Sunday, July 26, 2009

न्यूज़रूम का समग्र शब्द

कुछ शब्द अपने आप में उतने समग्र होते हैं जितनी अमेरिका की समग्र परीक्षण प्रतिबंध संधि भी नहीं बन पाई। सर्वसारसहित, सारगर्भित और संपूर्ण शब्द। कहीं भी फिट करो चल निकलते हैं। आज-कल एक ऐसा ही शब्द खूब जोर शोर से हमारे न्यूज़रूम में प्रचलित हुआ है। हालांकि इस पर मैं शोध कर रहा हूं लेकिन अब तक ये पता नहीं चल पाया है कि इस शब्द के जनक कौन हैं, देशज हिंदी के किस भदेस विद्वान की शब्दावली से ये शब्द उजागर हुआ है।

कबीर, रहीम, रसखान को पढ़ा। उनके अमर, अमिट और खड़ी बोली के साहित्य में भी ये शब्द कहीं नहीं है। हिंदी खड़ी बोली साहित्य के प्रथम रचियताओं और कवियों की अक्ल पर भी अचंभा होता है कि उनके दिमाग में इतना सारगर्भित शब्द क्यों नहीं आया, जो हमारे न्यूज़रूम के भदेस विद्वान ने प्रचलित कर दिया। समग्र शब्द है, “पेलो”।

पेलो शब्द व्यवस्था के साथ भी है और खिलाफ भी। कभी एनसीपी की तरह कांग्रेस के साथ खड़ा होता है ये शब्द तो कभी आरजेडी की तरह मुंह मोड़ लेता है। कभी उस तरह खबरों की गाड़ी को पटरी पर पेलने की कोशिश करता है जिस तरह मनमोहन सिंह अर्थव्यवस्था की गाड़ी को पटरी पर पेलने की कोशिश में हैं। कभी-कभी प्रचंड हो जाता है, उसी तरह तल्ख हो जाता है जैसे समाजवाद कांग्रेस के खिलाफ था। सब मिजाज़ के ऊपर है कि कौन किस लहज़े में इस शब्द को पेल रहा है। ख़बर आती है तो गहमागहमी के साथ किसी गले से फूट पड़ता है, ब्रेकिंग आई है पेलो। पहला बंद पेलो होता है और दूसरे बंद में पेलो का नारा एक साथ कई गलों से स्वतःस्फूर्त फूट पड़ता है। न्यूज़रूम पेलोमयी हो जाता है। बड़ी ख़बर है एक प्रोग्राम तो डिज़र्व करती है भई। तो फिर एक प्रोग्राम पेलो।

दोपहर का वक्त, ऑफिस में सुबह से मंदा हो चुका पुराना स्टाफ दरियाई घोड़े की तरह मुंह फाड़ कर उबासी लेने लगता है। दरकार होती है अगली शिफ्ट में आने वाले कारिंदों की। तब कोई ख़बर आ भी जाए तो उसी तरह नज़रअंदाज़ करने की कोशिश की जाती है जिस तरह सरकार शहरी विकास को देखकर ग्रामीण विकास की अनदेखी करती रही है। विकास हुआ है, सरकार यही कहती है देखो फलां शहर, क्या कर दिखाया हमने। यही तब होता जब मंदा स्टाफ ख़बर चलाने के नहीं बल्कि पेलने के मूड में होता है। सुबह से पिल चुकी ख़बरों पर अपनी पारखी नज़र की भूरि-भूरि प्रशंसा पेलकर ताज़ा ख़बर पेलने की कोशिश की जाती है। पेलो तब भी कहा जाता है लेकिन इस तरह नहीं। पहला बंद फोड़ने वाले की आवाज़ ऐसी हो जाती है जैसे किसी परिजन की मौत की ख़बर सुना रहा हो। ख़बर आई है। दूसरा बंद धीरे से एक उबासी के साथ फूटता है, पेलो परे यार।

भूख लगे तो पेट में खाना पेलो। किसी के साथ तू-तू मैं-मैं हो जाए तो उसे पेलो। कोई नई लड़की ऑफिस में आ जाए तो उसे पेलो। विजुअल नहीं है ग्राफिक्स पेलो। सिस्टम हैंग है आईटी को फोन पेलो। आउटपुट में कमी दिखे पीसीआर को पेलो। ख़बर मे देर हो इनपुट को पेलो। हर बात में पिल पड़ो। पेलो में तरक्की है। जो पेलो को निर्झर इस्तेमाल करते हैं वो पेलो किंग की निगाह में कर्मठ होते हैं। बिना काम के व्यस्त रहना एक कला है। पेलो से ही इस कला का उदगम होता है। हर मौके पर फिट, चुस्ती और दुरुस्त रहने का फॉर्मूला है पेलो। लाइफबॉय या रिवाइटल को इस शब्द का कॉपी राइट हमारे भदेस विद्वान से खरीद कर विज्ञापन में पेल देना चाहिए।

सरकार को इस शब्द से कुछ सीख लेनी चाहिए। नीति, विदेशनीति, सुरक्षानीति, अर्थनीति, वाणिज्यनीति, स्वास्थ्यनीति सब में पेलो का इस्तेमाल होना चाहिए। फिर देश जरूर तरक्की की राह पर पिल पड़ेगा।

Tuesday, July 7, 2009

नियोक्ता से अपील!

निजी कंपनी में कर्मचारी और मैनेजमेंट का रिश्ता वैसा ही है जैसे जनता और सरकार का। कल्याण के फॉर्मूले होते हैं अमल नहीं। योजना है लेकिन अमलीजामा हरचरना के सुथन्ने की तरह फटा है। लोकतंत्र की ज़मीन पर सरपट दौड़ते और फलते-फूलते कॉरपोरेट में भी सामंती विचारधारा की गहरी पैठ है। काश कोई सरकारी नौकरी मिल जाती, तो हम सरकार होते और जनता बनने से बच जाते। एक साल हुआ कंपनी में काम करते। जेब की मोटाई नहीं बढ़ी। एक साल पूरा होने पर दर्जी को ऑर्डर दिया था कि जेब का अरज बढ़ा देना। सवा दो मीटर कपड़ा खरीद कर दिया कमीज़ के लिए, लेकिन सिर्फ जेब पर ज़ोर बढ़ा वज़न नहीं। पहले ही खर्च सहन नहीं हो रहे थे, कपड़े का खर्च और बढ़ गया।

पहले भी अंडरएस्टिमेशन का शिकार रहे और आज भी हैं। कंपनी ने एक साल के भीतर गधे की तरह जिम्मदारियों के बोझ तले दबा दिया। देख रहे हैं कि दूसरे गधे पंजीरी खा रहे हैं और हमें कंपनी गधा बनाकर भी अंडरएस्टिमेट कर रही है। प्रभो अब तो मान जाओ। कब तक सब्ज़ी के साथ मुफ्त मिलने वाले धनिए की तरह इस्तेमाल करते रहोगे। अब तो धनिया भी 15 रुपये पाव मिल रहा है। एक पव्वे की कीमत ही बढ़ा दो। शुभचिंतक सलाहें देते हैं, मोती पहनो, फलां पीपल पर जल चढ़ा आओ। हम तो इन दोनों ही मामलों में होशियार नहीं हैं, न भगवान को मना पा रहे हैं और न मैनेजमेंट के इंसान को। मानक हिंदी में कहें तो निरे सेक्युलर और टीटीएम (ताबड़तोड़ तेल मालिश) रहित हैं और यही सबसे बड़ी ख़ामी है।

कल प्रणब बाबू ने बजट जारी किया। इनकम टैक्स में छूट है। कृषि निवेश में इज़ाफा, कई छोटी-छोटी खुशख़बरी हैं। क्या करेंगे हम इन खुशख़बरियों का। हमारे लिए तो ये ऐसी ही हैं जैसे किसी औघड़ को कोई शादी की चमक-दमक के बारे में बताए। भाड़ में जाए इनकम टैक्स स्लैब जब इनकम ही नहीं। दो दिन से बजट की ख़बरे टिपिया रहे हैं। कोई हमारे दिल से पूछे। हम तो बजट की किसी कैटेगरी में फिट नहीं बैठते। न बीपीएल हैं न एपीएल। कोई राशनकार्ड ही नहीं बनवा पाए आजतक।

कभी-कभी अपनी क्षमताओं पर शक होता है। किसी काबिल होते तो सरकारी नौकरी नहीं करते? अब प्राइवेट मिली तो उसमें भी ऐसे मरे जा रहे हैं जैसे मुद्रा स्फीति के गिरते आंकड़ों के बीच आम ग्राहक। फिर लगता है कि अगर बेकारे होते तो कंपनी जिम्मेदारी भरा काम क्यों देती। प्रभो हमारी आपसे अपील है कि हमारा बोझ के बढ़ाने के साथ ही जेब में कुछ वज़न बढ़ा दो। कब तक घर से पैसे लेकर गुज़ारा करें। पड़ोसी ताने देने लगे हैं कि पढ़ाई-लिखाई बेकार गई। चौपाल और संन्यास में श्रद्धा रखने वाले हमसे बेहतर नज़र आते हैं। क्या संन्यास की राह पकड़ ली जाए ?