Monday, February 8, 2010

संगदिल दिल्ली में दिल्लगी

चित्तरकार कई दिन से सड़कों से नदारद थे। गली, मोहल्ले और पार्कों के कोने उनके प्रेम में भीगने को तरस गए थे। सड़कों पर उनकी चप्पलों की रगड़ सुनाई नहीं दी तो चिंता हुई। जा पहुंचा ठौर पर। ज़नाब छाती पर ठुड्डी रखे गदही मुद्रा में सोच रहे थे। होठों पर पान के निशान उसी तरह बाकी थे जैसे युद्ध से लौटे किसी शूरवीर का सूखा खून। मैं हैरत में पड़ गया कि आख़िर कब से मोंटेक सिंह अहलूवालिया बन गए। योजना आयोग सी गंभीर मुद्रा में क्या विचार कर रहे हैं।

मैंने गला खंखारकर अपनी हाज़िरी लगाई। बेमन से बोले बैठो पत्तरकार। मैं बोला इतनी बेरुखाई से कहोगे तो क्या करुंगा बैठकर। बैठना हो तो बैठो, वरना अपना रस्ता नापो। आजकल ज़माना बेरुखाई का है। पाकिस्तान को देखो किस बेरुखाई से हमारे अमन के फाख्ते को फिदायीन बनाकर वापस करता है। हम भी ज़माने के साथ ढल रहे हैं। अब सबसे बेरुखाई से ही पेश आया करेंगे। एक खैनी दफ्तर दाख़िल करते हुए लाल ज़ुबान से शेर झाड़ा कि, क्या तेरी औक़ात है इस दुनिया में, रात के बाद भी एक रात है इस दुनिया में, शाख़ से तोड़े गए फूल ने हंसकर ये कहा, अच्छा होना भी बुरी बात है इस दुनिया में। इसलिए अच्छाई का वारफेर जूती से करने का मन बना लिया है।

मैं बोला आज क्या शासन व्यवस्था, लोकशाही, तंत्र, लालफीताशाही, बाज़ार की ऐन तेन करने का इरादा नहीं है? क्या बात है आज बड़े शायराना हुए जाते हो? आज क्या साम्यवाद की पीपड़ी बजाकर पूंजीवाद के खिलाफ बिगुल नहीं फूंकना? बोले सुनो जी, इतने सवाल एक साथ मत दागो नहीं तो तुम्हारे फेफड़े फट जाएंगे। हमारे शायराना होने पर तुम्हें क्यों चूने लग रहे हैं। अब बारी मेरे मुंह बनाने की थी, किसी तरह खुद को संभाल लिया और बोला कि कुछ माज़रा तो बताओ।

बोले कि हमने तमाम सुख भोगे, खूब घूमे फिरे मौज की शाद रहे। दिल्ली के तमाम रंग देखे। बाजार, मेले, ठेले, मूड्स ऑफ नाइट से लेकर मूड्स ऑफ डॉन (DAWN) तक। भारंगम देखा, थियेटर देखा, कॉफी हाउसों में बहस की, दोपहर को सेंट्रल पार्क में धूप सेंकी, शाम को रायसीना हिल्स की हवा खाई, इंडिया गेट, विज्ञान भवन पर चप्पल घिसे, फाक़े किए और गंड़ऊ ग़दर वाले सेमिनारों में पेट भरने की ख़ातिर चिल्लो च्याओं भी सुनी। स्साला एक रंग देखना बाकी था सो वो भी देख लिया। ज़नाब मैं ताड़ गया आप किस रंग की बात कर रहे हैं। चेहरा कंदमूल सा लटका है और ज़ुबान से गालियों समेत शायरी झड़ रही है, माने इश्क़ में हैं ज़नाब। हूं, हां मैं इश्क़ में हूं। चित्तरकार ने जवाब दिया।

मैं बोला ग़ज़ब कर दिया गुरू। संगदिल दिल्ली में हसीना से दिल्लगी कर बैठे, बड़ा जोख़िम लिया। बोले पत्तरकार चूतियापा मत बिखेरो। हम क्या तुम्हें GAY लगते हैं कि मर्दाना से दिल्लगी करके किसी सुलभ शौचालय या मेट्रो स्टेशन की आड़ ले रहे होते। हमने इश्क़ किया है। तमाम बेहतरीन एहसासों के साथ। संवेदनशील मामला है। हल्के में ट्रीट मत करो, नहीं तो बांस खोंस देंगे। एक तो पहले ही बेरुखी के मारे हैं अब तुमसे तो इतनी बेरुखी की उम्मीद नहीं थी। इतना कहकर रो पड़े। आंसू झड़े तो झड़ते ही चले गए।

जिसने त्रिकाल को ठोकर पर रखकर कसाले की ज़िंदगी जी हो उसे रोते देखकर लगा कि आख़िर ये भी इंसान है। या फिर इश्क़ और दिल दोनों ही कमीने होते हैं। जय हो बॉलीवुड। तुम सही कहते हो। समाज साला गाली समझे तो समझे और ग़ालिब शायरी का पलीता देखकर रोए तो रोए, लेकिन हमें तो तुम्हारी बात जंच गई। उधर चित्तरकार ने लीक होती नाक का माल मत्ता रुमाल से साफ करके बिस्तर पर पटक दिया। सुबकियां कम होती देख मैंने राष्ट्रीय चरित्र के मुताबिक मुफ्त की सलाह दागी। तो ज़नाब इज़हार कर दीजिए, क्यों हसरतें आंसुओं में ढालकर निकाल रहे हो।

बोले, कर दिया और लात भी खा ली। मेरी हंसी छूट गई। क्या कह रहे हो। तुम्हें किसी ने लात मार दी और तुम सहन कर गए। बोले रोग-ए-इश्क़, दिल का रोग़न निचोड़ लेता है। हमने किसी की खातिर अरमानों की बस्ती सजाई और वो इस बस्ती के छान छप्पर में माचिस खींच कर चली गई। किसी की खातिर आन ताक पर रखी और लात मारकर चली गई। कभी तुम्हें इश्क़ होगा तो जानोगे दर्द। मैं बोला चित्तरकार तुम्हारी ग़लती से मैंने सीख लिया कि क्या करना है और क्या नहीं। अब चित्तरकार को सहारे की ज़रूरत थी और एक ऐसा समीक्षक और आलोचक मुझसे इस प्रेम राग की समीक्षा करवाने की सोच रहा था जो हर बात का खरा निंदक, आलोचक और समीक्षक है। उसे इश्क़ और इसकी नाकामयाबी का सिरा नहीं सूझ रहा था। उसे लग रहा था कि सारे सपने चकनाचूर हो गए। सांस खींचकर सीना फुलाया और पिचकाया, फिर बोले कि जानता हूं तुम्हें मसाला दे दिया, ब्लॉग पर सियार की तरह हुआं हुआं करोगे। मैं बस मुस्कुरा भर दिया। केस हिस्ट्री सुनाकर मेरे दिमाग पर बड़े ही सीरियस मोड में सवाल चिपका दिया। बताओ, क्या है ये, और मैं क्या करूं?

मैं खुश हो गया पहली बार चित्तरकार ने पोडियम मुझे दिया था वरना मेरी बोलती बंद ही रखता था कंब्ख्त। हालांकि मुझे इश्क़-मुश्क़ का कोई खा़स तज़ुर्बा नहीं है और न ही मैंने इस विषय का सांगोपांग अध्ययन किया है लेकिन बोलने का मौका मैं नहीं छोड़ना चाहता था। चित्तरकार के हालात ट्रेज़डी किंग जैसे लग रहे थे। लग रहा था कि दिलीप कुमार ऐ भाई-ऐ भाई कहकर मदद मांग रहा है।

मैं बोला चित्तरकार तुम्हारी बातें तो लुभावनी हैं, लेकिन मेरे जैसों के लिए। लड़कियां बुद्धिजीवियों से दूरी बनाकर रखती हैं। उन्हें इंटेलेक्चुएलिटी नहीं राग लफंगा गाने वाले पसंद हैं। तुम साले हमेशा बौद्धिक पेचिश करके बदबू फैलाते हो। कोई क्यों आएगी तुम्हारे साथ, और तुम ही कहते हो चाणक्य का नाम लेकर कि सौंदर्य और मूर्खता प्रायः साथ चलते हैं। फिर कैसे भूल गए। यार सुनो, मैं बोला चुप रहो बे, मुझे बोलने दो। तुम्हारा क्या भविष्य है? साले सड़कों पर चप्पल खटकाते फिरते हो। क्या भरोसा आने वाला कल आज से बदतर हो। कोई क्यों दांव खेले तुम्हारे साथ। मोटा पर्स नहीं है, क्रेडिट कार्ड्स नहीं है, फटफटिया नहीं है। प्लास्टिक मनी के ज़माने में जेबों में चिल्लर छनछनाते फिरते हो। रही बात आन की तो आन की कोई कीमत नहीं, शान के दाम हैं। हुस्न शान पर मरता है। और कई शान वाले उसके दरवाज़े पर नाक रगड़ते हैं। जब मुफ्त में सोना मिले तो कोई रांगे पर क्यों अटके !

कभी डूड या हंक बने हो उसके सामने। इस बार बिफर पड़े चित्तरकार बोले साले हम क्या मोटरसाइकिल लगते हैं। मैं बोला हंक का एक और मतलब होता है मसलमैन। बोले हम क्यों जिम जाएं, लोहे से लड़ाई लड़ें। कीमती पसीना हमारा बहे और आमदनी हरामी जिम वाले की हो। मैं बोला जायज़ है। मत जाओ। फिर इश्क़-मुश्क मत फरमाओ। दिल्ली में दिमाग से इश्क़ करती हैं बालाएं, दिल से नहीं। तुम्हारे जैसे एस्थेटिक, देहाती और फटीचर प्यार को जूतियाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़तीं। इन्होंने अरमानों के जंग में लिपटे प्यार को हल्का फुल्का बनाकर उसमें एडजस्ट होने और उसका मज़ा लेने के लिए इस पर फ्रेंडशिप का पॉलिश चढ़ा दिया है। देखा कैसा चमक रहा है। बस और मेट्रो चकलाघर बन चले हैं। हर कोने में चुम्मा-चाटी हो रही है। तुम साले शादी का वज़न लाद रहे हो किसी पर। क्यों कोई सहन करेगी। अरमानों और अहसासों से हेविली लोडेड प्यार दिल्ली में फेल है भाई जी। अहसासों को दफ़न करो और उसे दिल दिमाग से दफा। पुस्तक मेला गया था तुम्हारे लिए सात सात माशूकाएं खरीदी हैं। लो थामों इन्हें उंगलियों के बीच और गड़ा दो इनके हुस्न पर निगाहें।

बोले पढ़ने का मन नहीं है यार। मैं भी ज़रा शायराना हो गया एक शेर झाड़ा कि, ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे आपको तीनों बलाओं से, तबीबों से वक़ीलों से हसीनों की निगाहों से। कहकर उठा तो बोले ठहरो मैं भी चलता हूं। बाहर पान की दुकान से एक पान गाल में दबाकर दीवार पर धार मारने चल दिए। मुझे लगा कि इन जैसों की वज़ह से ही आज भी रागदरबारी प्रासंगिक और कालजयी रचना है। असली आधुनिक और खांटी भारतीय का मिश्रण हैं, कहीं भी पान की दुकान और पेशाब करने की जगह ढूंढ ही लेते हैं। फिर तसल्ली से सोचा तो पता लगा कि वक़्त का हकीम बड़ा कारसाज़ है हर ज़ख़्म पर मरहम लगा देता है। ये भी उबर जाएगा।