Thursday, August 21, 2008

६४ के राजीव, मीडिया की मौज और थोथा दम भरते नेता

कल यानि २० अगस्त को अखबार के पन्ने पलटे, तो खबरों की जगह राजीव गांधी ने घेर रखी थी। वैसे उनका हक है। देश को कंप्यूटर के जरिये विकास का नुस्खा देने वाले नेता को इतना सम्मान तो मिलना ही चाहिए। देश की जनता में विश्वास जताकर राजनीति करने वाले करिश्माई व्यक्तित्व का जन्मदिन हर अखबार और खबरिया चैनल मना रहा था। बस सेलिब्रेशन का तरीका कारोबारी था। अखबार के फुल पेज से लेकर टीवी स्क्रीन पर राजीव छाए रहे। कहीं साथ में मंत्रालय टंगे थे तो कहीं बड़े और छुटभैये नेता अपनी राजनीति चमकाने की जुगत में मुस्कान बिखेर रहे थे। विकास की राजनीति करने वाले दूरअंदेशी नेता को याद करने की आड़ में कई नेताओं की अपने राजनीतिक बरतन मांजने की दूरअंदेशी झलक रही थी। समाचार जगत कांग्रेसमयी हो रहा था। हैरत की बात यह रही कि विज्ञापन की इस चूहा दौड़ में ज़्यादातर मीडिया संस्थान राजीव की राजनीतिक यात्रा पर चंद लाइनें भी लिखना भूल गए। विज्ञापनों में राजीव के भाषणों की महत्वपूर्ण पंक्तियां चस्पा कर दी गईं थीं। उन्हें पढ़कर दुख जरूर हुआ। वह शख्सियत, विकास जिसकी राजनीति का मूलमंत्र था, जो समतामूलक समाज का संवैधानिक दु:स्वप्न पूरा करने की कोशिश में जुटा था, जो देश को तरक्की की नई दिशा दे रहा था, आज हमारे साथ नहीं है। कहते हैं, बीती हुई बिसारी दे आगे की सुधि ले। बीती हुई तो बिसर क्या मिट ही गई, लेकिन आगे की सुध किसी ने नहीं ली। लोग मरते हैं विचार नहीं। यह अलग बात है कि विचारों पर अमल न हो। यही राजीव की सोच को साथ हो भी रहा है। यूं भी हमारी राजव्यवस्था संत मलूकदास की भक्त है। "अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए सबके दाता राम"। शासन व्यवस्था अजगर की तरह कुर्सी से चिपके रहकर बिना हिले-डुले सब हजम कर जाती है। प्रशासन तो पंछी की तरह है। हिलेगा- डुलेगा, बटोरेगा- सहेजेगा लेकिन अपने लिए।

राजनीतिक हल्कों में विज्ञापन देना रवायत हो गई है। एक ढेले से दो चिड़िया मारने का जुगाड़ है। एक तरफ जनता के बीच वोट बटोरने वाला खीसें निपोरता चेहरा पहुंच जाता है, तो आलाकमान की निगाह में भी चढ़ जाते हैं। श्रद्धांजलि के पर्दे में यही राजनीतिक ध्येय रहता है। राजीव गांधी के कोटेशंस के साथ विज्ञापन छपवाकर राजनीति को सही माने नहीं मिलते। खाली रग मुश्कें कसना, पुट्ठे पीटना छोड़कर उन विचारों को अमल में लाने की जरूरत है जो जन्मदिन और बरसी के मौकों पर विज्ञापन की सजावट मात्र बनकर रह गए हैं। नेताओं से अपील है कि जिसके साथ अपने फोटो टंगवाए हैं, जिसके विचारों से अपनी राजनीतिक हंडिया पर कलेवा चढ़ा रहे हो, उन्हें अमलीजामा पहनाओ। यही तुम्हारे तथाकथित आदर्श को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

Sunday, August 17, 2008

लाल किलाई भाषण में अछूते रहे अहम् मुद्दे.....

लाल किले की प्राचीर पर खड़े मनमोहन सिंह ने विकास का खाका खींच दिया। समाज के हर तबके के हालात सुधारने के लिए मनमोहन ने उन सारी योजनाओं को एक-एक कर गिना दिया जो कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार ने चार साल में चलाई हैं। नरेगा से लेकर किसानों की कर्ज माफी योजना तक प्रधानमंत्री का भाषण ऐसा लगा जैसे कांग्रेस चुनाव की तैयारियों में जुट गई है। हकीकत में यह सारी योजनाएं अजगर की तरह आराम परस्त नौकरशाही की फाइलों में ही लागू हुई हैं, लेकिन मनमोहन की नजर में विकास का पहिया इन्हीं से घूमता नजर आया। प्रधानमंत्री ने भाषण में चार साल में लागू हुईं सारी सरकारी योजनाएं गिनाईं हैं, लेकिन देश के महत्वपूर्ण मुद्दों को उनके भाषण में उतना वक्त नहीं मिला जितना मिलना चाहिए था। जमीन की सुलगती जन्नत यानि कश्मीर को मनोहन सिहं के भाषण में महज चंद मिनट ही मिले। कश्मीर के खराब हालात पर बोलते हुए सरकार के मुखिया उतने ही मजबूर नजर आए जितना कि उनका ऑल पार्टी डेलीगेशन। पहले की गईं बातें चाहे सच्चाई के पास हों या दूर लेकिन यहां हकीकत और उनकी बातें मेल खा रही थीं। असल में अब तक सरकार के पास कश्मीर मुद्दे का कोई हल नहीं है और भाषण में भी सरकार की मजबूरी साफ नजर आ रही थी। अपीलों के सिवाय और इस मामले पर किया ही क्या जा सकता था और यही किया हमारे प्रधानमंत्री ने। हां इस बहाने उन्होंने धर्म के नाम पर राजनीति करने वाली राजनीतिक पार्टियों को नरमी के साथ लताड़ जरूर भेजी। हाल ही में हुई आतंकवादी घटनाओं को भी इस भाषण में हाशिये पर ही रखा गया। इस एक मुद्दे पर मनमोहन ने इतना जरूर कबूल कर लिया कि देश के सुरक्षा तंत्र में खामियां हैं और उन्हें दूर करने की कोशिश सरकार जरूर करेगी। देश के छ: राज्यों के शासन और प्रशासन पर भारी नक्सलवाद को मनमोहन ने बिल्कुल ही भुला दिया। शायद गृहमंत्रालय की रपट आ गई है कि देश नक्सली हिंसा से मुक्त हो चुका है। सारे राज्य खुशहाल हैं और अब नक्सल विरोधी मुहिम चलाने की कोई जरूरत नहीं है।
हालांकि प्रधानमंत्री का व्याख्यान उम्मीद भरा था। ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री ने विकास और शांति से बेरुखी दिखाई हो। ये सही है कि सरकारी योजनाएं जिस रास्ते पर बढ़ रही हैं वो विकास की तरफ ही जाता है, लेकिन इस लंबे रास्ते से बेहतर तो यही है कि पहले मुंह फाड़े सामने खड़ी समस्याओं को सुलझाने की कोशिश कर ली जाए।

Tuesday, August 12, 2008

प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता की जरूरत

यूपीए सरकार के चार साल पूरे हो गए। डगर-मगर करते सरकार यहां तक पहुंच गई है। स्थायित्व पर संकट बनी लेफ्ट नाम की बाधा की मनमोहन ने लेफ्ट हैंड से ही छुट्टी कर दी। इन चार सालों में बहुत कुछ हुआ, मनमोहन ने अपनी छवि बदली, मैडम के साये से बाहर निकलकर स्वतंत्र निर्णय लिए, खुद को कुशल राजनेता भी साबित कर दिया। गठजोड़ बने-बिगड़े, और भी कई रद्दोबदल। लेकिन एक महत्वाकांक्षी योजना पर सरकार सोच-सोच कर कदम बढ़ाती रही। न्यूनतम साझा कार्यक्रम के अनुसार यूपीए सरकार के एजेंडे में शामिल था, 6 से 14 साल तक के बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराना। इस बाबत संसद में विधेयक प्रस्तुत भी किया गया। सभी पार्टियों ने इस का खुले दिल से पुरजोर समर्थन भी किया। वैसे वोट की खेती करने वाली ‘नेतागिरी सभ्यता’ ऐसे मुद्दों पर एकजुट हो ही जाती है। लेकिन यहां कटाक्ष से बेहतर मुद्दे पर बना रहना ही है। मानव संसाधन मंत्रालय ने उच्च शिक्षा में तो आरक्षण निर्धारित करने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। नामचीन कानूनविदों को सुप्रीम कोर्ट में जिरह के लिए उतार दिया। मंडल आयोग से इंदिरा साहनी तक पर पुनर्विचार करवा दिया। खटाई में पड़े मुद्दे को खींच कर कानून बना दिया, लेकिन टेबिल पर रखे अहम मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया। इस पर तुर्रा यह कि आरक्षण भी उनके लिए जो शैक्षणिक स्तर पर पिछड़े हैं। लेकिन इन पिछड़ों को अगड़ा करने के लिए प्राथमिक शिक्षा में कोई पहल नहीं। ऐसे में तो इस आरक्षण का लाभ भी गैरजरूरतमंद ही उठाएंगे। अब सरकार को कौन समझाए, पत्तों पर दवा छिड़कने से जड़ों के रोग नहीं जाते। बिल को सिलबिल करने में राज्यों की भी अहम भूमिका है। कोई भी राज्य केंद्र की योजनाओं के खर्च में हिस्सेदारी करने के नाम पर हाथ खड़े कर देता है। इस अनदेखी की वजह से सरकार से आस लगाए लोग नाउम्मीद हो जाते हैं।
सवाल है कि, संसद में पेश हो चुका एक बिल जिस पर किसी सदस्य को कोई आपत्ति नहीं, कानून क्यों नहीं बन गया ? सरकार क्यों इस पर उदासीन रवैया अपनाती रही। इसकी वजह क्या ये रही कि इस कानून से सबसे बड़ा नुकसान शिक्षा के दुकानदारों को होने वाला है। विधेयक में प्रस्ताव है, निजी स्कूलों में भी गरीब बच्चों के लिए स्थायी आरक्षण रहेगा। हजारों का एक एडमिशन देने वालों का मुफ्त में शिक्षा मुहैया कराने में दिवाला निकल जाएगा। दूसरी ओर राजनीतिक दलों को मोटा चंदा देने वाले यही लोग हैं। स्वार्थ के लिए कर्तव्यों का पुलिंदा बनाकर रद्दी में डाल दिया जाता है। अजीब बिडंबना है कि गरीब तबकों के वोट से गद्दी पर बैठी सरकारें अभिजात्य वर्ग के हाथों की कठपुतलियां बन जाती हैं। ऊपर मैं पहले ही इशारा कर चुका हूं कि कई रद्दोबदल हुए। सर्वहारा की पीपड़ी बजोने वाले ही बुर्जुवा बन बैठे। लेकिन एक और उलटफेर होता तो शायद यह विधेयक कानून बन गया होता। काश कांग्रेस बुर्जुवा पूंजीवादी न रहती। खैर अभी मौका है कि इस भूल को सुधार लिया जाए। संसद के वर्षाकालीन सत्र में विधेयक पारित करने की कोशिश की जानी चाहिए लेकिन इसके लिए मनमोहन की उसी प्रतिबद्धता की जरूरत होगी जो उन्होंने परमाणु करार में दिखाई है।

Sunday, August 10, 2008

दलों का दलदल

चुनाव आयोग को नित नई पार्टियों के आवेदन मिल रहे हैं। नई पार्टियों को पंजीकृत कराने के लिए आवेदनकर्ता भी बड़े बेकरार हैं। लोकतांत्रिक प्रणाली में यह सहज है, लेकिन लोकतंत्र की सेहत के लिए खराब भी। भारत में लोकतंत्र की मजबूती के साथ ही राजनीति में भ्रष्टाचार भी बहुत मजबूत हुआ है। राजनीति राष्ट्रहित के बजाय व्यावसायिक हित में तब्दील हो गई है। कुछ सालों का निवेश और पीढ़ी दर पीढ़ी का लाभ। हमारे राजनीतिज्ञों की कुनबापरस्ती इसकी एक बानगी है। बुढ़ा गए नेताओं ने अपने वारिसों की खेप तैयार करनी शुरू कर दी है। इस फेहरिस्त में उत्तर से दक्षिण तक के नेता शामिल हैं। अपने देश में ८६७ पंजीकृत राजनीतिक दल हैं। फिर भी राजनीति के नए कोणों के हिसाब से लगातार क्षेत्रीय दल सिर उठाते जा रहे हैं। राष्ट्रीय दल क्षेत्रीय पार्टियों के समर्थन पर सरकार खड़ी कर रहे हैं। छोटे दलों के पंजीकरण और क्षेत्रीय मुद्दों की राजनीति के साथ ही गठबंधन युग का सूत्रपात हो गया था। आज गठबंधन किसी भी सरकार के लिए संजीवनी बन गया है। कश्मीर में भड़की हिंसा भी इसी तरह की राजनीति का नतीजा है। अमरनाथ विवाद में तो सरकार देर से जागी। इस बीच भगवा ब्रिगेड ने धधकते स्वर्ग की धरती पर अपने वोट पकाने शुरू कर दिये। क्षेत्रीय राजनीति से उपजा यह 'बड़ा' नुकसान है। नए दलों के पंजीकरण के साथ ही क्षेत्रीय राजनीति की लिस्ट और लंबी हो जाएगी। यह नई पार्टियां केवल इसलिए भी बनाई जाती हैं कि काले धन को सफेद किया जा सके। पार्टियों को मिलने वाला चंदा टैक्स फ्री होता है, साथ ही इसका कोई प्रमाण उपलब्ध कराने की भी जरूरत नहीं। कई बार तो ये बड़े राजनीतिज्ञों की जेबी पार्टियां भी होती हैं। इस बात पर चुनाव आयोग ने भी चिंता जाहिर की है। आयोग की चिंता जायज़ भी है। पंजीकरण करने का अधिकार तो आयोग को पास है लेकिन रद्द करने का नहीं। एक रजिस्टर में जगह बनाने के बाद ये पार्टियां अमर हो जाती हैं। ऐसे हालात में नियम बनाना जरूरी है कि चार साल तक चुनाव न लड़ने वाली पार्टी की मान्यता रद्द मान ली जाए। चुनाव आयोग को भी अधिकार प्राप्त हो कि वह पार्टियों की मान्यता आसानी से रद्द कर सके।