Tuesday, August 25, 2009

रचनात्मकता का खौफ

बृहस्पतिवार से ग्लोबल होने का अहसास हो रहा है। दरअसल हमारे छोटे से मीडिया संस्थान के एक आला अधिकारी को दुबई से धमकी भरा फोन आया है। कहा गया है कि आतंकियों और भगोड़ों का छवि को ठेस पहुंचाना बंद करो, नहीं तो अंजाम गंभीर होंगे। ये अलग बात है कि हमारे घरवाले आज तक हमारे किए काम को टीवी स्क्रीन पर नहीं देख पाए, लेकिन पता नहीं था कि हम विदेशों में भी दस्तक दे रहे हैं। दस्तक की छोड़िये ज़नाब, हमारा ज़बरदस्त असर है। कुछ आतंकी और भगोड़े संगठन हमारे रचनात्मक काम से इतना सहम गए हैं कि उन्हें डर सताने लगा है।

आतंक और मौत के परकाले हमारे काम से थरथर कांप रहे हैं। उन्हें डर है कि पिछले बासठ साल से बड़े बड़े मीडिया हाउस जो काम नहीं करा पाए उसे हम चुटकियों में करवा लेंगे। पाकिस्तान को न तो हमारे राजनयिक ही मना पाए और न हमारे लोमड़ से चालाक नेता। भारत सरकार को भले ही हमसे उम्मीद न हो लेकिन भगोड़ों को डर है कि हम असंभव को संभव कर देंगे। उन्हें लगता है कि हमारी रचनात्मकता के आगे पाकिस्तान नतमस्तक हो जाएगा और भारत के साथ प्रत्यर्पण संधि कर लेगा। उसके बाद उनकी खैर नहीं। जिस मिट्टी में लोटकर वे शरण ले रहे हैं उसी सरज़मीन से उन्हें भगा दिया जाएगा और भारत के हवाले कर दिया जाएगा।

उन्हें ये भी लगता है कि रचनात्मकता की आड़ में हम भय का माहौल तैयार कर रहे हैं। जो उनके कोकीन के नशे में डूबे दिमाग में भी घर कर चुका है। अपने घूरा उसके घर करने का पाकिस्तान का सिद्धांत इन्होंने भी अपनाया। क्योंकि पाकिस्तान भी मुशर्रफ नाम के कूड़े को ब्रिटेन भेज चुका है। यही रास्ता इन्होंने भी अपनाया और अपना डर हमारे संस्थान के एक सम्मानीय अधिकारी के दिमाग में फोन के ज़रिए ट्रांसफर कर दिया। हड़कंप तो नहीं मचा लेकिन हलचल ज़रूर हुई। कुछ राष्ट्रीय अखबारों ने खबर को छापा भी। पुलिस जांच हुई, कुत्ते सूंघते हुए चले आए। हर आदमी उनको इमानदार मशीन की तरह समझकर कोने में खिसक रहा था। किसके मन क्या संशय था पता नहीं। पुलिस की कवायद समझ नहीं आई। टाइगर मेनन फोन दुबई से करते हैं और पुलिस बिल्डिंग में बम तलाशने आ जाती है।

मीडिया हाउस का मामला। पुलिस ने तहरीर ले ली और बिल्डिंग के बाहर एक पीसीआर वैन नाम की गाड़ी तैनात कर दी। जिसमें कुछ 52 साल तक के फुर्तीले अफसर तैनात हैं। मेनन के गुंडों का मुकाबला करने के लिए थ्री नॉट थ्री की एक खटके वाली रायफल उनके लटकते कंधे से पेट से सहारे झूल रही है। चाय वाले की बेंच को तोड़ते हुए सरकारी पहरेदार पूरी मुस्तैदी के साथ पैर पसारे और सिर पर गमछा रखे गर्मी को मात देने की कोशिश कर रहे हैं। उनके वॉकी पर नेपथ्य से चार्ली-चार्ली की आवाज़ फूटती है। चार्ली की पुकार सुनकर चरनदास दिखने वाला एक चार्ली भर्राई आवाज़ में खों खों के साथ कुछ जवाब देता है। उधर से कप्तान साहब के नाम पर एक संदेश हवा में तैरा दिया जाता है। जिसे सुनकर भी चरनदास चार्ली की तरह फुर्तीला या मुस्तैद नहीं दिखता है।

बातचीत होती है, सब एक कार्रवाई भर है भाईसाहब। कुछ नहीं होने वाला हमें और गर्मी में मार डाला। उसे माले मुफ्त दिले बेरहम वाले काम करने में मज़ा आता है और आज उनसे दूर है। उगाही का साधन छिन जाने से हमारी रचनात्मकता को एक भद्दी सी गाली देकर वो नाली में थूक देता है, लेकिन सवाल बरकरार है। क्या हम इतने रचनात्मक हैं कि पाकिस्तान में बैठे भगोड़ों और आतंकियों को आतंकित करे दें ?

5 comments:

Anonymous said...

Sach ka ghinauna chehra.
वैज्ञानिक दृ‍ष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।

ओम आर्य said...

sach aisaa hi hota hai hamesha se our kya kahe .......

Mrityunjay Kumar said...

भई! भाषा शिल्प तो अच्छी गढ़ी है लेकिन मुझे आपके लेख के कुछ अंशों से असहमति है. इस असहमति के लिए क्षमाप्रार्थी नहीं हूं.

हरकीरत ' हीर' said...

आतंक और मौत के परकाले हमारे काम से थरथर कांप रहे हैं। उन्हें डर है कि पिछले बासठ साल से बड़े बड़े मीडिया हाउस जो काम नहीं करा पाए उसे हम चुटकियों में करवा लेंगे।

वाह ......बधाई जी बधाई ....!!

लेखन भी जबरदस्त है ....!!

Tara Chandra Kandpal said...

A nice try but the language was weak at some points...

I expect a little more concentration on this front, please write when you are free...