एक दौर था जब हम सुबह-सुबह अपने चेहरे के सामने अखबार यूं खोलते थे जैसे कोई हसीना आईना देखती हो। अखबार के पन्ने खड़खड़ाते हुए हमें अपने जागरुक होने का गुमान होता था। सारी दुनिया का जानकारीनुमा टॉनिक हम अल-सुबह गटककर बहसों के लिए पान की दुकानों के अखाड़ों में उतर जाते थे। ग्लोब की राजनीति की छिछालेदर, सब्ज़ी मंडी और लोकल बाज़ार पर हाय-तौबा मचाने के लिए हम अब भी इन अखाड़ों के स्थायी और अस्थायी बहसवीरों के बीच उतरते हैं, लेकिन ज़ुबान अब कैंची सी नहीं चलती। महंगाई पर बहस करते-करते कब हम पर महंगाई हावी हो गई पता ही नहीं चला। हमें पान और सिगरेट के सालाना स्थायी रेट से महंगाई का पता ही नहीं चला। महंगाई का अहसास तब हुआ जब अख़बार वाला हमारे हाथ में बिल थमा गया। हमारी जेब काटकर ले गया। हमने भी तिलमिलाकर फैसला लिया कि आज से अख़बार बंद।
आजकल पुराने अख़बारों में मसरूफ रहा करते हैं। रद्दी से पुराने ज्ञान को चमका रहे हैं और रद्दी के भाग्य पर अफसोस जता रहे हैं। उदारवाद के दौर में भी रद्दी का उद्धार नहीं हुआ। 1952 से रद्दी के दामों की बढ़ोतरी इतनी कमजोर है कि गणित भी फीसद निकालने में फेल हैं। यह अन्याय है। रद्दी भी उसी खुले बाज़ार में बेची जाती है जिसमें मसाले, दाल, चावल, आटा और सब्ज़ियां। इन सबके दाम चांद तक पहुंच गए लेकिन रद्दी के दामों का ग्राफ नहीं चढ़ा। आम गरीब आदमी की रोटी का जुगाड़ कही जाने वाली दाल सेंचुरी ठोकने को बेताब है, लेकिन मुई रद्दी अभी 6 रुपये का आंकड़ा तक पार नहीं कर पाई। रद्दी तुम तो ‘एलीट’ हो। तुम बंगलों के डायनिंग टेबल पर सजने वाले उस अख़बार का उत्पाद हो जो ‘अंबानियों’ से लेकर ‘मनमोहनों’ के हाथों से गुज़रती है। गरीब की थाली की दाल की तरह तुम्हारा सम्मान भी इस बाज़ार में होना ही चाहिए।
सरकार को रद्दी उद्धार के बारे में उसी तरह गंभीर विचार करना चाहिए जिस तरह महंगाई पर किया जा रहा है। वित्त मंत्रालय में आम बजट का कोहराम मचा है। तो हे हरि मुरारे, प्रभो हमारे बजट में ऐसा कोई जुगाड़ सेट करो जिससे एलीट रद्दी की हालत दाल से बेहतर हो सके। जिस तरह खाने पीने और धुआं निकालने की चीज़ों के दाम सालाना बढ़ जाते हैं, उसी तरह रद्दी भी दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करे। दाल खाने वाले को अमीर होने का अहसास कराती महंगाई एलीट रद्दी की भी बलईयां ले। रद्दी भी सेंचुरी मार रही दाल के आंकड़े तोड़कर पांच सौ का आंकड़ा छू सके। हे बजट विधाता अख़बार पढ़ने वालों पर भले ही टैक्स लगाओ लेकिन रद्दी के दाम दाल से ऊंचे उठाओ। यही हमारे अख़बार पढ़ने का एकमात्र सहारा बची है।
Sunday, January 24, 2010
Tuesday, January 19, 2010
कर्मण्ये वा ‘धिक्कार’ अस्ते !
हे कर्म करने वालों तुम पर धिक्कार है। जीवन को कर्म में गारद कर देते हो। तुम खुद को कर्मशील समझते हो। दुनिया तुमको कर्मकीट समझती है। तुम्हारा काम ही कर्म करना है। इसीलिए तुम दुनिया की निगाह में कीड़ा हो। गीता के उपदेशों को ज़माने ने जीवन में नहीं ढाला, लेकिन श्लोकों को अपने जीवन के हिसाब से ढाल लिया है। कर्म का मर्म समझो।
समाज कर्म की बेड़ियां तोड़ रहा है। लोगों पर रहस्य खुल रहा है कि कर्म का उपक्रम ही सही कर्म है। अब कर्म में यकीन करने वालों को ही मरना खटना पड़ता है। उपक्रम का सार जिसने गह लिया उसने ‘कर्मकांडों’ से मुक्ति पा ली। नए दौर में नई चाल ही मुफ़ीद होती है। जिसने दौर का मर्म समझ लिया समझो कठिन कर्म सागर का कठोर सफर पार कर लिया।
लंपट युग है। वाणी से कर्म का दिखावा ही युगवाणी है। तुम वो गधे हो जो कर्म से लद-लद कर मर जाओगे। ज़माना जानता है कि तुम काम करते हो। तुम कर्मशील हो इसलिए तुम्हें और काम थमा दिया जाता है। चलते घोड़े की पीठ पर चाबुक मारना ही उपक्रम है। उपक्रम वाले नित्यकर्म को भी कर्म से बचने के सूत्र की तरह इस्तेमाल करते हैं। कर्म से बचने के लिए इन्हें दिन में चार बार नित्यकर्म का बहाना करते देखा जा सकता है। कर्म जनता है और उपक्रम सरकार। जनता काम करे, सरकार का खज़ाना भरे।
कभी दफ्तर में अपनी पड़ोस वाली कुर्सी पर गौर करना। तुम्हारे कर्म की मलाई उपक्रम वाले खाते हैं। कर्म स्वास्थ्य को घुन की तरह खा जाता है। धन की उम्मीद तो कर्म से कभी न रखो। कर्म का दिखावा ही धनी बनाता है। कर्म तो रोटी का भी जुगाड़ नहीं कर पाता है। बाज़ार को देखो। लोकतंत्र के पहरेदार को देखो। शांतिवीर बराक ओबामा को देखो। क्रूज मिसाइल और ड्रोन से शांति फैलाकर शांति नोबेल झटक लाए। सब दिखावे से परम गति को प्राप्त हो रहे हैं। हे निर्बुद्ध इस सार को समझो। गधों की तरह खुर घिस-घिसकर जीवन को व्यर्थ न करो।
हे लंपट युग के साधारण प्राणी ! कर्म का दिखावा ही सफलता का सार है। खुले बाज़ार की उपक्रमव्यवस्था में अपने दिखावे को बेचना सीखो। दिखावा ही धनेश्वर, भोगेश्वर में लीन हो जाने एकमात्र मार्ग है। दिखावा से ही ये तुच्छ संसार तुम्हारे चरणों में दंडवत पेलेगा। तो हे लंपट युग के कर्मशील गधों नश्वर नाम को अमर करना है तो दिखावे के मार्ग पर चलो। तभी भौतिक जगत की सद्गति को प्राप्त हो सकोगे। इति श्री उपक्रमायः कथा।
समाज कर्म की बेड़ियां तोड़ रहा है। लोगों पर रहस्य खुल रहा है कि कर्म का उपक्रम ही सही कर्म है। अब कर्म में यकीन करने वालों को ही मरना खटना पड़ता है। उपक्रम का सार जिसने गह लिया उसने ‘कर्मकांडों’ से मुक्ति पा ली। नए दौर में नई चाल ही मुफ़ीद होती है। जिसने दौर का मर्म समझ लिया समझो कठिन कर्म सागर का कठोर सफर पार कर लिया।
लंपट युग है। वाणी से कर्म का दिखावा ही युगवाणी है। तुम वो गधे हो जो कर्म से लद-लद कर मर जाओगे। ज़माना जानता है कि तुम काम करते हो। तुम कर्मशील हो इसलिए तुम्हें और काम थमा दिया जाता है। चलते घोड़े की पीठ पर चाबुक मारना ही उपक्रम है। उपक्रम वाले नित्यकर्म को भी कर्म से बचने के सूत्र की तरह इस्तेमाल करते हैं। कर्म से बचने के लिए इन्हें दिन में चार बार नित्यकर्म का बहाना करते देखा जा सकता है। कर्म जनता है और उपक्रम सरकार। जनता काम करे, सरकार का खज़ाना भरे।
कभी दफ्तर में अपनी पड़ोस वाली कुर्सी पर गौर करना। तुम्हारे कर्म की मलाई उपक्रम वाले खाते हैं। कर्म स्वास्थ्य को घुन की तरह खा जाता है। धन की उम्मीद तो कर्म से कभी न रखो। कर्म का दिखावा ही धनी बनाता है। कर्म तो रोटी का भी जुगाड़ नहीं कर पाता है। बाज़ार को देखो। लोकतंत्र के पहरेदार को देखो। शांतिवीर बराक ओबामा को देखो। क्रूज मिसाइल और ड्रोन से शांति फैलाकर शांति नोबेल झटक लाए। सब दिखावे से परम गति को प्राप्त हो रहे हैं। हे निर्बुद्ध इस सार को समझो। गधों की तरह खुर घिस-घिसकर जीवन को व्यर्थ न करो।
हे लंपट युग के साधारण प्राणी ! कर्म का दिखावा ही सफलता का सार है। खुले बाज़ार की उपक्रमव्यवस्था में अपने दिखावे को बेचना सीखो। दिखावा ही धनेश्वर, भोगेश्वर में लीन हो जाने एकमात्र मार्ग है। दिखावा से ही ये तुच्छ संसार तुम्हारे चरणों में दंडवत पेलेगा। तो हे लंपट युग के कर्मशील गधों नश्वर नाम को अमर करना है तो दिखावे के मार्ग पर चलो। तभी भौतिक जगत की सद्गति को प्राप्त हो सकोगे। इति श्री उपक्रमायः कथा।
Monday, January 11, 2010
मैं चटक गया हूं, बस ठसक ना लगे
उंगलियां ग्लेशियर में पड़ी हैं। लगता है रज़ाई में किसी ने बर्फ की सिलें रख दी हैं। रात करवटों और ख्यालों में कट जाती है। कभी सर्दी का शुक्रिया अदा करने का मन करता है। कभी बैरन सिहरन को ठंडे होठों से गाली देने का मन करता है। गीली रात बंद रोशनदान में रास्ता तलाशकर सर्द हवा बिस्तर में धकेल देती है। सर्दी का मुकाबला करने के लिए दिमाग, ताज़ा और पुरानी यादों के जाले से ढके दरीचे के बाहर झांकने लगता है। जब नींद नहीं आती तो दिन भर की हरारत याद आती है। लगता है दफ्तर का सारा बोझ आज मेरे ही कंधों पर था। खटपट, राजनीति, सब बेकार हैं। दिमाग परेशान हो जाता है और धीरे धीरे ख्याल सपने बनकर दिल तक खिसक आते हैं। मन सात्विक हो जाता है। दिल चुपके से बच्चे सा मासूम बन जाता है।
फिर कोई ऐसा याद आता है जो कभी ज़हन से दूर नहीं होता। पनपते अहसासों को उसके पास भेज देने का मन करता है। मन करता है कि अपनी हर बात उस तक पहुंचा दी जाए। कह दूं कि हर बात तुम्हारे बिना अधूरी है। तुम्हारी बिना वाह के मेरी तारीफ, तुम्हारी बिना आह के मेरा दर्द और तुम्हारी बिना चाह के मेरा प्यार अधूरा है। मोबाइल हाथ में आता है और सर्दी से टक्कर लेती हुई उंगलियां उसके नाम डिजिटल खत टाइप करने लगती हैं। फिर बेदिमाग दिल खुद से सवाल करता है, कब का ‘एसएमएस अफसाना’ खत्म हो गया, इतनी रात गए ये सिलसिला दोबारा छेड़ना ठीक है? फिर खुद ही उड़कर सवाल लपककर जवाब देता है ‘नहीं’, उंगलियों को फिर अचानक ग्लेश्यिर में पड़े होने का अहसास होने लगता है, और फिर वापस लौट जाती हैं ठंडी रज़ाई में गर्मी तलाशने के लिए। उसकी याद में आंखें खारी हो जाती हैं और कुछ बूंदे पलकों से बाहर टपकने की लड़ाई लड़ती हैं।
बदन रज़ाई के गुनगुने हिस्से में सिमटा पड़ा है और दिल करवट लेता है। आराम तकिए के नीचे से नॉस्टेलजिया बाहर आने लगता है। दिमाग में स्टोर पड़ी बातें फिर आंखों के सामने तैरने लगती हैं। सर्दी मां के पास ले जाती है। याद आता है कि सर्दी ने तब कभी इतना नहीं सताया जब मां के पास सोता था। वो मेरी हथेलियों को अपनी बगलों में दबाकर गर्म कर देती थी। उसकी छाती से निकलती गर्मी मेरी सांसों में घुल जाती थी। फिर वो जकड़न याद आती है, जो पिताजी से मिलती थी। बार-बार रज़ाई करीने से ओढ़ाते थे। दोनों के बीच सोते हुए मेरी नन्हीं हथेली फर्क कर लेती थी। पिताजी की मूछों से बेहतर मुझे मां का आंचल लगता और करवट लेकर फिर वहीं सिकुड़ जाता था। फिर सोचता हूं बहुत दिन हुए मां से चिपटकर नहीं सोया इस बार घर जाऊंगा तो ज़रूर सोऊंगा। हर बार सोचता हूं कि पिताजी से एक बार गले मिलकर सारी तक़लीफें कह दूं, लेकिन हाथ उनके पैरों की तरफ गिरने लगते हैं। कभी चाहकर भी गले से नहीं लग सका। शायद इस बार...।
दिल अब भी परेशान करता है। कसक नहीं भूलता। मैं भी इंसान हूं, मशीन नहीं। अहसास मेरे पास भी हैं, फिर मैं छुपाता क्यों हूं। क्यों ख़ुद को दुनिया की निगाहों में मजबूत दिखाने की कोशिश करता हूं, जबकि हक़ीक़त ये है कि मैं टूट चुका हूं। कुछ सपने बुनते हुए, कुछ अपने चुनते हुए। कुछ ठोकरों से तो किसी के ठुकरा दिए जाने से। दिल ये मान क्यों नहीं लेता कि मैं चटक गया हूं उस कगार तक जहां एक ठसक लगे और मैं खनखना कर बिखर पड़ूं। रोना चाहता हूं लेकिन समझदारी या मर्द होने का अहसास तपिश बनकर आंसुओं को सुखा देता है, लेकिन सच है कि मैं बहुत दिन से फूट-फूटकर रोना चाहता हूं। खुशी तो चाहकर भी हाथ नहीं आई, अब लगता है तन्हाई में रोना भी मेरी कुव्वत से बाहर ही है। मैं रोना चाहता हूं, तरोताज़ा होना चाहता हूं। अलार्म बज गया है। रज़ाई ठंडी है। उफ्फ ये सर्दी क्या हड्डियां गलाकर दम लेगी। बंद रोशनदान से रोशनी छिटककर छत पर चमकती लकीरें उकेर रही है। अब ऑफिस शुरू। ज़रा ठहरो ए सुबह, फिर मुखौटा पहन लूं, उन्हें अहसास ना हो कि हालात ने मुझे कितना तोड़ दिया है।
फिर कोई ऐसा याद आता है जो कभी ज़हन से दूर नहीं होता। पनपते अहसासों को उसके पास भेज देने का मन करता है। मन करता है कि अपनी हर बात उस तक पहुंचा दी जाए। कह दूं कि हर बात तुम्हारे बिना अधूरी है। तुम्हारी बिना वाह के मेरी तारीफ, तुम्हारी बिना आह के मेरा दर्द और तुम्हारी बिना चाह के मेरा प्यार अधूरा है। मोबाइल हाथ में आता है और सर्दी से टक्कर लेती हुई उंगलियां उसके नाम डिजिटल खत टाइप करने लगती हैं। फिर बेदिमाग दिल खुद से सवाल करता है, कब का ‘एसएमएस अफसाना’ खत्म हो गया, इतनी रात गए ये सिलसिला दोबारा छेड़ना ठीक है? फिर खुद ही उड़कर सवाल लपककर जवाब देता है ‘नहीं’, उंगलियों को फिर अचानक ग्लेश्यिर में पड़े होने का अहसास होने लगता है, और फिर वापस लौट जाती हैं ठंडी रज़ाई में गर्मी तलाशने के लिए। उसकी याद में आंखें खारी हो जाती हैं और कुछ बूंदे पलकों से बाहर टपकने की लड़ाई लड़ती हैं।
बदन रज़ाई के गुनगुने हिस्से में सिमटा पड़ा है और दिल करवट लेता है। आराम तकिए के नीचे से नॉस्टेलजिया बाहर आने लगता है। दिमाग में स्टोर पड़ी बातें फिर आंखों के सामने तैरने लगती हैं। सर्दी मां के पास ले जाती है। याद आता है कि सर्दी ने तब कभी इतना नहीं सताया जब मां के पास सोता था। वो मेरी हथेलियों को अपनी बगलों में दबाकर गर्म कर देती थी। उसकी छाती से निकलती गर्मी मेरी सांसों में घुल जाती थी। फिर वो जकड़न याद आती है, जो पिताजी से मिलती थी। बार-बार रज़ाई करीने से ओढ़ाते थे। दोनों के बीच सोते हुए मेरी नन्हीं हथेली फर्क कर लेती थी। पिताजी की मूछों से बेहतर मुझे मां का आंचल लगता और करवट लेकर फिर वहीं सिकुड़ जाता था। फिर सोचता हूं बहुत दिन हुए मां से चिपटकर नहीं सोया इस बार घर जाऊंगा तो ज़रूर सोऊंगा। हर बार सोचता हूं कि पिताजी से एक बार गले मिलकर सारी तक़लीफें कह दूं, लेकिन हाथ उनके पैरों की तरफ गिरने लगते हैं। कभी चाहकर भी गले से नहीं लग सका। शायद इस बार...।
दिल अब भी परेशान करता है। कसक नहीं भूलता। मैं भी इंसान हूं, मशीन नहीं। अहसास मेरे पास भी हैं, फिर मैं छुपाता क्यों हूं। क्यों ख़ुद को दुनिया की निगाहों में मजबूत दिखाने की कोशिश करता हूं, जबकि हक़ीक़त ये है कि मैं टूट चुका हूं। कुछ सपने बुनते हुए, कुछ अपने चुनते हुए। कुछ ठोकरों से तो किसी के ठुकरा दिए जाने से। दिल ये मान क्यों नहीं लेता कि मैं चटक गया हूं उस कगार तक जहां एक ठसक लगे और मैं खनखना कर बिखर पड़ूं। रोना चाहता हूं लेकिन समझदारी या मर्द होने का अहसास तपिश बनकर आंसुओं को सुखा देता है, लेकिन सच है कि मैं बहुत दिन से फूट-फूटकर रोना चाहता हूं। खुशी तो चाहकर भी हाथ नहीं आई, अब लगता है तन्हाई में रोना भी मेरी कुव्वत से बाहर ही है। मैं रोना चाहता हूं, तरोताज़ा होना चाहता हूं। अलार्म बज गया है। रज़ाई ठंडी है। उफ्फ ये सर्दी क्या हड्डियां गलाकर दम लेगी। बंद रोशनदान से रोशनी छिटककर छत पर चमकती लकीरें उकेर रही है। अब ऑफिस शुरू। ज़रा ठहरो ए सुबह, फिर मुखौटा पहन लूं, उन्हें अहसास ना हो कि हालात ने मुझे कितना तोड़ दिया है।
Sunday, January 10, 2010
विकास का पैराडाइम ग्लोबल वॉर्मिंग
शाम की गीली सर्दी में चौक पर दम फूंक हो रही थी कि चित्तरकार हाथ में अंडों की थैली लटकाए खरामा खरामा चप्पल घिसते चले आए। देखते ही पान सने लाल दांत दिखाए और दोस्ती का वज़न मेरे कंधों पर डाल दिया। गले मिल लेने के बाद बोले कहां हो पत्तरकार नज़र नहीं आते। मैंने बस मुस्कुरा भर दिया। बोले क्या बात सर्दी में गर्मी का अहसास, शाम होते ही जमा लिया या फिर मनमोहन सिंह की तरह मुस्कान की चादर ओढ़ना सीख गए। भई सवाल पूछा है तो जवाब तो दो। मैंने कहा चित्तरकार आजकल दफ्तर से फुरसत नहीं मिलती। मुंह बिचकाकर शिगूफा मारा, दफ्तर में कौन शकरकंद उबाल रहे हो।
खैनी को रिटायरमेंट देते हुए चित्तकार बोले कि मनमोहन सिंह से याद आया कि हाल ही में तिरुवनंतपुरम में फिर कोपेनहेगन पर कुछ कह रहे थे हमारे पिरधानमंत्री। पता नहीं क्यों कोपेनहेगन की पूंछ पकड़कर झूल रही है सारी दुनिया ? तुम तो तमाम चिल्ल पों मचाते हो बताओ जरा कुछ।
गेंद मेरे पाले में थी, बोलने की बीमारी, झट से माइक लपक लिया और लगा सुनाने...198 देश, 15 हजार नेता, सुलगती धरती, कार्बन एमिशन का झगड़ा, अमीर और गरीब मुल्कों के मतभेद, बात पूरी नहीं हुई थी कि पोडियम पर फिर चित्तरकार चढ़ गए। बोले, भाईसाब, नतीजा क्या निकला? मैं बोला कुछ नहीं, तो फिर क्यों हाय तौबा मचाए हो।
चर्चाएं हो रही हैं और नतीजों में चर्चाएं निकल रही हैं। धरती ठंडी करने निकले थे सारे नेता और खुद हवाईजहाज और लीमोज़ीन से हवा गर्म करते हुए कोपेनहेगन चर्चा करने पहुंचे थे। इसी बीच चित्तरकार ने पान का ऑर्डर दे मारा और फिर वापस मुद्दे पर लौट आए।
भाईसाब नेता चर्चा से धरती ठंडी कर रहे हैं। धरती ठंडी करनी है तो चर्चा तो करनी पड़ेगी। चर्चा नेताओं का मौलिक अधिकार है। धरती ठंडी करने के लिए मिजाज के माकूल और ठंडे मौसम में ही बेहतरीन चर्चा हो सकती है। इसलिए विदेश में चर्चा सम्मेलन सभागार का चुनाव भी मौलिक अधिकार है।
चर्चा सभी संकटों का हल है। चर्चा के नतीजों में नेताओं के बीच कितने भी मतभेद हों लेकिन एक मुद्दे पर सारे मतभेद खत्म हो जाते हैं, बाकी चर्चा अगले सम्मेलन में की जाएगी। चर्चा वो महाकाव्य है जिसमें नेता भांय-भांय कर लौट आते हैं, और चर्चा से निकलने वाला अगली चर्चा का रास्ता ही चर्चा का नतीजा होता है। चर्चा से ही सभी कर्तव्यों की पूर्ति होती है। चर्चा से ही धरती ठंडी हो सकती है।
मैं बोला चित्तरकार मामला गंभीर है ऐसी बातें ना करो, लेकिन उन्होंने ग्लोबल लीडर्स को रास्ते में पड़ी कुतिया की तरह लतियाना जारी रखा। मनमोहन सिंह वहां तो पैसे की आड़ लेकर जिम्मेदारियों से मुंह फेरते रहे और यहां शेख हसीना को मिलयनों डॉलर बांट रहे हैं। ये तो वही बात हुई कि घर में ना दाने, और सरकार चले लुटाने। मैं बोला चित्तरकार कहावत तो यूं है...तो बोले चुप करो बे। तुम पत्तरकार हो और दूसरों की कहवतों पर जीते हो। कुछ तो किरयेटिव कर लिया करो।
इतना कहकर चित्तरकार ने मुंह में पान की बहाली कर दी। होठों के कोरों की पीक अंदर खींचते हुए बोले। ये नेताओं के चोचले हैं। नेता और अफसर अमले की विदेश यात्रा और मिजाज़ दुरुस्त रखने के लिए ऐसे सम्मेलन विदेश में रखे जाते हैं। यूं तो नेता जात और कल्याण शब्द का केवल बस और सवारी वाल संबंध है। सत्ता की मंज़िल पर पहुंचकर इस शब्द को ये ऐसे ही छोड़ देते हैं जैसे सवारी बस को। लेकिन अब कल्याण का ठेका खुद प्रकृति ने ले लिया है तो दुनिया के पेट में मरोड़ हो रही है।
गर्मी से ही मानव कल्याण, समता मूलक समाज, रंगभेद और जीवन शैली की ऊंच नीच खत्म होने वाली है। इसीलिए धरती गर्म हो रही है। नेताओं ने कल्याण के लिए बस आंकड़े जुटाने वाली कुछ संस्थाएं बनाई हैं। यूएनडीपी, डब्ल्यूएचओ, वर्ल्ड इकनोमिक फोरम जैसी संस्थाएं अमीरी गरीबी के आंकड़े जुटकार गरीब देशों की बेइज्ज़ती करती रहती हैं। मैं बोला ऐसा नहीं है चित्तरकार ज़रा सुनो। अरे तुम क्या सुनाओगे।
इतने में सामने से बुल्ला गुजरा और चित्तरकार ने हुंकार के साथ उसे बैठने का बुलावा दिया। बुल्ला लपककर बेंच पर ऐसे बैठ गया जैसे उसे राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता मिल गई हो। चूना चाटकर पान की पोटेंसी बढ़ाते हुए चित्तरकार फिर मुद्दे पर लौट आए। नेताओं को लगता है कि बेइज्ज़ती से ही विकास हो सकता है, लेकिन इनके विकास के ‘अपमान पैराडाइम’ का तोड़ अब कुदरत ने ढूंढ निकाला है।
बैरी सर्दी न जाने कितनों की मौत का फरमान लाती है। बूढ़े रज़ाई में टें बोल जाते हैं और गरीब फुटपाथों पर अकड़ जाते हैं। जाड़े की विदाई से अब ज़िंदगियां बचेंगी। गरीब देशों की जन्म मृत्यु दर और जीवन प्रत्याशा बढ़ी हुई दर्ज़ की जाएगी। गर्म कपड़ों में बर्बाद हो रहे पैसे की बचत होगी। फिर गरीब नागरिक भी बारहों मास लाइफ स्टाइल से जियेंगे। गर्मी से गोरे काले का भेद मिटेगा। दुनिया रंग बिरंगी से समतामूलक एक रंगी हो जाएगी
... तो नेताओं से अपील है कि सभी तर्कवीर और बहस बहादुर चर्चा पर चर्चा करते रहें बाकी विकास प्रकृति कर देगी, और तुम सुनो तुम्हारे लिए ये सारा पुराण अलापा है जाओ अपने चैनल में जाकर ऐसा ही पैकेज चलाओ या फिर मुझे लाइव बहस में उतारो। मैंने सोचा आपसे पहले तो पीकदान लाइव उतारना पड़ेगा। उसके बाद बोले आओ सूरज अस्त हो गया। रिजाई जेब में पड़ी है, किसी ठेले पर पकौड़े छनवाएं। मैं बोला तीन दिन पहले ही पी थी, आज नहीं, लेकिन चित्तरकार मेरी कोहनी में हाथ फंसाकर मुझे इस तरह घसीटने लगे जैसे कुत्ता कुतिया को घसीट ले जाता है। चर्चा समाप्त और बैठकी शुरू.. और चित्तरकार ने ढक्कन खोल दिया।
खैनी को रिटायरमेंट देते हुए चित्तकार बोले कि मनमोहन सिंह से याद आया कि हाल ही में तिरुवनंतपुरम में फिर कोपेनहेगन पर कुछ कह रहे थे हमारे पिरधानमंत्री। पता नहीं क्यों कोपेनहेगन की पूंछ पकड़कर झूल रही है सारी दुनिया ? तुम तो तमाम चिल्ल पों मचाते हो बताओ जरा कुछ।
गेंद मेरे पाले में थी, बोलने की बीमारी, झट से माइक लपक लिया और लगा सुनाने...198 देश, 15 हजार नेता, सुलगती धरती, कार्बन एमिशन का झगड़ा, अमीर और गरीब मुल्कों के मतभेद, बात पूरी नहीं हुई थी कि पोडियम पर फिर चित्तरकार चढ़ गए। बोले, भाईसाब, नतीजा क्या निकला? मैं बोला कुछ नहीं, तो फिर क्यों हाय तौबा मचाए हो।
चर्चाएं हो रही हैं और नतीजों में चर्चाएं निकल रही हैं। धरती ठंडी करने निकले थे सारे नेता और खुद हवाईजहाज और लीमोज़ीन से हवा गर्म करते हुए कोपेनहेगन चर्चा करने पहुंचे थे। इसी बीच चित्तरकार ने पान का ऑर्डर दे मारा और फिर वापस मुद्दे पर लौट आए।
भाईसाब नेता चर्चा से धरती ठंडी कर रहे हैं। धरती ठंडी करनी है तो चर्चा तो करनी पड़ेगी। चर्चा नेताओं का मौलिक अधिकार है। धरती ठंडी करने के लिए मिजाज के माकूल और ठंडे मौसम में ही बेहतरीन चर्चा हो सकती है। इसलिए विदेश में चर्चा सम्मेलन सभागार का चुनाव भी मौलिक अधिकार है।
चर्चा सभी संकटों का हल है। चर्चा के नतीजों में नेताओं के बीच कितने भी मतभेद हों लेकिन एक मुद्दे पर सारे मतभेद खत्म हो जाते हैं, बाकी चर्चा अगले सम्मेलन में की जाएगी। चर्चा वो महाकाव्य है जिसमें नेता भांय-भांय कर लौट आते हैं, और चर्चा से निकलने वाला अगली चर्चा का रास्ता ही चर्चा का नतीजा होता है। चर्चा से ही सभी कर्तव्यों की पूर्ति होती है। चर्चा से ही धरती ठंडी हो सकती है।
मैं बोला चित्तरकार मामला गंभीर है ऐसी बातें ना करो, लेकिन उन्होंने ग्लोबल लीडर्स को रास्ते में पड़ी कुतिया की तरह लतियाना जारी रखा। मनमोहन सिंह वहां तो पैसे की आड़ लेकर जिम्मेदारियों से मुंह फेरते रहे और यहां शेख हसीना को मिलयनों डॉलर बांट रहे हैं। ये तो वही बात हुई कि घर में ना दाने, और सरकार चले लुटाने। मैं बोला चित्तरकार कहावत तो यूं है...तो बोले चुप करो बे। तुम पत्तरकार हो और दूसरों की कहवतों पर जीते हो। कुछ तो किरयेटिव कर लिया करो।
इतना कहकर चित्तरकार ने मुंह में पान की बहाली कर दी। होठों के कोरों की पीक अंदर खींचते हुए बोले। ये नेताओं के चोचले हैं। नेता और अफसर अमले की विदेश यात्रा और मिजाज़ दुरुस्त रखने के लिए ऐसे सम्मेलन विदेश में रखे जाते हैं। यूं तो नेता जात और कल्याण शब्द का केवल बस और सवारी वाल संबंध है। सत्ता की मंज़िल पर पहुंचकर इस शब्द को ये ऐसे ही छोड़ देते हैं जैसे सवारी बस को। लेकिन अब कल्याण का ठेका खुद प्रकृति ने ले लिया है तो दुनिया के पेट में मरोड़ हो रही है।
गर्मी से ही मानव कल्याण, समता मूलक समाज, रंगभेद और जीवन शैली की ऊंच नीच खत्म होने वाली है। इसीलिए धरती गर्म हो रही है। नेताओं ने कल्याण के लिए बस आंकड़े जुटाने वाली कुछ संस्थाएं बनाई हैं। यूएनडीपी, डब्ल्यूएचओ, वर्ल्ड इकनोमिक फोरम जैसी संस्थाएं अमीरी गरीबी के आंकड़े जुटकार गरीब देशों की बेइज्ज़ती करती रहती हैं। मैं बोला ऐसा नहीं है चित्तरकार ज़रा सुनो। अरे तुम क्या सुनाओगे।
इतने में सामने से बुल्ला गुजरा और चित्तरकार ने हुंकार के साथ उसे बैठने का बुलावा दिया। बुल्ला लपककर बेंच पर ऐसे बैठ गया जैसे उसे राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता मिल गई हो। चूना चाटकर पान की पोटेंसी बढ़ाते हुए चित्तरकार फिर मुद्दे पर लौट आए। नेताओं को लगता है कि बेइज्ज़ती से ही विकास हो सकता है, लेकिन इनके विकास के ‘अपमान पैराडाइम’ का तोड़ अब कुदरत ने ढूंढ निकाला है।
बैरी सर्दी न जाने कितनों की मौत का फरमान लाती है। बूढ़े रज़ाई में टें बोल जाते हैं और गरीब फुटपाथों पर अकड़ जाते हैं। जाड़े की विदाई से अब ज़िंदगियां बचेंगी। गरीब देशों की जन्म मृत्यु दर और जीवन प्रत्याशा बढ़ी हुई दर्ज़ की जाएगी। गर्म कपड़ों में बर्बाद हो रहे पैसे की बचत होगी। फिर गरीब नागरिक भी बारहों मास लाइफ स्टाइल से जियेंगे। गर्मी से गोरे काले का भेद मिटेगा। दुनिया रंग बिरंगी से समतामूलक एक रंगी हो जाएगी
... तो नेताओं से अपील है कि सभी तर्कवीर और बहस बहादुर चर्चा पर चर्चा करते रहें बाकी विकास प्रकृति कर देगी, और तुम सुनो तुम्हारे लिए ये सारा पुराण अलापा है जाओ अपने चैनल में जाकर ऐसा ही पैकेज चलाओ या फिर मुझे लाइव बहस में उतारो। मैंने सोचा आपसे पहले तो पीकदान लाइव उतारना पड़ेगा। उसके बाद बोले आओ सूरज अस्त हो गया। रिजाई जेब में पड़ी है, किसी ठेले पर पकौड़े छनवाएं। मैं बोला तीन दिन पहले ही पी थी, आज नहीं, लेकिन चित्तरकार मेरी कोहनी में हाथ फंसाकर मुझे इस तरह घसीटने लगे जैसे कुत्ता कुतिया को घसीट ले जाता है। चर्चा समाप्त और बैठकी शुरू.. और चित्तरकार ने ढक्कन खोल दिया।
Monday, January 4, 2010
आत्मघाती लो फ्लोर
सुबह-सुबह सूखे नल से जूझकर रात के ठंडे पानी से नहाने का नाच नाचते हुए बस अड्डे पहुंचा हूं। ठंड पर जलवायु परिवर्तन का खासा असर है लेकिन जल निगम की मेहरबानी से मुझे कम सर्दी में ज़्यादा सर्दी का अहसास हो रहा है। कपड़ों के नीचे बदन के रोएं कथक कर रहे हैं। मेरे जैसे तमाम लोग नोएडा के नीचे ज़मीन ऊपर आसमान वाले असीम बस शेल्टर के नीचे खड़े दिल्ली की शान का इंतज़ार कर रहे हैं। सब सड़क के किनारे पर खड़े हैं और बगुले जैसी गर्दन शरीर के दायरे से बाहर निकालकर लगभग सड़क के बीच तक पहुंचा दी है। इंतज़ार का ये तरीका बस के इंतज़ार में ईज़ाद हुआ है।
ये लोग बस का उसी तरह इंतज़ार कर रहे हैं जैसे हर कोई अपनी माशूका के इंतज़ार में परेशान हो। एकाएक सबकी माशूका हरियाली बिखेरती, चमचमाती, दिल्ली की शान लो फ्लोर आकर थम जाती है। उसके चौड़े दरवाज़े की तरफ उसके आशिकों की भीड़ लपकती है। इंतज़ार में आधी हो चुकी इस भीड़ को जनसुविधा की खातिर बनाया गया इसका तमाम चौड़ा दरवाज़ा भी कम पड़ रहा है। सब बस पर ऐसे टूट पड़े हैं जैसे अंदर भंडारे का प्रसाद बंट रहा हो। लपक-लपककर बैठ रहे लोग इस बात का सबूत दे रहे हैं कि वे सुबह-सुबह योग के आसनों से चुस्ती बटोरकर निकले हैं। लपककर सीट पर टपकने का काम खत्म हो जाने के बाद भी बस खाली है। कुछ लोगों को ये देखकर अपनी जल्दबाजी और कुलांचों पर शर्म भरी हंसी हंसते देखा जाता है। मैं पीछे की तरफ बैठने जाता हूं लेकिन एक ख्याल से सिहर जाता हूं। इंजिन पीछे है और आग के शोले या धुएं के बगूले पीछे से ही उठेंगे। इसलिए कदम ठहर जाते हैं और मैं आगे की तरफ ही एक सीट से चिपक जाता हूं। मन में डर है कि बस लाख का महल है कभी भी धू-धू कर जल उठेगी। इसलिए दरवाज़े के निकटवर्ती सीट पर टिक गया हूं। इसके बाद आपातकालीन दरवाज़े की खोज शुरू कर दी है। पड़ोस वाली खिड़की का शीशा बजाकर देख लिया है। कांच है ज़रूरत पड़ने पर टूट जाएगा। अपनी टांगों की ताकत और शीशे की मजबूती का तुलनात्मक अध्ययन कर लिया है। उम्मीद है कि मरता क्या न करता वाले हालात में शीशा को चकनाचूर कर दूंगा। लो फ्लोर मुझे फिदायीन लग रही है।
अगले स्टैंड से हिंदुस्तान का छैला, आधा उजला आधा मैला की तर्ज़ पर एक छैला बांका मेरे पास वाले पोल को अपनी कमर के बीच फंसाकर खड़ा हो जाता है। उसकी कमर का वज़न पाइप और मेरे कंधे पर बराबर पड़ रहा है। मैं गुज़ारिश करता हूं कि वो सीधा खड़ा हो जाए। लेकिन वो उसी तरह डटा खड़ा है जैसे पचास साल से फायरिंग के बीच ‘सीमा’ डटी खड़ी है। उसपर मेरी गुज़ारिश का उतना भी असर नहीं पड़ता जितना अफ्रीका में फेयर एंड लवली क्रीम के विज्ञापन का। बस बेआवाज़ सरपट चल रही है। अचानक ड्राइवर ब्रेक पर खड़ा हो जाता है। दिल में धुकर पुकर होने लगती है। पता लगता है कि ड्राइवर ने एक ज़िदगी से ऊब चुके मोटरसाइकिल सवार की आत्महत्या का प्रयास विफल कर दिया है। ड्राइवर अलग अलग तरह के सायरन बजाकर अपनी प्रयोगधर्मिता से सवारियों के कान फोड़ रहा है। कंडक्टर और ड्राइवर में बस की स्विच प्रणाली पर ज़िरह हो रही है।
आगे चलकर रबड़ के जलने की चिड़ांध नाक में बिना इजाज़त घुस आती है। सबके चेहरे पीले हो गए हैं। सब दाएं बाएं देख रहे हैं लेकिन किसी दिशा से धुंआ उठता नहीं दिखता है। ये राज़ भी खुलता है। सड़क के किनारे पर कोई फुटपाथिया पर्यावरण और देह को गर्म करने के लिए प्लास्टिक या टायर फूंक रहा है। अब बस एक ‘आग संभावित क्षेत्र’ से गुज़र रही है। मैं दुआ कर रहा हूं कि ये जगह किसी तरह पार हो जाए। वहां पहले भी दिल्ली की शान दो बार आग की चपेट में आ चुकी है। मैं आग लगने की संभावना से बचाव के उपाय तलाश रहा हूं। एक मात्र सिलेंडर नज़र आता है। मन कहता है कि कुछ नहीं होने वाला। यहां फायर ब्रिगेड स्टेशन ही लगाने की जरूरत है।
सफर में लो फ्लोर का मज़ा लेने से ज्यादा दिल आग के खतरे से दो चार हो रहा है। ब्लड प्रेशर नॉर्मल से हाई हो चला है। इससे भली तो वो ब्लू लाइन ही थी जो नोएडा से डायनासोर की तरह विलुप्त कर दी गई। कंडक्टर भले ही सवारी को जूतियाए या गरियाए लेकिन जान तो सलामत थी। वो चलती फिरती ऐसी बंकरबंद मिसाइल थी जो सवार को नहीं बल्कि सामने वाले को नष्ट करती थी। उसका जनता में खौफ था, इसका सवार के मन में खौफ है। ये फिदायीन पता नहीं कब फट पड़े और अपने साथ हमें भी ले बैठे। इसी सोच के साथ किसी तरह सफर खत्म होता है। कंडक्टर उतरते हुए मेरी तरफ देखकर मुस्करा देता है और मैं जान की सलामती और मंज़िल पर पहुंचने की खुशी से झूम उठता हूं।
ये लोग बस का उसी तरह इंतज़ार कर रहे हैं जैसे हर कोई अपनी माशूका के इंतज़ार में परेशान हो। एकाएक सबकी माशूका हरियाली बिखेरती, चमचमाती, दिल्ली की शान लो फ्लोर आकर थम जाती है। उसके चौड़े दरवाज़े की तरफ उसके आशिकों की भीड़ लपकती है। इंतज़ार में आधी हो चुकी इस भीड़ को जनसुविधा की खातिर बनाया गया इसका तमाम चौड़ा दरवाज़ा भी कम पड़ रहा है। सब बस पर ऐसे टूट पड़े हैं जैसे अंदर भंडारे का प्रसाद बंट रहा हो। लपक-लपककर बैठ रहे लोग इस बात का सबूत दे रहे हैं कि वे सुबह-सुबह योग के आसनों से चुस्ती बटोरकर निकले हैं। लपककर सीट पर टपकने का काम खत्म हो जाने के बाद भी बस खाली है। कुछ लोगों को ये देखकर अपनी जल्दबाजी और कुलांचों पर शर्म भरी हंसी हंसते देखा जाता है। मैं पीछे की तरफ बैठने जाता हूं लेकिन एक ख्याल से सिहर जाता हूं। इंजिन पीछे है और आग के शोले या धुएं के बगूले पीछे से ही उठेंगे। इसलिए कदम ठहर जाते हैं और मैं आगे की तरफ ही एक सीट से चिपक जाता हूं। मन में डर है कि बस लाख का महल है कभी भी धू-धू कर जल उठेगी। इसलिए दरवाज़े के निकटवर्ती सीट पर टिक गया हूं। इसके बाद आपातकालीन दरवाज़े की खोज शुरू कर दी है। पड़ोस वाली खिड़की का शीशा बजाकर देख लिया है। कांच है ज़रूरत पड़ने पर टूट जाएगा। अपनी टांगों की ताकत और शीशे की मजबूती का तुलनात्मक अध्ययन कर लिया है। उम्मीद है कि मरता क्या न करता वाले हालात में शीशा को चकनाचूर कर दूंगा। लो फ्लोर मुझे फिदायीन लग रही है।
अगले स्टैंड से हिंदुस्तान का छैला, आधा उजला आधा मैला की तर्ज़ पर एक छैला बांका मेरे पास वाले पोल को अपनी कमर के बीच फंसाकर खड़ा हो जाता है। उसकी कमर का वज़न पाइप और मेरे कंधे पर बराबर पड़ रहा है। मैं गुज़ारिश करता हूं कि वो सीधा खड़ा हो जाए। लेकिन वो उसी तरह डटा खड़ा है जैसे पचास साल से फायरिंग के बीच ‘सीमा’ डटी खड़ी है। उसपर मेरी गुज़ारिश का उतना भी असर नहीं पड़ता जितना अफ्रीका में फेयर एंड लवली क्रीम के विज्ञापन का। बस बेआवाज़ सरपट चल रही है। अचानक ड्राइवर ब्रेक पर खड़ा हो जाता है। दिल में धुकर पुकर होने लगती है। पता लगता है कि ड्राइवर ने एक ज़िदगी से ऊब चुके मोटरसाइकिल सवार की आत्महत्या का प्रयास विफल कर दिया है। ड्राइवर अलग अलग तरह के सायरन बजाकर अपनी प्रयोगधर्मिता से सवारियों के कान फोड़ रहा है। कंडक्टर और ड्राइवर में बस की स्विच प्रणाली पर ज़िरह हो रही है।
आगे चलकर रबड़ के जलने की चिड़ांध नाक में बिना इजाज़त घुस आती है। सबके चेहरे पीले हो गए हैं। सब दाएं बाएं देख रहे हैं लेकिन किसी दिशा से धुंआ उठता नहीं दिखता है। ये राज़ भी खुलता है। सड़क के किनारे पर कोई फुटपाथिया पर्यावरण और देह को गर्म करने के लिए प्लास्टिक या टायर फूंक रहा है। अब बस एक ‘आग संभावित क्षेत्र’ से गुज़र रही है। मैं दुआ कर रहा हूं कि ये जगह किसी तरह पार हो जाए। वहां पहले भी दिल्ली की शान दो बार आग की चपेट में आ चुकी है। मैं आग लगने की संभावना से बचाव के उपाय तलाश रहा हूं। एक मात्र सिलेंडर नज़र आता है। मन कहता है कि कुछ नहीं होने वाला। यहां फायर ब्रिगेड स्टेशन ही लगाने की जरूरत है।
सफर में लो फ्लोर का मज़ा लेने से ज्यादा दिल आग के खतरे से दो चार हो रहा है। ब्लड प्रेशर नॉर्मल से हाई हो चला है। इससे भली तो वो ब्लू लाइन ही थी जो नोएडा से डायनासोर की तरह विलुप्त कर दी गई। कंडक्टर भले ही सवारी को जूतियाए या गरियाए लेकिन जान तो सलामत थी। वो चलती फिरती ऐसी बंकरबंद मिसाइल थी जो सवार को नहीं बल्कि सामने वाले को नष्ट करती थी। उसका जनता में खौफ था, इसका सवार के मन में खौफ है। ये फिदायीन पता नहीं कब फट पड़े और अपने साथ हमें भी ले बैठे। इसी सोच के साथ किसी तरह सफर खत्म होता है। कंडक्टर उतरते हुए मेरी तरफ देखकर मुस्करा देता है और मैं जान की सलामती और मंज़िल पर पहुंचने की खुशी से झूम उठता हूं।
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