Monday, January 4, 2010

आत्मघाती लो फ्लोर

सुबह-सुबह सूखे नल से जूझकर रात के ठंडे पानी से नहाने का नाच नाचते हुए बस अड्डे पहुंचा हूं। ठंड पर जलवायु परिवर्तन का खासा असर है लेकिन जल निगम की मेहरबानी से मुझे कम सर्दी में ज़्यादा सर्दी का अहसास हो रहा है। कपड़ों के नीचे बदन के रोएं कथक कर रहे हैं। मेरे जैसे तमाम लोग नोएडा के नीचे ज़मीन ऊपर आसमान वाले असीम बस शेल्टर के नीचे खड़े दिल्ली की शान का इंतज़ार कर रहे हैं। सब सड़क के किनारे पर खड़े हैं और बगुले जैसी गर्दन शरीर के दायरे से बाहर निकालकर लगभग सड़क के बीच तक पहुंचा दी है। इंतज़ार का ये तरीका बस के इंतज़ार में ईज़ाद हुआ है।

ये लोग बस का उसी तरह इंतज़ार कर रहे हैं जैसे हर कोई अपनी माशूका के इंतज़ार में परेशान हो। एकाएक सबकी माशूका हरियाली बिखेरती, चमचमाती, दिल्ली की शान लो फ्लोर आकर थम जाती है। उसके चौड़े दरवाज़े की तरफ उसके आशिकों की भीड़ लपकती है। इंतज़ार में आधी हो चुकी इस भीड़ को जनसुविधा की खातिर बनाया गया इसका तमाम चौड़ा दरवाज़ा भी कम पड़ रहा है। सब बस पर ऐसे टूट पड़े हैं जैसे अंदर भंडारे का प्रसाद बंट रहा हो। लपक-लपककर बैठ रहे लोग इस बात का सबूत दे रहे हैं कि वे सुबह-सुबह योग के आसनों से चुस्ती बटोरकर निकले हैं। लपककर सीट पर टपकने का काम खत्म हो जाने के बाद भी बस खाली है। कुछ लोगों को ये देखकर अपनी जल्दबाजी और कुलांचों पर शर्म भरी हंसी हंसते देखा जाता है। मैं पीछे की तरफ बैठने जाता हूं लेकिन एक ख्याल से सिहर जाता हूं। इंजिन पीछे है और आग के शोले या धुएं के बगूले पीछे से ही उठेंगे। इसलिए कदम ठहर जाते हैं और मैं आगे की तरफ ही एक सीट से चिपक जाता हूं। मन में डर है कि बस लाख का महल है कभी भी धू-धू कर जल उठेगी। इसलिए दरवाज़े के निकटवर्ती सीट पर टिक गया हूं। इसके बाद आपातकालीन दरवाज़े की खोज शुरू कर दी है। पड़ोस वाली खिड़की का शीशा बजाकर देख लिया है। कांच है ज़रूरत पड़ने पर टूट जाएगा। अपनी टांगों की ताकत और शीशे की मजबूती का तुलनात्मक अध्ययन कर लिया है। उम्मीद है कि मरता क्या न करता वाले हालात में शीशा को चकनाचूर कर दूंगा। लो फ्लोर मुझे फिदायीन लग रही है।


अगले स्टैंड से हिंदुस्तान का छैला, आधा उजला आधा मैला की तर्ज़ पर एक छैला बांका मेरे पास वाले पोल को अपनी कमर के बीच फंसाकर खड़ा हो जाता है। उसकी कमर का वज़न पाइप और मेरे कंधे पर बराबर पड़ रहा है। मैं गुज़ारिश करता हूं कि वो सीधा खड़ा हो जाए। लेकिन वो उसी तरह डटा खड़ा है जैसे पचास साल से फायरिंग के बीच ‘सीमा’ डटी खड़ी है। उसपर मेरी गुज़ारिश का उतना भी असर नहीं पड़ता जितना अफ्रीका में फेयर एंड लवली क्रीम के विज्ञापन का। बस बेआवाज़ सरपट चल रही है। अचानक ड्राइवर ब्रेक पर खड़ा हो जाता है। दिल में धुकर पुकर होने लगती है। पता लगता है कि ड्राइवर ने एक ज़िदगी से ऊब चुके मोटरसाइकिल सवार की आत्महत्या का प्रयास विफल कर दिया है। ड्राइवर अलग अलग तरह के सायरन बजाकर अपनी प्रयोगधर्मिता से सवारियों के कान फोड़ रहा है। कंडक्टर और ड्राइवर में बस की स्विच प्रणाली पर ज़िरह हो रही है।

आगे चलकर रबड़ के जलने की चिड़ांध नाक में बिना इजाज़त घुस आती है। सबके चेहरे पीले हो गए हैं। सब दाएं बाएं देख रहे हैं लेकिन किसी दिशा से धुंआ उठता नहीं दिखता है। ये राज़ भी खुलता है। सड़क के किनारे पर कोई फुटपाथिया पर्यावरण और देह को गर्म करने के लिए प्लास्टिक या टायर फूंक रहा है। अब बस एक ‘आग संभावित क्षेत्र’ से गुज़र रही है। मैं दुआ कर रहा हूं कि ये जगह किसी तरह पार हो जाए। वहां पहले भी दिल्ली की शान दो बार आग की चपेट में आ चुकी है। मैं आग लगने की संभावना से बचाव के उपाय तलाश रहा हूं। एक मात्र सिलेंडर नज़र आता है। मन कहता है कि कुछ नहीं होने वाला। यहां फायर ब्रिगेड स्टेशन ही लगाने की जरूरत है।

सफर में लो फ्लोर का मज़ा लेने से ज्यादा दिल आग के खतरे से दो चार हो रहा है। ब्लड प्रेशर नॉर्मल से हाई हो चला है। इससे भली तो वो ब्लू लाइन ही थी जो नोएडा से डायनासोर की तरह विलुप्त कर दी गई। कंडक्टर भले ही सवारी को जूतियाए या गरियाए लेकिन जान तो सलामत थी। वो चलती फिरती ऐसी बंकरबंद मिसाइल थी जो सवार को नहीं बल्कि सामने वाले को नष्ट करती थी। उसका जनता में खौफ था, इसका सवार के मन में खौफ है। ये फिदायीन पता नहीं कब फट पड़े और अपने साथ हमें भी ले बैठे। इसी सोच के साथ किसी तरह सफर खत्म होता है। कंडक्टर उतरते हुए मेरी तरफ देखकर मुस्करा देता है और मैं जान की सलामती और मंज़िल पर पहुंचने की खुशी से झूम उठता हूं।

3 comments:

daanish said...

प्रसंग अच्छा बन पडा है
रोचक तो है ही,,,,सच्चा भी है
लफ़्ज़ों की बुनावट प्रभावित करती है
अभिवादन स्वीकारें .

राहुल यादव said...

जान बची तो लाखों पाए। लो फ्लोर राष्ट्रमंडल की तैयारी मंे चलाई गई हैं। इन्हीं बसों में सफर करेंगे गोरे अंग्रेज और विदेशिया मेहमान। अब तुम फिदायीन कहो या आत्महत्या का बंकर। आखिर बस ने आपको खुद का साहस परखने का सुनहरा मौका तो दिया। और भाई साहब मेट्रो चल पड़ी है। बसों में कहां धक्के खा रहे हो।

Unknown said...

mast hai mamaji jaan se badi to koi cheej nahi hai