Monday, December 14, 2009

कचरा क्रांति !

कलिकाल में एक राजा था। हर राजा की तरह उसे भी यही ग़ुमान था कि उसे भगवान ने शासन करने के लिए पैदा किया है। लुई सत्रहवां नाम का वो राजा फ्रांस नाम के राज्य का शासन चलाता था। उसके नाम से ही उसकी पीढ़ियों की शिक्षा और शब्दकोश ज्ञान के बारे पता लग जाता है। सत्रह पीढ़ियों में उसके यहां पैदावार बढ़ी थी, शिक्षा नहीं। सत्रह पीढ़ियों का नाम लुई ही रहा बस अंकगणित का खेल चालू रहा। अट्ठारहवीं शताब्दी के बुढ़ापे में जब सत्रह नंबर का लुई भी बुढा़ रहा था तो अचानक एक बवंडर उठा। जो जनता उसके सामने सिर झुकाए और सलाम बजाए रहती थी उसी ने 1793 में उसकी ऐसी गर्दन नापी कि उसे खुद इसका यकीन नहीं हुआ।

दिन बीते बरस बीते, काल कलि ही रहा लेकिन शासन करने की ज़ारशाही और राजशाही जैसी पद्धतियां बदलने लगीं। नेपाल और भूटान जैसे देशों ने जनता का उल्लू काटने के लिए जनतंत्र लागू कर दिया, लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में एक शहर में एक सेक्टर के एक छोटे से कोने में जारशाही, नाज़ीवादी शासन के अवशेष कुछ दिमागों के कोनों में सड़ते रह गए। यहां एक राजा और राजकुमारी ने एक 200 गज के प्लाट में अपना ‘ग्लोब’ बसा लिया। ये इनका अपना आभासी जगत था। यहां इनका शासन चलता, इनकी प्रभुसत्ता। इस कोने में लोकतंत्र, संविधान, अधिकार, प्रदर्शन, योग्यता और ‘अभिव्यक्ति’ सब चुटकुला समझे जाते हैं। ज्ञान आधारित रोजगार की अर्थव्यवस्था में भी यहां नाज़ीवादी नियम ज़िंदा हैं। उन्नति के लिए ‘मेरिटोक्रेटिक सिस्टम’ नहीं केवल एक ही तंत्र काम करता है, राजकुमारी का वरदहस्त। इसी से सब सिद्ध हो सकता है। थोड़ा बहुत ‘जेंडरोक्रेटिक सिस्टम’ भी काम करता है। योग्यताएं इस प्लाट में पानी भरती हैं। शासन व्यवस्था ने अहलकार, सूबेदार, हवलदार और भी कई तरह के दार तैनात कर रखे हैं। गुप्तचर अमला इजराइल की खुफिया एजेंसी ‘मोसाद’ से भी उम्दा, जिसमें कई तरह के परजीवी (INSECTS) खूनखेंचू किलनी की तरह जनता का रक्तपान कर अपनी आजीविका कमा रहे हैं।

शासन के दीवाने ख़ास की रपटों के मुताबिक सब दुरुस्त चल रहा है। जनता मालपुए झाड़ रही है और राजा, राजकुमारी के गुण गाते धन-धान्य से पूर्ण, शासन का धन्यवाद कर रही है। योग्यता की जितनी परख इनके सूबेदारों और अलंबरदारों को है उसके मुताबिक सबको पर्याप्त दिया जा रहा है। ‘दारों’ की काग़ज़ी और गैरकाग़ज़ी रपटों ने शासन की आंख पर सुख-शांति का चश्मा बांध दिया था, लेकिन एक लावा कहीं धधक रहा था। जिस चमकदार राज्य पर शासक चमकते थे उसे चमकाने वाले अंदर अंदर ही अंदर लावा की तरह धधक रहे थे। अधिकारों को तरस रहे थे।
कहते हैं इतिहास खुद को दोहराता है। लुई सत्रहवें की तरह इन्हें भी यही भ्रांति थी कि भगवान ने इन्हें शासन करने के लिए भेजा है। सलाम बजाने वाले अदब से झुके रहेंगे और क्रांति नहीं होगी, लेकिन हद दर्ज़े के शोषण ने धैर्य को डिगा दिया और इतिहास एक बार फिर दोहराया जाने लगा। अद्भुत क्रांति फूट पड़ी। लुई को सत्ता से उखाड़ फेंका गया था लेकिन यहां सत्ता पर बेइज्ज़ती का घातक वार किया गया। कहते हैं जूता मारक मिसाइल है। निशाने पर लगे तो भी बेइज्ज़ती, चूके तो भी मिशन कंप्लीट, लेकिन यहां जूते से भी घातक मिसाइल छोड़ी गई थी। कचरा मिसाइल। कचरा क्रांति ऐसी फूटी कि चकाचक चमकने वाले फ्लोर पर गाढ़ा कीचड़ सना कचरा पड़ा था, और असंतुष्टों ने एक कुत्ते का शव सप्रेम भेंट किया था। इनको डांटने, हड़काने वाले अलंबरदार अपने-अपने दरबार छोड़ भागे। सबके चेहरों पर डर और आशंकाएं तैर रही थीं। क्रांति ने शासन का कचरा कर दिया था। जनता की आवाज़ ख़ुदा का नक्कारा। जनता के आक्रोश के आगे सरकार को घुटने टेकने पड़ते हैं। बदनामी के हज़ार पैर होते हैं। फैल गई। इज्ज़त शासन की चारदीवारी में थी, रुसवाई दूर तक गई।

क्रांति अधिकारों के लिए होती है। इस क्रांति ने भी अधिकारों की लड़ाई जीत ली। शासन अब भी भ्रम में है। रुसवाई उन तक नहीं पहुंची। काले शीशों में कैद वो एश्वर्य के चटखारे मारते धन पशु की तरह मस्त हैं। रपटें दुरुस्त हैं। शासन फल फूल रहा है। जनता अब भी मालपुए झाड़ रही है। खेत को बाड़ खा रही है। अलंबरदारों की टुकड़ी मौज उड़ा रही है। यही है राजतंत्र का चेहरा जिसे बरबादी की भनक तक नहीं लगती।

7 comments:

श्यामल सुमन said...

चोट निशाने पर है मधुकर जी।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

rohit said...

खतरनाक चोट किये हो बाबू जी...लेकिन ये ध्यान नहीं रखा आपने की....उस राजा के सरमाएदारों में से कुछ ऐसे भी हैं....जो आदुनिक तकनीकि में बहुत ही अच्छी तरह पारंगत हैं....मेरा इशारा किस ओर है और किस लिए है...आप भलि प्रकार से समझते हैं...जहां तक लेख की बात है...आपकी इस कचरा क्रांति ने उस अंधे प्रशासन की बखियां उधेड़ कर रख दीं हैं...

मधुकर राजपूत said...

रोहित जी आपके कमेंट पर बस एक ही बात कहना चाहूंगा।
किसी की हुज़ूरी में चिलम नहीं भरती है,
मेरी कलम है, बस सिर क़लम करती है।
जो होगा देखा जाएगा।

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत जोरदार पोस्ट है।अच्छी चोट मारी है।

Unknown said...

prashashan ko chot nishane par. bhai kamal ke nishanebaaj ho, is teerandazi ki education to apne UP me nahi. phir kahan se Eklavya ki shisha grahan ki. Good Work. vaisi Comment ki tadat badhane ka acha tareeka Ejad kiya hai. tippadi par tippadi kar dete ho...

Tara Chandra Kandpal said...

एलची कि खवाहिश पूरी हो किसी कि,
कि हम जहाँ मे आये नहीं इस खातिर,
नब्ज थामो तो रगों में लहू थमता नहीं,
मैं तो समय हूँ, रोक सकोगे किस जानिब!

खूबसूरत लिखा है!

Unknown said...

शानदार मजा आ गया....बहुत दिनों बाद ऐसा कोई लेख पढ़ा है जिसने दिलो दिमाग तर कर दिया है