Sunday, August 10, 2008

दलों का दलदल

चुनाव आयोग को नित नई पार्टियों के आवेदन मिल रहे हैं। नई पार्टियों को पंजीकृत कराने के लिए आवेदनकर्ता भी बड़े बेकरार हैं। लोकतांत्रिक प्रणाली में यह सहज है, लेकिन लोकतंत्र की सेहत के लिए खराब भी। भारत में लोकतंत्र की मजबूती के साथ ही राजनीति में भ्रष्टाचार भी बहुत मजबूत हुआ है। राजनीति राष्ट्रहित के बजाय व्यावसायिक हित में तब्दील हो गई है। कुछ सालों का निवेश और पीढ़ी दर पीढ़ी का लाभ। हमारे राजनीतिज्ञों की कुनबापरस्ती इसकी एक बानगी है। बुढ़ा गए नेताओं ने अपने वारिसों की खेप तैयार करनी शुरू कर दी है। इस फेहरिस्त में उत्तर से दक्षिण तक के नेता शामिल हैं। अपने देश में ८६७ पंजीकृत राजनीतिक दल हैं। फिर भी राजनीति के नए कोणों के हिसाब से लगातार क्षेत्रीय दल सिर उठाते जा रहे हैं। राष्ट्रीय दल क्षेत्रीय पार्टियों के समर्थन पर सरकार खड़ी कर रहे हैं। छोटे दलों के पंजीकरण और क्षेत्रीय मुद्दों की राजनीति के साथ ही गठबंधन युग का सूत्रपात हो गया था। आज गठबंधन किसी भी सरकार के लिए संजीवनी बन गया है। कश्मीर में भड़की हिंसा भी इसी तरह की राजनीति का नतीजा है। अमरनाथ विवाद में तो सरकार देर से जागी। इस बीच भगवा ब्रिगेड ने धधकते स्वर्ग की धरती पर अपने वोट पकाने शुरू कर दिये। क्षेत्रीय राजनीति से उपजा यह 'बड़ा' नुकसान है। नए दलों के पंजीकरण के साथ ही क्षेत्रीय राजनीति की लिस्ट और लंबी हो जाएगी। यह नई पार्टियां केवल इसलिए भी बनाई जाती हैं कि काले धन को सफेद किया जा सके। पार्टियों को मिलने वाला चंदा टैक्स फ्री होता है, साथ ही इसका कोई प्रमाण उपलब्ध कराने की भी जरूरत नहीं। कई बार तो ये बड़े राजनीतिज्ञों की जेबी पार्टियां भी होती हैं। इस बात पर चुनाव आयोग ने भी चिंता जाहिर की है। आयोग की चिंता जायज़ भी है। पंजीकरण करने का अधिकार तो आयोग को पास है लेकिन रद्द करने का नहीं। एक रजिस्टर में जगह बनाने के बाद ये पार्टियां अमर हो जाती हैं। ऐसे हालात में नियम बनाना जरूरी है कि चार साल तक चुनाव न लड़ने वाली पार्टी की मान्यता रद्द मान ली जाए। चुनाव आयोग को भी अधिकार प्राप्त हो कि वह पार्टियों की मान्यता आसानी से रद्द कर सके।

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