Saturday, October 24, 2009

ओबामा के लंबे पैर, छोटा व्हाइट हाउस

साम्राज्यवादियों की नज़र पुराने ज़माने से भारत पर रही है। हूण, शक, मुगल और अंग्रेज अपनी ये तमन्ना पूरी भी कर गए। हालिया दिनों में चीन टेढ़ी नज़र जमाए है। हमारे राजनयिकों की हांफनी चढ़ी है। यूएन को पटाओ, चीन को समझाओ, पाकिस्तान के आतंकवाद से पल्ला छुड़ाओ। क्या क्या करें ? अजब परेशानी है हर बार थोबड़ा बदलकर सामने खड़ी हो जाती है। इस बार नए चेहरे के साथ साम्राज्यवादी समस्या खड़ी है। ज़नाब ओबामा की नज़र अब भारत पर गड़ गई है। कहते हैं कि भारत उनके परिवार का हिस्सा है। औकात में रहो, नोबेल पुरस्कार में इतने पैसे मिलते हैं कि इस परिवार को पाल-पोस लोगे? मिशेल, शासा और मालिया को ही पालो। भारत को पालना यहां के नेताओं के भी बस की बात नहीं। बल्कि जनता ही उन परजीवियों को पाल रही है।

हमारे मुल्क के उदारवादी और अमेरिकी को इष्ट मानने वाले लोग भले ही इसे अनुकंपा के चश्मे से देखें, लेकिन यहां भी साम्राज्य की नीति ही झलकती है। ओबामा की नज़र सस्ती मैन पावर पर है। बाजार की लिक्विडिटी और हमारी बढ़ती परचेजिंग पावर पर है। अमेरिका के बाज़ार रो रहे हैं। उन्हें खरीददार चाहिएं। हमारे यहां तमाम हैं।

लेकिन ये महंगे पड़ सकते हैं। ओबामा साहब उतने पांव पसारिये जितना व्हाइट हाउस होय। भारत के करोड़ों लोग दो जून की रोटी को तरस रहे हैं। करो़डों रोज़ भूखे सोते हैं। एक दिन में व्हाइट हाउस के कनस्तर उल्टे हो जाएंगे। बीवी पाक कला के अहम औजार बेलन को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू कर देगी। इतनी जनता व्हाइट हाउस और ओवल ऑफिस में समा जाएगी कि अपने राशन के लिए माइग्रेशन को मजबूर हो जाओगे। यूं भी वियतनाम और खाड़ी युद्ध से ही वामपंथियों समेत अमेरिकाविरोधी सिंड्रोम के लोग व्हाइट हाउस को अपने सुलभ शौचालय के तौर पर इस्तेमाल करने का सपना सजाए बैठे हैं। कहीं यूं न हो कि दुनिया के दारोगा का ऑफिस दो रुपये के सिक्के में झाड़ा फिरने के काम आए।

1 comment:

Unknown said...

इसको कहते हैं ज्ञान की गंगा बहाना सचमुच कन्फ्यूज ही कर दिया