Thursday, March 4, 2010

राष्ट्रीय समस्याओं का प्रचारवादी समाधान, वाह आइडिया सर जी

8 फरवरी से अभिव्यक्ति के संदूक पर ताला लटका रखा था। क्योंकि कुछ लोगों के लिए विचार भी छिनैती और उठाईगीरी की चीज़ हैं। कहा जाता है कि विद्या बांटने से बढ़ती है, लेकिन किसी ने ये नहीं बताया कि बांटने से आर्थिक हानि भी होती है। यह तो अब अनुभव से पता लगा। किसी ने मेरा एक लेख टांप दिया और एक पत्रिका के पन्नों पर स्वनाम से अवतरित करा दिया। मेरी अक्ल चाट दी और 1200 रुपये की मलाई काट दी। मूढ़मति ऐसा कि आइडिया इंप्रोवाइज़ भी नहीं कर सका। अब क्या करूं लेख का तो कोई कॉपी राइट नहीं। बस उसी का राइट था जिसने राइट टाइम छपवा दिया।
वैसे भी मैंने अब अख़बारों में लेख भेजने बंद कर दिए। पहले पहल तमाम भेजे, लेकिन जुगाड़वाद रचनाशीलता पर हावी रहा और मेरा नाम एकाध बार ही संपादकीय पृष्ठ पर छप सका। शायद संपादकों को मेरी लेखनी मैन्युस्क्रिप्ट लगी हो, इसलिए पेपर के बजाय ‘पेपरदान’ में फेंक दी। (अखबारी दफ़्तरों में पेपरदान पान पीकने के काम भी आता है, और बड़ी सफाई से पान की लाली को किसी ‘बेकार लेख’ से ढक दिया जाता है) तो भाई क्यों पेपर बरबाद करके पर्यावरण का नुकसान किया जाए। अब यही डिजिटल डायरी विचार टांकने के काम आती है। अंदर का ज़िम्मेदार नागरिक अखबारों में लेख भेजने से रोक लेता है, लेकिन ये भी क्या कि चोरी के डर से कोई फसल ही न बोए। तो अब फिर से एक विचार फूटा है, बराय मेहरबानी ‘आइडिया सर जी’

यूं तो मुझ फटीचर को टीवी मयस्सर नहीं लेकिन एक रिश्तेदार के घर में लक्ज़रीयस और रिवोल्यूश्नरी एलसीडी टीवी का आनंद ले रहा था। 102 सेमी के स्क्रीन पर झूमते, गाते, इतराते, इठलाते नर नारी आ-जा रहे थे। मुझे समझ नहीं आया कि 70 एमएम के पर्दे को बड़ा पर्दा कहने के पीछे क्या तर्क है। मुझे तो 102 सेमी के स्क्रीन के सामने 70 एमएम को बड़ा पर्दा कहना कुतर्क ही लगता है। ये कौनसे गणितज्ञ की माप-जोख है पता नहीं। 70 एमएम बड़ा और 102 सेमी छोटा। 102 सेमी के छोटे पर्दे पर बीच-बीच में एडवरटाइज़मेंट उपभोक्तावाद को प्रमोट कर रहे थे। विज्ञापन जगत के लोग बड़े रचनाशील हैं। 40 सेकेंड के विज्ञापन में राष्ट्रीय समस्याओं पर ‘घंटों’ के सिम्पोज़ियम से ज्यादा विचार झोंक देते हैं।

आजकल दूसंचार कंपनी ‘आइडिया’ भारत में पेपर बचाने का अभियान छेड़े हुए है। पहले यही जातिवाद को खत्म करके संवैधानिक नियमों को सतही स्तर पर उतारने के प्रयासों में जुटी थी। यदि आप भी खुद में कहीं जिम्मेदार नागरिक खोज सकते हैं तो इस अभियान में कूद पड़िए और आइडिया का सिम खरदीकर पेपर बचाइये। ये अलग बात है कि जब आप सिम खरीदने पहुंचेंगे तो लाखों शब्दों की टर्म्स एंड कंडीशन्स से पुते सैकड़ों पेपर आपसे आपके होने का पेपरनुमा सबूत मांग रहे होंगे। आपको इसके सिम की कीमत बेवकूफाना वैचारिक मूरत एवं राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह समेत रिज़र्व बैंक के गवर्नर की लिखित गारंटी देकर चुकानी पड़ेगी। जो रिज़र्व बैंक और टकसाल की पेपर पर छापी गई गलती है और जिसे INR इंडियन नेशनल रुपीज़ कहा जाता है, लेकिन इसी कंपनी के सिम से आप स्वंय को जागरुक और जिम्मेदार भारतीय साबित कर सकते हैं।

यही कंपनी कुछ दिन पहले भोथरी याददाश्त के भारतीय नागरिक से उम्मीद कर रही थी कि वो अपने सभी मिलने वालों को नामों के बजाय इसकी कंपनी विशेष के मोबाइल नंबरों से पुकारे। इससे संविधान के जाति उन्मूलन की उद्देश्यपूर्ति हो सकेगी। टीवी के सिंहासन पर बैठकर भारत का सिंहावलोकन (Retrospection) कर रहे आइडिया सर जी को कोई बताता क्यों नहीं कि यहां के युवा इतनी तेज़ ज़िंदगी में कुलांचें मार रहे हैं, कि उन्हें दो दिन पुराने ब्वॉय फ्रेंड और गर्ल फ्रेंड के नाम याद रखना मुश्किल हो रहा है फिर कैसे इतने मोबाइल नंबर याद रखेंगे।
यहां नई पीढ़ी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का नाम बताने में असमर्थ है। ऐसे में उनसे यह उम्मीद रखना कि वे सैकडो़ मोबाइल नंबर याद रखें घोर आशावादिता है। वैसे भी जो नागरिक संविधान की प्रस्तावना को ही भूल चुका हो उसे उसके उद्देश्यों से क्या मतलब। यहां के नागरिक राष्ट्र के बजाय लोगों का समूह बनकर ही जीने में खुश हैं। यही राजनीतिज्ञ भी चाहते हैं वरना उनकी जातिवादी दुकानदारी बंद हो जाएगी और सत्ता के समीकरण गड़बड़ा जाएंगे, लेकिन आप इस पचड़े में मत पड़िए। बस इस कंपनी का मोबाइल सिम कार्ड खरीदकर अपने जागरुक नागरिक होने का सबूत दीजिए।

यूं तो भारतीय नागरिक होने के नाते मेरी भी यादादाश्त भोथरी हो सकती है, लेकिन राष्ट्रोत्थान में लगी एक कंपनी का शंखपुष्पी सिरप अगर असरदार है, तो मुझे याद है कि आइडिया सर जी ने 26/11 की पहली बरसी पर भी एक ऐसा ही प्रचार चलाया था। इस प्रचार के मुताबिक रात के कुछ घंटों में भारतीयों के बात करने से होने वाली आमदनी को कंपनी ने मुंबई हमले के पीड़ितों में बतौर अनुदान सहायता राशि बांटने का दावा किया था। इनकी तो मौज है। सरकार की तरह ये भी नागरिक को गुमराह कर रहे हैं। इन पर नज़र रखने के लिए कोई महालेखा परीक्षक (CAG) नहीं है क्या? लेकिन हो भी तो क्या हो सकता है आज कैग की भी औकात मुंशी से ज्यादा कहां बची है। कौन सुनता है उसकी ना जनता तक कैग रपट पहुंचती है और ना ही सरकार उसकी नसीहतों पर ध्यान देती है।
आइडिया सर जी गजब के हैं। ये तो पूंजीवाद, उदारवाद और जनवाद का जबरदस्त घालमेल हैं। सरकार में भी फिट और जनता में भी फिट। संविधान के नज़रिए से जनता बराबर सरकार और सरकार बराबर जनता में आइडिया सर जी फिट बैठते हैं। धन्य हो महाराज। इसी को बिजनेसमैन कहते हैं त्रासदी, खुशी, संविधान, राष्ट्र और देशभक्ति सबको कैश कर लिया। वैसे हाल ही में नोएडा में सील किए गए 108 अवैध मोबाइल टावरों में से कुछ आइडिया सर जी के भी थे। आप इस बात पर ध्यान मत दीजिए। क्योंकि कई बार चरित्रवान लोगों पर भी कानून तोड़ने के छिछले आरोप लगते रहते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी पर भी बाबरी कांड में शामिल होने के आरोप लगते रहते हैं, लेकिन नेता जनसेवा से कहां बाज़ आते हैं।

इसी तर्ज़ पर आइडिया सर जी तमाम राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान प्रचार के माध्यम से कर रहे हैं। अब आप बैठे-बैठे क्या सोच रहे हैं। क्या आपको अबतक ज़िम्मेदारीबोध नहीं हुआ। अपना सिमकार्ड तुरंत तोड़िए और आइडिया सर जी के कहे मुताबिक भारत के ज़िम्मेदार नगारिक बनिए।

6 comments:

शरद कोकास said...

अखबारों मे लेख भेजते रहिये सर.......

Unknown said...

हाहाहा तुमने अंधे को रेवड़ी बांटी...अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं कि किसे अंधे ने किसे दी होगी। दमदार शुरुआत के साथ बोझिल अंत का दर्शन राष्ट्रीय समस्य़ाओं का सही मूल्यांकन करता है। समस्याओं की खिचड़ी में तनिक घी पड़ा होता तो क्या कहने थे। अचार की कमी भी महसूस हुई।

DHEERAJ SRIVASTAVA said...

अच्छा लिखा है... विचारों को ठूंस-ठूंस कर भर दिया है... गागर में सागर जैसा.... एक दिन जरूर बहुत उंचे उड़ोगे.....

Tara Chandra Kandpal said...

निराशा हुई यह जान कर कि किसी घीसे हुए दिमाग ने पान कि पीक से गौरवान्वित लेख साफ़ करने कि बजाय वैसे का वैसा ही छाप दिया... यार लगता है कि नए विचारों कि कुछ कमी सी हो गयी है, लेखा जगत में!!!
तुम्हारे इस लेख के प्रति मेरे विचार, अनुपम जी से कुछ भिन्न नहीं हैं, लेख के अंत में समेटने में जल्दी कर दी...
अनुपम जी आचार कि अनुपस्थिति में छाछ से काम चलाना कैसा रहेगा?

राहुल यादव said...

bhaiya ji vakai bahut Lamba kheech diya hai.... vichaarvaan lekh hai per chipak kar padna padh raha hai.... man uchat bhi jaata hai.....

अविनाश वाचस्पति said...

आज दिनांक 22 अप्रैल 2010 के दैनिक जनसत्‍ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्‍तंभ में प्रचार के रास्‍ते शीर्षक से प्रकाशित हुआ है, बधाई।