Monday, March 9, 2009

'ड्राय डे' को ड्राय होली

पत्ते पीले होकर गिरने लगे हैं, नई कोपलें फूट रही हैं। फाग आ गई, और रंगो का त्योहार भी इसके साथ फिर चला आया हमारे मन रंगीन करने। धूसर रंग ओढ़े पेड़ों ने लबादा बदलना शुरू कर दिया है। सरसों के चटक रंग ने होली का डंका पीट दिया है। फाल्गुन एकादशी से ही होली की खुमारी गली-मोहल्ले में दिखने लगती है, और अब तो बस एक ही दिन और फिर आएगी होली की टोली। गुब्बारों के हमले। फाग गाते होरीहार, ढोली, रंग, पिचकारी और उनके साथ उड़ते गुलाल-अबीर के बादल। पीछे छोड़ जाएंगे मकानों पर दीवाली तक नजर आने वाली रंगों की फाइन आर्ट। होली के ‘ड्राय डे’ को ‘वैट’ बना देंगे होरीहार और हम। रंगों से सराबोर बदन और थकान की अंगड़ाईयां। मस्ती के आगोश से निकलकर जिंदगी में वापसी के लिए फिर शुरू होगा सफाई का सिलसिला। यानी करोड़ों लीटर पानी की बर्बादी। पहले रंग बनाने के लिए और फिर उसे छुड़ाने के लिए। आंकड़े कहते हैं कि होली पर राजधानी में 10 करोड़ 57 लाख 20हजार 946 लीटर अतिरिक्त पानी की आपूर्ति की जाती है। जो रंग तैयार करने और साफ करने में बर्बाद कर दिया जाता है। होली है मस्ती तो होगी ही पर थोड़ी सी सूझबूझ करोड़ों लीटर पानी की बर्बादी बचा सकती है। होली तो मनानी है। हम इस ड्राय डे को ड्राय रहें या वैट, लेकिन होली को सूखा ही रहने दें। मेरी तरफ से सबको होली की बधाई और एक मुट्ठी अबीर की। हैप्पी होली।

4 comments:

राहुल यादव said...

ठीक कहा मधुकर भाई, पर अच्छा खाना छोड़कर कोई आयोडेक्स क्यों खाना चाहेगा। पब्लिक स्कूल और एमिटी जैसे काॅलेज छोड़कर कोई दुबई में भाई बनने के सपने क्यों संजोएगा। क्यों किसी अच्छे पद पर अधिकारी बनने के बजाय कोई डग्स और कच्ची दारू का कारोबार करेगा। कभी सोचना ?
देशकाल और परस्थितियों का असर हमेशा पड़ता है। जिन्हें आज तक अच्छा खाना, अच्छी परवरिश मुहैया नहीं कराई जा सकी वह कुछ न कुछ तो करेंगे ही। जिसकी मां दूसरों के घर बर्तन धोती वह लड़का क्यों भाई बनकर पैसा नहीं कमाना चाहेगा। साथ ही यह भी सोचना की स्लम के लोग की ऐसा क्यों करते हैं। अच्छे घरों के लड़के कच्ची दारू का कारोबार क्यों नहीं करते, वह लड़के जिनके यहां कुत्ते भी बिस्कुट खाते हैं वह आयोडेक्स क्यों नहीं खाते.......

राहुल यादव said...

आपको भी होली की बहुत बहुत शुभकामनाएं। होली पर चंहू ओर बिखरे रंगों की तरह ही आपका जीवन रंग, तरंग और उमंग से सराबोर रहे। होली मुबारक हो

राहुल यादव said...

अगर ये भी लिखते कि मैं वही स्लम हूं जो नशे का आदी हो चुका है। ब्रेड पर आयोडेक्स चुपड़ कर नशा करता हूं। पंक्चर जोड़ने के सॉल्यूशन से लेकर थिनर तक सूंघता हूं। मेरे सीने में कई हत्याओं के राज दफ्न हैं। मेरे झोंपड़े से ड्रग्स और कच्ची दारू का कारोबार भी चलता है। दलाल बन जाना मेरी नियती बन गई है। मेरे घर की महिलाओं ने बच्चे को गोद में लेकर भीख मांगने की आदत डाल ली है। बाजार में सैकड़ों लड़कियों को फुसलाकर गर्म गोश्त के धंधे में पेल दिया है। मैं वही स्लम हूं जिस हाल तो सरकारी मकान मिले ही नहीं और अगर मिले भी तो मैं बेचकर खा गया। झोंपड़े से ज्यादा मुझे मकान रास नहीं आया। सभ्य समाज के बीच मेरे कुटीर काले धंधे चल नहीं सकते थे। इसलिए मैं झोंपड़े को छोड़ नहीं पा रहा हूं। नाकारापन ने मुझे जकड़ लिया है। मैं खुद भी नहीं चाहता कि मेरा समाज की मुख्य धारा की तरह विकास हो। मुझे स्लम के अंधेरे ही रास आ गए हैं। मेरी मंजिल दुबई है, भाई है और गुनाह का दलदल है। और भी बहुत कुछ होता है


par sea kyo hota hai... ? main janna chahta hoon....

अमीत... said...

वाह मधुकर भाई..क्या बात कही। आपने शायराना अंदाज में ही ऐसी बात कह दी जो सीधे मन में उतर गई। बात तो कायदे की है....लेकिन बुरा ना मानो होली है..एक बार ही आती है। गला चाहे ड्राई रहे, मन ड्राई नहीं रहना चाहिए....।