Tuesday, January 19, 2010

कर्मण्ये वा ‘धिक्कार’ अस्ते !

हे कर्म करने वालों तुम पर धिक्कार है। जीवन को कर्म में गारद कर देते हो। तुम खुद को कर्मशील समझते हो। दुनिया तुमको कर्मकीट समझती है। तुम्हारा काम ही कर्म करना है। इसीलिए तुम दुनिया की निगाह में कीड़ा हो। गीता के उपदेशों को ज़माने ने जीवन में नहीं ढाला, लेकिन श्लोकों को अपने जीवन के हिसाब से ढाल लिया है। कर्म का मर्म समझो।

समाज कर्म की बेड़ियां तोड़ रहा है। लोगों पर रहस्य खुल रहा है कि कर्म का उपक्रम ही सही कर्म है। अब कर्म में यकीन करने वालों को ही मरना खटना पड़ता है। उपक्रम का सार जिसने गह लिया उसने ‘कर्मकांडों’ से मुक्ति पा ली। नए दौर में नई चाल ही मुफ़ीद होती है। जिसने दौर का मर्म समझ लिया समझो कठिन कर्म सागर का कठोर सफर पार कर लिया।

लंपट युग है। वाणी से कर्म का दिखावा ही युगवाणी है। तुम वो गधे हो जो कर्म से लद-लद कर मर जाओगे। ज़माना जानता है कि तुम काम करते हो। तुम कर्मशील हो इसलिए तुम्हें और काम थमा दिया जाता है। चलते घोड़े की पीठ पर चाबुक मारना ही उपक्रम है। उपक्रम वाले नित्यकर्म को भी कर्म से बचने के सूत्र की तरह इस्तेमाल करते हैं। कर्म से बचने के लिए इन्हें दिन में चार बार नित्यकर्म का बहाना करते देखा जा सकता है। कर्म जनता है और उपक्रम सरकार। जनता काम करे, सरकार का खज़ाना भरे।

कभी दफ्तर में अपनी पड़ोस वाली कुर्सी पर गौर करना। तुम्हारे कर्म की मलाई उपक्रम वाले खाते हैं। कर्म स्वास्थ्य को घुन की तरह खा जाता है। धन की उम्मीद तो कर्म से कभी न रखो। कर्म का दिखावा ही धनी बनाता है। कर्म तो रोटी का भी जुगाड़ नहीं कर पाता है। बाज़ार को देखो। लोकतंत्र के पहरेदार को देखो। शांतिवीर बराक ओबामा को देखो। क्रूज मिसाइल और ड्रोन से शांति फैलाकर शांति नोबेल झटक लाए। सब दिखावे से परम गति को प्राप्त हो रहे हैं। हे निर्बुद्ध इस सार को समझो। गधों की तरह खुर घिस-घिसकर जीवन को व्यर्थ न करो।

हे लंपट युग के साधारण प्राणी ! कर्म का दिखावा ही सफलता का सार है। खुले बाज़ार की उपक्रमव्यवस्था में अपने दिखावे को बेचना सीखो। दिखावा ही धनेश्वर, भोगेश्वर में लीन हो जाने एकमात्र मार्ग है। दिखावा से ही ये तुच्छ संसार तुम्हारे चरणों में दंडवत पेलेगा। तो हे लंपट युग के कर्मशील गधों नश्वर नाम को अमर करना है तो दिखावे के मार्ग पर चलो। तभी भौतिक जगत की सद्गति को प्राप्त हो सकोगे। इति श्री उपक्रमायः कथा।

6 comments:

रवि रतलामी said...

जबर्दस्त हास्य और व्यंग्य का मारक संगम. तीक्ष्ण और कसा हुआ. वाह! क्या बात है.

Tara Chandra Kandpal said...

कर्मवीर कर्म करो, क्रिया का कलाप नहीं!
व्यक्तित्व विरुद्ध विकास करो, विफलता का सवाल नहीं!

अनुनाद सिंह said...

अत्यन्त गूढ़ रहस्य की खोज की है आपने। यह आधुनिक युग का सबसे सार्थक सूत्र है।

अजित गुप्ता का कोना said...

यहाँ ब्‍लागिंग वाले कहाँ कर्म करते हैं, सब निठल्‍ले बैठे आपकी हमारी पोस्‍टों को पढ़ते हैं और टिप्‍पणी जड़ देते हैं। हमने भी ऐसे ही जड़ दी है।

Unknown said...

ज्यादा कुछ नहीं कहूंगा, लेकिन आपकी लेख रचना बेजोड़ है

राहुल यादव said...

इसीलिए तो कुछ अक्लबानों ने कमअक्लों के लिए कहा है कर्म करो फल की इच्छा मत करो। सब उपर वाला देगा। जो असल मंे है ही नहीं। सो उसका इंतजार करो। घिसो और दूसरों के लिए खूब मेहनत करो। स्वर्ग मरने के बाद मिलेगा। नरक फिलहाल तुम्हारी नियति है। भोगो।