Tuesday, December 8, 2009

चिट्ठी की बरसी

खास काम के खास दिन मुकर्रर करने का सिलसिला पश्चिम से चला आ रहा है, लेकिन भारत में खास दिनों का खास महत्व है। वहां काम के लिए दिन तय हैं, यहां जयंती, बरसी, अधिवेशन जैसी चीज़ों के लिए दिन तय होते हैं। कल 7 दिसंबर को लेटर डे था। सुनकर हंसी आ गई। भारतीयता हावी हो गई और मैंने इसे खत की बरसी का दिन मान लिया। दलील पेश है। मैंने आखिरी बार चिट्ठी कब लिखी थी याद नहीं। दस साल से घर से बाहर हूं लेकिन दस चिट्ठी शायद ही लिखी हों। कभी किसी लड़की को चिट्ठी देने का मौका नहीं आया इसलिए मुझे निजी चिट्ठी का खास आनंद नहीं मालूम। बस कभी-कभी घर में आती थी, वो भी पिताजी के नाम।

मुझे चिट्ठी का केवल इतना महत्व पता है कि गांधी की हो तो महंगी और महत्वपूर्ण होती है। चिट्ठी कुछ दिनों में विलुप्त होने वाली है। डायनासोर युग पढ़ाने वाली किताबों में अब चिट्ठियों को शामिल किया जाना चाहिए। मैंने शायद दस साल पहले किसी रिश्तेदार की चिट्ठी देखी होगी। उसके बाद से अंतर्देशीय और पोस्टकार्ड विलुप्तप्राय हो गए लगते हैं। सरकार ने शायद इनके छापेख़ाने भी बंद कर दिए हों, और अगर चल रहे हैं तो बेवकूफी ही है। ग्लोबल वार्मिंग के इस दौर में क्यों पेपर और इंक बर्बाद करनी। उसके ऊपर से छापेख़ाने के सरकारी लोगों को मुफ्त की पगार बांटकर क्यों जनता के पैसे को तबाह किया जाना। भारत से गिद्धों की प्रजाति के बाद विलुप्त होने वाली दूसरी चीज़ चिट्ठी ही है। यूं तो मुझ फक्कड़ की औलाद पालने को कोई तैयार नहीं होनी, लेकिन अगर हो गई तो मुझे डर है कि मेरे बच्चे मुझसे पूछेंगे, ‘डैड वॉट द हैल इज़ चिट्ठी’? फिर क्या दिखाकर समझाऊंगा कि चिट्ठी इसे कहते हैं। अब तो बस बैंक के नोटिस और बीमा पॉलिसी की ख़बरें ही लोगों के दरवाज़े पर पड़ी मिलती हैं। मेरे दरवाज़े पर वो भी नहीं आते। इस लिए L फॉर Letter को तस्वीर के साथ किताब में शामिल किया जाना चाहिए। या फिर किसी आधुनिक रामचंद्र शुक्ल को तस्वीरों के साथ चिट्ठी पर निबंध पेलना चाहिए।

पहले चिट्ठी में भावनाएं कैद होकर सफर करती जाती थीं, अब चिट्ठी मर रही है। ईमेल से e-मोशन्स भेजे जा रहे हैं। पुराने ज़माने में बॉलीवुड जब बॉलीवुड नहीं था तो चिट्ठी ने इश्क, मौहब्बत के पैगाम पहुंचाए। शायरों के तमाम काम की चीज़ थी। ख़त लिख दे सांवरिया के नाम बाबू, लिक्खे जो ख़त तुझे, चिट्ठी आई है, जैसे गाने चिट्ठी की कोख से ही फूटे। अब चिट्ठी वहां भी मर गई, बाल बिगाड़कर बाज़ार में ‘डूड’ आता है। ‘चिक’ को प्रोपोज़ल मारकर निकल लेता है और फोन पर गुंटरगूं शुरू। सब इंस्टेंट है, लेकिन इंस्टेंट लाइफ में वेलेंटाइन डे, मदर्स डे, फादर्स डे, चॉकलेट डे, रोज़ डे, और भी कई डे मनाए जाते हैं तो फिर चिट्ठी डे भी मनाओ यार। कोई हमारे नाम भी एक रूमानी खत लिख दे तो दिल बल्लियों उछले। खैर चिट्ठी की बरसी पर इस रुदाली की उंगलियां अब रोते रोते अब दर्द करने लगीं। आपको रोना हो तो रो लीजिए।

5 comments:

Unknown said...

वर्तमान परिवेश में चिट्ठी की हकीकत को बहुत ही ढंग से लिखा है। मधुकर जी आपने.....मुझे वो दिन याद हैं जब राजीखुशी पूछने और बताने के सबसे बढ़िया साधन चिट्ठी हुआ करती थी

Unknown said...

रोकर हलकान होने से कोई फायदा नहीं। जिस चीज़ की अब जरुरत नहीं उस पर रोना कैसा । वैसे भी आप खुद ही बताएं चैटियाने में ज्यादा विश्वास करेंगा या आज भी चिट्ठियाने में।

Meenakshi Kandwal said...

हम तो चिठ्ठी डे मिस कर गए, लेकिन ये पोस्ट पढ़कर चिठ्ठी की किस्मत पर अफ़सोस ज़रूर हुआ। कोई अपना पास न हो तो उसकी चिठ्ठी को ही सीने से लगाकर, उसकी महक़ और एहसास को ज़िंदा किया जाता था... और आज उसी 'चिठ्ठी' का एहसास ज़िंदा करने की नौबत आ गई है।
सुक़ून मिलता ये इस ख़्याल से कि कम से कम हमारी जेनरेशन के दिलों में तो ये एहसास बाक़ी है.. बाक़ी आने वाली पीढ़ी के लिए तो ये शब्द बेमाना ही होगा।

अनवारुल हसन [AIR - FM RAINBOW 100.7 Lko] said...

रेडियो से जुड़ा हूँ इस लिए रोज़ बोरा भर कर ख़त हमें मिला करते हैं और आज भी श्रोताओं की वही शिकायत है के हमारा ख़त शामिल नहीं होता... क्या करें उनकी संख्या ही इतनी होती है... ये इन्टरनेट अभी मुट्ठी भर लोगों को भी सुलभ नहीं है. आम आदमी अभी भी इन्ही चिटठी के ज़रिये हमसे जुड़ा हुआ है...

मुझे यकीन है की तुमने पढ़ लिया होगा,
वो ख़त जो मैंने अभी तक तुम्हें लिखा ही नहीं

राहुल यादव said...

किसी दराज मंे मिल जाएंगे तुमको जरूर
वो खत जो तुम्हें दे न सका, लिख लिखा लिए