Saturday, July 5, 2008

तीसरा मोर्चा : यत्र सर्वसंभव

तीसरा मोर्चा फिर खंड-खंड होने के कगार पर है। यूएनपीए दरक भी उसी की वजह से रहा है जो इसका अलख फूंकता फिर रहा था। मोर्चे के अगुआ मुलायम सिंह कांग्रेस के लिए कुछ ज़्यादा ही नरम हो गए हैं। उसी कांग्रेस के लिए जिससे उनके गिले शिकवे समर्थन वापसी तक जाकर थमे थे। हालांकि राजनीति पटल पर यह कोई नई घटना नहीं है। बहुजन समाज पार्टी से पींगें बढ़ाकर, जनाधार पर हो रही सेंधमारी ने वैसे भी कांग्रेस को वक्त रहते चेता दिया था। इसे कांग्रेस प्रबंधन तंत्र की मजबूरी कहें या होशियारी, सरकार बचाने और उत्तरप्रदेश में चुनावी जंग में जीत का सवाल हल करने के लिए इस गणित का सहारा तो देर सबेर लेना ही था। परमाणु करार पर चल रही राजनीति ने ने कई नए परिदृश्य बना दिये हैं। मायावती ने भी मौके फायदा उठाना चाहा। करार को मुस्लिम विरोधी कहकर उत्तरप्रदेश में सपा का वोट बैंक अपना करना चाहा और साथ ही कांग्रेस से अपनी अनदेखी का बदला भी लेने की ठानी। भारत रत्न कलाम साहब की करार पर पैरोकारी की दलील देते हुए सपा ने समर्थन की हिम्मत जुटा ली है। लेकिन कलाम साहब तो २००६ से कह रहे हैं कि करार राष्ट्रहित में है। तब कहां थी सपा ? सब झोली भरो अभियान में लगे हैं। मगजकदमी में दूर आ गये हैं, मुद्दा दूसरा है।
तीसरे मोर्चे का गठन घटक दलों की मजबूरी ही रहा है। अपने-अपने राज्य की भौगोलिक सीमाओं के दायरे में बंधे ये सभी दल, देश भर के चुनावी समर में भागीदार नहीं होते। लेकिन लक्ष्य तो एक ही है, सत्ता। केंद्र में सरकार बनाने का सपना पूरा हो या नहीं, भागीदार तो बन ही सकते हैं। यही वजह रही कि चंद्रबाबू नायडू राजग में शामिल रहे और कार्यकाल पूरा होने के बाद यूएनपीए का दामन थाम लिया। जयललिता भी इसी फेहरिस्त में शामिल हैं। राजनीति में जितना जरूरी ध्रुवीकरण है उतना ही जरूरी द्रवीकरण भी। द्रवित होना कोई राजनीतिज्ञों से सीखे, जहां गये वहीं के हो लिये। पानी की तरह किसी भी राजनीतिक बरतन का आकार ले लेते हैं। जैसे ही पुराने मुद्दों की वोट बटोरने लायक धार खत्म हो जाती है, नई जमीन की तलाश में दल और मोर्चों का गठन शुरू हो जाता है।
और यहां तो सारे ही या तो भगोड़े हैं या फिर राष्ट्रीय दलों से खिन्नाये दल। ना सबकी जरूरतें एक जैसी हैं और ना ही प्रतिबद्धता। अपनी-अपनी जरूरतों के हिसाब से सभी द्रवीकरण का इस्तेमाल कर रहे हैं। विचारधारा राजनेताओं की होती है राजनीतिज्ञ केवल अवसरवादिता और कुर्सी को ही पहचानते हैं। तीसरे मोर्चे की छोड़ो देश में राजनेताओं का अकाल है। इसलिए यह विखंडन तो होना ही था। अगर सारे घटक मौके के हिसाब से दो राष्ट्रीय मोर्चों में शामिल हों जाएं तो कोई हैरत की बात नहीं।