याचिकाकर्ता संजीव कुमार अग्रवाल ने एक नई बहस छेड़ दी है। अब देखना है कि उनकी याचिका पर विचार करने और कानून मंत्रालय की दलील सुनने के बाद उच्चतम न्यायालय क्या आदेश जारी करता है? कानून मंत्रालय को जारी किए गए नोटिस के जवाब से इस केस को कोई दिशा जरूर मिलेगी। संजीव के सवाल से औपनिवेशक काल में हुई जमीन व्यवस्था इस्तमरारी बंदोबस्त की याद आती है। सरकारों ने पहले से ही भू-संपत्ति के अधिकार को अपने कब्जे में रखना चाहा है। किसान को रैयत बनाकर जमींदारों से लगान की वसूली के प्रथा को अपने फायदे के लिए ब्रिटिश शासन ने इस्तमरारी बंदोबस्त को 1793 में लागू किया। इस बंदोबस्त की समान दरों ने किसानों का खून खींचने का काम किया। लगान किसान के लिए जोंक बन गया। इस्तमरारी के अंतर्गत ब्रिटिश सरकार ने जो प्रावधान बनाए थे उनसे किसान को तो कोई फायदा नहीं हुआ बल्कि जमीदारों के वारे-न्यारे हो गए। लगान न चुकाने की वजह से जमींदारों ने किसानों से जमीन वापस ले ली और सरकार को लगान चुकाने में भी कोताही बरतते रहे। यह लापरवाही सरकार को नागवार गुजरी और जमींदारों की संपत्ति को नीलाम किया जाने लगा। लेकिन जमींदारों ने फर्जी ग्राहकों से बोली लगावाकर जमीन फिर अपने नाम करा ली। इस मामले का भंडाफोड़ बर्दवान के राजा की संपत्ति की नीलामी में हुआ था।
स्वतंत्रता के बाद संविधान निर्मात्री सभा ने किसान हितार्थ औपनिवेशिक काल में किसान शोषण के आलोक में संविधान के अनुच्छेद 19 में मौलिक अधिकारों के वर्णन में संपत्ति के अधिकार का भी उल्लेख किया था। संसद की कार्यवाही में सत्तर के दशक से ही सवाल उठने लगे थे कि संपत्ति के मौलिक अधिकार को संविधान में संशोधन करके निकाल दिया जाए। संसद में इस संशोधन का आशय जमीदारों के कब्जे से जमीन के बड़े भू-भाग को निकालकर भूमिहीनों को देना था। 1978 को आशय पर सदन से बहुमत मिलने के बाद 44वें संविधान संशोधन को मूर्त रूप देते हुए संसद ने अनुच्छेद 19 (1) (f) को निकालकर अनुच्छेद 300 में संपत्ति के कानूनी अधिकार में डाल दिया। इस आशय पर आपातकाल का काला साया भी पड़ा और इसकी मूलभावना को सही तौर पर लागू न करके राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के चलते नेताओं ने अपने हित साधने शुरू कर दिए। किसानों और छोटे काश्तकारों को सरकारों ने कितनी जमीन दी इसके बारे में आम आदमी बेहतर तरीके से जानता है।
अब गैरसरकारी संस्थान गुड गवर्नेंस इंडिया फाउंडेशन के संजीव अग्रवाल ने इस अधिकार को फिर से संविधान में जो़ड़े जाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की है। वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने अदालत के सामने बहस करते हुए दलील दी है कि इस अधिकार को हटाने के आशय की पूर्ति हो चुकी है। इसलिए इस अधिकार को पुनः संविधान में जो़ड़ा जाना चाहिए।
दरअसल पुराने समय में जमीदारों से जमीन निकालना सरकार के लिए आसान नहीं था। अपने मौलिक अधिकार का इस्तेमाल करते हुए जमीदार सरकार को तक कोर्ट कचहरी घसीट ले जाते और कोर्ट से जमीन अधिग्रहण पर रोक लग जाती थी। उन दिनों वाकई जमीन अधिग्रहण टेढ़ी खार थी। लेकिन आज सरकारें जिस तरह से जमीन अधिग्रहण कर रही हैं। उसकी वजह से नंदीग्राम जैसे आक्रोश जनता में फूट रहे हैं। दिन लद गए जब किसानों के पास ज्यादा जमीने थीं। आज या तो हिस्सों में बट गईं या फिर किसी योजना की भेंट चढ़ गईं। हमारे यहां आज भी किसान की आजीविका खेती बाड़ी ही बनी है। सरकार की उदासीनता देखकर लगता नहीं कि खेती कभी उद्योग बन पाएगी। किसान की जिंदगी चलाने का एकमात्र जरिया खेती बाड़ी उससे सरकार विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) जैसी योजनाओं के नाम पर छीन रही है। आज जमीन के सूखे टुकड़ों पर खेती कर रहे किसान की हालत खस्ता है। सरकार खाद्यान्न के भीषण संकट के बाद भी नहीं चेत रही है। औद्योगिकरण के नाम पर छोटे काश्तकारों से भूमि छीनने के लिए सरकार ने सेज योजना का दुरूपयोग किया है।
चौदहवीं लोकसभा के अनिश्चितकाल स्थगन से पहले संसद में इस योजना के अंतर्गत होने वाले अधिग्रहण पर लगाम कसने के लिए संशोधन विधेयक भी लाया गया। यूं तो सदन ने इस विधेयक को ध्वनिमत से पारित कर दिया, लेकिन अब देखना है कि सेज कानून में इस बदलाव का जमीनी असर कितना कारगर होगा। धीरे-धीरे खेती योग्य जमीन कम होती जा रही है। औद्योगिकरण के नाम पर कंपनियों को दी जा रही जमीनों पर निश्चित समय सीमा के भीतर उद्योग नहीं लगाए जा रहे हैं। विश्व को हरित क्रांति का पाठ पढ़ा चुके देश के सामने ऐसा खाद्यान्न संकट उत्पन्न हुआ कि गरीब तबके को एक वक्त की रोटी मिलना मुहाल हो गई। सरकार नहीं चेती। अब वक्त है कि संपत्ति के मौलिक अधिकार को फिर से संविधान में जोड़ जाना चाहिए। इसके साथ खेती में सुधार के समेकित प्रयास भी किए जाने चाहिएं। तभी खेती योग्य जमीन बच सकेगी और देश खाद्यान्न जैसे संकट से सफलता पूर्वक बचने के साथ ही दुनिया भर को अनाज आपूर्ति करने में सक्षम बन सकेगा।
3 comments:
बहुत सही कहा है आपने ....सरकार नहीं चेती। अब वक्त है कि संपत्ति के मौलिक अधिकार को फिर से संविधान में जोड़ जाना चाहिए। इसके साथ खेती में सुधार के समेकित प्रयास भी किए जाने चाहिएं। तभी खेती योग्य जमीन बच सकेगी और देश खाद्यान्न जैसे संकट से सफलता पूर्वक बचने के साथ ही दुनिया भर को अनाज आपूर्ति करने में सक्षम बन सकेगा।
पता नहीं सरकार कब चेतेगी .....बहुत ही प्रभावशाली लेख
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
बहुत सही कहा है आपने!
आज़ादी से पहले देश को चूसने में अंग्रेजी हुकूमत ने कई हथकंडे अपनाये और इस्तमरारी बंदोबस्त उनमे से एक था| देश को विभिन्न इकाइयों में बांटने और इन इकाइयों को इतने ही वाइसरायों, गवर्नरों, लियूतिनेंत-गवर्नरों, कमिश्नरों अथवा चीफ-क्मिस्स्नरों द्वारा चलाया जाना भी ऐसा ही एक तरीका था| आज समय तो बदल गया लगता है, लेकिन जमीनी हकीक़त वहीँ की वहीँ है| कुछ लोग हैं जो आज भी किसान हितों के लिए काम कर रहे हैं, और लीड इंडिया से आर. के. मिश्रा जी ऐसे ही लोगों में से हैं| समय का अभाव कभी-कभी खलता है, कुछ ऐसे काम हैं, जो करना तो चाहता हूँ परन्तु आज रोजी-रोटी के चक्कर में नहीं कर पाता|
इसी उम्मीद में चल रहा हूँ,
कभी तो राह चल सकूँगा,
जिसपे चलना मेरा मन चाहता है,
वो नहीं जिसपे दुनिया चलती है!
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