय में भी सोचने की जरूरत है। कभी-कभी लगता है कि धार्मिक अनुष्ठान के बजाय हमारे त्योहार मौज मस्ती का एक मौका भर बनकर रह गए हैं। इसे क्या कहा जाए संस्कृति का डाइल्यूट होना या फिर उसका हल्का-फुल्का मनोरंजक हो जाना? जिसे हम लोगों ने अपने हिसाब से ढालकर हमारे व्यस्त जीवन के हिसाब से सहज बना लिया है।
हम बात कर रहे थे नए साल की। नए साल पर सड़कें लबालब और बार-पब डबाडब होंगे। कहीं रेन डांस तो कहीं स्टार वार। इनसे होगी शाम रंगीन। एक दूसरे को किस और विश करते जोड़े। जो इतर पड़े हैं पड़े रहें। इस शाम में जिसे शामिल होना हो खीसा भरकर पहुंचे, डिस्को। इस मौके पर कुछ शुभकामनाओं का इंतजार कर रहा होऊंगा। कुछ नए लक्ष्य तय करूंगा। कुछ सपने सजाऊंगा। उन्हें पूरा करने की कोशिश भी करूंगा। यानि कुल मिलाकर नया साल जश्न और सपनों की बारात लाने वाला है। भले ही पुराने साल के कुछ सपने अपनी मंजिल तलाश करते-करते दम तोड़ दें,या उन्हें कोई तोड़ दे, लेकिन नए तैयार हो जाएंगे। नया साल कुछ करे या न करे हमारी पलकों में सपने बुरक जाता है। इन्हीं सपनों का खैरमकदम करने का वक्त आ गया है , और इनके पूरा होने की फैशनेबल नहीं, सच्ची शुभकामनाएं आपके लिए भेज रहा हूं। कल शायद वक्त न मिले।

Friday, December 19, 2008

पाकिस्तान को मजबूत कर रहे हैं अंतुले

अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री अब्दुल रहमान अंतुले ने यह कहकर बवाल खड़ा कर दिया कि मुंबई हमलों में मारे गए एटीएस चीफ हेमंत करकरे की मौत की जांच होनी चाहिए, कि उन्हें आंतिकयों ने मारा या फिर उनकी हत्या किसी साजिश के तहत की गई। मुंबई हमलों के बाद पूरा देश इस मुद्दे पर एकजुट खड़ा है। इतना ही नहीं इस एक मुद्दे पर पक्ष और विपक्ष भी एक साथ नजर आ रहे हैं। सोई हुई राजनीति ने अंगड़ाई तोड़कर खुमारी छोड़ी है और आंतक से लड़ने की रानीतिक इच्छा शक्ति में नई जान पड़ती दिख रही है। इस मुद्दे पर अगर सारे देश से कोई इतर खड़ा है तो वो हैं अंतुले।

हालांकि अंतुले इससे पहले भी कई बार बेतुकी बयानबाजी कर चुके हैं, लेकिन इस बार बयान बहादुर अंतुले ने ऐसा अपच वाला बयान दिया है कि पूरे देश को हज़म नहीं हो रहा। उस पर ढिठाई ये कि अपनी गलती मानने को तैयार नहीं। हठधर्मिता ने अंतुले को इस्तीफा देने को मजबूर कर दिया। अंतुले के इस बयान ने करकरे की शहादत पर तो सवाल खड़े करने का काम कर ही दिया, साथ ही मुंबई हमलों की जांच कर रहीं भारतीय और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों की जांच को भी शक के दायरे में लाने का काम कर दिया। पलटबयानी में माहिर पाकिस्तान अंतुले के बयान को ढाल की तरह इस्तेमाल कर सकता है। पाकिस्तान सरकार इस बात से पहले से ही मुकर रही है कि कसाब और हमलों में मारे गए आतंकी पाकिस्तानी हैं, ऐसे में अंतुले का यह बयान घाघ पाकिस्तान को बढ़ावा ही देगा। पाकिस्तान राष्ट्राध्यक्ष इस मामले में क्लीन चिट के लिए पहले ही कई पैंतरे आजमा चुके हैं, लेकिन विश्व बिरादरी के बढ़ते दबाव से वह कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। ऐसे हालात में अंतुले के बयान को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रखकर पाक यह दावा कर सकता है कि मुंबई हमले भारत की घरेलू साजिश थी। इन हमलों में उनके अपने लोग ही शामिल थे और पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित कराने के लिए भारत अपने ही देश में खुद आतंकवादी हमलों को अंजाम देता आ रहा है। इससे भारत की नीतियों और उजली छवि को विश्व मंच पर धक्का लग सकता है।

इधर उबलती राजनीति और देश की नब्ज को टटोलकर कांग्रेस ने भी अपने इस कारिन्दे से पल्ला झाड़ लिया है। वक्त का तकाजा भी यही है। हालांकि अंतुले के इस्तीफे पर अभी यूपीए सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह विचार ही कर रहे हैं, लेकिन चिंता यह है कि कि अंतुले पर की गई कार्रवाई को भी पाकिस्तान अपने हित में भुना सकता है। पाकिस्तान कह सकता है कि सच सामने आने के डर से भारत ने अंतुले के खिलाफ कार्रवाई करके उसका मुंह बंद करने की कोशिश की है। इससे बेहतर तो यही हो कि अंतुले का इस्तीफा मंजूर ही न किया जाए। शायद हमारे दूरअंदेशी प्रधानमंत्री भी यही सोचकर चुप हैं।

सोचने का मुद्दा यह है कि जिस मामले पर अंतरराष्ट्रीय संवेदना हमारे साथ है, पूरी दुनिया ने पाकिस्तान को गलत मानकर उसे तुरंत ठोस कार्रवाई करने के लिए बाध्य किया है, उस मुद्दे पर अंतुले इतनी ढीली बयानबाजी क्यों कर गए। कहीं ये अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का हथकंडा तो नहीं? मुंबई हमलों में भी कहीं हिंदू आतंकवाद का भगवा रंग घोलने का कोशिश तो नहीं? मालेगांव धमाकों और इस घटना में अंतर है। मालेगांव ने जहां सारे देश को अचंभे में डाल दिया था, वहीं इस घटना ने पूरे देश और राजनीति को आतंक के खिलाफ लामबंद किया है। राजनेताओं ने जनता के तीखे तेवर देखकर बहुत कुछ सीखा है। अंतुले के इस बयान के पीछे एक वजह समझ आती है कि कांग्रेस में हाशिए पर खिसक चुके अंतुले शायद पार्टी का ध्यान अपनी तरफ खींचना चाहते थे। एक समुदाय विशेष को गुमराह करके अपना जनाधार तैयार करना चाहते थे।

खैर जो भी हो, अंतुले को अपनी लफ्फाजी पर लगाम लगानी चाहिए, वरना सही दिशा में जा रही जांच और पाक पर बढ़ रहा अंतरराष्ट्रीय दबाव दिशाहीन हो सकते हैं। जो कि भारत ही नहीं बल्कि समूची दुनिया के लिए खतरा है। अंतुले को एक बात और ध्यान रखनी चाहिए कि जनता अब राजनीति की नब्ज समझने लगी है। अगर जनता अर्श पर बैठा सकती है तो फिर मिनटों में ही फर्श पर भी फेंक सकती है।