Monday, April 6, 2009

कुंवारेपन के किले की दरकती दीवार

वैसे मैं पहले भी ठीकठाक ही दिखता था, लेकिन पिछले कुछ दिनों से मेरे चेहरे से कुछ ज़्यादा ही नूर टपकने लगा है। मुई नौकरी मिलते ही छोकरी वालों ने घर के आंगन में कदमताल करके ग़र्दो-ग़ुबार उड़ा रखा है। इतना छैला-बांका हो गया हूं कि सब की निगाह में किरकिरी बनकर करक रहा हूं। हर रिश्तेदार की निगाह में अब मेरी उम्र शादी के काबिल हो गई है। जहां जाओ एक ही सवाल, शादी कब कर रहे हो? शादी न हुई श्रवण कुमार की तीर्थ यात्रा हुई।

खुद मां-पिताजी भी यही चाहते हैं। उन्हें दुल्हन की डोली में चारों धाम नज़र आ रहे हैं। ये नहीं जानते कि कुलवधु अब किलवधु भी हो सकती है। इस सुख के चक्कर में इनके चने-चबैने को भी खतरा हो सकता है। एकता कपूर को एक और सीरियल का प्लॉट मिल सकता है। सब मुझे ध्वस्त करना चाहते हैं। कुंवारेपन के किले पर लगातार कूटनीतिक हमले हो रहे हैं। समझाया जा रहा है। अब बिल्कुल सही उम्र है। शादी कर लो।

अरे उम्र और अल्हड़पन का अहसास मुझसे बेहतर कौन कर सकता है। मेरी उम्र तो शादी लायक तभी हो गई थी जब चौदह साल का था। मन हिलोरे मारता था। मोहल्ले की कई कामिनियों को देखकर कामदेव के तीर मन में गड़ते थे। वो तो वक्त का सर्जन बड़ा कारसाज है जो ज़ख्म भर दिए, वरना दिल में इतने छेद खुलते कि डॉक्टर आर के पांडा भी जान नहीं बचा सकते थे। सारा दिन सराकरी नल के चबूतरे पर काट देते थे। कोई मदमस्त, बेफिक्र सी पानी भरने आए और झुककर नल चलाए। वो क्या ज़वानी नहीं थी? एक झलक को तरसते थे। कहीं मिल जाए कोई नज़ारा। हैरानी से सुनते थे सबके तज़ुर्बे। मन ही मन कुढ़ते, साला कब एक मौका मिले और हम भी मिर्च मसाला लगाकर अपने एक्सपीरिएंस दोस्तों से शेयर करें। सबको जलते तवे पर बैठा दें। चौपाल के हीरो बन जाएं। अपने पुरुषत्व पर असली चौपाली मुहर लगवा लें और अपना सीना गुब्बारे की तरह फुलाकर रान बजाते फिरें। स्कूल छोड़कर भीड़ भरी बसों में सफर सुहाता था। क्या पता किसी हमारी जैसी प्यासी से गुटरगूं हो जाए। वो अलग बात थी कि साथियों को मौके मिलते रहे और हमें बस एक ही बात। ‘ढंग से खड़े हो जाओ ना’।

फिर ऐसे खिन्न हुए घड़ी-घड़ी बेइज़्जती से कि भीड़ भरी बसों का सफर ही छोड़ दिया। उसके बाद मोहल्ले की हर भाभी में संभावनाओं की तलाश लिए डोलते रहते थे। हमेशा ताक में कब भाभी चौके में बैठी हो और जाकर उसके पास बैठ जाएं। एक रोटी लेने के बहाने हाथ भी टच हो गया तो बरबाद वक्त की कीमत वसूल। गांव में इतना सौहार्द होता था कि पड़ोसी के घर में जाकर रोटी खा लो। कुदरत भी कमीनी है, बहुत परखा हमारा धैर्य। जब एक छुअन को तरसते थे, तब किसी ने ध्यान नहीं दिया।

अब इस लायक हुए कि अपना इंतज़ाम बिना ताम-झाम कर सकें तो पिताजी को कहावत याद आ रही है कि, ‘सयाना बाप पूत के पैदा होते ही घोड़ी का बंदोबस्त कर देता है’। उस उम्र में कभी ज़िक्र नहीं किया किसी ने जब सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी। अब कम्बख्त लड़की वाले मेरे भाव लगाने आ रहे हैं। हाल वैसा ही है जनाबों जैसे कसाई बछड़ा खरीदने से पहले दांत गिन रहा हो। दाम दे रहा हो। एवज़ में सामान दे रहा हो। ये लड़की वाले भी बीड़ीबाज की तरह होते हैं। लड़के देखते और रिजर्व करते जाते हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे बीड़ी पीने वाला बढ़िया बीड़ी पहले पीता है और थोड़ी कमतर को बंडल में वापस घुसेड़ देता है। अबे सुट्टा तो तुम्हीं कों मारना है बाद में।

बस हमें कोई शादी से कुछ और दिन बचा ले। कौनसा मुंह मेकअप कराके जाएं कि लड़की वाला दखते ही भाग जाए। मन प्रेमी बनना चाहता है अभी, पति नहीं। पति बनने लायक मैच्योर नहीं हुआ हूं। अभी कहां मिली है वो सपनों की शहज़ादी जो गोल बिस्तर पर लेटकर शहद से हमारा बदन चखे। आप कहेंगे फिल्मी है। वहीं से तो सीखा है। साला हीरो भी मुफ्त के मज़े करता है। ऊपर से डायरेक्टर को करोड़ दो करोड़ की चपत मारता है। अरे यारों ऐसे सीन के लिए डायरेक्टर को सौ दो सौ रुपये मैं अपनी जेब से अदा कर दूं। बस एक बार चांस तो दे दे।

शादी की इस आपाधापी और नुमाइश के बीच सोचता हूं। मनुष्य विवाहशील प्राणी है। विवाह के फेर में कितने ही विश्वामित्री मठ नष्ट हो गए। मैं तो फिर भी कामेंद्र कामुक बनने की जुगत में लगा रहता हूं। शादी तो करनी ही पड़ेगी। बस सोच रहा हूं कि कुछ और दिन कुंवारेपन का मज़ा उठा लूं। ज़िंदगी अपने ढंग से जी लूं। दोस्तों के साथ चौपाल पर मज़े करूं। फिर कहां मिलेगा ये सब। शादी के बाद तो ये हसरत ऐसी होगी जैसे पाकिस्तान से आतंक का सफाया करना। सारी पब्लिक को तोप के मुहाने पर बांध कर भी उड़ा दो तो भी कम्बख्त आतंकवाद नहीं मरेगा, और ज़नाबों बीवी से तो आतंकवादी भी डरते हैं। मैं तो अदना सा इंसान, मेरी क्या औकात।