Thursday, February 23, 2012

यूं अचानक विदा हो गए आप

20 फरवरी 2012, सोमवार, शाम 4.30 बजे

जेब में पड़े मोबाइल की घंटी बजती है। साधना न्यूज़, मध्य प्रदेश से एक मित्र का फोन था। हैलो बोलते ही दूसरी तरफ से आवाज़ आई। शाह जी के बारे में कोई जानकारी है ? मैंने हैरानी से कहा, मतलब ? दोस्त ने बताया ख़बर आ रही है कि मध्य प्रदेश में सिहोर के पास उनका गंभीर एक्सीडेंट हुआ है। ज़रा कहीं से पता करो।

कितनी बेचैनी भरा था वो एक घंटा

एक घंटे तक कहीं से कोई पुष्ट जानकारी हासिल नहीं हो पा रही थी। अनिष्ट की आशंका से मन घबराया था। अपने वरिष्ठ मित्र मौर्या टीवी के दिल्ली ब्यूरो चीफ प्रमोद चतुर्वेदी को फोन मिलाया। अमूमन हैलो सुनने वाले कान में सीधे आवाज़ आई कि बुरी ख़बर है भाई। दिल बैठ सा गया। फिर रुंधी हुई आवाज़ शाह जी हमारे बीच नहीं रहे। मुंह से बस ओह निकला। कुछ कहने को नहीं था। कुछ समझ नहीं आ रहा था। सही जानकारी नहीं होने पर तमाम बेचैनियों ने दिमाग को घेर रखा था, लेकिन सही जानकारी ने बेचैनी और बढ़ा दी थी। फोन काट दिया था। पता नहीं क्यों आसमान की तरफ देखने लगा। स्ट्रीट लैंपों की रोशनी के बीच से साफ-साफ नहीं दिखा लेकिन एक शख़्सियत थी जो सामने दिखाई दे रही थी। एक दम शफ़्फ़ाफ़। दाढ़ी भरे चेहरे पर रवीन्द्र जी की जोशीली, चमकती आंखें। लग रहा था सामने हैं और यकायक अपने हिट ज़ुमले अबे साले से शुरुआत करते हुए मीठी-मीठी झाड़ लगाने लगेंगे।

2009, आज़ाद न्यूज़

हालात ऐसे बने कि अचानक एक प्रमोशन मिल गया। कॉपी राइटर से कॉपी एडिटर बना दिया गया। काम के बोझ में इज़ाफ़ा हुआ था वेतन में नहीं। ईमानदारी से अपना काम कर रहा था। मेहनत से कभी दिल नहीं चुराया। यारी-दोस्ती में शिफ्ट के बाद भी काम के लिए रुकता रहता था। उस वक्त कमलकांत गौरी जी आउटपुट हेड थे। हमेशा उन्हें मेरे काम से कोई न कोई शिकायत रहती थी। वो मुझे हमेशा कामचोर क़रार देते रहे। शाम को शिफ्ट ख़त्म होने से पहले मुझे उन्हें लिस्ट बनाकर रिपोर्ट करना होता था कि मैंने कितने पैकेज, एवी लिखे हैं और कितनी कॉपियां एडिट की हैं। 10 एवी, 5 पैकेज, 15 कॉपियां एडिट करने पर भी मुझे हमेशा यही सुनने को मिलता कि बस इतना ही किया। कुछ काम-वाम किया करो यार। यह कहते हुए गौरी जी के चेहरे के भाव मेरे लिए हिकारत से भरे होते। मेरी उनसे न ज़ाति दुश्मनी थी न पुरानी जानकारी। पता नहीं क्यों गौरी जी मुझसे ख़फ़ा रहते थे ? ये अलग बात थी कि कभी-कभी कॉपी लिखने वालों से और अपनी कॉपी में हैलिकॉप्टर को रनवे पर दौड़ाने वाले होनहारों से गौरी जी हमेशा संतुष्ट दिखे। कुछ ख़ास प्रोग्रैम्स के लिए कई बार गौरी जी ने मुझे चुना लेकिन मैं उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाया। शायद मेरी ही ख़ामी थी।

इन दिनों रवीन्द्र शाह जी के आज़ाद न्यूज़ आने की चर्चा न्यूज़ रूम में तरह-तरह के विचार पैदा कर रही थी। कोई उन्हें हरामी कहता कोई लड़कीबाज़। कोई अक्खड़ तो कोई बदतमीज़। मैं पूर्ववत अपने काम में लगा था। पहले कभी मुलाक़ात नहीं होने के चलते उनके व्यक्तित्व के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। आख़िर वो दिन भी आया जब रीवन्द्र जी ने इनपुट की कमान संभाली। उनके संपर्क में आने वाले हमारे पहले साथी थे मृत्युञ्जय कुमार। इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीति, वैश्विक घटनाक्रम पर इनकी गहरी पकड़ है। पहली ही मुलाक़ात में इन्होंने रवीन्द्र जी को प्रभावित किया। गौरी जी के समय में ये मित्र भी तटस्थता के शिकार रहे। इन्हें आउटपुट के लिए लायक नहीं समझा गया। क्योंकि ये ज्ञान अधिक बांटते थे और गौरी जी को ज्ञान से सख्त नफ़रत थी। भला हो कि सैम पित्रोदा को इस बात का पता नहीं लगा वरना नॉलिज कमीशन का चेयरमैन रहने पर उन्हें अफ़सोस होता। रवीन्द्र जी के आने के बाद चैनल की आंतरिक राजनीति में हलचल मची थी। कुछ समय गुज़रने के बाद रवीन्द्र जी ने आउटपुट की कमान संभाल ली।

जोशीली आवाज़

रवीन्द्र जी से पहली मुलाक़ात मृत्युञ्जय ने ही कराई थी। वेनेजुएला की भू नीति पर उनसे पहली चर्चा हुई थी। अपनी सतही जानकारी को और गहरा करके उनके केबिन से बाहर निकला था। उनकी शैली गज़ब की थी। आवाज़ में सम्मोहन था और तेवरों में जोश। उनके ड्रेसिंग सेंस का मैं शुरुआती दिनों में ही फ़ैन हो गया था लेकिन चंद मुलाक़तों ने उनके व्यक्तित्व का फ़ैन बना दिया। आउटपुट की कुर्सी संभालने के बाद रवीन्द्र जी ने पहला काम सबके ऑफ कैंसिल करने का किया। अब रोज़ सुबह ख़बरों की चीरफाड़ होती थी। सुबह एक मीटिंग बुलाकर रवीन्द्र जी पुरानी टीम को नए जोश से लबरेज़ करते। आम तौर पर हंसते रहने वाले रवीन्द्र जी सोचने की मुद्रा में दाढ़ी को सहलाते हुए बहुत गंभीर नज़र आते थे। मैं भी दाढ़ी रखता था और बाद में हमारी बढ़ती नज़दीकियों को देखते हुए लोगों ने कहना शुरू कर दिया था कि दाढ़ी-दाढ़ी को देखकर रंग बदल रही है।

वो पहली बार जब बरसे थे

डेस्क पर रखा फ़ोन बजा था। रवीन्द्र जी की आवाज़। नीचे रिसेप्शन पर आओ। मैं चला गया। टीवी देख रहे थे। बोले, ये विंडो में क्या लिखा है। मैंने पढ़ा। संघ का काम सक्रिय राजनीति नहीं। फिर पढ़ो। फिर वही दोहरा दिया। आंखें खोलो बरखुरदार। नींद में हो क्या। काम कहां लिखा है। आंखें खोलकर काम किया करो। रात को ज़्यादा दारू पी ली थी क्या जो डेस्क पर सोते रहते हो ? मैंने सॉरी बोला था। उन्होंने कहा था सावधानी बरतो ताकि सॉरी न बोलना पड़े। ठीक है सर।

कुछ दिनों बाद बेनज़ीर भुट्टो पर एक प्रोग्राम जाना था। एक साथी ने इमरान ख़ान से नज़दाकियों को लेकर उनके ऊपर एक पैकेज तैयार किया था। प्रोग्राम रन हो चुका था और पैकेज उसी प्रोग्राम में लगना था। खाली स्लग लिखकर मैंने पैकेज छोड़ दिया था। रवीन्द्र जी बराबर टीवी मॉनिटर करते थे। एक आपत्तिजनक लाइन जाने पर मेरी लंबी क्लास लगाई थी। लोग भले समझते हों कि नज़दीकियों के चलते मृत्युञ्जय और मेरी झाड़ नहीं पड़ती थी लेकिन गलती होने पर वो किसी को बख्शते नहीं थे। सबको यह भी शक था कि हम चैनल की गुटबंदी की ख़बरें उन तक पहुंचाते हैं लेकिन सच यह था कि उन्होंने कभी हमसे इस बारे में बात नहीं की। वो सारे घटनाक्रम को इग्नोर करते और हमेशा अपने काम में लगे रहते। एक बार कहा था उन्होंने, टीवी की दुनिया यही है। राजनीति चलती है। ताबड़तोड़ तेल मालिश भी, लेकिन इग्नोर करो। ज़्यादातर लोगों का बेसिक बिहेवियर यही होता है। धीरे-धीरे रवीन्द्र जी अब मेरे शाह सर होने लगे थे। न उन्हें लड़कीबाज़ी करते देखा था न बदतमीज़ी। काफ़ी लोग उनसे संतुष्ट दिखते थे, लेकिन गुटबंदी की ग्रंथी के शिकारों को कोई संतुष्ट नहीं कर सकता। सो यहां भी असंतुष्ट तो थे ही। हां, इतना ज़रूर था कि विरोधियों को एक मेज़ पर लाकर शाह सर संवाद क़ायम करने में सफ़ल रहे थे।

जब उनका नमकीन और बिस्किट चुराए थे

उनके मेज़ की दराज़ में हमेशा मिक्सचर नमकीन (जिसे मद्रासी भी कहते हैं) और बिस्किट रखे होते थे। 2010 आने वाला था। एक दशक के बड़े घटनाक्रमों पर उन्होंने प्रोग्राम की ज़िम्मेदारी दे रखी थी। रात के 11 बजे होंगे। काम से थक चुका था। शायद मोबाइल पर बात करते-करते उनके केबिन में घुस गया था। अचानक दराज़ खोली और नमकीन बिस्किट के डिब्बे निकाल लिए। जमकर खाया। हालांकि उन्होंने अपने हाथों कई बार खिलाया था लेकिन इस वक्त स्वाद दोगुना लग रहा था। शायद इसलिए कि खाने में सकुचाहट नहीं हो रही थी। डिब्बे लगभग खाली लग रहे थे। डर था कि कल सुबह पूछेंगे तो नहीं, लेकिन कोई सवाल नहीं किया न ही किसी और से कुछ सुनने को मिला। सोचा था इस चोरी को ज़रूर कन्फेस करूंगा लेकिन भूल गया। उनके हाथों का बना पोहा भी लजीज़ होता था। उन्होंने खिलाया था एक बार।

वो भावुक लम्हें

उन्होंने केबिन में बुलाया था। पहला सवाल था। कितने पैसे मिलते हैं तुम्हें यार ? मैंने कहा, 4000। ओह। ग़लत है। मैं बात करूंगा। तुम आराम से काम करो। पैसे की ज़रूरत हो तो बताना। मेरा दिल भर आया था। रोने का मन कर रहा था लेकिन किसी तरह ख़ुद को संभाल लिया। उनकी दरियादिली मैंने मृत्युञ्जय के लिए देखी थी। पता नहीं कितनी बार उसे पांच-पांच सौ रुपये दिये होंगे लेकिन वापस देते न मृत्युञ्जय को देखा न उसने कभी बताया। उन्होंने अपने द्वारा संपादित एक किताब दी थी पढ़ने को हरसूद 30 जून। जो पढ़कर मैंने उन्हें वापस कर दी थी। उन्होंने मुझे काम करने का स्पेस दिया था। सृजनशील उस व्यक्तित्व ने रचनाशीलता को हमेशा सराहा। जिस आत्मविश्वास को मैं गौरी जी की टीम में खोने के कगार पर था उन्होंने उसे पुख्ता तरीके से मेरे भीतर बहाल किया था। कई बार शिफ्ट खत्म होने के बाद फ़ोन करते थे। कहां हो यार ? सर बाहर निकला हूं अभी-अभी। ज़रा आओ और एक पैकेज लिख दो। मैं चाहता हूं तुम ही इसे लिखो। मधु कोड़ा पर लिखे एक व्यंग्यात्मक पैकेज पर उन्होंने मुझे 500 रुपये पुरस्कार राशि भी दिलाए थे। चापलूसी और जेंडरोक्रेटिक व्यवस्था के मकड़जाल में उलझे उस संस्थान में शाह सर पहले थे जिन्होंने मेरिटोक्रेटिक व्यवस्था की नींव रखी थी। उन्होंने मुझमे मेरी ख़ामियों के बावजूद भरोसा जताया था। हमेशा कुछ न कुछ नया सिखाते रहते थे।

26/11 की पहली बरसी पर चैनल की वीपी तानया वालिया ने बाइट दी थी कि ‘‘हम आंतकवाद के साथ हैं।‘’ उधर चैनल के ही एक एंकर ने प्रोग्राम के ऑपनिंग इंट्रो में दर्शकों को 26/11 की बरसी की मुबारकबाद भी दी थी। गुस्सा था, कहां काम कर रहे हैं यार! एक एसएमएस क्षणिका लिखकर शाह सर को भेजी थी। केबिन में बुलाया और मुझसे पढ़ने को कहा। कुछ यूं थी, एलीटों के देखिये कैसे-कैसे रंग, वीपी कहे आज़ाद की हम आंतकवाद के संग, वीपी आतंकवाद के संग एंकर विश करता बरसी, पत्रकार हो भैया या बेअक्ल गाय तुम जर्सी, बेअक्ल हुए बाक़लम इन्हें कोई देवे शुभाशीष, सुनकर इनकी बात पीट रहे मत्था ख़बरनवीस। मैंने पढ़ा तो ख़ूब ज़ोर से हंसे। वो हंसी आज कानों में गूंज रही है। बोले बढ़िया है यार, लिखा करो। हमारी मजबूरियां ही हैं कि हम ऐसे लोगों के साथ काम करते हैं। इन्हीं को हालात कहते और सामंजस्य सबसे बढ़िया औज़ार है।

9 अप्रैल 2010

उस दिन बतौर अफ़सर और कर्मचारी हमारी आख़िरी मुलाक़ात थी। मैंने उन्हें बताया कि दैनिक भास्कर जॉइन कर लिया है। उन्होंने हाथ आगे बढ़ाया, शुभकामनाएं दीं। गर्मजोशी से काम करने की सलाह दी। बोले मैंने बात कर ली थी। मई में तुम्हें 8000 वेतन मिलना तय हो गया था, लेकिन जाओ बेहतर संस्थान में काम करो और अपनी बेहतर दुनिया रचो। मैंने पैर छूकर आशीर्वाद लेना चाहा लेकिन रोक दिया। बोले आशीर्वाद हमेशा साथ रहेगा, इसकी कोई ज़रूत नहीं। फ़ोन करते रहना। इसके बाद आज़ाद में ही दो मुलाक़ातें और हुईं। बाद में शाह सर आउटलुक चले गए। अक्सर फ़ोन आता था। कभी-कभी कहते मेरी स्टोरी पढ़ी थी। प्रतिक्रिया जानते और कहते अबे साले, फ़ोन तो करते नहीं हो। मैं ही करता हूं। मैं हर बार कहता कि आगे से ऐसा नहीं होगा।

14 फ़रवरी 2012

दोपहर को फ़ोन आया था। लैंडलाइन नंबर था। मूड न होते हुए भी उठा लिया। उधर से शाह सर की आवाज़ आई। क्या हाल हैं भाई ? ठीक हूं सर। बिज़ी तो नहीं हो। नहीं-नहीं। बस ऑफिस से निकलने ही वाला था। कहां ? आज मैरिज ऐनिवर्सरी है। बस यूं ही कहीं घूमने। मुबारक हो भाई। सांसारिक जिम्मेदारियां सही से निभा रहे हो ना ? जी सर। अच्छा मृत्युञ्जय कहां है ? जागरण पोस्ट। सालों सही जगह लग गए तो भूल गए। फ़ोन ही नहीं करते हो। उससे कहना फ़ोन करेगा। सर अगली बार ऐसा नहीं होगा। मैं ही फ़ोन करूंगा। चलो ठीक है। वैसे एक अंग्रेजी रिपोर्टर की ज़रूरत है। ठीक है सर। तुम्हारी नज़र में कोई हो तो बताना। जी सर। चलो फिर बात करूंगा। मृत्युञ्जय से कहना मुझे फ़ोन करे। जी सर, प्रणाम। प्रणाम।

20 फ़रवरी 2012

रात को बिस्तर पर लेटे-लेटे शाह सर नज़र आ रहे हैं। कभी हंसते, कभी डांटते। कभी भौंहे ऊंची करके आश्चर्य जताते। कभी दाढ़ी सहलाते और नेपथ्य से आवाज़ अब भी आ रही है अबे साले। उनकी शिकायत दूर नहीं कर सका। अब कभी फ़ोन नहीं कर पाऊंगा। नियति को यह मंज़ूर नहीं था। बिस्किट चोरी का कन्फेशन, महज़ एक फ़ोन कॉल। कुछ भी तो नहीं कर पाया। मोबाइल हाथ में है। खारी आंखों से नंबर डिलीट कर रहा हूं। धुंधला सा दिखता है शाह सर। डिलीट कॉन्टेक्ट। ओके। शाह सर, अलविदा। हमारी दुनिया की फाइल से आपको ऊपर वाले ने डिलीट कर दिया। आप हमेशा याद आओगे।

6 comments:

Unknown said...
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Unknown said...

सही कहा मधुकर भाई, यूं तो आजाद न्यूज में शिफ्ट इंचार्ज होने के वजह से अपनी टीम के हिस्से की डांट मैं ही खाया करता था, कई बार गुस्सा भी आता था लेकिन आखिर अपनी टीम का नेतृत्वकर्ता तो में ही था वो मेरे। फिर उनको अपनी जगह पर लेकर महसूस करता था वो ठीक कर रहे हैं। वो एक संजीदा और ज्ञानी पुरूष थे। काम के अलावा सबसे ज्यादा प्रभावित किया मुझे उनके टाईम मैनेजमेंट ने...

Mrityunjay Kumar said...
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Mrityunjay Kumar said...

said...

मेरा शाह सर के बारे में एक्सपीरियंस आजाद न्यूज़ के पहले से था. पत्रकारिता की पढाई २००८ में खत्म होने के बाद पहली बार मैं किसी टीवी चैनल में नौकरी के लिए इनर्व्यू देने गया था- एस वन चैनल में- जहाँ मेरी उनसे मुलाक़ात हुई थी. उस मुलाक़ात का एक-एक पल न सिर्फ उनसे आजाद में दोबारा मिलाने तक ताज़ा रहा बल्कि वो आज भी मेरे ज़ेहन में ताज़ा है. दोबारा आजाद में मिलने के बाद और भी कई बड़े तजुर्बों से मैं रु-बा-रु हुआ... शाह सर की शोहबत में. ये सरे तजुर्बे (Pre and Post Azad) मुझे आज भी हैरत से भर देते हैं. वो सच में एक बेमिसाल शख्स थे और अपने आसपास के लोगों को चौकाना उनकी फितरत थी...

Unknown said...

काली दाढ़ी। पीली कमीज़। धारीदार काली पैंट। उस दिन शाह सर अद्भुत लग रहे थे। जब मैं पहली बार उनके केबिन में जाकर मिला। मुझे अपनी तकलीफ बताने के लिए मधुकर ने ही प्रेरित किया था। इसलिए मैं अपना दुखड़ा कहने शाह सर के पास गया। उस रोज़ उन्होंने मेरी हर बात को और हर तकलीफ को बेहद शांति पूर्वक सुना। और करीब बीस मिनट तक मुझसे बात करते रहे। और बोले यार छोड़ो ये सब छोटे लोग हैं। तुम अपना काम करते रहो। एक है जो हर किसी के साथ न्याय करता है। उनका ये शब्द मैं हमेशा याद रखता हं। क्योंकि इसी शब्द की वजह से उन दिनों मुझे आत्मबल प्राप्त हुआ था। वो किसी के लिए भी कैसे हों। लेकिन अपने लिए एक बेहद संजीदा इंसान थे। एक बेहद ज्ञानी पुरुष । और सबसे बड़ी बात वे एक बहुत अच्छे श्रोता भी थे।

अविनाश वाचस्पति said...

डिलीट नहीं किया
किया है हिडन
आपने मन में
लिया है बसा
यही है बसने
रचने का मजा।