Sunday, March 8, 2009

महिला दिवस या ढकोसला?

मंत्रालयों से लेकर जिला मुख्यालयों और गोष्ठियों में राष्ट्रीय महिला दिवस की रवायत पूरी कर दी जाएगी। ठोस दिखने वाले हकीकत में उड़ते-उड़ते विचार होंगे। वैसे ही जैसे कागजों में द्रुत गति से चलता महिला विकास। योजनाओं, कार्यक्रमों से महिला विकास के दावे किए जाएंगे, और चुनावी माहौल में सरकार अपनी पीठ थपथपाने का एक और मौका निकाल लेगी। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने महिलाओं के विकास की योजना के बखान के दुनिया के साथ कदमताल करते हुए 8 मार्च का दिन तय कर दिया है। इस मौके पर कई योजानाओं की भी घोषणा की जा सकती थी लेकिन आदर्श आचार संहिता आड़े आ गई। नब्बे के दशक से अधर में लटका महिला आरक्षण विधेयक एक सीढ़ी चढ़कर कानून की शक्ल नहीं ले सका है। हमारे राजनीतिक दल खुद भी नहीं चाहते कि महिलाएं कोटा लेकर राजनीति में उतरें। इसीलिए तो इस विधेयक पर नेता दो फाड़ हो गए। विधेयक प्रस्तुति के बाद नेताओं को अंतरिम कोटे की टालू चाल सूझ गई, और विधेयक फिर अधर में रह गया। गनीमत इस बात कि है कि इस बार विधयेक राज्यसभा में पेश हुआ है, जो कि चौदहवीं लोकसभा की विदाई के साथ एक बार फिर घटिया राजनीतिक मौत नहीं मरा।
इस बार महिला सुरक्षा के दृष्टि से लोकसभा में विधेयक पेश किया गया The Protection of Women against Sexual Harassment At Work Place Bill,2007 कार्यस्थल पर होने वाले शोषण को रोकने के लिए इस विधेयक की भी लोकसभा ने अनदेखी ही की है। शोषण और तोषण का सिलसिला लगातार जारी है, लेकिन विधेयक विधायिका में ही पड़ा है। अदालतों तक पहुंचने में शायद अरसा लगे।
महिलाओं को सेहत के आधार पर देखने से साफ पता चलता है कि सुपर पावर बनने का दावा करने वाला हमारा देश पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका से महिला स्वास्थ्य में पीछे ही है। भारत में मातृ मृत्यु दर इन देशों के मुकाबले कहीं ज्यादा है। भारत में एक लाख प्रसव के दौरान 301 महिलाएं स्वास्थ्य व्यवस्था के अभाव में मर जाती हैं। जबकि पाकिस्तान में यह दर 276, नेपाल में 281 और श्रीलंका में 28 है। यूपीए सरकार ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में सकल घरेलू उत्पाद का तीन फीसदी हिस्सा स्वस्थ्य सुधार पर खर्च करने का वादा किया था, लेकिन वादा टूटने के लिए ही होता है और हुआ भी यही। आज तक जीडीपी का तीन फीसदी हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च नहीं हो सका है।
कानूनी नजरिये से देखें तो हमारे देश में ग्रामीण महिलाओं की एक बड़ी आबादी अशिक्षा की चपेट में है और उन्हें अपने अधिकारों के बारे में जानकारी ही नहीं है, लेकिन शहरी और शिक्षित महिलाओं की बड़ी संख्या भी अपने अधिकारों को नहीं जानती। क्या वजह है? आज टीवी सीरियल में खोई शहरी आबादी की महिलाएं दिन में कितनी बार न्यूज चैनल लगाकर जानकारी हासिल करने की कोशिश करती हैं ? अपने अधिकारों के लिए कितनी सजगता से अखबार पढ़ती हैं ? महिलाओं की आत्मा टीवी सीरियलों में बसती है। बॉलीवुड से उनके सरोकार जुड़े हैं और ज्यादातर रुमानी खयालों की नगरी से निकलना नहीं चाहतीं। टीवी पर होती साजिश और शोषण उन्हें पसंद है उसके उपचार नहीं। अपने अधिकारों को जानने और स्वतंत्रता से जीने के लिए व्यवस्था के कील कांटे को जानने की जरूरत है। इसे जाने बिना अधिकार नहीं मिल सकते। ये नामुमकिन नहीं, बस दुष्यंत कुमार के शब्दों में एक पत्थर तबीयत से उछालना पड़ेगा।
जब भी महिला सुधारों की बात चलती है तो प्रभा खेतान की ‘स्त्री उपेक्षिता’ और कुर्तलएन हैदर की ‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो ही याद आती है’। कब हमारे देश के लिए ये शब्द अप्रासंगिक बनेंगे ?

4 comments:

manvinder bhimber said...

महिला दिवस पर ही नहीं .....हमें .हमेशा ही अपने पर गर्व है ....अंतर राष्ट्रीय महिला दिवस की शुभ कामनाएं

Ranjeet said...

मधुकर जी आपने अच्छा लिखा है ? आपने सब कुछ का तो जिक्र किया लेकिन आप एक बात भूल गए की
\होली पर लाखों पेड़ों को काटकर जला देते हैं। उन पेड़ों को जो हमें प्राणदायिनी आक्सीजन देते हैं। हम चाहे तो बिना पेड़ काटे पुरानी बेकार पड़ी सूखी लकड़ियों से भी होलिका जलाकर अपना त्योहार मान सकते हैं। फिर भी मै आपका तारीफ करता हु *** ranjeet-ranjeet001gmailcom.blogspot.com/

Ranjeet said...

मधुकर जी आपने अच्छा लिखा है ? आपने सब कुछ का तो जिक्र किया लेकिन आप एक बात भूल गए की
\होली पर लाखों पेड़ों को काटकर जला देते हैं। उन पेड़ों को जो हमें प्राणदायिनी आक्सीजन देते हैं। हम चाहे तो बिना पेड़ काटे पुरानी बेकार पड़ी सूखी लकड़ियों से भी होलिका जलाकर अपना त्योहार मान सकते हैं। फिर भी मै आपका तारीफ करता हु *** ranjeet-ranjeet001gmailcom.blogspot.com/

Priyanka Singh Mann said...

आप ने ठीक लिखा है...देश मैं हिन्दी अंग्रेज़ी की आधीन है पर हम हिन्दी दिवस मन कर यह जताने की कोशिश करते हैं की हमें अपनी भाषा की कदर है तो क्या हुआ की उसके लिए हम साल मैं एक ही दिन समय निकल पाते हैं ..महिला दिवस भी कुछ ऐसा ही है..किस को है परवाह महिलाओं की ???? हमारी प्रजाति जब तक बलिदान करे ,अपने आत्मविश्वास ,सम्मान को भूल कर आजाद देश मैं गुलामो की तरह रहे तो हम "आदर्श" हैं पर जब हम हक़ की बात करें तो लोग हमारे लिए "फेमिनिस्ट" शब्द गाली की तरह प्रयोग करते हैं और यह सब करने के बाद हम महिला दिवस मानते हैं॥

कुछ दिनों से गुजरात भ्रमण पे निकली थी मधुकर जी इसीलिए कुछ लिख नही पाई पर जल्द ही कुछ लिखूंगी ..