फॉल विंटर की छोटी सी शाम दिन के रजिस्टर में अपनी हाजिरी लगा रही थी। दिन अपनी शिफ्ट खत्म कर चुका था और सूरज ड्यूटी पूरी कर पश्चिम में गोता लगा चुका था। सर्दी की शुरुआती ठुनक लिए कुदरत करीने से थी। सब तरतीब में, सिवा शहर के। आप चाहकर भी घड़ियों से होड़ करते शहरों को तरतीब में नहीं लगा सकते। घड़ी की सुइयों से लड़ते शहरों की आपाधापी सड़क पर ट्रैफिक बनकर बेतरतीब फैल जाती है। इसी आपाधापी के बीच वो अपनी बाइक पर धीरे-धीरे सरक रहा था। अक्टूबर की शाम ट्रैफिक पॉल्यूशन के बीच ठंड की आहट का अहसास करा रही थी। सामने रेड लाइट थी। थमने के लिए बाइक रेंग रही थी, लेकिन उससे पहले ही ठिठक गई। रेड लाइट से पहले एक रेड टी शर्ट की तरफ उसका ध्यान गया था।
चाल तो जानी-पहचानी है। बाल भी वैसे ही खुले। हां, हां वही तो है। बाइक थम गई थी। पीछे के कामकाजी लोगों ने घर पहुंचने की जल्दी में उसे निठल्ला और फुर्सतिया समझ हॉर्न बजाने शुरू कर दिये थे। वो डरा था, घबराया सा, हॉर्न की आवाज़ से नहीं बल्कि उसकी एक झलक से। बाइक फिर उन बेतरतीब लाइनों में चलने लगी। सिग्नल पर ठहर चेहरे से पसीना साफ किया। अचानक गर्मी बढ़ गई थी। ऐब शाम का नहीं नज़रों का था। सिग्नल पार कर सोचा कि एक कॉल कर ले लेकिन घबराहट हैंगओवर की तरह दिमाग में ठहर गई। बस ऐवईं एसएमएस टाइप किया और उस नंबर पर सेंड कर दिया जिस पर चाहते हुए भी एसएमएस करना नहीं छोड़ पाया था। अब वो भीड़ में तन्हा था। कोटर में बैठे उल्लू की तरह, दुनिया देखते, दुनिया के बीच तन्हा। जगजीत सिंह कान के पास गुनगुना रहे थे। आज फिर आपकी कमी सी है...। तुम क्यों चले गए जगजीत! अभी तो तमाम अहसासों को आवाज़ में पिरोना था। सोचते-सोचते यादों के पत्थर उलटने लगा।
बात उन दिनों की है जब उदारवाद के रास्तों ने वाया अमेरिका हमारे लिए NSG के दरवाज़े खोल दिए थे। ग्लोबल वॉर्मिंग दुनिया के लीडरों के माथे पर उतर आई थी और कोपेनहेगन की सर्द हवाओं में धरती ठंडी करने के लिए चर्चा हो रही थी। तमाम तरह के राजनीतिक और कूटनीतिक कयास ख़बरिया चैनलों के पर्दों पर तैर रहे थे। न्यूज़रूम बहसबाड़े बने थे और की-बोर्ड को फुर्सत नहीं थी। ख़बरें पढ़ना-लिखना उसका शौक था और बगल में दि हिंदू की एक कॉपी दबाए ऑफिस पहुंचता था। उसका नया-नया प्रमोशन हुआ था। कॉपी राइटर से कॉपी एडिटर बना दिया गया था। सीनियर्स का रूबाब था। कॉपी राइटर्स बचते थे उनसे और अधिकतर कॉपियां उसी के सामने आती थीं। सीनियर्स कहने लगे थे, क्या बात है, आजकल बहुत डिमांड में हो। वो हंसकर अनदेखा कर दिया करता।
शायद इत्तेफाक था कि उस दिन वो कॉपी चेक कराने उसकी डेस्क पर आ गई। कुर्ते में सजी, खुले बाल। उसके चेहरे पर रसखान के दोहे जीते थे। उद्धौ! मन न भये दस-बीस...। सोचने लगा, चेहरा है या रूमानियत समेटे ग़ज़लों के मुलायम हरुफ़। इतने करीब होने का पहला अहसास था वो। वो एक लौ जलती छोड़ गई थी उसके आस-पास कहीं। जिसकी नर्म आंच उसे बाद तक महसूस होती रही। एंटरटेनमेंट की गॉसिप कॉपी थी। सिनेमा तो पढ़ा था, लेकिन यह सिनेमा तो नहीं। कलावादी और समानांतर सिनेमा आंदोलन से अलग यह बाज़ार का सिनेमा था। नई आर्थिक नीतियों के आने के बाद जिसने शाहरुख़ ख़ान जैसे बेहूदा कलाकार को यूथ आइकन बनाया। सोचा, अब शायद टाइम्स ऑफ इंडिया का सप्लीमेंट भी पढ़ना पड़ेगा। अपनी बौद्धिक लीक से हटना उसका पहला झुकाव था।
मोहब्बत भले नाज़ुक चीज़ हो लेकिन बुद्धि को आराम से कुचल देती है। विमर्शों को निकालकर भावनाओं को लफ़्जों में उतार देती है। सिंगल कमरे में रूममेट के साथ दारू-दक्कड़ की महफ़िलों में अब बातों के रुख पलटने लगे थे। घर से बाहर रहने का पूरा फ़ायदा उठाते थे दोनों। अनलिमिटेड दारू और सिगरेट के लिए जिस एकांत की जरूरत होती है उसकी कमी उनके पास नहीं थी। कुलदीप नैयर, विमल जालान, गुहा, इंडियन कॉन्सटिट्यूशन, करंट अफ़ेयर्स अब कम आते थे ज़ुबान पर। अचानक मैला आंचल फिर से फैसिनेट करने लगा था। पाब्लो नेरूदा, रेणू और गुलज़ार एक नया मानस गढ़ रहे थे। दिन ब दिन रूमानियत बढ़ रही थी। हर चीज़ अपनी जगह करीने से लगती थी। किसी से कोई शिकायत नहीं थी। ऑफिस में घंटों का काम थकावट नहीं ऊर्जा देता था।
आप लाख छुपाना चाहें लेकिन नज़रें भेद दे ही देती हैं। उसके ख़ास साथियों ने आम सी एक बात को नये में अंदाज़ में पेश किया था। क्या माज़रा है, आजकल आपसे ही कॉपी चेक करा रही है? फ़िर गुलज़ार याद आ गए। बेवज़ह बातों पे ऐवईं ग़ौर करे...। छोटी-छोटी बातों से ही मोहब्बत के हैलुसिनेशन शुरू होते हैं। और उसके बीज पड़ चुके थे। हैलुसिनेशन के इन्हीं खेतों में उसके सपने पल रहे थे। वहम ज़िंदगी जीने के लिए बड़े काम की चीज़ हैं। इसी वहम के ज़रिये तो उसकी तकलीफ़ें ख़त्म हो गई थीं। कम वेतन, जीने के लिए संघर्ष, जहां-तहां अनुवाद का काम ढूंढकर गुज़ारे लायक पैसे जमा करना। फ़ाकामस्ती का मज़ा इसी वहम के सहारे तो चल रहा था।
प्रैक्टिकली यह एकदम बे-मेल जोड़ी थी। वो देहाती, फटीचर टाइप। एस्थेटिक प्यार पलकों पर उठाए घूम रहा था और वो एकदम शहराती। बोलने में नज़ाकत और अदा। दोनों एकदम ज़ुदा थे। सही में कहा जाए तो यह ‘जो डूबा सो पार’ का प्रीकैप ही था। इन सब बातों को जानते हुए भी उसे कहीं उम्मीद थी कि शायद वो अपने सपने पूरे कर लेगा। दुनियावी आपाधापी में अपने हिस्से का चांद ढूंढ लेगा और फिर उसी चांद से साझा करेगा कुछ ऐसी बातें जिनसे रोशनी का नूर टपके।
प्यार में हिम्मत भी आ जाती है। शायद इसलिए कि बुद्धि तो पहले ही खत्म हो जाती है। सही कहा है कि अविद्या साहस की जननी है। उस देहाती ऐस्थेटिक ने हिम्मत दिखाई और अपने अहसासों का पुलिंदा उस पर उड़ेल दिया। उसने जो सोचा सब उसका उल्टा ही हुआ। उसे अहसासों के बोझ तले दबना मंज़ूर नहीं था। सारी पेरशानियां दुगनी हो गई थीं। ज़ेहन से दिल का सफ़र एक लम्हे में तय किया जा सकता है लेकिन दिल से ज़ेहन तक लौटने में उम्र लग जाती है। कभी-कभी वापसी मुमकिन ही नहीं होती। इसी वापसी की राह पर निकल तो पड़ा था लेकिन रास्ते जैसे कहीं जाते ही नहीं थे। वो अपने छोटे-छोटे पापों की लिस्ट खंगालने लगा था। पॉएटिक जस्टिस में उसे पहली बार यकीन हो रहा था। दुनिया अपनी रफ़्तार से चल रही थी।
रात को बिस्तर पर लेटा वो आज के इत्तेफाक के बारे में सोच रहा था। क्यों मिल गईं तुम। क्यों मेरी यादों के खंडहरों को पलट दिया। यादें बिकती क्यों नहीं। दिमाग कंप्यूटर की हार्ड डिस्क क्यों नहीं। क्या यही इत्तेफाक फिर होगा, लेकिन शुरुआत दोबारा नहीं होती। दोनों एक बार फिर से चाहकर भी अजनबी नहीं बन सकते। बहुत चुप-चुप हो, क्या बात है? यह बीवी की आवाज़ थी। वो उसकी उंगली में पड़ी अंगूठी को घुमाते हुए कन्फेशन की स्क्रिप्ट तैयार करने लगा। जो अब तक अधूरी है।