Friday, March 12, 2010

ओल्ड फैशन मोटापे का अपराधबोध !

होली पर पुराने कपड़ों की ज़रूरत पड़ी। यूं तो दुनिया हमें और हमारे पहनावे दोनों, को ही पुरातनपंथी समझती है, लेकिन कुछ कपड़े अभी भी हमारे लिए नए हैं। नए और पुराने दोनों तरह के कपड़े एक ही हैंगर पर टंगे हैं। भेद बस इतना है कि पुराने कपड़ों पर धूल की कुछ परतें जमा हैं। व्यक्तित्व में खोट ढूंढने वाले इसे मेरा आलस्य मान सकते हैं लेकिन धूल सने कपड़े इस बात का प्रमाण हैं कि पर्यावरण वाकई खराब होता जा रहा है, हवा में धूलकण टंगे हैं और पर्यावरण मंत्रालय महज़ बीटी बैंगन पर बवाल मचाए है।


जयराम रमेश की भावनाएं अगर इस बात से आहत हुई हों तो मुझे माफ़ करें। क्योंकि मंत्री महोदय बीटी बैंगन को ऐसे प्यार करते हैं जैसे देशभर के खेत उनकी जागीर हैं और देश भर के किसान सामंतियों की तरह बीटी बैंगन की फसल के आड़े आ रहे हैं। शायद इसीलिए उन्होंने बीटी बैंगन की फसल उगाने के लिए देश भर में आंदोलन छेड़ रखा है। रमेश जी आप नाराज़ न हों आपके एक काम की तारीफ भी कर रहा हूं। मैं जयराम रमेश से अपील करुंगा कि हवा से धूल खींचने वाली जो मशीन (रेसपिरा ला चित्ता) उन्होंने इटली से मंगाकर दिल्ली के राजीव चौक पर लगाई है उसे मेरे कमरे वाले इलाके में लगवा दें। वैसे भी राजीव चौक पर धूल उड़ती ही कहां है। माफ कीजिए भूल हो गई, सरकारी योजनाएं ग़ैरज़रूरी जगहों पर ही सफलता से चलती हैं।


खैर हैंगर पर टंगे-टंगे धूलसोख बन चुकी एक शर्ट मैंने खींचकर उतारी। बदन पर डाली तो ज़माने के तानों की तस्दीक हो गई। मुझे पिछले कुछ समय से मुझे ताने दिए जा रहे हैं कि मैं पत्रकार होने के बावजूद मोटाता जा रहा हूं। देश के मध्यप्रदेश से भले ही बुंदेलखंड काटकर उसे छोटा करने पर चर्चा हो रही हो, लेकिन मेरा मध्यप्रदेश बढ़ता जा रहा है। जब घर से आया था तो ज़ीरो फिगर था, लेकिन लोगों का मानना है कि राजधानी का सड़ांध मारता खारा पानी मेरे बदन को सूट कर गया है।


लोगों का मानना है कि मैं बहुत अच्छी रकम कमा रहा हूं या फिर ‘योजनाजीवी’ हो गया हूं। सरकार की तमाम योजनाओं में ‘इंप्लीमेंटेशन अथॉरिटीज़’ से मिलीभगत करके मोटा माल सूत रहा हूं। जिसका गुणात्मक असर मेरे बदन पर पड़ रहा है। उन्हें मैं कैसे बताऊं कि ऑफिस में मुझे सब्जी के साथ मिलने वाले मुफ़्त धनिए की तरह बेदर्दी से मरोड़कर इस्तेमाल किया जाता है, और मैं किसी भी तरह के प्राधिकरण या अधिकारी से नहीं मिलता। बल्कि मुझे मेरे ऑफिस के तमाम तथाकथित पत्रकारों की कथित ख़बरों में, ख़बरें कहां हैं ये ढूंढना पड़ता है। यदि 100 शब्दों पर शोध करने के बाद ख़बर मिल जाए तो उसे करीने से सजाना पड़ता है। इस प्रोफाइल को पेशेवर लोग कॉपी एडिटर कहते हैं। इसलिए मुझे लोग “सुराख़बाज़” (छिद्रान्वेषी) भी कहने लगे हैं।


लोगों के जलने-कुढ़ने से मुझे इतनी हैरानी नहीं जितनी कि मोटा होने से हो रही है। मेरा खाने का मेन्यू और जेब की औकात कुछ इस तरह है। सुबह ऑफिस के बाहर छप्पर के नीचे एक फैन यानी चायसोख्ते के साथ एक चाय चपासी जाती है। खर्च बराबर 5 रुपये। उसके बाद दोपहर को एक मित्र मेरी दीनता जानकर डब्ल्यूएचओ की तरह मेरे स्वास्थ्य का ख्याल रखता है और मुझे पोषाहार खिलाता है। दीनबंधु की कृपा, माने खर्च बराबर ज़ीरो। दड़बे में पहुंचने तक किराया भाड़ा और चाय चपास में 15 रुपये चित हो जाते हैं। इसके बाद दलिद्दर जेब कुछ खाने की इजाज़त नहीं देती। इस पर भी मैं हैरान हूं कि आखिर क्यों मोटाता जा रहा हूं।


मुझे लगने लगा है कि जनवादी सोच होने के बावजूद मैं जनद्रोही हूं। देश की आबादी का बड़ा हिस्सा भूखों है, पेट पसलियों से चिपका है और मैं मोटा होता जा रहा हूं। यकीन मानिए मैं उनके दर्द में मन से शरीक हूं, लेकिन तन कंबख्त साथ छोड़ रहा है। मुझे तन कलंकित करा रहा है। लोग मुझे देख, अभिजात या संपन्न बताते हैं। ये उसी तरह का आरोप है जिस तरह आईपीसीसी के चेयरमैन राजेंद्र पचौरी पर ‘अरमानी’ का सूट पहनने का आरोप लगा था। आजकल तो अभिजात लोग भी मोटापे से परहेज़ कर रहे हैं। इसके पीछे गरीबों से हमदर्दी नहीं बल्कि खूब कसरत हरारत करके वाइन और बटर चिकन पचाकर बवासीर से बचने की इच्छा काम करती है। मैं अभिजात न होने के बावजूद इन आरोपों में घुट रहा हूं।


लोग मुझे तिरछी नज़र से देखते हैं। उन्हें लगता है कि मैं यूपीए सरकार के प्रचार विभाग का कोई कर्मचारी हूं। जो ये दर्शा रहा है कि महंगाई नहीं है। यदि आपको संशय है तो मेरी सेहत पर निगाह डालिए। इस हष्ट-पुष्ट गोल होते बदन को देखिए। इसके बाद वित्त मंत्री के लिए आपके मन में भरा मैल निकल जाएगा।


उधर सरकारी आदमी मुझे इस नज़रिये से देखते हैं जैसे मैं कोई जमाखोर हूं जिसने अनाज और खाद्य सामग्रियों की जमाखोरी करके सेहत बनाई है। नित बढ़ती महंगाई उनके शक को और भी गहरा कर रही है। शायद वो ये भी योजना बना रहे हों कि वो मेरे किसी गोदाम पर छापा मारें। क्योंकि असली गोदाम के असली मालिक से घूस लेकर वो मेरे ऊपर जमाखोरी का आरोप मढ़ कागज़ों में मुझे मालिक दिखा सकते हैं।


मैं शरीर के बढ़ते आकार से बड़ा परेशान हूं। इसने मुझे सबकी निगाह में दोषी बना दिया है। समाज मुझे अभिजात पूंजीवादी समझता है। मैं सरकार का भी दोषी हूं जिसने समाज को ज़ीरो फिगर देने के लिए महंगाई बढ़ाई और मैं उसे महंगाई को धता-बताकर कद्दू की तरह मोटा होता जा रहा हूं। माफ करें प्रणब दादा, मैंने आपकी ‘वित्तीय कम स्वास्थ्य ज्यादा’ वाली नीति पर पानी फेर दिया। आजकल बढ़ता अपराधबोध मुझे घेरकर रक्खे है।

5 comments:

Unknown said...

मधुकर बाबू इतने तो नहीं फूल रहे हो, लेकिन इस लेख में आपने शब्दों से वाक्यों की जो रचना की है उसे पढ़कर हर किसी को मजा आएगा और निश्चय ही उसका भी वजन औंस दो औंस दो बढ़ ही जाएगा...

Brajdeep Singh said...

bus ji is lekh par hum abhi koi tippani nahi kar sakte hain hain
kyoki hum aankho dekhi par visvash karte hai,jab dekhnege tabhi keh sakenge?

Unknown said...

लाजवाब परफॉर्मेंस। वैसे राघव जी सही कह रहे हैं। मध्यप्रदेश का क्षेत्रफल इतना ज्यादा नहीं बढ़ा है। जिससे कि आप लेख की प्रेरणा पा सकें। खैर सुंदर लिखा है।

शरद कोकास said...

सब ठीक है बस अपराधबोध न पाले ।

राहुल यादव said...

stadium me aao... nipat lenge har helth vardhak niti se...subah 6 AM..vahi dhool faankte hain aajkal..