Tuesday, June 24, 2008

शोषण का आनंद

मेज पर प्लेट आज किसी नये चेहरे ने लगाई। सुस्त अंदाज़, पूर्णत: व्यवसायिक मुस्कान। क्या लगाऊं साब? मेरी तरफ सवाल उछाल दिया। संक्षिप्त जवाब दिया, थोड़ी देर बाद राजमा और रोटी मेज पर लग गई। लेकिन एक सवाल बार-बार मन में उठ रहा था कि जाना पहचाना और अदब करने वाला 'मोतिया' कहां है ? यूं तो उसका सही नाम मोती है लेकिन सब मोतिया ही पुकारते हैं। दो-चार कौर खा लेने के बाद कोने में पेड़ों से छनकर आती रोशनी पर निगाह पड़ी। सोडियम लाइट की किरणों में वो काला धब्बा सा दिखने वाला मोती ही है। कर क्या रहा है ? जल्दी से रोटियां हलक से उतार कर मैं उसके सामने पहुंच गया। सरल मुस्कान बिखेरते हुए उठ कर बोला 'नमस्ते सर'। साक्षर था। हिंदी पढ़ता और लिख भी लेता था। उसे ज़ोर-ज़ोर से अखबार बांचते कई बार सुना था। कभी-कभी पूछ भी लेता था, बताईये ना सर क्या लिखा है ? उसकी जिज्ञासा के हिसाब से मैं भी जवाब दे देता था। आज उसे बरतन घिसते देख हैरत हो रही थी। मैं बोला क्यों रे मोतिया आज प्लेट लगाने तू नहीं आया। बात में सवाल का पुट था। जवाब आया, नया लड़का ढाबा मालिक का रिश्तेदार है। आज से बरतन ही मांजूंगा। देश की महान परम्परा यानि कुनबापरस्ती यहां भी एक काबिल को योग्यता स्तर से नीचे का काम करने को मजबूर कर दिया।
उस शाम मोतिया कहीं नज़र ही नहीं आया। मन नहीं माना तो पूछ ही लिया। उस्ताद मोतिया कहां है ? आज दोपहर को कुछ लोग आए थे कह रहे थे बालकों को मजदूरी नहीं करने देंगे। साथ ले गए। पता नहीं कहां होगा। मैं भी खड़ा सोचता रहा। मन चाहा कि उसे ढूंढने निकल पडूं। लेकिन अपनी ही कुछ परेशानियों ने पैरों में ज़ंजीर डाल दी। ऐसी कोई खास भी नहीं थीं लेकिन मन शायद भीरू हो गया था। इसलिये पैर उठे ही नहीं। बिस्तर में पड़े-पड़े मोतिया को ही सोच रहा था। न जाने कब आंख लग गई। अगले रोज़ उठा और फिर निकल पड़ा बेरोज़गारी की धूप सेंकने। दिन भर अखबारों के दफ्तरों की सीढ़ियों पर जूतों की ठक-ठक का आज भी कोई नतीजा नहीं निकला। आकर कपड़े खूंटी के हवाले कर दिये और मुंह-हाथ धोकर लेट गया। फिर मोतिया याद आ गया। तन ढांप कर ढाबे का रूख कर दिया। मोतिया बैठा उस्ताद की खैनी रगड़ रहा था। देख कर अजीब सी तसल्ली हुई। कहां था रे कल ? सर वो कह रहे थे कि तुम काम मत करो, हम तुम्हें पढ़ायेंगे। फिर तू आ क्यों गया ? सर स्कूल जाने लगा तो घर पैसे कैसे भेजूंगा। पेट की आग तो काम करने से ही बुझेगी। उसकी बात सुनकर लगा कि जैसे एक ही रात में वो कितना बड़ा हो गया हो। उसकी समझदारी आज देखी थी। बातों में संजीदगी झलक रही थी।
ख़्याल आया कि साउथ ब्लॉक में बैठकर बाल विकास की योजना बनाने वाले इस नजारे को देखें। अपनी छोटी सी आमदनी में सारे कुनबे का खर्च चलाने वाले इन बालकों को शिक्षा नहीं भर पेट रोटी की ज़रूरत है। सरकारी आंकड़ों में शोषण के शिकार इन बच्चों की शोषण ही जीवन रेखा है। ज्ञान आधारित रोजगार की व्यवस्था में और इनके लिए चारा भी क्या है! आज फिर मोतिया उसी अंधेरे कोने में बैठा काले चेहरे पर सफेद मुस्कान बनाये अपने काम में जुटा है। बरतनों को अपने दांतों जैसा बनाने की जुगत में।

1 comment:

Unknown said...

bhahut sunder, bhahut acche