Friday, November 13, 2009

उफ्फ! ये जो है ज़िंदगी

एक झुका हुआ सिर फुटपाथ पर निढाल
चेहरे पर निराशा और हाल-बेहाल
सिगरेट से ऊर्जा का कश खींचता
अपनी निराशा को सींचता
सुलगती सिगरेट के अंगारे में
उम्मीद तलाश रहा था
उड़ते धुंए को ज़िदगी का ‘प्रोपेलर’ समझ रहा था
फिर, बुझते अंगारे में मंद पड़ी उम्मीद को
जूते तले कुचल दिया
सिर उठाकर माहौल का जायज़ा लिया
‘आज’ भी रात के आगोश में समा गया
‘रोज़ाना उम्मीद’ का दिया बुझा गया
बस कुछ वादे, आश्वासन और लताड़ आज का हासिल है
चढ़ती सीढ़ियों में उम्मीद भरी थी
उतरती में निराशा
नौकरी इतनी मुश्किल है ?
सवेरे भूख का नाश्ता करके चला था
अब फ़ाके़ से पेट भरकर सो जाएगा
कल फिर यही सब
मांगना एक अदद नौकरी
बिना किसी गॉडफॉदर के
मिलेगी क्या ?
उफ्फ! ये जो है ज़िंदगी !

7 comments:

pallavi trivedi said...

जिंदगी की ये तस्वीर नयी नहीं है लेकिन आपने उसे नए लफ्ज़ दे दिए! अच्छा लिखा है!

पंकज said...

क्या कविता है !! पर थोड़ा आशा का बीज डालो भाई.

rohit said...

भाई साहब कमाल कर दिया...सच्चाई को बहुत ही बेहतरीन अंदाज में पेश किया है...आपने...

धन्यवाद...आपकी इस कविता के लिए

Tara Chandra Kandpal said...
This comment has been removed by the author.
Unknown said...

बेरोजगारी की जीती जागती तस्वीर पेश की है मधुकर जी आपने। आप बहुत अच्छा लिखते हैं

Pawan Kumar said...

मधुकर भाई....
मन उवाच में हम पहली बार आये बहुत सुखद लगा......!

‘आज’ भी रात के आगोश में समा गया
‘रोज़ाना उम्मीद’ का दिया बुझा गया
बस कुछ वादे, आश्वासन और लताड़ आज का हासिल है
जिनको नौकरी हासिल है उनकी भी कमोबेश यही हालत है.......!

Brajdeep Singh said...

binaad saab bindaas,kamal kar diya hain aapne to ,kya baat hain jhaam macha diya hain aapne to,bus ur kya likhoon aapki taarif main