Tuesday, August 12, 2008

प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता की जरूरत

यूपीए सरकार के चार साल पूरे हो गए। डगर-मगर करते सरकार यहां तक पहुंच गई है। स्थायित्व पर संकट बनी लेफ्ट नाम की बाधा की मनमोहन ने लेफ्ट हैंड से ही छुट्टी कर दी। इन चार सालों में बहुत कुछ हुआ, मनमोहन ने अपनी छवि बदली, मैडम के साये से बाहर निकलकर स्वतंत्र निर्णय लिए, खुद को कुशल राजनेता भी साबित कर दिया। गठजोड़ बने-बिगड़े, और भी कई रद्दोबदल। लेकिन एक महत्वाकांक्षी योजना पर सरकार सोच-सोच कर कदम बढ़ाती रही। न्यूनतम साझा कार्यक्रम के अनुसार यूपीए सरकार के एजेंडे में शामिल था, 6 से 14 साल तक के बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराना। इस बाबत संसद में विधेयक प्रस्तुत भी किया गया। सभी पार्टियों ने इस का खुले दिल से पुरजोर समर्थन भी किया। वैसे वोट की खेती करने वाली ‘नेतागिरी सभ्यता’ ऐसे मुद्दों पर एकजुट हो ही जाती है। लेकिन यहां कटाक्ष से बेहतर मुद्दे पर बना रहना ही है। मानव संसाधन मंत्रालय ने उच्च शिक्षा में तो आरक्षण निर्धारित करने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। नामचीन कानूनविदों को सुप्रीम कोर्ट में जिरह के लिए उतार दिया। मंडल आयोग से इंदिरा साहनी तक पर पुनर्विचार करवा दिया। खटाई में पड़े मुद्दे को खींच कर कानून बना दिया, लेकिन टेबिल पर रखे अहम मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया। इस पर तुर्रा यह कि आरक्षण भी उनके लिए जो शैक्षणिक स्तर पर पिछड़े हैं। लेकिन इन पिछड़ों को अगड़ा करने के लिए प्राथमिक शिक्षा में कोई पहल नहीं। ऐसे में तो इस आरक्षण का लाभ भी गैरजरूरतमंद ही उठाएंगे। अब सरकार को कौन समझाए, पत्तों पर दवा छिड़कने से जड़ों के रोग नहीं जाते। बिल को सिलबिल करने में राज्यों की भी अहम भूमिका है। कोई भी राज्य केंद्र की योजनाओं के खर्च में हिस्सेदारी करने के नाम पर हाथ खड़े कर देता है। इस अनदेखी की वजह से सरकार से आस लगाए लोग नाउम्मीद हो जाते हैं।
सवाल है कि, संसद में पेश हो चुका एक बिल जिस पर किसी सदस्य को कोई आपत्ति नहीं, कानून क्यों नहीं बन गया ? सरकार क्यों इस पर उदासीन रवैया अपनाती रही। इसकी वजह क्या ये रही कि इस कानून से सबसे बड़ा नुकसान शिक्षा के दुकानदारों को होने वाला है। विधेयक में प्रस्ताव है, निजी स्कूलों में भी गरीब बच्चों के लिए स्थायी आरक्षण रहेगा। हजारों का एक एडमिशन देने वालों का मुफ्त में शिक्षा मुहैया कराने में दिवाला निकल जाएगा। दूसरी ओर राजनीतिक दलों को मोटा चंदा देने वाले यही लोग हैं। स्वार्थ के लिए कर्तव्यों का पुलिंदा बनाकर रद्दी में डाल दिया जाता है। अजीब बिडंबना है कि गरीब तबकों के वोट से गद्दी पर बैठी सरकारें अभिजात्य वर्ग के हाथों की कठपुतलियां बन जाती हैं। ऊपर मैं पहले ही इशारा कर चुका हूं कि कई रद्दोबदल हुए। सर्वहारा की पीपड़ी बजोने वाले ही बुर्जुवा बन बैठे। लेकिन एक और उलटफेर होता तो शायद यह विधेयक कानून बन गया होता। काश कांग्रेस बुर्जुवा पूंजीवादी न रहती। खैर अभी मौका है कि इस भूल को सुधार लिया जाए। संसद के वर्षाकालीन सत्र में विधेयक पारित करने की कोशिश की जानी चाहिए लेकिन इसके लिए मनमोहन की उसी प्रतिबद्धता की जरूरत होगी जो उन्होंने परमाणु करार में दिखाई है।

5 comments:

Asha Joglekar said...

bahut sahi mudda Uthaya hai aapne kyun nahi iski ek ekprati shiksha matralay aur pradhan mantri Karyalay en Bhej dete.

Udan Tashtari said...

सही कह रहे हैं.

Asha Joglekar said...

Madhukar ji aapki tippani ke liye abhar. surakshitta ke liye ham sab kadam utha sakte hain. is ke bare men meri ek kavita rangkarmi par aap padh sakte hain aapke wichar janne ki utsukata rahegi uski kuch panktiyan de rahi hoon ho sakta hai apetizer ka kam kare.

जब तक न छेद हो
जल रिसता नही है
जब तक न भेद हो
किला ढहता नही है

Anil Kumar said...

"पत्तों पर दवा छिड़कने से जड़ों के रोग नहीं जाते।" - बहुत महत्त्वपूर्ण बात कही है!

प्रदीप मानोरिया said...

अच्छा विवेचन किया है मधुकर जी
प्रधान मंत्री जी पूरी तरह से प्रतिबद्ध हैं
यह अलग बात है की देश के प्रति प्रतिबद्ध हैं या फ़िर सोनिया जी के प्रति
आप मेरी कविता/ग़ज़ल की लाईनों का उपयोग करते रहें सफलता की शुभ कामनाएं हैं