Friday, August 13, 2010

लड़की ताड़ने की सामाजिक स्वीकृति


बहुत पहले इसी ब्लॉग पर अपने कुंवारेपन के किले की दरकती दीवार के बारे में लिख चुका हूं। सलाह के रूप में हो रहे कूटनीतिक हमलों ने मेरे कुंवारेपन के किले की बुनियाद को हिला कर रख दिया है। कूटनीतिज्ञ कामयाब हुए, या कहें कि मनुष्य विवाहशील प्राणी है इसलिए मैं भी विवाह के लिए तैयार हो गया हूं। रिश्तेदार ऐसे खुश हैं जैसे किसी बूढ़े की मय्यत के वक्त गांव के लोग इसलिए खुश होते हैं कि उन्हें गंगा में डुबकी लगाने का सुंदर और मुफ्त मौका हाथ लगा है। अंतिम यात्रा वाहन में एक-दूसरे से चिपककर बैठ जाना है और घाट पर मिलने वाली सस्ती कच्ची दारू निंघोंटकर त्यौरियां तनाए लौट आना है। हमारा सामाजिक ताना-बाना ऐसा बुना गया है कि नश्वर आदमी के सुख-दुख की साथी अनश्वर दारू जन्म-मरण, समारोह सबमें साथ देती है। इसीलिए बारात और अंतिम यात्रा में दो बातें समान हैं, एक मुफ्त बस यात्रा और दूसरी दारू की चुस्कियां। ख़ैर अभी बात बारात की तरफ बढ़ रही है।

मुझे कुछ ऐसे वरिष्ठों ने सलाह की घुट्टी पिलाई जो रोज़ाना कलह कर, शोर मचाकर, गालियों के रूप में मोहल्ले वालों को पत्नी के प्रति प्रेम जताकर गृहस्थी का “सुख” भोग रहे हैं। उन्होंने मुझे ऐसे ही नसीहतें दीं जैसे अमेरिका ने इज़रायल को मानवाधिकार संरक्षण की सलाह दी। अपने घर में गुआंटानामो का झमेला नहीं सुलझा, मानवाधिकारवादी चिल्ल-पों मचाए हैं, और इज़रायल को मानवाधिकार सिखाने चले हैं। यही हुआ मेरे साथ, शादी के फायदे, गृहस्थी के तथाकथित आराम की सलाहें और आने वाली अपना भाग्य साथ लाती है जैसी दलीलों के घेरे में मुझे फंसा लिया गया। क्योंकि बहुमत के आगे किसीकी नहीं चलती और वैसे भी मतांध को आप कैसे उन्मूलन का सिद्धांत या नए विचार समझा सकते हैं ?

लड़की वालों की आवाजाही से जुते हुए आंगन में फसल बोने के बजाय लड़की देखने की योजना बनाई जाने लगी। परिवार की एक समिति बनी और तय हुआ कि फलां तारीख को अमुक की कन्या को देखने के लिए कूच किया जाए। अब मुख्य समिति से कुछ उपसमितियां बन गईं और खरीद-फ़रोख्त पर चर्चा होने लगी। उपसमिति की एक महिला सदस्या ने इस आशय से अंगूठी खरीदने का प्रस्ताव रखा कि लड़की पसंद आने पर चट मंगनी पट ब्याह कर देंगे, लेकिन मुख्य समिति के समक्ष प्रतिवादी होने के नाते और मेरे क्रांतिकारी (परिवार की नज़र में उत्पाती) दिमाग का ख़्याल रखते हुए इस प्रस्ताव को समर्थन नहीं मिला। सारी योजना बन जाने के बाद ‘कूचाधिकार’, मुख्य समिति के अध्यक्ष ने सुरक्षित रख लिया।

दिखा-दिखाई का गुप-चुप खेल किसी ऐसे वास्तेदार के घर खेलना मुकर्रर हुआ जहां अमुक जी पहली बार सपरिवार आए थे। पर्दे के पीछे का मेज़बान भी हमारी ही तरह पहली बार अमुक जी के परिवार से रूबरू हो रहा था। हालांकि अमुक जी बार-बार उसे अपना खास बता रहे थे लेकिन उनके परिवार की अनजान भीड़ को देखकर मेरी तरह उसकी आंखों में तैर रही हैरानी उनके पुराने वास्ते की असलियत का बखान कर रही थी। मैं द्वार पर तोरण, अक्षत छिड़कने वाली कन्याएं जैसे भव्य टाइप स्वागत की उम्मीद लगाए बैठा था, लेकिन चुपचाप गैलरी के रास्ते सोफा पर पसरने के बाद दो प्रकार की नमकीन एक प्याली चाय और कुछ काजू-बादाम से स्वागत कार्यक्रम पूरा किया गया।

अचानक आकर रुकी एस एक्स फोर से एक इनन्सान कम और यमदूत ज्यादा नज़र आने वाला आदमी नमूदार हुआ। ढीली, लटकी, अधरानी जींस, और अपनी गर्दन जैसी मैली टी-शर्ट के में फंसे हुए उस थुल-थुल चपरासीनुमा इंसान को किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी (MNC) में मैनेजर की पदवी से सम्मानित करते हुए मुझसे लड़की का जीजा बताकर रूबरू कराया गया। रिश्तेदार MNC में भी गौरव तलाश लेते हैं, जबकि आज के दौर में कई धर्मादा संस्थाएं, पिज्जा और बर्गर खिलाने वाली कंपनियां भी MNCs हैं।

देखने से वो भले ही चपरासी या किसी मजमे का मसखरा लग रहा था लेकिन उसकी व्यावसायिक मुस्कान और बातों ने साबित कर दिया कि वो मैनेजर बनने के लिए ही पैदा हुआ है। मेरी आमदनी जानने के बाद उसने अपनी बेढब नाक को कांटे में फंसी मछली की तरह फड़फड़ाया और मुझे अपना कॉम्पिटीटर मान बैठा। हमारे यहां कहावत है कि साढ़ू की क्या सराहना और साली से क्या बैर! इसी कहावत को वह नाक के माध्यम से चरितार्थ कर रहा था। इसके बाद उसने अपनी कंपनी, उसकी काली कमाई, इनकैम टैक्स के छापों से बचाव में काम आने वाली चतुराई का सगर्व बखान शुरू कर दिया। मेरी इंटेलेक्चुअल प्रोपर्टी को वो अपनी मैटेरियलिस्टिक प्रोपर्टी के सामने प्रोपर्टी मानने को तैयार नहीं था।

वो मुझे काठ की कोठरी में बैठकर ऊल-जलूल लिखने वाला कातिब समझ रहा था और उसकी किसी बात में मुझे रस नहीं आ रहा था। मुझे कम बोलने की सख्त हिदायत की गई थी इसलिए उसकी बखिया उधेड़ने की तमन्ना हसरत ही रह गई। उसे देखकर मेरे दिमाग में बस यही ख्याल आ रहा था कि किसी का दामाद होने के लिए इन्सान होने की नहीं बल्कि जुगाड़ू, कमाऊ और धूर्त होने की ज़रूरत है। क्योंकि उसके बेईमानी के किस्सों को सुनकर अमुक जी भी उसे होनहार शब्द से नवाज़ रहे थे। पैसे के लिए बौराई दुनिया का वह धांसू नमूना था। मुझे उस लड़की पर भी हैरत हो रही थी जो उसके कुरूप और मक्कारी दोनों पर मोहित होकर शादी के लिए राज़ी हो गई थी। मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि इस शादी के पीछे की वज़ह केवल पैसा था, दोनों तरफ का पैसा। अमुक जी ने बेटी के लिए मोटा मंथली “चेक” ढूंढा था और चपरासीनुमा मैनेजर ने सुंदर कन्या के साथ मोटा दहेज। लड़की ने क्या खोया क्या पाया इसका जवाब अभी तक नहीं ढूंढ पाया हूं।

मुझे इस खेल के आखिरी राउंड का इंतज़ार था, वो भी अब शुरू हो चुका था। साड़ी में लिपटी एक मत्स्य कन्या, जगमग करती मेरे सामने के सोफा के एक कोने पर आ टिकी। उसका बैठना ऐसा लग रहा था जैसे जताना चाह रही हो कि वो इतनी स्लिम है और सोफा इतना बड़ा। बदन पर चमकता सोना अमुक जी (नायब तहसीलदार) की रोज़ाना मेज़ के नीचे से होने वाली चमकती आमदनी की तरह चमक रहा था। चाय के दूसरे दौर के साथ बातचीत शुरू हो गईं और हम दोनों को ऐसा महसूस कराने की कोशिश की जाने लगी कि सब बातों में मसरूफ हैं और हमारे पास एक दूसरे को सिर से पैर तक निहारने का मौका है।

असलियत जो भी हो मैं ये मौका बिल्कुल नहीं चूकना चाहता था और उसकी निगाहें भी कुछ यही जता रही थीं। मुझे इस मौके पर अपनी कच्ची जवानी के दिनों की याद आ गई। कभी घर में पता लग जाए कि हम किसी लड़की की पीछे आ-जा रहे हैं या किसी से चक्कर चलाने की फिराक में हैं तो ढोल की तरह पिटने का बंदोबस्त हो जाता था और आज अपने और लड़की के पिताजी के सामने लड़की ताड़ रहे हैं तो किसी कोई दिक्कत नहीं। हमारी कमअक्ली के दौर से यही माहौल होता तो आज घर में बच्चे खेल रहे होते। इतने झमेले में पड़ने की किसी को कोई ज़रूरत नहीं थी।

ख़ैर अब खेल का आखिरी राउंड भी पूरा होने के कगार पर था और सामाजिक बातें सांसारिकता की तरफ घूमने लगी थीं। बीच-बीच में चपरासीनुमा मैनेजर गाल बजाकर अपनी मक्कारी के महान कारनामे अभी भी सुना रहा था। मैं अंदर से घबराया, सकुचाया सा वहां से उठकर भाग जाना चाहता था, लेकिन माहौल का भारीपन मेरे पैरों में जंज़ीरों की तरह लिपट गया था। कैसे भी करके मैं इस खेल में हारकर बिना ट्रॉफी के खाली हाथ सिर झुकाए लौट जाना चाहता था।

चंद बनावटी खिलखिलाहटों के साथ दिखा-दिखाई का शिखर सम्मेलन समापन की ओर बढ़ने लगा। दोनों तरफ की मुख्य समितियां गंभीर मुद्रा में आ गईं और माहौल अदालत जैसा हो गया। लड़की वालों की मुख्य समिति बनावटी विनय के कठघरे में खड़ी होकर बंदोबस्त की खामियों के लिए माफी मांगने लगी और हमारे फैसले के इंतज़ार में हम पर आंखें गड़ाकर खड़ी हो गई। हमारी मुख्य समिति ने अब ज्यूरी का रोल अदा करना शुरू कर दिया था। एक ऐसी ज्यूरी जिसकी बातों में राजनीति की तरह आश्वासन घुले हुए थे।

मैं उहापोह में था। नायब तहसीलदार की खर्चीली बाला मेरी इंटेलेक्चुअल प्रोपर्टी की शुद्ध और अल्प कमाई के साथ आखिर कैसे तालमेल बैठाएगी? अब मेरी हालत पीड़ित की तरह हो गई थी। ज्यूरी के सामने लड़की वालों की जगह मैं अपीलेंट की तरह खड़ा हो गया। मैंने ज्यूरी से हाथ जोड़कर फैसला रिज़र्व रख लेने की अर्जी लगाई। उस वक्त मंज़ूर हुई अर्ज़ी पर आजतक फैसला रिज़र्व है। धन्य है भारतीय न्याय प्रणाली। आखिर कहीं तो तेरी रिवायत ने मेरी ज़िंदगी बचाई, लेकिन कब तक? काश यह भी इस जन्म के मुकदमे की तरह अगले जन्म तक चल सकता।

Saturday, April 17, 2010

दर्द भरे अहसास

दर्द मन के लिए तेज़ाब हो, लेकिन अहसासों के लिए खाद का काम करता है। दर्द जितना बढ़े अहसास उतने ही उमड़-घुमड़कर धुआं बन जाते हैं और ढांप लेते हैं सारा रूमानी ज़हान। दिल की बंज़र ज़मीन पर चंद जज़्बात अठखेलियां करते हैं। देते हैं बूता अकड़ अकड़कर। सक़ून की तलाश में हम उनका गला चाहकर भी नहीं घोट पाएंगे।

वो बेजान होकर भी हमसे कहीं कमतर नहीं हैं। ठुकराए और दबाए जाने पर भी लगातार प्रगति की होड़ में शरीक रहते हैं। कई बार लगता है कि इनकी हालत भी दलितों सी ही है। इन्हें भी उत्थान अभियान की ज़रूरत है। ठुकराए गए, और अपने ही आशियाने में सक़ून की चाह इन पर जब भारी पड़ी तो इन्हें दबाने की कोशिश की गई। इन पर दोहरे दमन का भी असर नहीं, बड़े ढीठ लगते हैं। हर बार सिर उठाकर खड़े हो जाते हैं।

तमाम व्यस्तताओं की बीच ये अपनी ओर ध्यान खींच ही लेते हैं। बेआवाज़ होकर भी मन के हर कोने में हल्ला मचाए रहते हैं। बस एक फुर्सत का लम्हा मिलते ही सिर पर सवार हो बोलने लगते हैं। इन्हें जवाब चाहिए। अपने अकेलेपन का। मेरे किए उस ज़ुर्म का जिसके बदले इन्हें नसीब हुई नफ़रत। क्या कहूं? कैसे समझाऊं कि ये उधार की ज़िंदगी जीने के लिए पैदा हुए हैं। मेरे दिल के किसी कोने में फूलों की तरह खिलने के बाद मुरझाकर मर जाना ही इनका नसीब है। ये किसी रस में घुलकर गुलकंद नहीं बनेंगे।

Wednesday, March 24, 2010

सिंबोलिक कन्या जिमाई

चैत्र की अष्टमी और नवमी, दोनों दिन देख रहा हूं कि स्लमडॉग, मिलियनेयरों के घर में जाकर जीम रहे हैं। सोसायटी की महिलाओं ने पहले ही व्रत वाले दिन कन्याखोजी दस्तों का गठन कर दिया है। सब कन्या खोजते घूम रहे हैं। तलाश पूरी हो जाने पर पूरी सोसायटी का एक टाइम टेबल तय किया जा रहा है। फलां टाइम गुप्ता जी..अलां टाइम नौटियाल जी...अमुक टाइम बगीच साहब।

तो नवरात्रों में ‘बगीचों’ में गलीज़ दिखाई दे रहे हैं। ये वही गलीज़ हैं जिन्हें सोसायटी का गार्ड लतियाकर गेट से भगा देता है, लेकिन आज इनकी अगवानी के लिए साहब और मेमसाहब खड़े हैं। ये रैग पिकर्स आज देवी स्वरूप हो गए। मारामारी है साहब शहरों में, कन्याखोजी दस्ते दस दिन से हलकान दिखाई दे रहे थे। इन गलीज़ों को बुलाकर डायनिंग रूम में बैठाना भी इनकी मजबूरी थी। सोसायटी के एलीट लोगों की कन्याएं या तो रिज़र्व्ड थीं या फिर थी ही नहीं।

आज कन्या और लांगुर दोनों को जिमा कर कर्मकांड पूरे हुए। अब कल से फिर ये गलीज़ हो जाएंगे। इन्हीं में से कोई लांगुर आएगा...बोलेगा रद्दी पेपरेएएएए...तो मेमसाहब गार्ड से बोलकर लांगुर को बाहर फिंकवा देंगी। कोई देवी जब डोर बेल बजाकर रोटी मांगेगी तो उसे हड़का कर भगा देंगी।

आज लांगुरों के माथे रोली से पुते थे, सिर गोटेदार लाल चूनर से सजे थे। समाज के हाशिए पर पड़े काले कलूटे, नाक सुड़कते, चिथड़ों में लिपटे आज पूजनीय थे। याद रहेंगे इन्हें यह दिन। आमदनी भी हुई और जमकर हाइजीन भोजन भी खाया और वो भी बिसलेरी वाले पानी के साथ।

आज सुबह इन्हें देखा तो अपने बचपन के दिन याद आ गए। ग्रीष्म और शरद नवरात्रों पर हम भी बतौर लांगुर जाते थे। खूब जीमते, खाते और चरण पखवराते। उस दिन पूरे मोहल्ले को मेरी शरारतें बर्दाश्त थीं। पांच पैसे से पच्चीस पैसे दांत घिसाई में दिए जाते थे तब। खूब ख़रीज़ जेबों में भर लेते थे। पैसों के चक्कर में जगह-जगह बिन बुलाए ‘सलाही’ की तरह पहुंच जाते थे।

एक दिन पहले तैयारी की और, अष्टमी, नवमी का चिल्लर सीज़न कमाने के लिए मय थाली लोटा गांव के इब्ने बतूता बन गए। गांव में देवियों और लांगुरों के दो दिन मज़े में कटते थे। बाद में एक दूसरे से होड़ करते हुए चिल्लर की गिनती होती थी। एकस्ट्रा खाने की वज़ह से पेट में बादल गड़गड़ाने लगते थे। उसके बाद गांव की बीसियों देवियां और बीसियों लांगुर तालाब के किनारे हाजत की मुद्रा में लाइन बनाकर चिल्लर इकट्ठा करने की कीमत घुटनों के बीच हाथ फंसाए कांख कांखकर चुका रहे होते थे। सामुहिक हगास के बाद कुछ दुस्साहसी दूसरे स्पैल में थालियां उठाए नज़र आते थे।

ये पैसा कमाने की चाहत थी या फिर गांव में लड़कियों की कमी ये तब नहीं पता था, लेकिन होश संभालने के बाद पता लगा कि गांव में कितनी ही देवियां इस धरा धरती पर अष्टमी और नवमी जीमने के लिए अवतरित ही नहीं हो पाईं। शायद यही वज़ह थी कि देवियां मॉर्निंग दावत स्पैल के बाद तालाब का रुख करती थीं।

अब हालात और बिगड़े हैं। मां से बात हुई, कह रही थी कि पिताजी कन्याओं को ढूंढने गए हैं। गांव में भी ऐसी किल्लतों से दो चार होना पड़ रहा है। शहरों के तो हाल बुरे हैं। पड़ोसी भी हर महीने मोबाइल स्कीम की तरह बदल रहे हैं। स्थायी रिश्ते नहीं बनते। कन्या दुर्लभ हो रही हैं। इन नौ दिनों में जिन्हें हम पूजते हैं उन्हें जन्म से पहले ही अत्याचारों की आग में झोंक दिया जाता है।

महिला आरक्षण में दलितों, अल्पसंख्यकों नाम पर अंतरिम कोटे की मांग उठ रही है। इन लीडरान को पता है कि नारी की सामाजिक हालत कमोबेश दलित और अल्पसंख्यक ही है। फिर तेंतीस फीसदी का भला होने दें, क्यों आधी आबादी के हित में रोड़ा बन रहे हैं। भले काम में अड़ंगा डालकर विलंबनकारी संस्था की भूमिका छोड़ दें तो बेहतर। सेक्स रेशियो धड़ल्ले से गिर रहा है। इस रोकने में सरकारी योजनाएं भी धूल फांकती नज़र आ रही हैं।

आज का आईना कह रहा है कि कुछ और साल बाद जब आज की देवियां समाज की दबी कुचली नारी में तब्दील हो जाएंगी तो पूजने के लिए महज़ कुछ तस्वीरें ही बचेंगी। इसे कहेंगे सिंबोलिक कन्या जिमाई। फोटो को ही चटाओ खीर और हलवा। ऐसे ही प्रसन्न होगी काली और दुर्गा।

Friday, March 12, 2010

ओल्ड फैशन मोटापे का अपराधबोध !

होली पर पुराने कपड़ों की ज़रूरत पड़ी। यूं तो दुनिया हमें और हमारे पहनावे दोनों, को ही पुरातनपंथी समझती है, लेकिन कुछ कपड़े अभी भी हमारे लिए नए हैं। नए और पुराने दोनों तरह के कपड़े एक ही हैंगर पर टंगे हैं। भेद बस इतना है कि पुराने कपड़ों पर धूल की कुछ परतें जमा हैं। व्यक्तित्व में खोट ढूंढने वाले इसे मेरा आलस्य मान सकते हैं लेकिन धूल सने कपड़े इस बात का प्रमाण हैं कि पर्यावरण वाकई खराब होता जा रहा है, हवा में धूलकण टंगे हैं और पर्यावरण मंत्रालय महज़ बीटी बैंगन पर बवाल मचाए है।


जयराम रमेश की भावनाएं अगर इस बात से आहत हुई हों तो मुझे माफ़ करें। क्योंकि मंत्री महोदय बीटी बैंगन को ऐसे प्यार करते हैं जैसे देशभर के खेत उनकी जागीर हैं और देश भर के किसान सामंतियों की तरह बीटी बैंगन की फसल के आड़े आ रहे हैं। शायद इसीलिए उन्होंने बीटी बैंगन की फसल उगाने के लिए देश भर में आंदोलन छेड़ रखा है। रमेश जी आप नाराज़ न हों आपके एक काम की तारीफ भी कर रहा हूं। मैं जयराम रमेश से अपील करुंगा कि हवा से धूल खींचने वाली जो मशीन (रेसपिरा ला चित्ता) उन्होंने इटली से मंगाकर दिल्ली के राजीव चौक पर लगाई है उसे मेरे कमरे वाले इलाके में लगवा दें। वैसे भी राजीव चौक पर धूल उड़ती ही कहां है। माफ कीजिए भूल हो गई, सरकारी योजनाएं ग़ैरज़रूरी जगहों पर ही सफलता से चलती हैं।


खैर हैंगर पर टंगे-टंगे धूलसोख बन चुकी एक शर्ट मैंने खींचकर उतारी। बदन पर डाली तो ज़माने के तानों की तस्दीक हो गई। मुझे पिछले कुछ समय से मुझे ताने दिए जा रहे हैं कि मैं पत्रकार होने के बावजूद मोटाता जा रहा हूं। देश के मध्यप्रदेश से भले ही बुंदेलखंड काटकर उसे छोटा करने पर चर्चा हो रही हो, लेकिन मेरा मध्यप्रदेश बढ़ता जा रहा है। जब घर से आया था तो ज़ीरो फिगर था, लेकिन लोगों का मानना है कि राजधानी का सड़ांध मारता खारा पानी मेरे बदन को सूट कर गया है।


लोगों का मानना है कि मैं बहुत अच्छी रकम कमा रहा हूं या फिर ‘योजनाजीवी’ हो गया हूं। सरकार की तमाम योजनाओं में ‘इंप्लीमेंटेशन अथॉरिटीज़’ से मिलीभगत करके मोटा माल सूत रहा हूं। जिसका गुणात्मक असर मेरे बदन पर पड़ रहा है। उन्हें मैं कैसे बताऊं कि ऑफिस में मुझे सब्जी के साथ मिलने वाले मुफ़्त धनिए की तरह बेदर्दी से मरोड़कर इस्तेमाल किया जाता है, और मैं किसी भी तरह के प्राधिकरण या अधिकारी से नहीं मिलता। बल्कि मुझे मेरे ऑफिस के तमाम तथाकथित पत्रकारों की कथित ख़बरों में, ख़बरें कहां हैं ये ढूंढना पड़ता है। यदि 100 शब्दों पर शोध करने के बाद ख़बर मिल जाए तो उसे करीने से सजाना पड़ता है। इस प्रोफाइल को पेशेवर लोग कॉपी एडिटर कहते हैं। इसलिए मुझे लोग “सुराख़बाज़” (छिद्रान्वेषी) भी कहने लगे हैं।


लोगों के जलने-कुढ़ने से मुझे इतनी हैरानी नहीं जितनी कि मोटा होने से हो रही है। मेरा खाने का मेन्यू और जेब की औकात कुछ इस तरह है। सुबह ऑफिस के बाहर छप्पर के नीचे एक फैन यानी चायसोख्ते के साथ एक चाय चपासी जाती है। खर्च बराबर 5 रुपये। उसके बाद दोपहर को एक मित्र मेरी दीनता जानकर डब्ल्यूएचओ की तरह मेरे स्वास्थ्य का ख्याल रखता है और मुझे पोषाहार खिलाता है। दीनबंधु की कृपा, माने खर्च बराबर ज़ीरो। दड़बे में पहुंचने तक किराया भाड़ा और चाय चपास में 15 रुपये चित हो जाते हैं। इसके बाद दलिद्दर जेब कुछ खाने की इजाज़त नहीं देती। इस पर भी मैं हैरान हूं कि आखिर क्यों मोटाता जा रहा हूं।


मुझे लगने लगा है कि जनवादी सोच होने के बावजूद मैं जनद्रोही हूं। देश की आबादी का बड़ा हिस्सा भूखों है, पेट पसलियों से चिपका है और मैं मोटा होता जा रहा हूं। यकीन मानिए मैं उनके दर्द में मन से शरीक हूं, लेकिन तन कंबख्त साथ छोड़ रहा है। मुझे तन कलंकित करा रहा है। लोग मुझे देख, अभिजात या संपन्न बताते हैं। ये उसी तरह का आरोप है जिस तरह आईपीसीसी के चेयरमैन राजेंद्र पचौरी पर ‘अरमानी’ का सूट पहनने का आरोप लगा था। आजकल तो अभिजात लोग भी मोटापे से परहेज़ कर रहे हैं। इसके पीछे गरीबों से हमदर्दी नहीं बल्कि खूब कसरत हरारत करके वाइन और बटर चिकन पचाकर बवासीर से बचने की इच्छा काम करती है। मैं अभिजात न होने के बावजूद इन आरोपों में घुट रहा हूं।


लोग मुझे तिरछी नज़र से देखते हैं। उन्हें लगता है कि मैं यूपीए सरकार के प्रचार विभाग का कोई कर्मचारी हूं। जो ये दर्शा रहा है कि महंगाई नहीं है। यदि आपको संशय है तो मेरी सेहत पर निगाह डालिए। इस हष्ट-पुष्ट गोल होते बदन को देखिए। इसके बाद वित्त मंत्री के लिए आपके मन में भरा मैल निकल जाएगा।


उधर सरकारी आदमी मुझे इस नज़रिये से देखते हैं जैसे मैं कोई जमाखोर हूं जिसने अनाज और खाद्य सामग्रियों की जमाखोरी करके सेहत बनाई है। नित बढ़ती महंगाई उनके शक को और भी गहरा कर रही है। शायद वो ये भी योजना बना रहे हों कि वो मेरे किसी गोदाम पर छापा मारें। क्योंकि असली गोदाम के असली मालिक से घूस लेकर वो मेरे ऊपर जमाखोरी का आरोप मढ़ कागज़ों में मुझे मालिक दिखा सकते हैं।


मैं शरीर के बढ़ते आकार से बड़ा परेशान हूं। इसने मुझे सबकी निगाह में दोषी बना दिया है। समाज मुझे अभिजात पूंजीवादी समझता है। मैं सरकार का भी दोषी हूं जिसने समाज को ज़ीरो फिगर देने के लिए महंगाई बढ़ाई और मैं उसे महंगाई को धता-बताकर कद्दू की तरह मोटा होता जा रहा हूं। माफ करें प्रणब दादा, मैंने आपकी ‘वित्तीय कम स्वास्थ्य ज्यादा’ वाली नीति पर पानी फेर दिया। आजकल बढ़ता अपराधबोध मुझे घेरकर रक्खे है।

Thursday, March 4, 2010

राष्ट्रीय समस्याओं का प्रचारवादी समाधान, वाह आइडिया सर जी

8 फरवरी से अभिव्यक्ति के संदूक पर ताला लटका रखा था। क्योंकि कुछ लोगों के लिए विचार भी छिनैती और उठाईगीरी की चीज़ हैं। कहा जाता है कि विद्या बांटने से बढ़ती है, लेकिन किसी ने ये नहीं बताया कि बांटने से आर्थिक हानि भी होती है। यह तो अब अनुभव से पता लगा। किसी ने मेरा एक लेख टांप दिया और एक पत्रिका के पन्नों पर स्वनाम से अवतरित करा दिया। मेरी अक्ल चाट दी और 1200 रुपये की मलाई काट दी। मूढ़मति ऐसा कि आइडिया इंप्रोवाइज़ भी नहीं कर सका। अब क्या करूं लेख का तो कोई कॉपी राइट नहीं। बस उसी का राइट था जिसने राइट टाइम छपवा दिया।
वैसे भी मैंने अब अख़बारों में लेख भेजने बंद कर दिए। पहले पहल तमाम भेजे, लेकिन जुगाड़वाद रचनाशीलता पर हावी रहा और मेरा नाम एकाध बार ही संपादकीय पृष्ठ पर छप सका। शायद संपादकों को मेरी लेखनी मैन्युस्क्रिप्ट लगी हो, इसलिए पेपर के बजाय ‘पेपरदान’ में फेंक दी। (अखबारी दफ़्तरों में पेपरदान पान पीकने के काम भी आता है, और बड़ी सफाई से पान की लाली को किसी ‘बेकार लेख’ से ढक दिया जाता है) तो भाई क्यों पेपर बरबाद करके पर्यावरण का नुकसान किया जाए। अब यही डिजिटल डायरी विचार टांकने के काम आती है। अंदर का ज़िम्मेदार नागरिक अखबारों में लेख भेजने से रोक लेता है, लेकिन ये भी क्या कि चोरी के डर से कोई फसल ही न बोए। तो अब फिर से एक विचार फूटा है, बराय मेहरबानी ‘आइडिया सर जी’

यूं तो मुझ फटीचर को टीवी मयस्सर नहीं लेकिन एक रिश्तेदार के घर में लक्ज़रीयस और रिवोल्यूश्नरी एलसीडी टीवी का आनंद ले रहा था। 102 सेमी के स्क्रीन पर झूमते, गाते, इतराते, इठलाते नर नारी आ-जा रहे थे। मुझे समझ नहीं आया कि 70 एमएम के पर्दे को बड़ा पर्दा कहने के पीछे क्या तर्क है। मुझे तो 102 सेमी के स्क्रीन के सामने 70 एमएम को बड़ा पर्दा कहना कुतर्क ही लगता है। ये कौनसे गणितज्ञ की माप-जोख है पता नहीं। 70 एमएम बड़ा और 102 सेमी छोटा। 102 सेमी के छोटे पर्दे पर बीच-बीच में एडवरटाइज़मेंट उपभोक्तावाद को प्रमोट कर रहे थे। विज्ञापन जगत के लोग बड़े रचनाशील हैं। 40 सेकेंड के विज्ञापन में राष्ट्रीय समस्याओं पर ‘घंटों’ के सिम्पोज़ियम से ज्यादा विचार झोंक देते हैं।

आजकल दूसंचार कंपनी ‘आइडिया’ भारत में पेपर बचाने का अभियान छेड़े हुए है। पहले यही जातिवाद को खत्म करके संवैधानिक नियमों को सतही स्तर पर उतारने के प्रयासों में जुटी थी। यदि आप भी खुद में कहीं जिम्मेदार नागरिक खोज सकते हैं तो इस अभियान में कूद पड़िए और आइडिया का सिम खरदीकर पेपर बचाइये। ये अलग बात है कि जब आप सिम खरीदने पहुंचेंगे तो लाखों शब्दों की टर्म्स एंड कंडीशन्स से पुते सैकड़ों पेपर आपसे आपके होने का पेपरनुमा सबूत मांग रहे होंगे। आपको इसके सिम की कीमत बेवकूफाना वैचारिक मूरत एवं राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह समेत रिज़र्व बैंक के गवर्नर की लिखित गारंटी देकर चुकानी पड़ेगी। जो रिज़र्व बैंक और टकसाल की पेपर पर छापी गई गलती है और जिसे INR इंडियन नेशनल रुपीज़ कहा जाता है, लेकिन इसी कंपनी के सिम से आप स्वंय को जागरुक और जिम्मेदार भारतीय साबित कर सकते हैं।

यही कंपनी कुछ दिन पहले भोथरी याददाश्त के भारतीय नागरिक से उम्मीद कर रही थी कि वो अपने सभी मिलने वालों को नामों के बजाय इसकी कंपनी विशेष के मोबाइल नंबरों से पुकारे। इससे संविधान के जाति उन्मूलन की उद्देश्यपूर्ति हो सकेगी। टीवी के सिंहासन पर बैठकर भारत का सिंहावलोकन (Retrospection) कर रहे आइडिया सर जी को कोई बताता क्यों नहीं कि यहां के युवा इतनी तेज़ ज़िंदगी में कुलांचें मार रहे हैं, कि उन्हें दो दिन पुराने ब्वॉय फ्रेंड और गर्ल फ्रेंड के नाम याद रखना मुश्किल हो रहा है फिर कैसे इतने मोबाइल नंबर याद रखेंगे।
यहां नई पीढ़ी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का नाम बताने में असमर्थ है। ऐसे में उनसे यह उम्मीद रखना कि वे सैकडो़ मोबाइल नंबर याद रखें घोर आशावादिता है। वैसे भी जो नागरिक संविधान की प्रस्तावना को ही भूल चुका हो उसे उसके उद्देश्यों से क्या मतलब। यहां के नागरिक राष्ट्र के बजाय लोगों का समूह बनकर ही जीने में खुश हैं। यही राजनीतिज्ञ भी चाहते हैं वरना उनकी जातिवादी दुकानदारी बंद हो जाएगी और सत्ता के समीकरण गड़बड़ा जाएंगे, लेकिन आप इस पचड़े में मत पड़िए। बस इस कंपनी का मोबाइल सिम कार्ड खरीदकर अपने जागरुक नागरिक होने का सबूत दीजिए।

यूं तो भारतीय नागरिक होने के नाते मेरी भी यादादाश्त भोथरी हो सकती है, लेकिन राष्ट्रोत्थान में लगी एक कंपनी का शंखपुष्पी सिरप अगर असरदार है, तो मुझे याद है कि आइडिया सर जी ने 26/11 की पहली बरसी पर भी एक ऐसा ही प्रचार चलाया था। इस प्रचार के मुताबिक रात के कुछ घंटों में भारतीयों के बात करने से होने वाली आमदनी को कंपनी ने मुंबई हमले के पीड़ितों में बतौर अनुदान सहायता राशि बांटने का दावा किया था। इनकी तो मौज है। सरकार की तरह ये भी नागरिक को गुमराह कर रहे हैं। इन पर नज़र रखने के लिए कोई महालेखा परीक्षक (CAG) नहीं है क्या? लेकिन हो भी तो क्या हो सकता है आज कैग की भी औकात मुंशी से ज्यादा कहां बची है। कौन सुनता है उसकी ना जनता तक कैग रपट पहुंचती है और ना ही सरकार उसकी नसीहतों पर ध्यान देती है।
आइडिया सर जी गजब के हैं। ये तो पूंजीवाद, उदारवाद और जनवाद का जबरदस्त घालमेल हैं। सरकार में भी फिट और जनता में भी फिट। संविधान के नज़रिए से जनता बराबर सरकार और सरकार बराबर जनता में आइडिया सर जी फिट बैठते हैं। धन्य हो महाराज। इसी को बिजनेसमैन कहते हैं त्रासदी, खुशी, संविधान, राष्ट्र और देशभक्ति सबको कैश कर लिया। वैसे हाल ही में नोएडा में सील किए गए 108 अवैध मोबाइल टावरों में से कुछ आइडिया सर जी के भी थे। आप इस बात पर ध्यान मत दीजिए। क्योंकि कई बार चरित्रवान लोगों पर भी कानून तोड़ने के छिछले आरोप लगते रहते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी पर भी बाबरी कांड में शामिल होने के आरोप लगते रहते हैं, लेकिन नेता जनसेवा से कहां बाज़ आते हैं।

इसी तर्ज़ पर आइडिया सर जी तमाम राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान प्रचार के माध्यम से कर रहे हैं। अब आप बैठे-बैठे क्या सोच रहे हैं। क्या आपको अबतक ज़िम्मेदारीबोध नहीं हुआ। अपना सिमकार्ड तुरंत तोड़िए और आइडिया सर जी के कहे मुताबिक भारत के ज़िम्मेदार नगारिक बनिए।

Monday, February 8, 2010

संगदिल दिल्ली में दिल्लगी

चित्तरकार कई दिन से सड़कों से नदारद थे। गली, मोहल्ले और पार्कों के कोने उनके प्रेम में भीगने को तरस गए थे। सड़कों पर उनकी चप्पलों की रगड़ सुनाई नहीं दी तो चिंता हुई। जा पहुंचा ठौर पर। ज़नाब छाती पर ठुड्डी रखे गदही मुद्रा में सोच रहे थे। होठों पर पान के निशान उसी तरह बाकी थे जैसे युद्ध से लौटे किसी शूरवीर का सूखा खून। मैं हैरत में पड़ गया कि आख़िर कब से मोंटेक सिंह अहलूवालिया बन गए। योजना आयोग सी गंभीर मुद्रा में क्या विचार कर रहे हैं।

मैंने गला खंखारकर अपनी हाज़िरी लगाई। बेमन से बोले बैठो पत्तरकार। मैं बोला इतनी बेरुखाई से कहोगे तो क्या करुंगा बैठकर। बैठना हो तो बैठो, वरना अपना रस्ता नापो। आजकल ज़माना बेरुखाई का है। पाकिस्तान को देखो किस बेरुखाई से हमारे अमन के फाख्ते को फिदायीन बनाकर वापस करता है। हम भी ज़माने के साथ ढल रहे हैं। अब सबसे बेरुखाई से ही पेश आया करेंगे। एक खैनी दफ्तर दाख़िल करते हुए लाल ज़ुबान से शेर झाड़ा कि, क्या तेरी औक़ात है इस दुनिया में, रात के बाद भी एक रात है इस दुनिया में, शाख़ से तोड़े गए फूल ने हंसकर ये कहा, अच्छा होना भी बुरी बात है इस दुनिया में। इसलिए अच्छाई का वारफेर जूती से करने का मन बना लिया है।

मैं बोला आज क्या शासन व्यवस्था, लोकशाही, तंत्र, लालफीताशाही, बाज़ार की ऐन तेन करने का इरादा नहीं है? क्या बात है आज बड़े शायराना हुए जाते हो? आज क्या साम्यवाद की पीपड़ी बजाकर पूंजीवाद के खिलाफ बिगुल नहीं फूंकना? बोले सुनो जी, इतने सवाल एक साथ मत दागो नहीं तो तुम्हारे फेफड़े फट जाएंगे। हमारे शायराना होने पर तुम्हें क्यों चूने लग रहे हैं। अब बारी मेरे मुंह बनाने की थी, किसी तरह खुद को संभाल लिया और बोला कि कुछ माज़रा तो बताओ।

बोले कि हमने तमाम सुख भोगे, खूब घूमे फिरे मौज की शाद रहे। दिल्ली के तमाम रंग देखे। बाजार, मेले, ठेले, मूड्स ऑफ नाइट से लेकर मूड्स ऑफ डॉन (DAWN) तक। भारंगम देखा, थियेटर देखा, कॉफी हाउसों में बहस की, दोपहर को सेंट्रल पार्क में धूप सेंकी, शाम को रायसीना हिल्स की हवा खाई, इंडिया गेट, विज्ञान भवन पर चप्पल घिसे, फाक़े किए और गंड़ऊ ग़दर वाले सेमिनारों में पेट भरने की ख़ातिर चिल्लो च्याओं भी सुनी। स्साला एक रंग देखना बाकी था सो वो भी देख लिया। ज़नाब मैं ताड़ गया आप किस रंग की बात कर रहे हैं। चेहरा कंदमूल सा लटका है और ज़ुबान से गालियों समेत शायरी झड़ रही है, माने इश्क़ में हैं ज़नाब। हूं, हां मैं इश्क़ में हूं। चित्तरकार ने जवाब दिया।

मैं बोला ग़ज़ब कर दिया गुरू। संगदिल दिल्ली में हसीना से दिल्लगी कर बैठे, बड़ा जोख़िम लिया। बोले पत्तरकार चूतियापा मत बिखेरो। हम क्या तुम्हें GAY लगते हैं कि मर्दाना से दिल्लगी करके किसी सुलभ शौचालय या मेट्रो स्टेशन की आड़ ले रहे होते। हमने इश्क़ किया है। तमाम बेहतरीन एहसासों के साथ। संवेदनशील मामला है। हल्के में ट्रीट मत करो, नहीं तो बांस खोंस देंगे। एक तो पहले ही बेरुखी के मारे हैं अब तुमसे तो इतनी बेरुखी की उम्मीद नहीं थी। इतना कहकर रो पड़े। आंसू झड़े तो झड़ते ही चले गए।

जिसने त्रिकाल को ठोकर पर रखकर कसाले की ज़िंदगी जी हो उसे रोते देखकर लगा कि आख़िर ये भी इंसान है। या फिर इश्क़ और दिल दोनों ही कमीने होते हैं। जय हो बॉलीवुड। तुम सही कहते हो। समाज साला गाली समझे तो समझे और ग़ालिब शायरी का पलीता देखकर रोए तो रोए, लेकिन हमें तो तुम्हारी बात जंच गई। उधर चित्तरकार ने लीक होती नाक का माल मत्ता रुमाल से साफ करके बिस्तर पर पटक दिया। सुबकियां कम होती देख मैंने राष्ट्रीय चरित्र के मुताबिक मुफ्त की सलाह दागी। तो ज़नाब इज़हार कर दीजिए, क्यों हसरतें आंसुओं में ढालकर निकाल रहे हो।

बोले, कर दिया और लात भी खा ली। मेरी हंसी छूट गई। क्या कह रहे हो। तुम्हें किसी ने लात मार दी और तुम सहन कर गए। बोले रोग-ए-इश्क़, दिल का रोग़न निचोड़ लेता है। हमने किसी की खातिर अरमानों की बस्ती सजाई और वो इस बस्ती के छान छप्पर में माचिस खींच कर चली गई। किसी की खातिर आन ताक पर रखी और लात मारकर चली गई। कभी तुम्हें इश्क़ होगा तो जानोगे दर्द। मैं बोला चित्तरकार तुम्हारी ग़लती से मैंने सीख लिया कि क्या करना है और क्या नहीं। अब चित्तरकार को सहारे की ज़रूरत थी और एक ऐसा समीक्षक और आलोचक मुझसे इस प्रेम राग की समीक्षा करवाने की सोच रहा था जो हर बात का खरा निंदक, आलोचक और समीक्षक है। उसे इश्क़ और इसकी नाकामयाबी का सिरा नहीं सूझ रहा था। उसे लग रहा था कि सारे सपने चकनाचूर हो गए। सांस खींचकर सीना फुलाया और पिचकाया, फिर बोले कि जानता हूं तुम्हें मसाला दे दिया, ब्लॉग पर सियार की तरह हुआं हुआं करोगे। मैं बस मुस्कुरा भर दिया। केस हिस्ट्री सुनाकर मेरे दिमाग पर बड़े ही सीरियस मोड में सवाल चिपका दिया। बताओ, क्या है ये, और मैं क्या करूं?

मैं खुश हो गया पहली बार चित्तरकार ने पोडियम मुझे दिया था वरना मेरी बोलती बंद ही रखता था कंब्ख्त। हालांकि मुझे इश्क़-मुश्क़ का कोई खा़स तज़ुर्बा नहीं है और न ही मैंने इस विषय का सांगोपांग अध्ययन किया है लेकिन बोलने का मौका मैं नहीं छोड़ना चाहता था। चित्तरकार के हालात ट्रेज़डी किंग जैसे लग रहे थे। लग रहा था कि दिलीप कुमार ऐ भाई-ऐ भाई कहकर मदद मांग रहा है।

मैं बोला चित्तरकार तुम्हारी बातें तो लुभावनी हैं, लेकिन मेरे जैसों के लिए। लड़कियां बुद्धिजीवियों से दूरी बनाकर रखती हैं। उन्हें इंटेलेक्चुएलिटी नहीं राग लफंगा गाने वाले पसंद हैं। तुम साले हमेशा बौद्धिक पेचिश करके बदबू फैलाते हो। कोई क्यों आएगी तुम्हारे साथ, और तुम ही कहते हो चाणक्य का नाम लेकर कि सौंदर्य और मूर्खता प्रायः साथ चलते हैं। फिर कैसे भूल गए। यार सुनो, मैं बोला चुप रहो बे, मुझे बोलने दो। तुम्हारा क्या भविष्य है? साले सड़कों पर चप्पल खटकाते फिरते हो। क्या भरोसा आने वाला कल आज से बदतर हो। कोई क्यों दांव खेले तुम्हारे साथ। मोटा पर्स नहीं है, क्रेडिट कार्ड्स नहीं है, फटफटिया नहीं है। प्लास्टिक मनी के ज़माने में जेबों में चिल्लर छनछनाते फिरते हो। रही बात आन की तो आन की कोई कीमत नहीं, शान के दाम हैं। हुस्न शान पर मरता है। और कई शान वाले उसके दरवाज़े पर नाक रगड़ते हैं। जब मुफ्त में सोना मिले तो कोई रांगे पर क्यों अटके !

कभी डूड या हंक बने हो उसके सामने। इस बार बिफर पड़े चित्तरकार बोले साले हम क्या मोटरसाइकिल लगते हैं। मैं बोला हंक का एक और मतलब होता है मसलमैन। बोले हम क्यों जिम जाएं, लोहे से लड़ाई लड़ें। कीमती पसीना हमारा बहे और आमदनी हरामी जिम वाले की हो। मैं बोला जायज़ है। मत जाओ। फिर इश्क़-मुश्क मत फरमाओ। दिल्ली में दिमाग से इश्क़ करती हैं बालाएं, दिल से नहीं। तुम्हारे जैसे एस्थेटिक, देहाती और फटीचर प्यार को जूतियाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़तीं। इन्होंने अरमानों के जंग में लिपटे प्यार को हल्का फुल्का बनाकर उसमें एडजस्ट होने और उसका मज़ा लेने के लिए इस पर फ्रेंडशिप का पॉलिश चढ़ा दिया है। देखा कैसा चमक रहा है। बस और मेट्रो चकलाघर बन चले हैं। हर कोने में चुम्मा-चाटी हो रही है। तुम साले शादी का वज़न लाद रहे हो किसी पर। क्यों कोई सहन करेगी। अरमानों और अहसासों से हेविली लोडेड प्यार दिल्ली में फेल है भाई जी। अहसासों को दफ़न करो और उसे दिल दिमाग से दफा। पुस्तक मेला गया था तुम्हारे लिए सात सात माशूकाएं खरीदी हैं। लो थामों इन्हें उंगलियों के बीच और गड़ा दो इनके हुस्न पर निगाहें।

बोले पढ़ने का मन नहीं है यार। मैं भी ज़रा शायराना हो गया एक शेर झाड़ा कि, ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे आपको तीनों बलाओं से, तबीबों से वक़ीलों से हसीनों की निगाहों से। कहकर उठा तो बोले ठहरो मैं भी चलता हूं। बाहर पान की दुकान से एक पान गाल में दबाकर दीवार पर धार मारने चल दिए। मुझे लगा कि इन जैसों की वज़ह से ही आज भी रागदरबारी प्रासंगिक और कालजयी रचना है। असली आधुनिक और खांटी भारतीय का मिश्रण हैं, कहीं भी पान की दुकान और पेशाब करने की जगह ढूंढ ही लेते हैं। फिर तसल्ली से सोचा तो पता लगा कि वक़्त का हकीम बड़ा कारसाज़ है हर ज़ख़्म पर मरहम लगा देता है। ये भी उबर जाएगा।

Sunday, January 24, 2010

‘एलीट रद्दी’ की दुर्दशा

एक दौर था जब हम सुबह-सुबह अपने चेहरे के सामने अखबार यूं खोलते थे जैसे कोई हसीना आईना देखती हो। अखबार के पन्ने खड़खड़ाते हुए हमें अपने जागरुक होने का गुमान होता था। सारी दुनिया का जानकारीनुमा टॉनिक हम अल-सुबह गटककर बहसों के लिए पान की दुकानों के अखाड़ों में उतर जाते थे। ग्लोब की राजनीति की छिछालेदर, सब्ज़ी मंडी और लोकल बाज़ार पर हाय-तौबा मचाने के लिए हम अब भी इन अखाड़ों के स्थायी और अस्थायी बहसवीरों के बीच उतरते हैं, लेकिन ज़ुबान अब कैंची सी नहीं चलती। महंगाई पर बहस करते-करते कब हम पर महंगाई हावी हो गई पता ही नहीं चला। हमें पान और सिगरेट के सालाना स्थायी रेट से महंगाई का पता ही नहीं चला। महंगाई का अहसास तब हुआ जब अख़बार वाला हमारे हाथ में बिल थमा गया। हमारी जेब काटकर ले गया। हमने भी तिलमिलाकर फैसला लिया कि आज से अख़बार बंद।

आजकल पुराने अख़बारों में मसरूफ रहा करते हैं। रद्दी से पुराने ज्ञान को चमका रहे हैं और रद्दी के भाग्य पर अफसोस जता रहे हैं। उदारवाद के दौर में भी रद्दी का उद्धार नहीं हुआ। 1952 से रद्दी के दामों की बढ़ोतरी इतनी कमजोर है कि गणित भी फीसद निकालने में फेल हैं। यह अन्याय है। रद्दी भी उसी खुले बाज़ार में बेची जाती है जिसमें मसाले, दाल, चावल, आटा और सब्ज़ियां। इन सबके दाम चांद तक पहुंच गए लेकिन रद्दी के दामों का ग्राफ नहीं चढ़ा। आम गरीब आदमी की रोटी का जुगाड़ कही जाने वाली दाल सेंचुरी ठोकने को बेताब है, लेकिन मुई रद्दी अभी 6 रुपये का आंकड़ा तक पार नहीं कर पाई। रद्दी तुम तो ‘एलीट’ हो। तुम बंगलों के डायनिंग टेबल पर सजने वाले उस अख़बार का उत्पाद हो जो ‘अंबानियों’ से लेकर ‘मनमोहनों’ के हाथों से गुज़रती है। गरीब की थाली की दाल की तरह तुम्हारा सम्मान भी इस बाज़ार में होना ही चाहिए।

सरकार को रद्दी उद्धार के बारे में उसी तरह गंभीर विचार करना चाहिए जिस तरह महंगाई पर किया जा रहा है। वित्त मंत्रालय में आम बजट का कोहराम मचा है। तो हे हरि मुरारे, प्रभो हमारे बजट में ऐसा कोई जुगाड़ सेट करो जिससे एलीट रद्दी की हालत दाल से बेहतर हो सके। जिस तरह खाने पीने और धुआं निकालने की चीज़ों के दाम सालाना बढ़ जाते हैं, उसी तरह रद्दी भी दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करे। दाल खाने वाले को अमीर होने का अहसास कराती महंगाई एलीट रद्दी की भी बलईयां ले। रद्दी भी सेंचुरी मार रही दाल के आंकड़े तोड़कर पांच सौ का आंकड़ा छू सके। हे बजट विधाता अख़बार पढ़ने वालों पर भले ही टैक्स लगाओ लेकिन रद्दी के दाम दाल से ऊंचे उठाओ। यही हमारे अख़बार पढ़ने का एकमात्र सहारा बची है।

Tuesday, January 19, 2010

कर्मण्ये वा ‘धिक्कार’ अस्ते !

हे कर्म करने वालों तुम पर धिक्कार है। जीवन को कर्म में गारद कर देते हो। तुम खुद को कर्मशील समझते हो। दुनिया तुमको कर्मकीट समझती है। तुम्हारा काम ही कर्म करना है। इसीलिए तुम दुनिया की निगाह में कीड़ा हो। गीता के उपदेशों को ज़माने ने जीवन में नहीं ढाला, लेकिन श्लोकों को अपने जीवन के हिसाब से ढाल लिया है। कर्म का मर्म समझो।

समाज कर्म की बेड़ियां तोड़ रहा है। लोगों पर रहस्य खुल रहा है कि कर्म का उपक्रम ही सही कर्म है। अब कर्म में यकीन करने वालों को ही मरना खटना पड़ता है। उपक्रम का सार जिसने गह लिया उसने ‘कर्मकांडों’ से मुक्ति पा ली। नए दौर में नई चाल ही मुफ़ीद होती है। जिसने दौर का मर्म समझ लिया समझो कठिन कर्म सागर का कठोर सफर पार कर लिया।

लंपट युग है। वाणी से कर्म का दिखावा ही युगवाणी है। तुम वो गधे हो जो कर्म से लद-लद कर मर जाओगे। ज़माना जानता है कि तुम काम करते हो। तुम कर्मशील हो इसलिए तुम्हें और काम थमा दिया जाता है। चलते घोड़े की पीठ पर चाबुक मारना ही उपक्रम है। उपक्रम वाले नित्यकर्म को भी कर्म से बचने के सूत्र की तरह इस्तेमाल करते हैं। कर्म से बचने के लिए इन्हें दिन में चार बार नित्यकर्म का बहाना करते देखा जा सकता है। कर्म जनता है और उपक्रम सरकार। जनता काम करे, सरकार का खज़ाना भरे।

कभी दफ्तर में अपनी पड़ोस वाली कुर्सी पर गौर करना। तुम्हारे कर्म की मलाई उपक्रम वाले खाते हैं। कर्म स्वास्थ्य को घुन की तरह खा जाता है। धन की उम्मीद तो कर्म से कभी न रखो। कर्म का दिखावा ही धनी बनाता है। कर्म तो रोटी का भी जुगाड़ नहीं कर पाता है। बाज़ार को देखो। लोकतंत्र के पहरेदार को देखो। शांतिवीर बराक ओबामा को देखो। क्रूज मिसाइल और ड्रोन से शांति फैलाकर शांति नोबेल झटक लाए। सब दिखावे से परम गति को प्राप्त हो रहे हैं। हे निर्बुद्ध इस सार को समझो। गधों की तरह खुर घिस-घिसकर जीवन को व्यर्थ न करो।

हे लंपट युग के साधारण प्राणी ! कर्म का दिखावा ही सफलता का सार है। खुले बाज़ार की उपक्रमव्यवस्था में अपने दिखावे को बेचना सीखो। दिखावा ही धनेश्वर, भोगेश्वर में लीन हो जाने एकमात्र मार्ग है। दिखावा से ही ये तुच्छ संसार तुम्हारे चरणों में दंडवत पेलेगा। तो हे लंपट युग के कर्मशील गधों नश्वर नाम को अमर करना है तो दिखावे के मार्ग पर चलो। तभी भौतिक जगत की सद्गति को प्राप्त हो सकोगे। इति श्री उपक्रमायः कथा।

Monday, January 11, 2010

मैं चटक गया हूं, बस ठसक ना लगे

उंगलियां ग्लेशियर में पड़ी हैं। लगता है रज़ाई में किसी ने बर्फ की सिलें रख दी हैं। रात करवटों और ख्यालों में कट जाती है। कभी सर्दी का शुक्रिया अदा करने का मन करता है। कभी बैरन सिहरन को ठंडे होठों से गाली देने का मन करता है। गीली रात बंद रोशनदान में रास्ता तलाशकर सर्द हवा बिस्तर में धकेल देती है। सर्दी का मुकाबला करने के लिए दिमाग, ताज़ा और पुरानी यादों के जाले से ढके दरीचे के बाहर झांकने लगता है। जब नींद नहीं आती तो दिन भर की हरारत याद आती है। लगता है दफ्तर का सारा बोझ आज मेरे ही कंधों पर था। खटपट, राजनीति, सब बेकार हैं। दिमाग परेशान हो जाता है और धीरे धीरे ख्याल सपने बनकर दिल तक खिसक आते हैं। मन सात्विक हो जाता है। दिल चुपके से बच्चे सा मासूम बन जाता है।

फिर कोई ऐसा याद आता है जो कभी ज़हन से दूर नहीं होता। पनपते अहसासों को उसके पास भेज देने का मन करता है। मन करता है कि अपनी हर बात उस तक पहुंचा दी जाए। कह दूं कि हर बात तुम्हारे बिना अधूरी है। तुम्हारी बिना वाह के मेरी तारीफ, तुम्हारी बिना आह के मेरा दर्द और तुम्हारी बिना चाह के मेरा प्यार अधूरा है। मोबाइल हाथ में आता है और सर्दी से टक्कर लेती हुई उंगलियां उसके नाम डिजिटल खत टाइप करने लगती हैं। फिर बेदिमाग दिल खुद से सवाल करता है, कब का ‘एसएमएस अफसाना’ खत्म हो गया, इतनी रात गए ये सिलसिला दोबारा छेड़ना ठीक है? फिर खुद ही उड़कर सवाल लपककर जवाब देता है ‘नहीं’, उंगलियों को फिर अचानक ग्लेश्यिर में पड़े होने का अहसास होने लगता है, और फिर वापस लौट जाती हैं ठंडी रज़ाई में गर्मी तलाशने के लिए। उसकी याद में आंखें खारी हो जाती हैं और कुछ बूंदे पलकों से बाहर टपकने की लड़ाई लड़ती हैं।

बदन रज़ाई के गुनगुने हिस्से में सिमटा पड़ा है और दिल करवट लेता है। आराम तकिए के नीचे से नॉस्टेलजिया बाहर आने लगता है। दिमाग में स्टोर पड़ी बातें फिर आंखों के सामने तैरने लगती हैं। सर्दी मां के पास ले जाती है। याद आता है कि सर्दी ने तब कभी इतना नहीं सताया जब मां के पास सोता था। वो मेरी हथेलियों को अपनी बगलों में दबाकर गर्म कर देती थी। उसकी छाती से निकलती गर्मी मेरी सांसों में घुल जाती थी। फिर वो जकड़न याद आती है, जो पिताजी से मिलती थी। बार-बार रज़ाई करीने से ओढ़ाते थे। दोनों के बीच सोते हुए मेरी नन्हीं हथेली फर्क कर लेती थी। पिताजी की मूछों से बेहतर मुझे मां का आंचल लगता और करवट लेकर फिर वहीं सिकुड़ जाता था। फिर सोचता हूं बहुत दिन हुए मां से चिपटकर नहीं सोया इस बार घर जाऊंगा तो ज़रूर सोऊंगा। हर बार सोचता हूं कि पिताजी से एक बार गले मिलकर सारी तक़लीफें कह दूं, लेकिन हाथ उनके पैरों की तरफ गिरने लगते हैं। कभी चाहकर भी गले से नहीं लग सका। शायद इस बार...।

दिल अब भी परेशान करता है। कसक नहीं भूलता। मैं भी इंसान हूं, मशीन नहीं। अहसास मेरे पास भी हैं, फिर मैं छुपाता क्यों हूं। क्यों ख़ुद को दुनिया की निगाहों में मजबूत दिखाने की कोशिश करता हूं, जबकि हक़ीक़त ये है कि मैं टूट चुका हूं। कुछ सपने बुनते हुए, कुछ अपने चुनते हुए। कुछ ठोकरों से तो किसी के ठुकरा दिए जाने से। दिल ये मान क्यों नहीं लेता कि मैं चटक गया हूं उस कगार तक जहां एक ठसक लगे और मैं खनखना कर बिखर पड़ूं। रोना चाहता हूं लेकिन समझदारी या मर्द होने का अहसास तपिश बनकर आंसुओं को सुखा देता है, लेकिन सच है कि मैं बहुत दिन से फूट-फूटकर रोना चाहता हूं। खुशी तो चाहकर भी हाथ नहीं आई, अब लगता है तन्हाई में रोना भी मेरी कुव्वत से बाहर ही है। मैं रोना चाहता हूं, तरोताज़ा होना चाहता हूं। अलार्म बज गया है। रज़ाई ठंडी है। उफ्फ ये सर्दी क्या हड्डियां गलाकर दम लेगी। बंद रोशनदान से रोशनी छिटककर छत पर चमकती लकीरें उकेर रही है। अब ऑफिस शुरू। ज़रा ठहरो ए सुबह, फिर मुखौटा पहन लूं, उन्हें अहसास ना हो कि हालात ने मुझे कितना तोड़ दिया है।

Sunday, January 10, 2010

विकास का पैराडाइम ग्लोबल वॉर्मिंग

शाम की गीली सर्दी में चौक पर दम फूंक हो रही थी कि चित्तरकार हाथ में अंडों की थैली लटकाए खरामा खरामा चप्पल घिसते चले आए। देखते ही पान सने लाल दांत दिखाए और दोस्ती का वज़न मेरे कंधों पर डाल दिया। गले मिल लेने के बाद बोले कहां हो पत्तरकार नज़र नहीं आते। मैंने बस मुस्कुरा भर दिया। बोले क्या बात सर्दी में गर्मी का अहसास, शाम होते ही जमा लिया या फिर मनमोहन सिंह की तरह मुस्कान की चादर ओढ़ना सीख गए। भई सवाल पूछा है तो जवाब तो दो। मैंने कहा चित्तरकार आजकल दफ्तर से फुरसत नहीं मिलती। मुंह बिचकाकर शिगूफा मारा, दफ्तर में कौन शकरकंद उबाल रहे हो।


खैनी को रिटायरमेंट देते हुए चित्तकार बोले कि मनमोहन सिंह से याद आया कि हाल ही में तिरुवनंतपुरम में फिर कोपेनहेगन पर कुछ कह रहे थे हमारे पिरधानमंत्री। पता नहीं क्यों कोपेनहेगन की पूंछ पकड़कर झूल रही है सारी दुनिया ? तुम तो तमाम चिल्ल पों मचाते हो बताओ जरा कुछ।

गेंद मेरे पाले में थी, बोलने की बीमारी, झट से माइक लपक लिया और लगा सुनाने...198 देश, 15 हजार नेता, सुलगती धरती, कार्बन एमिशन का झगड़ा, अमीर और गरीब मुल्कों के मतभेद, बात पूरी नहीं हुई थी कि पोडियम पर फिर चित्तरकार चढ़ गए। बोले, भाईसाब, नतीजा क्या निकला? मैं बोला कुछ नहीं, तो फिर क्यों हाय तौबा मचाए हो।

चर्चाएं हो रही हैं और नतीजों में चर्चाएं निकल रही हैं। धरती ठंडी करने निकले थे सारे नेता और खुद हवाईजहाज और लीमोज़ीन से हवा गर्म करते हुए कोपेनहेगन चर्चा करने पहुंचे थे। इसी बीच चित्तरकार ने पान का ऑर्डर दे मारा और फिर वापस मुद्दे पर लौट आए।

भाईसाब नेता चर्चा से धरती ठंडी कर रहे हैं। धरती ठंडी करनी है तो चर्चा तो करनी पड़ेगी। चर्चा नेताओं का मौलिक अधिकार है। धरती ठंडी करने के लिए मिजाज के माकूल और ठंडे मौसम में ही बेहतरीन चर्चा हो सकती है। इसलिए विदेश में चर्चा सम्मेलन सभागार का चुनाव भी मौलिक अधिकार है।

चर्चा सभी संकटों का हल है। चर्चा के नतीजों में नेताओं के बीच कितने भी मतभेद हों लेकिन एक मुद्दे पर सारे मतभेद खत्म हो जाते हैं, बाकी चर्चा अगले सम्मेलन में की जाएगी। चर्चा वो महाकाव्य है जिसमें नेता भांय-भांय कर लौट आते हैं, और चर्चा से निकलने वाला अगली चर्चा का रास्ता ही चर्चा का नतीजा होता है। चर्चा से ही सभी कर्तव्यों की पूर्ति होती है। चर्चा से ही धरती ठंडी हो सकती है।

मैं बोला चित्तरकार मामला गंभीर है ऐसी बातें ना करो, लेकिन उन्होंने ग्लोबल लीडर्स को रास्ते में पड़ी कुतिया की तरह लतियाना जारी रखा। मनमोहन सिंह वहां तो पैसे की आड़ लेकर जिम्मेदारियों से मुंह फेरते रहे और यहां शेख हसीना को मिलयनों डॉलर बांट रहे हैं। ये तो वही बात हुई कि घर में ना दाने, और सरकार चले लुटाने। मैं बोला चित्तरकार कहावत तो यूं है...तो बोले चुप करो बे। तुम पत्तरकार हो और दूसरों की कहवतों पर जीते हो। कुछ तो किरयेटिव कर लिया करो।

इतना कहकर चित्तरकार ने मुंह में पान की बहाली कर दी। होठों के कोरों की पीक अंदर खींचते हुए बोले। ये नेताओं के चोचले हैं। नेता और अफसर अमले की विदेश यात्रा और मिजाज़ दुरुस्त रखने के लिए ऐसे सम्मेलन विदेश में रखे जाते हैं। यूं तो नेता जात और कल्याण शब्द का केवल बस और सवारी वाल संबंध है। सत्ता की मंज़िल पर पहुंचकर इस शब्द को ये ऐसे ही छोड़ देते हैं जैसे सवारी बस को। लेकिन अब कल्याण का ठेका खुद प्रकृति ने ले लिया है तो दुनिया के पेट में मरोड़ हो रही है।

गर्मी से ही मानव कल्याण, समता मूलक समाज, रंगभेद और जीवन शैली की ऊंच नीच खत्म होने वाली है। इसीलिए धरती गर्म हो रही है। नेताओं ने कल्याण के लिए बस आंकड़े जुटाने वाली कुछ संस्थाएं बनाई हैं। यूएनडीपी, डब्ल्यूएचओ, वर्ल्ड इकनोमिक फोरम जैसी संस्थाएं अमीरी गरीबी के आंकड़े जुटकार गरीब देशों की बेइज्ज़ती करती रहती हैं। मैं बोला ऐसा नहीं है चित्तरकार ज़रा सुनो। अरे तुम क्या सुनाओगे।

इतने में सामने से बुल्ला गुजरा और चित्तरकार ने हुंकार के साथ उसे बैठने का बुलावा दिया। बुल्ला लपककर बेंच पर ऐसे बैठ गया जैसे उसे राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता मिल गई हो। चूना चाटकर पान की पोटेंसी बढ़ाते हुए चित्तरकार फिर मुद्दे पर लौट आए। नेताओं को लगता है कि बेइज्ज़ती से ही विकास हो सकता है, लेकिन इनके विकास के ‘अपमान पैराडाइम’ का तोड़ अब कुदरत ने ढूंढ निकाला है।

बैरी सर्दी न जाने कितनों की मौत का फरमान लाती है। बूढ़े रज़ाई में टें बोल जाते हैं और गरीब फुटपाथों पर अकड़ जाते हैं। जाड़े की विदाई से अब ज़िंदगियां बचेंगी। गरीब देशों की जन्म मृत्यु दर और जीवन प्रत्याशा बढ़ी हुई दर्ज़ की जाएगी। गर्म कपड़ों में बर्बाद हो रहे पैसे की बचत होगी। फिर गरीब नागरिक भी बारहों मास लाइफ स्टाइल से जियेंगे। गर्मी से गोरे काले का भेद मिटेगा। दुनिया रंग बिरंगी से समतामूलक एक रंगी हो जाएगी

... तो नेताओं से अपील है कि सभी तर्कवीर और बहस बहादुर चर्चा पर चर्चा करते रहें बाकी विकास प्रकृति कर देगी, और तुम सुनो तुम्हारे लिए ये सारा पुराण अलापा है जाओ अपने चैनल में जाकर ऐसा ही पैकेज चलाओ या फिर मुझे लाइव बहस में उतारो। मैंने सोचा आपसे पहले तो पीकदान लाइव उतारना पड़ेगा। उसके बाद बोले आओ सूरज अस्त हो गया। रिजाई जेब में पड़ी है, किसी ठेले पर पकौड़े छनवाएं। मैं बोला तीन दिन पहले ही पी थी, आज नहीं, लेकिन चित्तरकार मेरी कोहनी में हाथ फंसाकर मुझे इस तरह घसीटने लगे जैसे कुत्ता कुतिया को घसीट ले जाता है। चर्चा समाप्त और बैठकी शुरू.. और चित्तरकार ने ढक्कन खोल दिया।

Monday, January 4, 2010

आत्मघाती लो फ्लोर

सुबह-सुबह सूखे नल से जूझकर रात के ठंडे पानी से नहाने का नाच नाचते हुए बस अड्डे पहुंचा हूं। ठंड पर जलवायु परिवर्तन का खासा असर है लेकिन जल निगम की मेहरबानी से मुझे कम सर्दी में ज़्यादा सर्दी का अहसास हो रहा है। कपड़ों के नीचे बदन के रोएं कथक कर रहे हैं। मेरे जैसे तमाम लोग नोएडा के नीचे ज़मीन ऊपर आसमान वाले असीम बस शेल्टर के नीचे खड़े दिल्ली की शान का इंतज़ार कर रहे हैं। सब सड़क के किनारे पर खड़े हैं और बगुले जैसी गर्दन शरीर के दायरे से बाहर निकालकर लगभग सड़क के बीच तक पहुंचा दी है। इंतज़ार का ये तरीका बस के इंतज़ार में ईज़ाद हुआ है।

ये लोग बस का उसी तरह इंतज़ार कर रहे हैं जैसे हर कोई अपनी माशूका के इंतज़ार में परेशान हो। एकाएक सबकी माशूका हरियाली बिखेरती, चमचमाती, दिल्ली की शान लो फ्लोर आकर थम जाती है। उसके चौड़े दरवाज़े की तरफ उसके आशिकों की भीड़ लपकती है। इंतज़ार में आधी हो चुकी इस भीड़ को जनसुविधा की खातिर बनाया गया इसका तमाम चौड़ा दरवाज़ा भी कम पड़ रहा है। सब बस पर ऐसे टूट पड़े हैं जैसे अंदर भंडारे का प्रसाद बंट रहा हो। लपक-लपककर बैठ रहे लोग इस बात का सबूत दे रहे हैं कि वे सुबह-सुबह योग के आसनों से चुस्ती बटोरकर निकले हैं। लपककर सीट पर टपकने का काम खत्म हो जाने के बाद भी बस खाली है। कुछ लोगों को ये देखकर अपनी जल्दबाजी और कुलांचों पर शर्म भरी हंसी हंसते देखा जाता है। मैं पीछे की तरफ बैठने जाता हूं लेकिन एक ख्याल से सिहर जाता हूं। इंजिन पीछे है और आग के शोले या धुएं के बगूले पीछे से ही उठेंगे। इसलिए कदम ठहर जाते हैं और मैं आगे की तरफ ही एक सीट से चिपक जाता हूं। मन में डर है कि बस लाख का महल है कभी भी धू-धू कर जल उठेगी। इसलिए दरवाज़े के निकटवर्ती सीट पर टिक गया हूं। इसके बाद आपातकालीन दरवाज़े की खोज शुरू कर दी है। पड़ोस वाली खिड़की का शीशा बजाकर देख लिया है। कांच है ज़रूरत पड़ने पर टूट जाएगा। अपनी टांगों की ताकत और शीशे की मजबूती का तुलनात्मक अध्ययन कर लिया है। उम्मीद है कि मरता क्या न करता वाले हालात में शीशा को चकनाचूर कर दूंगा। लो फ्लोर मुझे फिदायीन लग रही है।


अगले स्टैंड से हिंदुस्तान का छैला, आधा उजला आधा मैला की तर्ज़ पर एक छैला बांका मेरे पास वाले पोल को अपनी कमर के बीच फंसाकर खड़ा हो जाता है। उसकी कमर का वज़न पाइप और मेरे कंधे पर बराबर पड़ रहा है। मैं गुज़ारिश करता हूं कि वो सीधा खड़ा हो जाए। लेकिन वो उसी तरह डटा खड़ा है जैसे पचास साल से फायरिंग के बीच ‘सीमा’ डटी खड़ी है। उसपर मेरी गुज़ारिश का उतना भी असर नहीं पड़ता जितना अफ्रीका में फेयर एंड लवली क्रीम के विज्ञापन का। बस बेआवाज़ सरपट चल रही है। अचानक ड्राइवर ब्रेक पर खड़ा हो जाता है। दिल में धुकर पुकर होने लगती है। पता लगता है कि ड्राइवर ने एक ज़िदगी से ऊब चुके मोटरसाइकिल सवार की आत्महत्या का प्रयास विफल कर दिया है। ड्राइवर अलग अलग तरह के सायरन बजाकर अपनी प्रयोगधर्मिता से सवारियों के कान फोड़ रहा है। कंडक्टर और ड्राइवर में बस की स्विच प्रणाली पर ज़िरह हो रही है।

आगे चलकर रबड़ के जलने की चिड़ांध नाक में बिना इजाज़त घुस आती है। सबके चेहरे पीले हो गए हैं। सब दाएं बाएं देख रहे हैं लेकिन किसी दिशा से धुंआ उठता नहीं दिखता है। ये राज़ भी खुलता है। सड़क के किनारे पर कोई फुटपाथिया पर्यावरण और देह को गर्म करने के लिए प्लास्टिक या टायर फूंक रहा है। अब बस एक ‘आग संभावित क्षेत्र’ से गुज़र रही है। मैं दुआ कर रहा हूं कि ये जगह किसी तरह पार हो जाए। वहां पहले भी दिल्ली की शान दो बार आग की चपेट में आ चुकी है। मैं आग लगने की संभावना से बचाव के उपाय तलाश रहा हूं। एक मात्र सिलेंडर नज़र आता है। मन कहता है कि कुछ नहीं होने वाला। यहां फायर ब्रिगेड स्टेशन ही लगाने की जरूरत है।

सफर में लो फ्लोर का मज़ा लेने से ज्यादा दिल आग के खतरे से दो चार हो रहा है। ब्लड प्रेशर नॉर्मल से हाई हो चला है। इससे भली तो वो ब्लू लाइन ही थी जो नोएडा से डायनासोर की तरह विलुप्त कर दी गई। कंडक्टर भले ही सवारी को जूतियाए या गरियाए लेकिन जान तो सलामत थी। वो चलती फिरती ऐसी बंकरबंद मिसाइल थी जो सवार को नहीं बल्कि सामने वाले को नष्ट करती थी। उसका जनता में खौफ था, इसका सवार के मन में खौफ है। ये फिदायीन पता नहीं कब फट पड़े और अपने साथ हमें भी ले बैठे। इसी सोच के साथ किसी तरह सफर खत्म होता है। कंडक्टर उतरते हुए मेरी तरफ देखकर मुस्करा देता है और मैं जान की सलामती और मंज़िल पर पहुंचने की खुशी से झूम उठता हूं।