Sunday, June 14, 2009

हार की कसक से ढहता भगवा दुर्ग

लोकसभा चुनाव के पहले लाल कृष्ण आडवाणी की रणनीतिकार टीम को प्रचार के आधुनिक तौर तरीके से पूरा यकीन था कि आडवाणी पी एम इन वेटिंग नहीं रहेंगे। सच में हुआ भी यही। आडवाणी अब इस दौड़ में शामिल नहीं हैं। हालांकि नतीजे उल्टे आए पर सार वही निकला की आडवाणी अब पीएम इन वेटिंग नहीं हैं। नतीजों से बौखलाई पार्टी की ज़मीन हिल गई। हराऊ चिंतन शुरू हुआ। नेताओं ने दिमाग की खुजली के बाद ज़ुबानी खुजली भी मिटाई। लग रहा था कि अब पार्टी का नेतृत्व नए सिरे जनाधार खड़ा करने में जुट जाएगा। संघ सरसंचालक भागवत ने भी इन नेताओं की अगुआई पर्दे के पीछे से करने का मन बना लिया था, लेकिन एक बार फिर पार्टी की ज़मीन हिल गई और सारी कार्ययोजना छिटककर नेताओं के हाथों से निकल गई। यशवंत सिन्हा ने खुले आम अपने इस्तीफे का बम फोड़ दिया। भाजपा मुख्यालय से लेकर पार्टी का हर नेता इस खुले विद्रोह से सकते में है। यशवंत ने पार्टी नीतियों की मुखालफत भी तब की जब पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह कह रहे थे कि मीडिया में मुंह खोलने वाला नेता खुद अपनी शामत बुलाएगा।

चुनाव के बाद बीजेपी इस बात पर गौर करती रही कि हार का ठीकरा किसके सिर फोड़ा जाए। सभाएं हुईं, समीक्षाएं चलीं और नतीजे निकले की आडवाणी को बतौर प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट करना ही सबसे बड़ी खामी थी, इसके बाद पार्टी की प्रचार टीम ने कोढ़ में खुजली का काम किया। समीक्षा में कुछ खुलासे करने थे सो, तय किया गया कि सांगठनिक कमजोरी के चलते बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा। आडवाणी के कंधों से हार का बोझ हल्का करने के लिए प्रो आडवाणी खेमा पूरी योजना तैयार कर चुका था। गैर प्रबंधन और अंतर्विरोधों से भरी पार्टी में इस बात से कई नेता उखड़े पड़े थे, मन में झंझावात था और चिंगारी इस्तीफा बम बनकर फूट पड़ी। सिन्हा समेत कई नेता इस बात से काफी नाराज थे कि आडवाणी की टीम ने हराऊ रणनीति तैयार कर पार्टी को सत्ता से दूर रखा लेकिन इस बात को न तो आडवाणी की टीम मानने को तैयार थी और न खुद एक्स पीएम इन वेटिंग।

हार की कसक बुरी लगती है। कहां तो भाजपाई कुर्सी और मंत्रालयों की आस लगाए बैठे थे और इधर हार के बाद कुर्सी की छोड़ो बेंच और मूढ़े को भी तरस रहे हैं। टीस उठना लाजिमी है। इस विरोध के पीछे भले ही यशवंत पार्टी के तंत्र से खफा हों लेकिन विद्रोह के बीज हार और उसके बाद की उपेक्षा से ही उभरे हैं। अरुण जेटली का राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष बनना सिन्हा को हजम नहीं हो रहा साथ लोकसभा में भी उन्हें बैक बेंचर बनाया गया है। इन सारी बौखलाहटों को नैतिक मुलम्मा चढ़ाते हुए सिन्हा ने कहा है कि हार की पार्टी के पादधिकारियों और संसदीय दल के नेताओं को हार की जिम्मेदारी लेते हुए अपने पदों से इस्तीफा दे देना चाहिए। इस इस्तीफे के हथकंडे में बीजेपी का अंतर्कलह उभर रहा है। अगर बड़े पैमाने पर इस्तीफे बाजी चली तो सभी नेता अपने लिए पार्टी पदों पर संभावनाएं तलाशने में जुट जाएंगे।

कुल मिलाकर बीजेपी के नेताओं के केकड़ा हालात उभरकर सामने आ गए हैं। सब एक दूसरे को ठेलकर ऊपर जाने की जुगत लडा़ रहे हैं। पार्टी में उभरी धड़ेबाजी ने पार्टी का सिर-धड़ अलग करने की ठान ली है। सोचने वाली बात है कि वाजपेयी काल में जो दल कई पार्टियों के गठबंधन को लेकर बढ़ रहा था वो इस वक्त अपने ही नेताओं को एक लीक पर चलाने में असमर्थ नज़र आ रहा है। ये आडवाणी की नेतृत्व क्षमता पर भी बड़ा सवालिया निशान लगाता है। जो नेता अपने घर की कलह को चारदीवारी के भीतर ठंडा नहीं कर सकता है वो अगर प्रधानमंत्री बनता तो देश भर में सुलगते मुद्दों को विदेशी दखल से कैसे बचाता ? आडवाणी के बतौर पीएम इन वेटिंग बनने से पार्टी पहले ही खेमों में बंट गई थी हार के बाद की कसक ने इन खेमों को और भी मजबूत कर दिया है।

वह उन्माद और अटल बिहारी वाजपेयी का नेतृत्व था जो बीजेपी को दिल्ली दरबार की सैर करा लाया। अब तो दिल्ली दूर ही लगती है। दरअसल बीजेपी अपनी मूल प्रतिज्ञा और लक्ष्यों के बीच भटक रही है। भटकती राह पर सफलता मिले भी तो कैसे। मुद्दा था हिंदुत्व, लक्ष्य है सत्ता। एक ऐसे देश में जहां मिश्रित धर्म हों जहां ज्यादातर लोग मिलजुलकर सदभावना के साथ रहते हों वहां कब तक जनता धोखा खाकर बीजेपी को दिल्ली की गद्दी पर आसीन करती रहेगी। एक बार जनता के बीच खोया विश्वास मुश्किल से ही हासिल होगा। फिलाहल तो बीजेपी के हालात पतले हैं और यही कहा जा सकता है कि बीजेपी मूल प्रतिज्ञा और लक्ष्यों के बीच फंसकर रह गई है।

2 comments:

इरशाद अली said...

मेरे भाई आजकल ब्लागरों पर खिसियाए नेता मानहानि का मुकदमा ठोंक रहे हैं। 10 करोड़ रूपये का कम से कम इनका मान होता हैं, और तुम जो लिख रहे हो, बस समझ जाओ।

मधुकर राजपूत said...

सलाह के लिए शुक्रिया इरशाद जी, लेकिन दिमाग झड़ते लफ्ज उंगलियां चलाने पर मजबूर कर देते हैं। फिर दिमाग कहता है कि जो होगा देखा जाएगा।