एक बड़ी संज़ीदा ख़बर पढ़ी। गधे ख़त्म हो रहे हैं। कमजोर और बोझ ढोकर अपंग हो चुके गधों को अब यूथेन्सिया का इंजेक्शन देकर मारा जा रहा है। अब कुछ दिनों बाद शायद किसी गली नुकक्ड़ पर लतियाने के लिए खड़े न मिलें ! ऐसा हुआ तो कई कहावतें मर जाएंगी। गधा हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है। गधा खीझ और खु़शी दोनों की वज़ह बनता है। मसलन कोई आपको गधा नाम से पुकारे तो खीझ और विरोधी को पुकारे तो खु़शी। गधा हमारे अलग-अलग तरह के भावों को असरदार तरीके से उजागर करने का आसानी से उपलब्ध माध्यम है। गधे में हास्य है, ईर्ष्या है, उपहास है, सांकेतिक बुद्धिहीनता है, आंखफाड़ू आश्चर्य है, तो बदकिस्मती का ‘जिम्मेदार’ भी। गधा पुराना होते हुए भी उतना ही नया है जितनी ललित कला। समझ से परे और अबूझ। कौन जाने कब कौनसा रूप धारण कर ले। गलियों में सीपों-सीपों करते गधे हमारे समाज का अभिन्न हिस्सा हैं। ये प्रण की प्रेरणा हैं। अडिग हैं अटल हैं, खड़े हुए तो चट्टान और बिगड़ गए तो तूफान। गधे से हमारे समाज को कई तरह की प्रेरणाएं मिलती हैं। गधा एकाग्रता, आंदोलन, बंद, हड़ताल, जाम, अफसरशाही का उदाहरण है। अगर शोध किया जाए तो समाज की कई कार्रवाई, रीतियां और कार्यशैली गधे में समाई हैं। लगता है गधा आदि है। उसने समाज को जीना सिखाया है या फिर उत्सुक मानव मन ने उसके व्यक्तित्व के कई पहलुओं को अंगीकार किया है। जिसे जो सुटेबल लगा ले लिया। उसका महत्व सामाजिक, मुहावरे, शिक्षा और राजनीतिक मोर्चों पर बड़ा अहम है।
हमारे बचपन में मास्साब को हर बालक में गधे की छवि जान पड़ती थी। इसलिए वो बिना कोई देर किए सब गधों को क्लासरूम से निकालकर स्कूल के आंगन में घास छीलने पर लगा देते थे, और सांझ ढले एक मोटी गठरी अपनी भैंसिया के लिए ले जाया करते थे। सब गधे, गधाभाव से अटल होकर तपती दोपहर में प्रणपूर्वक गधे की सी तन्मयता से घास छीलने का काम करते थे। जैसे गर्मी में अपने पीछे की सूखी घास देखकर गधा इस भ्रम में मोटा होता है कि आज उसने इतना खा लिया, वैसे ही इन गधों की सेहत भी घास के ही रहमोकरम पर थी। घास छिली तो जान बची, नहीं छिली तो हाड़ तुड़े। दर्जे़ में बैठते ही मास्साब कहते गधे के बच्चों सुनाओ पहाड़ा। क्या बजाते थे पकड़कर, मुक्का कमर में और वाइब्रेशन पेट के साथ ही पूरे कमरे में गूंज जाता था। विद्यार्थी से घसियारे ही भले।
गधों की दलभावना से हमारी राजनीति ने बहुत बड़ी सीख ली है। एक गधे के पीछे सैकड़ो गधे। जिधर एक चला उधर सब चले। यही तो राजनीति की धमनियों में रची-बसी मानसिकता है। एक वरिष्ठ गधे के पीछे सैकड़ों चमचे गधे, उनके पीछे टेल लैंप गधे। उन टेल लैंप्स के अलग पुछल्ले, पुछल्लों के अलग दुमछल्ले और दुमछल्लों के बाद आए किराए के गधे। जो गधा जमावड़ा रैलियों में जाकर सीपों-सीपों करते हैं। गधे की निजी प्रोटोकॉल है। वैसे ही नेताओं की भी प्रोटोकॉल है। सड़क पर खड़े होने के बाद गधे को वीवीआईपी सम्मान देते हुए रिक्शा से लेकर बस तक दाएं-बाएं से निकल जाती हैं। वैसे ही जब नेता निकलते हैं तो सड़कें जाम हो जाती हैं। राजनीति ने गधे से दलभावना, आंदोलन, बंद, हड़ताल, तोड़-फोड़, धरना, अनशन, चिंतन, बैठक, जाम पूर्ण रैलियां, लीडरशिप, प्रोटोकॉल जैसे अहम दृष्टिकोण लिए हैं, लेकिन आज आदि गधे के अंत के लिए राजनीति ही जिम्मेदार है। गधों के पतन की रिपोर्ट कहती है कि खराब सड़कों और बेहिसाब बोझे ने इनकी हड्डियों की ताकत निचोड़ ली है। खराब सड़कें इनके ही अनुयायियों की देन हैं। नेता जी सड़कों का पैसा हजम कर गए और गुरू को दक्षिणा में मौत का धीमा ज़हर दे गए। इसलिए गधे अब संन्यास ले रहे हैं। मैं हैरत में हूं। गधों से राजनीति सबसे पहले सबक सीखती है। अपने घरवालों के दुत्कारे जाने और विरोध जताने के बावजूद जिसने राजनीति से संन्यास नहीं लिया वह गधों को संन्यास लेते देखकर तुरंत इस फॉर्मूले पर अमल कर रहा है। एक वरिष्ठ नेता ने अपने संन्यास और पद त्याग के संकेत दे दिए हैं। ये शोध कहता है कि गधा राजनीति का अप्रत्यक्ष शुभांकर (मैस्कट) है। राजनीति में बाकी के लाचार गधों से पूछ लो अमल करेंगे या यूथेन्सिया का इंजेक्शन लेंगे ?
7 comments:
सवाल ही नहीं उठता गधे ख़त्म नहीं हो सकते...गधे अमर हैं...
गधे नश्वर हैं। यह महज शरीर नहीं। स्वाभाव और अपने जीने के निराले दर्शन से समाज मंे आत्मा बनकर विचरण कर रहे हैं। इनका शरीर मर सकता हैं लेकिन इनकी शैली सदा जीवत रहेगी। उनके सब गधे के रूप में जिन्हें भगवान ने गलती से शरीर गधे का नहीं दिया। लेकिन बहुत कुछ गधे सा है। गधे मर नहीं सकते। विलुप्त नहीं हो सकते। खासकर जब तक मानवजाति है।
गधे अमर हैं.nice
ई देखो बाबा जी ने गदहा चिंतन करने के लिए बीसियों लाइन ठेल डालीं...जरा काजल कुमार की टिप्पणी देख लीजिएगे...गदहों को अमृत दे दिया है इन्होंने ...वैसे एक बात तो है...गदहों पर मनन करने के लिए गहदों जैसा दिमाग भी जरुरी है...
अनुपम जी, आपके कमेंट से इत्तेफाक रखता हूं। आज देख रहा हूं कि अपने संस्थान से लेकर सत्ता प्रतिष्ठान तक गधे पंजीरी खा रहे हैं, ऐसे में गधा बनने से क्यों परहेज करुंगा? प्रयास कर रहा हूं शायद गधा बनकर ही गधे सिस्टम को मेरी पहचान हो सके और किसी तरह उद्धार हो जाए। जय गधा पुराण।
मधुकर जी आपने मानव जाति के लिए प्रेरणास्रोत रहे ईमानदार और सीधे-सादे जीव पर जिस संजीदगी से प्रकाश डाला है, वो बेहद सराहनीय है। लेकिन इनके संन्यास की उम्मीद मुझे कम ही है, मुझे तो लगता है कि गदहे महराज तो सिर्फ यूथेन्सिया के ही काबू में आएंगे।
Post a Comment