जैसे दांत का दर्द डेंटल एंड मेंटल पेन दोनों होता है ठीक उसी तरह ऑफिस की मानसिक थकान शारीरिक थकान के ऊपर हावी रहती है। यही वज़ह है कि ऑफिस से 8*10 के आशियाने में पहुंचते ही दिमाग को गिरवीं रखकर सोने का मन करता है। ये कवायद शुरू ही की थी, दरवाजे पर ठक-ठक की आवाज़ सुनी। देखा कि “चित्तरकार” गलफड़ों में पान दबाए मुस्कुरा रहे थे। चेहरे पर सुकून और आंखों में चमक। भनक लग गई कि मामला संज़ीदा है। हमारे बोलने से पहले ही चित्तरकार किलककर बोले, यार पत्तरकार तुमसे दोस्ती का कोई फायदा नहीं। काम की ख़बरें तुम्हें पता ही नहीं लगतीं। यूएस, यूएन, चीन, जी-20, जी-77, ब्रिक, यूएनएफसीसीसी, आईपीसीसी, क्योटो, बाली, येकेतेरिनबर्ग का राग अलापने में काम की ख़बरें तुम्हारी नज़रों से बच निकलती हैं। मैं बोला चित्तरकार जूते ही मारते रहोगे या कुछ बताओगे भी। क्या फिर दूर देस के टावर में कोई एयरोप्लेन घुस गया ? या फिर कोई अंकल सैम किसी इराक में सेंध मार बैठा ?
जीभ के सहारे दाढ़ के पीछे फंसी पान की फुजली को खींचकर गाल में सेट करते हुए चित्तरकार बोले, इन्हीं लफड़ों में उलझकर रह जाना। कुछ दिमाग को आराम भी दो, वरना किसी दिन ब्रेन हैमोरेज से मारे जाओगे। माज़रा यूं है कि पीवीआर में ब्लू फिल्म लगी है। भई छोटे पर्दे पर बहुत बार देखी अब मौका है कि बड़े पर्दे पर भी टीप दी जाए। क्या कहते हो ? मैंने समझाने के लिए जैसे ही होंठ फड़फड़ाए तो बोले ना मत कहना। दलीलें और तक़रीरें करके सोने के बहाने ढूंढते हो। यार आज तो मान जाओ। ये मौके बार-बार नहीं आते। जानते हैं तुम पत्तरकार हो, पहले तुम्हारी खातिर पत्तल सजानी पड़ती है फिर कारज करने को राजी होते हो। चलो थियेटर में तुम्हारी टिकिट हम ले लेंगे। मैं चित्तरकार की अक्ल पर हंसा और कपड़े पहनने लगा।
चित्तरकार से दोस्ती भी पान बैठक गपाष्टक में हो गई थी। उन्हें जब पता लगा कि हम एक छोटे से अखबार के ख़बरनवीस हैं तो मिजाज़न पत्तरकार पुकारने लगे। उन्हें चित्तरकार पुकारने के पीछे हमारी रिसर्च है। सारे मोहल्ले के कोने, सड़कें, दीवारें और पार्क उनके पान प्रेम से रंगे हैं। पीक के पिकासो हैं। बिना पेंट ब्रुश के ऐसी-ऐसी अजीब और रहस्यमयी फाइन आर्ट की आकृतियां दीवारों पर उकेर देते हैं कि आर्ट रिव्यूअर्स के होश फाख्ता कर दें। कम्युनिस्ट पार्टियों के बड़े काम आ सकते हैं, जहां बैठे वहीं अपने चारों तरफ लाल दुर्ग की रेखाएं खींच देते हैं। कहते हैं पान वाणी पर संयम रखने का सबसे उम्दा माध्यम, लेकिन चित्तरकार पान साहित्य की इस गर्वोक्ति के भी चीथड़े कर चुके हैं। वो पान खाकर भी बोलते हैं रहते हैं और पीक का निर्झर बहता रहता है।
दड़बे से निकलकर हम साइकिल रिक्शा तलाशने लगे जो हमें ढो कर पीवीआर पर पटक दे। रिक्शा मिला तो चित्तरकार की ज़ुबान शुरू। ज्यादा पैसे बताते हो हरामखोर, रिक्शा में एसी लगा है या फिर एविएशन टरबाईन फ्यूल से चलती है। खैर, रिक्शा में सवार हुए तो किसी की AUDI-6 कार देखकर चित्तरकार कम्युनिस्ट हो गए। उसकी महिला सगी संबंधियों के लिए अपने दैहिक प्रेम की अभिव्यक्ति करके बोले सबकी कारें घरों में बंद करा दी जाएं। सब या तो पैदल चलें या फिर हमारी तरह रिक्शा पर। मैं बोला साइकल भी बेहतर विकल्प है। सारी उम्र मेहनत की बात करना, पढ़ना लिखना सीखो ए मेहनत करने वालों कहकर उन्होंने मुझे चुप करा दिया। फिर बात पहुंची ब्लू फिल्म पर, चित्तरकार ने जमकर अंग्रेजों को कोसा। गोरे हमारे मंदिरों की काम क्रीड़ा, काम कला सब चुराकर पर्दे पर उकेर रहे हैं। मूर्त रूप दे रहे हैं। काम किसी का नाम किसी का। अब हमारे देसी कलाकारों ने उस कला को जीवंत किया है तो भला हम उन्हें सराहने थियेटर तक भी नहीं जा सकते। बात मौज़ूं थी।
टिकट खिड़की पहुंचते पहुंचते फिर साम्यवाद ने आकर चित्तरकार को घेर लिया। व्यक्तिनिष्ठ भाव से बोले भई, एकलटिकटीय प्रणाली लागू करो। मैं समझ गया और डेढ़ सौ रुपये उनके हाथ पर धर दिए। अपना-अपना टिकट लेकर ऑडी की तरफ बढ़े तो चित्तरकार सड़क पार कर पान की दुकान पर लपके। मैं हैरत में कि जहां लिखा हो “Eatables are not allowed” ज़नाब वहां पान नोश फरमाएंगे। इन्हें ले जाने कौन देगा ? पीक के पिकासो लौटे तो मैंने बोर्ड की तरफ उंगली करके आगाह किया, जवाब आया अरे यार Eatables are not but chewable are allowed. मैंने सोचा इनकी बेइज़्ज़ती होने वाली है। Frisking में धरे ही जाएंगे, लेकिन हैरत की बात गार्ड्स को बाजीगर की तरह धोखा देकर चित्तरकार ऑडिटोरियम में दाखिल हो गए। बाद में पता चला की जूतों में पान का वज़न ढो लाए थे।
होठों के किनारों से सिसकारी मारकर पान की पीक खींचते हुए चित्तरकार बोले, आज पता लगेगा कि बॉलीवुड ने हमारी सबसे पुरानी और सामंती कामकला के निर्देशन में कितनी महारत हासिल की है। फिल्म शुरू हुई तो ज़नाब मछलियों की क्रील प्रजाति से लेकर Giant turtle तक के नाम गिनाकर डिस्कवरी ज्ञान बघारने में मशगूल हो गए। जैसे ही किरदार पर्दे पर नमूदार हुए चित्तरकार उतावले होने लगे, लेकिन कुछ ब्लू होने की आहट भी नहीं मिल रही थी। उधर संजय दत्त लारा दत्ता के साथ डूबते सूरज के सामने आत्मिक प्रेम की अभिव्यक्ति कर रहे थे तो इधर चित्तरकार उसके दैहिक स्तर पर मूर्त हो जाने की उम्मीद। काफी देर तक उम्मीदों के खिलाफ काम होते रहे तो चित्तरकार पान की पीक को सेफ कोने में डिपोज़िट करके बोले भई इससे तो बेहतर डिस्कवरी चैनल ही देख लेते। अब मेरी हंसी छूट पड़ी। उन्होंने मुझे कभी न माफ करने वाली नज़रों से देखा, शिकायत की, तुम सब जानते थे और मुझे नहीं बताया। मैंने कहा भाईसाहब आपने बोलने का मौके तो दिया होता। अब चित्तरकार चुपाचाप बाकी बचे पान घुलाने में मशगूल हो गए। ऑडिटोरियम का एक्जिट गेट खुला। रात घिर गई थी। तेज़ कदमों से सीढ़ियां उतरते हुए बेहयाई के साथ चित्तरकार ने खिड़की के शीशे पर एक और फाइन आर्ट उकेर दी। थूकने के बाद बोले खाक ब्लू है, साले बॉलीवुड वालों को ब्लू का मतलब ही नहीं मालूम और फिर हॉलीवुड की तारीफों के कसीदे काढ़ने लगे।
11 comments:
बढिया यादगार फ़िल्म थी।बधाई
झकास ठेले हो भाई...एक दम झकास....
अच्छी भड़ास पेली...नीले चलचित्र को साहित्य अंदाज में परोसना बेहद अच्छा था...
waahji kya khub likha. har baat ko aap kitane sahaj dhang se baya karate hai. kabile tarif...
सही कहें तो यह संस्मरण, ब्लू पिक्चर पर कम और चितरकार महोदय पर ज्यादा सही बैठता है| भाषा का बखूबी प्रयोग किया है, मैं तो यही कहूँगा कि,
बस यूँही बहने दो स्याही को कलम से,
आज किसी को कहाँ लिखने कि फुर्सत मिलती है,
कोई गाहे-बगाहे ही लिख पता है दौरे-जमाने में,
दिमाग में बसी तस्वीर कहाँ उकेरने को मिलती है!
वाह, बहुत खूब यार...कसम से बहुत उम्दा लिखते हो.....भीड़ में कहीं खो ना जाना।
सुंदर आलेख! मजे दार!
bhaut acha likha hai mamaji mai ishwar ye dua karta hoon ki aap hamesha isshe bhi acha likhte rahenge.....
nice madhukar
very very nice brother.................
jhan pnha, tussi great ho.......!!
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