Sunday, December 28, 2008
नया साल, खीसाफाड़ जश्न, सपने और शुभकामनाएं
बस थोड़ा और इंतजार, 'न्यू ईयर', दस्तक दे रहा होगा। यंगिस्तान नशे में झूमेगा। ताज और ऑबरॉय आतंकी हमलों को भूलकर मुंबईकर की अस्मिता और आतंक को मुंहतोड़ जवाब देने के नाम पर मुनाफे की जंग लड़ रहे होंगे। यही होता है बिजनेसमैन। त्रासदी को भी भुना लिया और जनता को 'हिम्मत और आतंकवाद को करारा जवाब,' नाम का झुनझुना पकड़ाकर सहानुभूति यानि सिम्पैथी भी लूट ली। वाह सिम्पैथी की सरलता और उसे लूटने के नए फंडे। बाजारों और यंगिस्तान के आकर्षण का केंद्र, मॉल्स पर न्यू ईयर की खुमारी चढ़ने लगी है। ग्रीटिंग्स गैलरियों में बदलाव नजर आ रहे हैं। बाजार ने नया रंग ओढ़ लिया है। त्योहारों का बाजारीकृत वर्जन' तैयार है। बाजार ही ने तो राम को रामा, कृष्ण को कृष्णा या अब कृष और बुद्ध को बुद्धा बना दिया है। ग्लोबल विलेज में कल्चरल फ्लो इतना एकतरफा है कि हमारे त्योहार आजतक पश्चिम में नहीं पहुंचे। बस हम ही उनके त्योहार पर केक काटते और बांटते चले आ रहे हैं।
इससे ये न समझा जाए कि मैं वैश्विकरण के खिलाफ हूं। बल्कि अगर कहा जाए तो ये भारतीय समाज का सकारात्मक नजरिया ही है कि हम हर किसी की खुशी में शामिल हो जाते हैं। क्रिसमस पर गुजरात के एक मंदिर में प्रभु यीशु के जन्म की झांकी प्रस्तुत कर वहां प्रार्थना सभा का आयोजन, मोदी के गुजरात में सेक्युलरिज्म का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। हमारा समाज तो है ही उत्सवधर्मी। हर किसी त्योहार में मनोरंजन का तड़का लगा ही लेता है, चाहे गणपति हो या फिर दुर्गा पूजा। कहीं डांडिया है, तो कहीं गरबा। फिर नया साल तो आता ही मस्ती की फुहारें लेकर है। आज अपने त्योहारों के विषय में भी सोचने की जरूरत है। कभी-कभी लगता है कि धार्मिक अनुष्ठान के बजाय हमारे त्योहार मौज मस्ती का एक मौका भर बनकर रह गए हैं। इसे क्या कहा जाए संस्कृति का डाइल्यूट होना या फिर उसका हल्का-फुल्का मनोरंजक हो जाना? जिसे हम लोगों ने अपने हिसाब से ढालकर हमारे व्यस्त जीवन के हिसाब से सहज बना लिया है।
हम बात कर रहे थे नए साल की। नए साल पर सड़कें लबालब और बार-पब डबाडब होंगे। कहीं रेन डांस तो कहीं स्टार वार। इनसे होगी शाम रंगीन। एक दूसरे को किस और विश करते जोड़े। जो इतर पड़े हैं पड़े रहें। इस शाम में जिसे शामिल होना हो खीसा भरकर पहुंचे, डिस्को। इस मौके पर कुछ शुभकामनाओं का इंतजार कर रहा होऊंगा। कुछ नए लक्ष्य तय करूंगा। कुछ सपने सजाऊंगा। उन्हें पूरा करने की कोशिश भी करूंगा। यानि कुल मिलाकर नया साल जश्न और सपनों की बारात लाने वाला है। भले ही पुराने साल के कुछ सपने अपनी मंजिल तलाश करते-करते दम तोड़ दें,या उन्हें कोई तोड़ दे, लेकिन नए तैयार हो जाएंगे। नया साल कुछ करे या न करे हमारी पलकों में सपने बुरक जाता है। इन्हीं सपनों का खैरमकदम करने का वक्त आ गया है , और इनके पूरा होने की फैशनेबल नहीं, सच्ची शुभकामनाएं आपके लिए भेज रहा हूं। कल शायद वक्त न मिले।
Friday, December 19, 2008
पाकिस्तान को मजबूत कर रहे हैं अंतुले
हालांकि अंतुले इससे पहले भी कई बार बेतुकी बयानबाजी कर चुके हैं, लेकिन इस बार बयान बहादुर अंतुले ने ऐसा अपच वाला बयान दिया है कि पूरे देश को हज़म नहीं हो रहा। उस पर ढिठाई ये कि अपनी गलती मानने को तैयार नहीं। हठधर्मिता ने अंतुले को इस्तीफा देने को मजबूर कर दिया। अंतुले के इस बयान ने करकरे की शहादत पर तो सवाल खड़े करने का काम कर ही दिया, साथ ही मुंबई हमलों की जांच कर रहीं भारतीय और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों की जांच को भी शक के दायरे में लाने का काम कर दिया। पलटबयानी में माहिर पाकिस्तान अंतुले के बयान को ढाल की तरह इस्तेमाल कर सकता है। पाकिस्तान सरकार इस बात से पहले से ही मुकर रही है कि कसाब और हमलों में मारे गए आतंकी पाकिस्तानी हैं, ऐसे में अंतुले का यह बयान घाघ पाकिस्तान को बढ़ावा ही देगा। पाकिस्तान राष्ट्राध्यक्ष इस मामले में क्लीन चिट के लिए पहले ही कई पैंतरे आजमा चुके हैं, लेकिन विश्व बिरादरी के बढ़ते दबाव से वह कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। ऐसे हालात में अंतुले के बयान को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रखकर पाक यह दावा कर सकता है कि मुंबई हमले भारत की घरेलू साजिश थी। इन हमलों में उनके अपने लोग ही शामिल थे और पाकिस्तान को आतंकवादी राष्ट्र घोषित कराने के लिए भारत अपने ही देश में खुद आतंकवादी हमलों को अंजाम देता आ रहा है। इससे भारत की नीतियों और उजली छवि को विश्व मंच पर धक्का लग सकता है।
इधर उबलती राजनीति और देश की नब्ज को टटोलकर कांग्रेस ने भी अपने इस कारिन्दे से पल्ला झाड़ लिया है। वक्त का तकाजा भी यही है। हालांकि अंतुले के इस्तीफे पर अभी यूपीए सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह विचार ही कर रहे हैं, लेकिन चिंता यह है कि कि अंतुले पर की गई कार्रवाई को भी पाकिस्तान अपने हित में भुना सकता है। पाकिस्तान कह सकता है कि सच सामने आने के डर से भारत ने अंतुले के खिलाफ कार्रवाई करके उसका मुंह बंद करने की कोशिश की है। इससे बेहतर तो यही हो कि अंतुले का इस्तीफा मंजूर ही न किया जाए। शायद हमारे दूरअंदेशी प्रधानमंत्री भी यही सोचकर चुप हैं।
सोचने का मुद्दा यह है कि जिस मामले पर अंतरराष्ट्रीय संवेदना हमारे साथ है, पूरी दुनिया ने पाकिस्तान को गलत मानकर उसे तुरंत ठोस कार्रवाई करने के लिए बाध्य किया है, उस मुद्दे पर अंतुले इतनी ढीली बयानबाजी क्यों कर गए। कहीं ये अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का हथकंडा तो नहीं? मुंबई हमलों में भी कहीं हिंदू आतंकवाद का भगवा रंग घोलने का कोशिश तो नहीं? मालेगांव धमाकों और इस घटना में अंतर है। मालेगांव ने जहां सारे देश को अचंभे में डाल दिया था, वहीं इस घटना ने पूरे देश और राजनीति को आतंक के खिलाफ लामबंद किया है। राजनेताओं ने जनता के तीखे तेवर देखकर बहुत कुछ सीखा है। अंतुले के इस बयान के पीछे एक वजह समझ आती है कि कांग्रेस में हाशिए पर खिसक चुके अंतुले शायद पार्टी का ध्यान अपनी तरफ खींचना चाहते थे। एक समुदाय विशेष को गुमराह करके अपना जनाधार तैयार करना चाहते थे।
खैर जो भी हो, अंतुले को अपनी लफ्फाजी पर लगाम लगानी चाहिए, वरना सही दिशा में जा रही जांच और पाक पर बढ़ रहा अंतरराष्ट्रीय दबाव दिशाहीन हो सकते हैं। जो कि भारत ही नहीं बल्कि समूची दुनिया के लिए खतरा है। अंतुले को एक बात और ध्यान रखनी चाहिए कि जनता अब राजनीति की नब्ज समझने लगी है। अगर जनता अर्श पर बैठा सकती है तो फिर मिनटों में ही फर्श पर भी फेंक सकती है।
Sunday, November 30, 2008
आतंकवाद और हम
अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भारत के प्रति संवेदनाओं के साथ ही भारत के सुरक्षा तंत्र पर भी सवाल उठने लगे हैं। अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति अपने चुनाव प्रचार के दौरान पाकिस्तान में घुसकर आतंकवादियों पर हमले की पैरवी कर चुके हैं। शायद यही वज़ह है कि अमेरिका को ईष्ट मानने वाला तबका भी इस बात का समर्थन कर रहा है और भारत को भी यही सलाह दे रहा है। सोचने वाली बात यह है कि लोकतंत्र के मूल्यों को उठाकर ताक पर नहीं रखा जा सकता। उदारता और सहिष्णुता की जिस नीति ने हमें पूरी दुनिया की संवेदनाओं के साथ ही सम्मान भी दिलाया है उनकी तिलांजली देना क्या उचित है? यहां गुस्से की नहीं वरन एक समग्र बहस की ज़रूरत है। अपने तंत्र और अपनी राजनीति में सुधारों का वक्त है। पिछले महीने हुई राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में आतंकवाद के खिलाफ कोई ठोस नीति नहीं बन सकी है। इसकी वज़ह रही लोकतंत्र की संघीय प्रणाली में राज्यों को स्वायत्तता देना। जिस भावना को संविधान में निरपेक्ष भाव से रखा गया था उसे राज्यों ने निजी अधिकार क्षेत्र मान लिया है। जिसकी वज़ह से एक फेडरल एजेंसी (संघीय एजंसी) के कल्याणकारी विचार ने दम तोड़ दिया। सबसे हैरत की बात तो इस दौरान यह रही कि इस बैठक में आतंकवाद को चरमपंथ शब्द से संबोधित किया गया। इस मुद्दे पर जितना उदासीन केंद्र दिखा उतनी ही राज्यों ने भी लापरवाही बरती। इस साल को याद रखने के लिए आतंकवाद ही काफी है। दक्षिण से लेकर उत्तर तक पूर्व से लेकर पश्चिम तक पूरे भारत में लोग आतंकवाद के शिकार बने। जनता रेज़गारी की मौत मरती रही और हर घटना के बाद नेताओं की घोषणा, अनुदान राशि और दौरों का दौर चलता रहा। नेता भाषण से लोगों के आंसू पोंछने की नाकामयाब कोशिशें करते रहे और आतंकवादी अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आए। अवसरवादिता की राजनीति होती रही। दोनों दल यानि सत्ता और प्रतिपक्ष ब्लेम गेम खेलते रहे। ऐसा ही मुंबई हमले में भी हुआ। मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने हमले के अगले ही दिन आतंकवाद को मुद्दा बनाकर विज्ञापन प्रकाशित करा दिया। कांग्रेस इस वार से घबराई और अगले ही दिन इसके खंडन के तौर पर जनता की देशभक्ति से भरी भावनाओं के साथ खिलवाड़ शुरू कर दिया। इस विज्ञापन में शहीदों के लिए आदर कम और भाजपा के विज्ञापन से प्रभावित लोगों का ब्रेन वॉश करने की उत्कट इच्छा जाहिर हो रही थी। वरना कंधार के शहीदों से विज्ञापन के शुरूआत करने की कोई खास ज़रूरत नहीं थी।
दूसरी तरफ हर हमले के बाद हमारी सुरक्षा एजेंसियां कहती रहीं कि हमने पहले ही राज्य सरकार को आगाह किया था, लेकिन सूचना से सरकार कोई फायदा नहीं उठा सकी। इससे साफ ज़ाहिर होता है कि हमारे सुरक्षा और राजनीतिक तंत्र में कोई खास तालमेल नहीं है। यह वक्त है अपने तंत्र को टटोलने का और दुनिया भर को दिखा देने का कि हम ‘बनाना रिपब्लिक’ नहीं हैं। अपने लोकतांत्रिक मूल्यों पर चलकर आतंकवाद को मात दे सकते हैं। सुरक्षा के इस खदबदाते सवाल पर चिंतन खत्म नहीं होने वाला इसलिए आपके सुधी विचार भी आमंत्रित हैं। सामाजिक मीडिया का दायित्व निभा रहे ब्लॉग जगत से ही शायद कुछ कारगर उपाय निकल खड़े हों जो इन सवालों का सर कुचलने का माद्दा रखते हों।
Monday, November 17, 2008
'वो' बिस्तर से उठने नहीं देती
Wednesday, October 1, 2008
कहें, करार के लिए थैंक्यू बुश?
Monday, September 15, 2008
कोई राज को नाथो!
नैतिकता के नाम पर सीत्कार करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अब नहीं दिखते। अभी अगर कोई आतंकवादी मुठभेड़ में मारा जाए तो सारे मानवाधिकारवादी भेड़ों की तरह मिमियाने लगेंगे। इस घर में पल रहे आतंकवादी के खिलाफ बोलने में लगता है गले में बर्फ जम गई। कहां हैं जनहित याचिका दायर करके शोहरत बटोरने वाले? क्या राज के खिलाफ मुकदमे नहीं बनते। बनते हैं
देशद्रोह
राष्ट्रभाषा का अपमान
लोकप्रशांति भंग करना
सामाजिक वैमनस्य को बढ़ावा
महाराष्ट्र में जान-माल का नुकसान
ऐसे ही और भी मुकदमे उसके खिलाफ बनते हैं, पर कोई पहल तो करे। सरकार की तरह सब आंखें खोल कर तमाशा तो देख रहे हैं लेकिन पहल करने के नाम पर सब अंधे। अगर सरकार ऐसे ही चुप ही तो राज की तोप के मुहाने पर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी चढ़ सकते हैं। चलो हम भी देखें क्या होगा?कैसे होगा?
Wednesday, September 3, 2008
सब बंद, तो ज़ुबान बंद
पार्टी की झिड़की को घुट्टी समझकर पी गए भट्टाचार्य की चुप्पी को मौन माफी ही कहा जा सकता है। क्योंकि वह भी जानते हैं कि लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है। सनद है कि उन्हें भी निकाल कर फेंका जा सकता है। स्थिती वही है जो भारतीय सामाजिक व्यवस्था की होती जा रही है। जिस घर को जवानी भर खून पसीने से सींचा उस घर को छोड़कर बुढ़ापे में जाएं भी तो कहां। चुप्पी में ही बेहतरी देखी और अमल कर रहे हैं। काडरों की डांट ने साफ कर दिया कि मुखिया भले हो लेकिन कमान हमारे हाथ है। बुड्ढों की तरह अपनी खाट और दो जून का रोटी से साबका रखो। सामाजिक शोभा के लिए कुर्सी पर विराजे रहो बाकी हम कर रहे हैं। खैर काडर चाहे जितने भी सूरमा बनें लेकिन बुद्धदेव भी तज़ुर्बे की बोली बोल रहे हैं। तीन दशक से ज्यादा बंगाल की राजनीति कर चुके भट्टाचार्य की हड्डियां साम्यवादी नीतियों से रच गई हैं। नीतिगत भला बुरा समझते हुए ही उन्होंने बंद का विरोध जताया था। वह जानते हैं कि इस तरह की रीजनीति से बंगाल औद्योगिक स्तर पर पिछड़ता जा रहा है। बदलाव की जरूरत देखकर ही उन्होंने बंद के खिलाफ ज़ुबान खोली थी और यह समयानुकूल एवं तर्कसंगत भी था। कहते हैं कि बुजुर्गों की बात कभी-कभी मान लेनी चाहिए। अब फैसला काडरों के हाथ है मानें या न मानें।
Monday, September 1, 2008
कर्ज माफी योजना की खुरदरी सच्चाई
सरकारी दावों के बावजूद साहूकार कानून को मुंह चिढ़ा रहे हैं। इनके चंगुल में फंसे किसान फिर उधार का बीज धरती में बो चुके हैं। ज्यों-ज्यों बीज बढ़ेगा त्यौं-त्यौं ब्याज।
नतीजतन पकने से पहले ही फसल साहूकार की। खेती योग्य साजो सामान से लेकर गृहस्थी का का भार ढोने तक कदम-कदम पर मझोले और सीमांत किसान इन्हीं साहूकारों के मोहताज हैं। गांव में यह सदियों पुरानी रवायत है। आर्थिक उदारवाद और विदेशी पूंजी निवेश के दौर में कर्ज गहना बन चुका है, लेकिन इन्हें न तो उदारवाद का ही पता है और न ही कर्ज लेने की तिकड़मी तकनीक का। इनके लिए तो कर्ज उस हंसुली की तरह है जिसे पहनने के बाद उतारने के लिए गर्दन कटानी ही पड़ती है।
2003 के एक सर्वेक्षण के मुताबिक 27 फीसदी किसान अभी भी साहूकारों से ही कर्ज लेते हैं। यह सरकारी आंकड़ों की बाजीगरी है असल में इससे कहीं ज्यादा किसानों की गर्दन इनके शिकंजे में फंसी है। एक सौ बीस अरब की आबादी वाले देश में तीन सौ करोड़ लोग खेती के सहारे ही जीवन-यापन करते हैं। सरकार ने इनकी सुविधा को ध्यान में रखकर लोन मुहैया कराने के लिए 31 राजकीय कॉ-आपरेटिव सोसायटियां, 355 जिला कॉ-आपरेटिव सोसायटियां और दस लाख पांच हजार निजी ऋण समितियां भी खड़ी कर रखी हैं। इनसे आसान किस्तों और कम ब्याज पर लोन दिया जाता है। कच्चे आंकड़े के हिसाब से इन्होंने लगभग 12 करोड़ लोगों को लोन दिए होंगे। बाकी के दो सौ अठानवे करोड़ तो साहूकारे के दलदल में ही धंसते हैं। आप सोच रहे होंगे कि संपन्न किसान क्यों कर्ज के बोझ में दबना चाहेगा ? इसकी हकीकत भी जानिए। सरकारी पैसे का फायदा संपन्न किसान और सोशल ऑपिनियन लीडर ही उठा रहे हैं। नौकरशाही की माई-बाप वाली छवि के चलते छोटे किसान बैंकों के बाहर से ही लौट जाते हैं और न ही इनके पास कर्ज के बदले गारंटी के लिए कुछ होता है। इस पर भी अगर जैसे-तैसे करके लोन मिल जाए तो पंद्रह फीसदी तो बैंक के कर्मचारी ही रख लेते हैं। यही सारी खामियां इन साधन संपन्न किसानों की मजबूती बन जाती हैं। सहकारी समिति जैसे संस्थान इनके जेबी होकर रह गए हैं। मजदूर के नाम फर्जी जमीन दिखाकर लोन के रूपयों से अपनी जेबें भर लेते हैं। समितियां भी खुश हैं, खाओ और खाने दो के सिद्धांत पर चलकर अपार सुख भोग रही हैं। सोसायटियों का कारोबार भी इन्हीं नेताओं के सहारे चलता है। यह ऑपिनियन लीडर दबंगई से किसानों की आफत किए रहते हैं। लोन माफी की योजनाओं से सोसायटियों का पैसा वापस आना इनके कारोबार में इजाफा ही करता है। लोन माफी के मसौदे तैयार कराकर ऊपर तक भी यही भिजवाते हैं। सोसायटियों का लोन देने का अंदाज जरा अलग है। रूपयों के बजाय खेती योग्य साधन मुहैया कराए जाते हैं। खाद, बीज, पंप आदि किसानों को बाजार भाव पर दिए जाते हैं जबकि सोसायटियां इन्हें पचास फीसदी दाम पर खरीदती हैं। देसी कंपनियों का माल तो कौड़ियों के दाम खरीदकर किसान को बाजार भाव में मढ़ दिया जाता है। फिर चाहे खेत में जाकर काम करने से पहले ही ठप्प पड़ जाए। यहां न सरकारी एगमार्क है और न ही आईएसआई। भाड़ में जाए जागो ग्राहक जागो।
कर्ज माफी की योजना को लेकर बैंक के एक कर्मचारी से बात हो रही थी। इनका कारोबार थोड़ा अलग है। कह रहे थे कि इस बार उगाही के लिए गांव-गांव भटकना नहीं पड़ा। सरकार भरपाई कर रही है और “बैड डैट” की जगह चमाचम बैलेंस शीट ने ले ली है।
कुल मिलाकर इस योजना का फायदा वही उठा रहे हैं जिन्हें कर्ज की कोई जरूरत नहीं या फिर इसकी आड़ में जिनका उद्योग बढ़ रहा है और जेबें मोटी हो रही हैं। तो फिर आत्हत्याएं कैसे रुकें ? कर्ज माफी योजना किसके लिए है ? इन सवालों का जवाब आप ढूंढिए।
Thursday, August 21, 2008
६४ के राजीव, मीडिया की मौज और थोथा दम भरते नेता
कल यानि २० अगस्त को अखबार के पन्ने पलटे, तो खबरों की जगह राजीव गांधी ने घेर रखी थी। वैसे उनका हक है। देश को कंप्यूटर के जरिये विकास का नुस्खा देने वाले नेता को इतना सम्मान तो मिलना ही चाहिए। देश की जनता में विश्वास जताकर राजनीति करने वाले करिश्माई व्यक्तित्व का जन्मदिन हर अखबार और खबरिया चैनल मना रहा था। बस सेलिब्रेशन का तरीका कारोबारी था। अखबार के फुल पेज से लेकर टीवी स्क्रीन पर राजीव छाए रहे। कहीं साथ में मंत्रालय टंगे थे तो कहीं बड़े और छुटभैये नेता अपनी राजनीति चमकाने की जुगत में मुस्कान बिखेर रहे थे। विकास की राजनीति करने वाले दूरअंदेशी नेता को याद करने की आड़ में कई नेताओं की अपने राजनीतिक बरतन मांजने की दूरअंदेशी झलक रही थी। समाचार जगत कांग्रेसमयी हो रहा था। हैरत की बात यह रही कि विज्ञापन की इस चूहा दौड़ में ज़्यादातर मीडिया संस्थान राजीव की राजनीतिक यात्रा पर चंद लाइनें भी लिखना भूल गए। विज्ञापनों में राजीव के भाषणों की महत्वपूर्ण पंक्तियां चस्पा कर दी गईं थीं। उन्हें पढ़कर दुख जरूर हुआ। वह शख्सियत, विकास जिसकी राजनीति का मूलमंत्र था, जो समतामूलक समाज का संवैधानिक दु:स्वप्न पूरा करने की कोशिश में जुटा था, जो देश को तरक्की की नई दिशा दे रहा था, आज हमारे साथ नहीं है। कहते हैं, बीती हुई बिसारी दे आगे की सुधि ले। बीती हुई तो बिसर क्या मिट ही गई, लेकिन आगे की सुध किसी ने नहीं ली। लोग मरते हैं विचार नहीं। यह अलग बात है कि विचारों पर अमल न हो। यही राजीव की सोच को साथ हो भी रहा है। यूं भी हमारी राजव्यवस्था संत मलूकदास की भक्त है। "अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए सबके दाता राम"। शासन व्यवस्था अजगर की तरह कुर्सी से चिपके रहकर बिना हिले-डुले सब हजम कर जाती है। प्रशासन तो पंछी की तरह है। हिलेगा- डुलेगा, बटोरेगा- सहेजेगा लेकिन अपने लिए।
राजनीतिक हल्कों में विज्ञापन देना रवायत हो गई है। एक ढेले से दो चिड़िया मारने का जुगाड़ है। एक तरफ जनता के बीच वोट बटोरने वाला खीसें निपोरता चेहरा पहुंच जाता है, तो आलाकमान की निगाह में भी चढ़ जाते हैं। श्रद्धांजलि के पर्दे में यही राजनीतिक ध्येय रहता है। राजीव गांधी के कोटेशंस के साथ विज्ञापन छपवाकर राजनीति को सही माने नहीं मिलते। खाली रग मुश्कें कसना, पुट्ठे पीटना छोड़कर उन विचारों को अमल में लाने की जरूरत है जो जन्मदिन और बरसी के मौकों पर विज्ञापन की सजावट मात्र बनकर रह गए हैं। नेताओं से अपील है कि जिसके साथ अपने फोटो टंगवाए हैं, जिसके विचारों से अपनी राजनीतिक हंडिया पर कलेवा चढ़ा रहे हो, उन्हें अमलीजामा पहनाओ। यही तुम्हारे तथाकथित आदर्श को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
Sunday, August 17, 2008
लाल किलाई भाषण में अछूते रहे अहम् मुद्दे.....
हालांकि प्रधानमंत्री का व्याख्यान उम्मीद भरा था। ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री ने विकास और शांति से बेरुखी दिखाई हो। ये सही है कि सरकारी योजनाएं जिस रास्ते पर बढ़ रही हैं वो विकास की तरफ ही जाता है, लेकिन इस लंबे रास्ते से बेहतर तो यही है कि पहले मुंह फाड़े सामने खड़ी समस्याओं को सुलझाने की कोशिश कर ली जाए।
Tuesday, August 12, 2008
प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता की जरूरत
सवाल है कि, संसद में पेश हो चुका एक बिल जिस पर किसी सदस्य को कोई आपत्ति नहीं, कानून क्यों नहीं बन गया ? सरकार क्यों इस पर उदासीन रवैया अपनाती रही। इसकी वजह क्या ये रही कि इस कानून से सबसे बड़ा नुकसान शिक्षा के दुकानदारों को होने वाला है। विधेयक में प्रस्ताव है, निजी स्कूलों में भी गरीब बच्चों के लिए स्थायी आरक्षण रहेगा। हजारों का एक एडमिशन देने वालों का मुफ्त में शिक्षा मुहैया कराने में दिवाला निकल जाएगा। दूसरी ओर राजनीतिक दलों को मोटा चंदा देने वाले यही लोग हैं। स्वार्थ के लिए कर्तव्यों का पुलिंदा बनाकर रद्दी में डाल दिया जाता है। अजीब बिडंबना है कि गरीब तबकों के वोट से गद्दी पर बैठी सरकारें अभिजात्य वर्ग के हाथों की कठपुतलियां बन जाती हैं। ऊपर मैं पहले ही इशारा कर चुका हूं कि कई रद्दोबदल हुए। सर्वहारा की पीपड़ी बजोने वाले ही बुर्जुवा बन बैठे। लेकिन एक और उलटफेर होता तो शायद यह विधेयक कानून बन गया होता। काश कांग्रेस बुर्जुवा पूंजीवादी न रहती। खैर अभी मौका है कि इस भूल को सुधार लिया जाए। संसद के वर्षाकालीन सत्र में विधेयक पारित करने की कोशिश की जानी चाहिए लेकिन इसके लिए मनमोहन की उसी प्रतिबद्धता की जरूरत होगी जो उन्होंने परमाणु करार में दिखाई है।
Sunday, August 10, 2008
दलों का दलदल
Saturday, July 5, 2008
तीसरा मोर्चा : यत्र सर्वसंभव
तीसरे मोर्चे का गठन घटक दलों की मजबूरी ही रहा है। अपने-अपने राज्य की भौगोलिक सीमाओं के दायरे में बंधे ये सभी दल, देश भर के चुनावी समर में भागीदार नहीं होते। लेकिन लक्ष्य तो एक ही है, सत्ता। केंद्र में सरकार बनाने का सपना पूरा हो या नहीं, भागीदार तो बन ही सकते हैं। यही वजह रही कि चंद्रबाबू नायडू राजग में शामिल रहे और कार्यकाल पूरा होने के बाद यूएनपीए का दामन थाम लिया। जयललिता भी इसी फेहरिस्त में शामिल हैं। राजनीति में जितना जरूरी ध्रुवीकरण है उतना ही जरूरी द्रवीकरण भी। द्रवित होना कोई राजनीतिज्ञों से सीखे, जहां गये वहीं के हो लिये। पानी की तरह किसी भी राजनीतिक बरतन का आकार ले लेते हैं। जैसे ही पुराने मुद्दों की वोट बटोरने लायक धार खत्म हो जाती है, नई जमीन की तलाश में दल और मोर्चों का गठन शुरू हो जाता है।
और यहां तो सारे ही या तो भगोड़े हैं या फिर राष्ट्रीय दलों से खिन्नाये दल। ना सबकी जरूरतें एक जैसी हैं और ना ही प्रतिबद्धता। अपनी-अपनी जरूरतों के हिसाब से सभी द्रवीकरण का इस्तेमाल कर रहे हैं। विचारधारा राजनेताओं की होती है राजनीतिज्ञ केवल अवसरवादिता और कुर्सी को ही पहचानते हैं। तीसरे मोर्चे की छोड़ो देश में राजनेताओं का अकाल है। इसलिए यह विखंडन तो होना ही था। अगर सारे घटक मौके के हिसाब से दो राष्ट्रीय मोर्चों में शामिल हों जाएं तो कोई हैरत की बात नहीं।
Sunday, June 29, 2008
हसिया हथौड़े के पूर्वाग्रहों की बलि चढ़ता राष्ट्रहित
जनवादी सोच के झंडाबरदार बनकर वामदल सरकार की समाजकल्याण नीतियों को अपनी पेशकश कहते रहे और संकटकाल में 'कांग्रेस सरकार' कहकर पल्ला झाड़ते रहे। सत्ता की मलाई चाटी लेकिन चाशनी के बाहर खड़े होकर। वामदलों की भूमिका वैसी ही रही जैसी कठपुतली के खेल में सूत्रधार की। खेल अच्छा तो सूत्रधार को ताली और, बुरा तो कठपुतली को गाली। सत्ता में रहकर विपक्ष की छतरी ओढ़े बैठे रहे। जैसे छलावा बनकर कांग्रेस को छलते रहे वैसे ही जनता को छल रहे हैं। लेफ्ट के रोल मॉडल लातिन अमरीका और चीन भी अब संयुक्त राष्ट्र से पींगें बढ़ाने लगे हैं। बेहतर भविष्य के लिए वर्तमान में उन्होंने भी इतिहास की पूंछ को छोड़ दिया है। वामदलों से कोई पूछे कि हसिया और हथौड़े के इतिहास से निकले पूर्वाग्रहों की खातिर राष्ट्रहित को बलि चढ़ाना क्या उचित है ?
Thursday, June 26, 2008
अलंबरदारों की मर्यादा और छीजती मानवता
दोस्त मिले दम-फूंक हुई। महफिल से जुमला आया, "दिल्ली के मज़े ले रहे हो।" झूठी हंसी के साथ दिल्ली के थोथे आधुनिक कल्चर पर आकर्षक लेक्चर दे डाला। लगा जैसे दिल्ली पर्यटन मंत्रालय का भांड हूं। अपने हाल बताकर फजीहत के अलावा कुछ हाथ नहीं आने वाला था। अभी कुछ और जुमले हवा में तैरे ही थे कि दलित बस्ती से रबिया दौड़ता हुआ आया। उखड़ी सांसों में एक बारगी पूरी बात कह गया। "भैय्या जी दिन्ना ने रतिया को जला दिया, सोमू लेकर जल्दी...." सूमो का इंजन खुला देखकर कहता-कहता रुक गया। सबने गांव के बाहरी कोने पर बसी बस्ती की दौड़ लगा दी।
रतिया गांव की रति पूर्ति का आसान ज़रिया थी। खेमा राजगीर था और ज़्यादातर बाहर ही रहता था। पर्दा तो उसकी आंखों पर भी न था लेकिन बमुश्किल बसी गृहस्थी उजाड़ना न चाहता था। बला की खूबसूरत थी वो। नितंबों तक लहलहाती केश राशि उसके अनिंध्य सौंदर्य को और भी दमका देती थी।
सवर्ण किसानों की अधपकी फसलें उसकी भैंस की चर में पड़ीं उसके रुतबे का बखान करती थीं। यूं तो गांव के अलंबरदार भी रात अंधेरे उसकी चौखट खटखटा दिया करते थे। पर दिन्ना और उसका मामला किसी से छुपा न था। मेरी इच्छाओं के तुष्टीकरण का रोल मॉडल थी वो, लेकिन सिर्फ मॉडल भर! मैं तो उसे समायोजन की उम्दा मिसाल समझता हूं। जिसने गांव भर के उत्पीड़न को अपना नसीब मानकर चेहरे पर हंसी सजा रखी थी। बदले में मिलता था घास-फूस। उपयोगिता और दरकार के नजरिये से देखें तो, उसके लिए घास-फूस भी उतनी ही ज़रूरी थी जितनी मेरे लिए नौकरी। दौड़ते-दौड़ते हांफनी चढ़ गई थी। आखिर बस्ती में पहुंच गया। उस दिन अहसास हुआ कि सिगरेट 'स्टेमिना' पी गई थी। रतिया चौबारे में कुऐं की मन के पास पड़ी कराह रही थी। जिसे ताड़ने से बुड्ढे भी बाज नहीं आते थे उसे देखकर दिल दहल गया। लंबे बाल सिकुड़ कर मसाईमारा के चरवाहों से हो गए थे। शरीर फूटते फफोंलों की रणभूमि बन गया था। नंगे बदन पर कई जगह कपड़ों की थेकली चिपकी थीं। चारों तरफ तमाशबीन खड़े थे। महिलाओं ने समीक्षा सभा जोड़कर लप्पाडुग्गी शुरू कर दी थी। उस पर जान छिड़कने वाले अलंबरदार उसे आखिरी सांसें गिनते देखने भी आए। गांव में हवा से बातें करने वाली कई गाड़ियां थीं, पर आफत मोल लेने का शौक किसी बेवकूफ को ही चर्राता है। रतिया की दस साल की बेटी चिल्ला रही थी, दिन्ना ने मेरी मां को जला दिया। बच्ची की आंखों में न आंसू थे न चेहरे पर घबराहट। यूं तो कई तमतमाये चेहरे अपने हाथों की खुजली मिटाना चाहते थे, लेकिन हरिजन एक्ट ने दिमाग खुजलाने पर मजबूर कर दिया। शाम साढ़े आठ बजे थाने में फोन कर दिया था। जिप्सी चल पड़ी थी। पांच किलोमीटर का सफर पुलिस के लिए ऐवरेस्ट की चढ़ाई जैसा दुर्गम हो गया था। माहौल फुसरफुसरित हो चुका था। टोलियां खड़ी थीं और रतिया नंगे बदन तड़प रही थी। वजह वही थी रोज़मर्रा की, 'दिन्ना का तुष्टीकरण।' त्यौहार पर खेमा के घर आने के डर से उसने विरोध किया और उसे लपटों में झोंक दिया गया। दिन्ना ने किरासिन डालकर तीली लगा दी। फुसरफुसर में एक बुढ़िया की बुलंद आवाज सुनाई दी। ' दिन्ना के मूतने में आज ही आग लग रई थी, कल कू कर लेत्ता, इसे ते कभी मना ना करै थी, आज रुक ई जात्ता।' आवाज से औरों को संबल मिला तो नई समीक्षा सुनने को मिली। 'रतिया के करम ई ऐसे थे, भोत समझाया ना समझी।' उधर रतिया छटपटा रही थी और इधर निंदा सभा अपने चरम पर थी। बारह बजे के बाद सूंघते-सांघते जनपद मुख्यालय से दो टीवी पत्रकार आ धमके। अच्छा मसाला मिल गया था। एक आधा घंटे की स्टोरी मिल जाती और उनकी भी जेब गरम। कैमरा के डिफरेंट एंगल और फ्रेम में रतिया कैद हो रही थी। भीड़ से पुछल्ला आया, कल आते तो मॉडलिंग करने लायक थी। अब रुकना मुहाल था। शर्ट उतारकर रतिया का बदन ढंक दिया। चक्की के पाट जैसै भारी कदमों से घर चल दिया। ऐवरेस्ट पार कर पुलिस भी ढाई बजे तक पहुंच गई। अगली सुबह दस बजे रतिया को डॉक्टरों के हवाले कर दिया गया। मरने से पहले के बयान में भी वो मौत देने वाले को ज़िदगी की सौगात दे गई। लेकिन मौके पर खड़े लोगों की गवाही के आधार पर दिन्ना के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी गई। गांव में होली के रंग तब भी बिखरे। लखनऊ सचिवालय से पुलिस पर दबाव था। इसलिए दिन्ना की गिरफ्तारी पर टल्ले की टाल बांध दी गई। इधर दिन्ना फरार हो लिए। पुलिस टाल बजाती रही। रतिया को फिर आग के हवाले कर दिया गया, लेकिन मुक्ति के लिए। दिन्ना आखिर गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन दमनकारी खाकी अचानक उदारमना हो गई थी। दिन्ना एक कुटिल मुस्कान के साथ जिप्सी की पिछली सीट पर बाबू साहेब जैसा सीना ताने बैठा जा रहा था।
Tuesday, June 24, 2008
शोषण का आनंद
उस शाम मोतिया कहीं नज़र ही नहीं आया। मन नहीं माना तो पूछ ही लिया। उस्ताद मोतिया कहां है ? आज दोपहर को कुछ लोग आए थे कह रहे थे बालकों को मजदूरी नहीं करने देंगे। साथ ले गए। पता नहीं कहां होगा। मैं भी खड़ा सोचता रहा। मन चाहा कि उसे ढूंढने निकल पडूं। लेकिन अपनी ही कुछ परेशानियों ने पैरों में ज़ंजीर डाल दी। ऐसी कोई खास भी नहीं थीं लेकिन मन शायद भीरू हो गया था। इसलिये पैर उठे ही नहीं। बिस्तर में पड़े-पड़े मोतिया को ही सोच रहा था। न जाने कब आंख लग गई। अगले रोज़ उठा और फिर निकल पड़ा बेरोज़गारी की धूप सेंकने। दिन भर अखबारों के दफ्तरों की सीढ़ियों पर जूतों की ठक-ठक का आज भी कोई नतीजा नहीं निकला। आकर कपड़े खूंटी के हवाले कर दिये और मुंह-हाथ धोकर लेट गया। फिर मोतिया याद आ गया। तन ढांप कर ढाबे का रूख कर दिया। मोतिया बैठा उस्ताद की खैनी रगड़ रहा था। देख कर अजीब सी तसल्ली हुई। कहां था रे कल ? सर वो कह रहे थे कि तुम काम मत करो, हम तुम्हें पढ़ायेंगे। फिर तू आ क्यों गया ? सर स्कूल जाने लगा तो घर पैसे कैसे भेजूंगा। पेट की आग तो काम करने से ही बुझेगी। उसकी बात सुनकर लगा कि जैसे एक ही रात में वो कितना बड़ा हो गया हो। उसकी समझदारी आज देखी थी। बातों में संजीदगी झलक रही थी।
ख़्याल आया कि साउथ ब्लॉक में बैठकर बाल विकास की योजना बनाने वाले इस नजारे को देखें। अपनी छोटी सी आमदनी में सारे कुनबे का खर्च चलाने वाले इन बालकों को शिक्षा नहीं भर पेट रोटी की ज़रूरत है। सरकारी आंकड़ों में शोषण के शिकार इन बच्चों की शोषण ही जीवन रेखा है। ज्ञान आधारित रोजगार की व्यवस्था में और इनके लिए चारा भी क्या है! आज फिर मोतिया उसी अंधेरे कोने में बैठा काले चेहरे पर सफेद मुस्कान बनाये अपने काम में जुटा है। बरतनों को अपने दांतों जैसा बनाने की जुगत में।
Monday, June 23, 2008
धरती की प्यास
ऐसा नहीं है कि ज़मीन में दरारें पहली बार पड़ी हों। पिछले साल भी इसी इलाके के जिगनी और खण्डेह गांव में ऐसा ही नज़ारा देखने को मिला था। सरकार तब भी चुप थी और आज भी चुपचाप तमाशा देख रही है। फिलहाल मुश्किल से घिरा, कुपरा गांव बेतवा नदी के किनारे पर बसा है। इस गांव के मकान, सड़कें और फसलें धरती में समाने लगे हैं। कुपरा के लोगों ने पलायन शुरू कर दिया है। भूगर्भ शास्त्रियों के मुताबिक ज़मीन से लगातार हो रहा जल दोहन इस के लिए ज़िम्मेदार है। धरती के फटते मुंह ने उसकी प्यास ज़ाहिर कर दी है। धरती की प्यास ने उसके चेहरे पर दरारनुमा तेरह सौ मीटर लंबा घाव बना दिया है। लेकिन ये भी हमारी ही देन है। भौतिक सुखों की बढ़ती इन्सानी भूख ने धरती पर घने अत्याचार कर दिए। अब बारी है धरती की।
वक्त की मांग है कि हम अपनी ज़रूरतों पर लगाम लगाऐं। धरती को धरती का ही बरताव लौटायें। कुपरा के लोगों को तो ज़गह मिल गई, अगर हमारा बरताव नहीं सुधरा तो एक दिन पलायन के लिए दुनिया छोटी पड़ जाएगी।