Monday, June 23, 2008

धरती की प्यास

उत्तरप्रदेश के हमीरपुर में धरती के गर्भ से सौगातों के बजाय दरारें फूटने लगी हैं। तहसील सरीला के कई इलाकों में सैकड़ों मीटर लंबी दरारों ने सड़कों और मकानों को निगलने की मंशा ज़ाहिर कर दी है। इसी इलाके के कुपरा गांव के हालात कुछ ज़्यादा ही ख़राब हैं। मुंह खोलती धरती ने फसलों और मकानों से पेट भरना शुरू कर दिया है। बुंदेलखंड के इस इलाके में अरसे से इंद्र देव की कृपा नहीं हुई है। अपने तथाकथित कृषि प्रधान देश में फसलों की अच्छी पैदावार अब भी बरसात पर ही टिकी है। ऐसे में अंदाज़ लगाना मुश्किल नहीं है कि मुद्दत से सरकारी योजनाओं का इंतजार करते इस इलाके में फसली पैदावार कैसी होती होगी! ऊपर से बदनसीबी ये कि इलाके के लोग अभी भी सूखा ग्रस्त क्षेत्र के किसानों को मिलने वाले हजार रूपये के चेक का बस इंतजार ही कर रहे हैं। ऊपर से धरती ने भी उनकी फसलों को निगलना शुरू कर दिया है। उत्तरप्रदेश की राजनीति में धुरी कहा जाना वाला ये इलाका सरकार बनते ही सूबे के नक्शे में गौण हो जाता है। सरकारें इलाके के हिस्से आने वाले अनुदानों को आंकड़ों की बाजीगरी से हज़म कर जाती हैं।
ऐसा नहीं है कि ज़मीन में दरारें पहली बार पड़ी हों। पिछले साल भी इसी इलाके के जिगनी और खण्डेह गांव में ऐसा ही नज़ारा देखने को मिला था। सरकार तब भी चुप थी और आज भी चुपचाप तमाशा देख रही है। फिलहाल मुश्किल से घिरा, कुपरा गांव बेतवा नदी के किनारे पर बसा है। इस गांव के मकान, सड़कें और फसलें धरती में समाने लगे हैं। कुपरा के लोगों ने पलायन शुरू कर दिया है। भूगर्भ शास्त्रियों के मुताबिक ज़मीन से लगातार हो रहा जल दोहन इस के लिए ज़िम्मेदार है। धरती के फटते मुंह ने उसकी प्यास ज़ाहिर कर दी है। धरती की प्यास ने उसके चेहरे पर दरारनुमा तेरह सौ मीटर लंबा घाव बना दिया है। लेकिन ये भी हमारी ही देन है। भौतिक सुखों की बढ़ती इन्सानी भूख ने धरती पर घने अत्याचार कर दिए। अब बारी है धरती की।
वक्त की मांग है कि हम अपनी ज़रूरतों पर लगाम लगाऐं। धरती को धरती का ही बरताव लौटायें। कुपरा के लोगों को तो ज़गह मिल गई, अगर हमारा बरताव नहीं सुधरा तो एक दिन पलायन के लिए दुनिया छोटी पड़ जाएगी।

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