Sunday, January 24, 2010

‘एलीट रद्दी’ की दुर्दशा

एक दौर था जब हम सुबह-सुबह अपने चेहरे के सामने अखबार यूं खोलते थे जैसे कोई हसीना आईना देखती हो। अखबार के पन्ने खड़खड़ाते हुए हमें अपने जागरुक होने का गुमान होता था। सारी दुनिया का जानकारीनुमा टॉनिक हम अल-सुबह गटककर बहसों के लिए पान की दुकानों के अखाड़ों में उतर जाते थे। ग्लोब की राजनीति की छिछालेदर, सब्ज़ी मंडी और लोकल बाज़ार पर हाय-तौबा मचाने के लिए हम अब भी इन अखाड़ों के स्थायी और अस्थायी बहसवीरों के बीच उतरते हैं, लेकिन ज़ुबान अब कैंची सी नहीं चलती। महंगाई पर बहस करते-करते कब हम पर महंगाई हावी हो गई पता ही नहीं चला। हमें पान और सिगरेट के सालाना स्थायी रेट से महंगाई का पता ही नहीं चला। महंगाई का अहसास तब हुआ जब अख़बार वाला हमारे हाथ में बिल थमा गया। हमारी जेब काटकर ले गया। हमने भी तिलमिलाकर फैसला लिया कि आज से अख़बार बंद।

आजकल पुराने अख़बारों में मसरूफ रहा करते हैं। रद्दी से पुराने ज्ञान को चमका रहे हैं और रद्दी के भाग्य पर अफसोस जता रहे हैं। उदारवाद के दौर में भी रद्दी का उद्धार नहीं हुआ। 1952 से रद्दी के दामों की बढ़ोतरी इतनी कमजोर है कि गणित भी फीसद निकालने में फेल हैं। यह अन्याय है। रद्दी भी उसी खुले बाज़ार में बेची जाती है जिसमें मसाले, दाल, चावल, आटा और सब्ज़ियां। इन सबके दाम चांद तक पहुंच गए लेकिन रद्दी के दामों का ग्राफ नहीं चढ़ा। आम गरीब आदमी की रोटी का जुगाड़ कही जाने वाली दाल सेंचुरी ठोकने को बेताब है, लेकिन मुई रद्दी अभी 6 रुपये का आंकड़ा तक पार नहीं कर पाई। रद्दी तुम तो ‘एलीट’ हो। तुम बंगलों के डायनिंग टेबल पर सजने वाले उस अख़बार का उत्पाद हो जो ‘अंबानियों’ से लेकर ‘मनमोहनों’ के हाथों से गुज़रती है। गरीब की थाली की दाल की तरह तुम्हारा सम्मान भी इस बाज़ार में होना ही चाहिए।

सरकार को रद्दी उद्धार के बारे में उसी तरह गंभीर विचार करना चाहिए जिस तरह महंगाई पर किया जा रहा है। वित्त मंत्रालय में आम बजट का कोहराम मचा है। तो हे हरि मुरारे, प्रभो हमारे बजट में ऐसा कोई जुगाड़ सेट करो जिससे एलीट रद्दी की हालत दाल से बेहतर हो सके। जिस तरह खाने पीने और धुआं निकालने की चीज़ों के दाम सालाना बढ़ जाते हैं, उसी तरह रद्दी भी दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करे। दाल खाने वाले को अमीर होने का अहसास कराती महंगाई एलीट रद्दी की भी बलईयां ले। रद्दी भी सेंचुरी मार रही दाल के आंकड़े तोड़कर पांच सौ का आंकड़ा छू सके। हे बजट विधाता अख़बार पढ़ने वालों पर भले ही टैक्स लगाओ लेकिन रद्दी के दाम दाल से ऊंचे उठाओ। यही हमारे अख़बार पढ़ने का एकमात्र सहारा बची है।

4 comments:

सतीश पंचम said...

badhiya likha hai

राहुल यादव said...

रद्दी के प्रति आपकी संवेदना काबिलेतारीफ है। दुखड़ा बड़ा है। बचपन में खरीदे सैंकड़ों के खिलौनों को कौड़ियों में इसलिए कभी नहीं बेचा। आज भी कबाड़े मंे संभालकर रखे हैं। बचपन की कापियां और किताबें आज भी सुरक्षित हैं। बस चूहों ने कोने कतर दिए हैं। हर दीवाली पर कतरन बढ़ी मिलती है। लेकिन जब घर जाते हैं चल रे मटके टम्मक टू, और दीदी आई मिठाई लाई कविताएं उन्हीं कुतरी किताबों से पढ़ डालते हैं। टूटे खिलौने को भी निहार लेते हैं।

Brajdeep Singh said...

hum aapke dard ko bhali bhanti samaj rahe hain ,apke dukh ke saath hamari gehri sambednaye hain

Parul kanani said...

sir,sabse pahle to aapka shukriya ada karti hoon.. rahi baat mehngai ki to mehgai to mehgai hi hai chahe roti-daal ki ho ya kabade ki...maar hi daalegi.. :)