Monday, January 11, 2010

मैं चटक गया हूं, बस ठसक ना लगे

उंगलियां ग्लेशियर में पड़ी हैं। लगता है रज़ाई में किसी ने बर्फ की सिलें रख दी हैं। रात करवटों और ख्यालों में कट जाती है। कभी सर्दी का शुक्रिया अदा करने का मन करता है। कभी बैरन सिहरन को ठंडे होठों से गाली देने का मन करता है। गीली रात बंद रोशनदान में रास्ता तलाशकर सर्द हवा बिस्तर में धकेल देती है। सर्दी का मुकाबला करने के लिए दिमाग, ताज़ा और पुरानी यादों के जाले से ढके दरीचे के बाहर झांकने लगता है। जब नींद नहीं आती तो दिन भर की हरारत याद आती है। लगता है दफ्तर का सारा बोझ आज मेरे ही कंधों पर था। खटपट, राजनीति, सब बेकार हैं। दिमाग परेशान हो जाता है और धीरे धीरे ख्याल सपने बनकर दिल तक खिसक आते हैं। मन सात्विक हो जाता है। दिल चुपके से बच्चे सा मासूम बन जाता है।

फिर कोई ऐसा याद आता है जो कभी ज़हन से दूर नहीं होता। पनपते अहसासों को उसके पास भेज देने का मन करता है। मन करता है कि अपनी हर बात उस तक पहुंचा दी जाए। कह दूं कि हर बात तुम्हारे बिना अधूरी है। तुम्हारी बिना वाह के मेरी तारीफ, तुम्हारी बिना आह के मेरा दर्द और तुम्हारी बिना चाह के मेरा प्यार अधूरा है। मोबाइल हाथ में आता है और सर्दी से टक्कर लेती हुई उंगलियां उसके नाम डिजिटल खत टाइप करने लगती हैं। फिर बेदिमाग दिल खुद से सवाल करता है, कब का ‘एसएमएस अफसाना’ खत्म हो गया, इतनी रात गए ये सिलसिला दोबारा छेड़ना ठीक है? फिर खुद ही उड़कर सवाल लपककर जवाब देता है ‘नहीं’, उंगलियों को फिर अचानक ग्लेश्यिर में पड़े होने का अहसास होने लगता है, और फिर वापस लौट जाती हैं ठंडी रज़ाई में गर्मी तलाशने के लिए। उसकी याद में आंखें खारी हो जाती हैं और कुछ बूंदे पलकों से बाहर टपकने की लड़ाई लड़ती हैं।

बदन रज़ाई के गुनगुने हिस्से में सिमटा पड़ा है और दिल करवट लेता है। आराम तकिए के नीचे से नॉस्टेलजिया बाहर आने लगता है। दिमाग में स्टोर पड़ी बातें फिर आंखों के सामने तैरने लगती हैं। सर्दी मां के पास ले जाती है। याद आता है कि सर्दी ने तब कभी इतना नहीं सताया जब मां के पास सोता था। वो मेरी हथेलियों को अपनी बगलों में दबाकर गर्म कर देती थी। उसकी छाती से निकलती गर्मी मेरी सांसों में घुल जाती थी। फिर वो जकड़न याद आती है, जो पिताजी से मिलती थी। बार-बार रज़ाई करीने से ओढ़ाते थे। दोनों के बीच सोते हुए मेरी नन्हीं हथेली फर्क कर लेती थी। पिताजी की मूछों से बेहतर मुझे मां का आंचल लगता और करवट लेकर फिर वहीं सिकुड़ जाता था। फिर सोचता हूं बहुत दिन हुए मां से चिपटकर नहीं सोया इस बार घर जाऊंगा तो ज़रूर सोऊंगा। हर बार सोचता हूं कि पिताजी से एक बार गले मिलकर सारी तक़लीफें कह दूं, लेकिन हाथ उनके पैरों की तरफ गिरने लगते हैं। कभी चाहकर भी गले से नहीं लग सका। शायद इस बार...।

दिल अब भी परेशान करता है। कसक नहीं भूलता। मैं भी इंसान हूं, मशीन नहीं। अहसास मेरे पास भी हैं, फिर मैं छुपाता क्यों हूं। क्यों ख़ुद को दुनिया की निगाहों में मजबूत दिखाने की कोशिश करता हूं, जबकि हक़ीक़त ये है कि मैं टूट चुका हूं। कुछ सपने बुनते हुए, कुछ अपने चुनते हुए। कुछ ठोकरों से तो किसी के ठुकरा दिए जाने से। दिल ये मान क्यों नहीं लेता कि मैं चटक गया हूं उस कगार तक जहां एक ठसक लगे और मैं खनखना कर बिखर पड़ूं। रोना चाहता हूं लेकिन समझदारी या मर्द होने का अहसास तपिश बनकर आंसुओं को सुखा देता है, लेकिन सच है कि मैं बहुत दिन से फूट-फूटकर रोना चाहता हूं। खुशी तो चाहकर भी हाथ नहीं आई, अब लगता है तन्हाई में रोना भी मेरी कुव्वत से बाहर ही है। मैं रोना चाहता हूं, तरोताज़ा होना चाहता हूं। अलार्म बज गया है। रज़ाई ठंडी है। उफ्फ ये सर्दी क्या हड्डियां गलाकर दम लेगी। बंद रोशनदान से रोशनी छिटककर छत पर चमकती लकीरें उकेर रही है। अब ऑफिस शुरू। ज़रा ठहरो ए सुबह, फिर मुखौटा पहन लूं, उन्हें अहसास ना हो कि हालात ने मुझे कितना तोड़ दिया है।

12 comments:

Yashwant Mehta "Yash" said...

बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति , माँ का आंचल सुरक्षा प्रदान करता हैं। आज की दुनिया में सभी मुखेटे पहने चल रहे हैं, पर संतोष हैं कि किसी अँधेरे कोने में कभी कभी खुद से मुलाकात हो ही जाती हैं।

Tara Chandra Kandpal said...

बहुत अच्छा लिखने लगे हो, पढ़कर ऐसा लगा कि मेरी कहानी है|

वैसे साथ में बैठे हुए और गलबहियां डाले एक दुसरे कि बातों को बगैर सुने भी समझने कि कला शायद अब और प्रगति कर चुकी है, अब मिलने कि भी जरुरत नहीं और देखो कितना समझने लगे हैं एक दुसरे को....

मेरी समझ से तुम्हारी अब तक कि सर्वश्रेष्ठ रचना!

मधुकर राजपूत said...

सांझा दर्द, हमारे सीने से उठता धुआं तुम्हारे दिल में उतर रहा है।

Unknown said...

बहुत अच्छा लिखा है मित्रवर।

Unknown said...
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राहुल यादव said...

भाई दिल तक पहुंच हो। बहुत बढ़िया। लेकिन याद रखना जो घरों को छोड़कर चलते हैं। वो शमां को छूकर निकल जाने वाले परवाने होते हैं। उन्हें कोई तोड़ नहीं सकता। किसी भी फासले की गर्द गमगीन नहीं कर सकती।
मां से याद आया कि
मुझको यकीं है सच कहती थी जो भी अम्मी कहती थीं
जब मेरे बचपन के दिन थे चांद में परियां रहती थीं
एक ये दिन जब लाखों गम हैं, काल पड़ा है आंसू का
एक वो दिन जब जरा भी बात पे नदियां बहती थी।

Unknown said...

मित्र ज्यादा क्या कहूं तुम्हे व्यक्तिगत तौर पर भी जानता हूं, इस लिए मुझे नहीं लगता की तुम इतने सख्त हो की टूट जाओगे, और मुझे नहीं लगता की लचीला होना कोई अभिशाप है जो की तुम हो,लचीला होना एक गुण है जो आज दुर्लभ है। आप की लेखनी में ताकत है उसे एसएमएस की भ्रामक दुनिया पर जाया न करें.....

sumit said...

मधुकर भाई तुम सही कह रहे थे...तुम्हारी इस कहानी से, मेरी कहानी बहुत मिलती है...जो तुम्हारे दिल का हाल है...उसे मैं अपने पिछले कुछ दिनों से महसूस कर रहा हूं...मैं इतना टूट गया हूं कि कभी मुझे ऐसा लगता है कि मेरी लाइफ में कुछ नहीं रखा...अब जीने का कोई फाइदा नहीं...मेरा प्यार ही मेरी वजह से मेरे से दूर हो गया है...आज में जो उसे लेकर हिम्मत की...काश मैं वो पहले कर पाता...6 फरवरी की उसकी शादी है...बाकि तो तुम जानते ही हो...तुमसे मैं कुछ नहीं छुपाता हूं....इसीलिए पब्लिकी तुम्हारे सामने रो पड़ा...और रोया भी ऐसा की..मैं रो ना सका...मेरे दिमाग ने सोचना बंद कर दिया है....दिल करता है कि मैं सूसाईड कर लूं...और कोई बड़ी बात भी नहीं कि तुम्हे कल ये खबर मिले की मैने कल रात सुसाईड कर ली है...पर अपनी मम्मी का चेहरा बार बार सामने आ जाता है...मैं सोचने लगता हूं कि मेरे मरने के बाद मेरी मां भी जल्द ही मेरे पास आ जाएंगी...अब और नहीं लिख पा रहा हूं...आखों में फिर आसूओं का सेहलाब आ गया है...अगर अब और लिखूंगा तो यहीं रो पडूंगा...

Brajdeep Singh said...

dil jo na keh saka wahi raaje dil kahne ki raat aayi hain
aaapki is rachna par hum sabke man se yahi bhav nikal rahe hain ,aapki is chatak na hume jama diya hain ,udhar aap bikhar rahe the idhar maaa ke anchal ka ehsaas hume pinghla raha tha
bus ant main yahi keh na chahunga
guruji ko pranam

Rachit Shah said...

पढ़ते पढ़ते में खो गया था, धारदार लिखावट है और सभी को छू ने वाली भी. लिखावट ने एकदम पकड़ के रखा था. हम हैं भाई, ठसक काहे लगेगी? जब मन करे और ऐसे तीक्ष्ण धार वाले लेख लिखा कीजिये.

kasana said...

yani apke papa moustach rakhte the.

Unknown said...

मधुकर जी बहुत अच्छा लिखा है आपने, घर-बार से दूर अकेले एकांत कमरे में सर्द रजाई का अहसास और उसमें नीद के आगोश में समाने की कोशिश कर रहे एक शख्स की भावनाओं को वाकई बहुत अच्छा उकेरा है। .....